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सबाल्टर्न स्टडीज - दिलीप सीमियन

दिलीप सीमियन श्रम-इतिहास पर काम करते रहे हैं। इनकी पुस्तक ‘दि पॉलिटिक्स ऑफ लेबर अंडर लेट कॉलोनियलिज्म’ महत्वपूर्ण मानी जाती है। इन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन किया है और सूरत के सेन्टर फोर सोशल स्टडीज एवं नेहरू मेमोरियल लाइब्रेरी में फैलो रहे हैं। दिलीप सीमियन ने अपने कई लेखों में हिंसा की मानसिकता को विश्लेषित करते हुए शांति का पक्ष-पोषण किया है। वे अमन ट्रस्ट के संस्थापकों में हैं। हाल इनकी पुस्तक ‘रिवोल्यूशन हाइवे’ प्रकाशित हुई है। भारत में समकालीन इतिहास लेखन में एक धारा ऐसी है जिसकी प्रेरणाएं 1970 के माओवादी मार्क्सवादी आन्दोलन और इतिहास लेखन में भारतीय राष्ट्रवादी विमर्श में अन्तर्निहित पूर्वाग्रहों की आलोचना पर आधारित हैं। 1983 में सबाल्टर्न अध्ययन का पहला संकलन आने के बाद से अब तब इसके संकलित आलेखों के दस खण्ड आ चुके हैं जिनमें इस धारा का महत्वपूर्ण काम शामिल है। छठे खंड से इसमें संपादकीय भी आने लगा। इस समूह के इतिहासकारों की जो पाठ्यवस्तु इन संकलनों में शामिल है उन्हें ‘सबाल्टर्न’ दृष्टि के उदाहरणों के रुप में देखा जा सकता है। इस इतिहास लेखन धारा की शुरुआत बंगाल के

अरुंधति राय से आशीष महर्षि की बातचीत

जानी-मानी लेखिका और बुकर सम्मान से सम्मानित अरुंधति राय जब भी कुछ लिखती हैं या फिर बोलती हैं तो वे विवादों से घिर जाती हैं। वे अपनी बेबाक टिप्पणी के लिए पूरी दुनिया में जानी जाती हैं। इस इंटरव्यू के दौरान अरुंधति ने न सिर्फ विस्थापन पर बेबाकी से अपनी बात रखी बल्कि अयोध्या फैसले,केन्द्र सरकार और भाजपा कांग्रेस की नीतियों पर भी सवालिया निशान लगाया है। अरुंधति से खास बातचीत की आशीष महर्षि ने। प्रस्तुत हैं इस बातचीत के प्रमुख अंश- पूरे देश में बड़े पैमाने पर विस्थापन हो रहा है। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में कहीं भी कोई भी बच्चों के अधिकारों की बात नहीं कर रहा है। ऐसी परिस्थिति में बच्चे न तो घर वालों की प्राथमिकता में रहते हैं और न सरकार की। लोग खुद की जिंदगी को बचाने में ही लग जाते हैं। लेकिन सबसे अधिक अफसोस की बात यह है कि सरकार की जिम्मेदारी है कि वह हरेक के मूल अधिकारों की न सिर्फ रक्षा करे बल्कि वह देखे कि हर बच्चे को शिक्षा व स्वास्थ्य से जोड़ा जाए। लेकिन हो नहीं रहा है। विस्थापन को आप किस प्रकार से देखती हैं, खासतौर से जंगलों से जिन लोगों को बेदखल किया जा रहा है। संविधान में साफ शब

जाति गणना के निहितार्थ - राजाराम भादू

इस दशक (2010) की जनगणना में दो ऐतिहासिक चीजें होने जा रही हैं। इनमें एक है जातिवार जनगणना और दूसरी है हर व्यक्ति का विशिष्ट परिचय पत्र (यूनिक आइडेन्टिटी कार्ड)। हम पहली परिघटना पर विमर्श में शामिल होना चाहते हैं। जाति आधारित जनगणना कहते हैं कि आखिरी बार 1930 में हुई थी, उसके बाद इसे बंद कर दिया गया। भारतीय संविधान में सकारात्मक सक्रियता (अफर्मेटिव एक्शन) के चलते आरक्षण का प्रावधान करते समय जातियों को आधार न बनाकर इनकी अनुसूचित श्रेणियों को आधार बनाया गया था। संविधान निर्माताओं की संकल्पना थी कि देश से जल्दी ही जातियां तिरोहित हो जायेंगी। हम देखते हैं कि संविधान लागू होने के छह दशक बाद भी भारतीय समाज में जाति व्यवस्था और मजबूत हुई है। इसके कारणों का गंभीर विश्लेषण भले ही न हुआ हो लेकिन जन्नत की हकीकत हम सभी जानते हैं। इन दशकों में जातियों की गणना की मांग भी उठती रही है। विशेषकर आरक्षण के संदर्भ में अक्सर जातियों की सही संख्या पता करने की बात की जाती है। मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद से पिछड़ों की जनसंख्या को लेकर न्यायालय ने भी जाति आधारित जनगणना पर अपनी राय का इजहार किया था। अभी