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मीमांसा संस्कृति पर केन्द्रित बुलेटिन वर्ष: दूसरा                  अंक: तीसरा                नवम्बर-दिसम्बर, 2010

कविताएं - सुभाष सिंगाठिया

सुभाष सिंगाठिया ने शिक्षा में ‘हिन्दी साहित्यिक पत्राकारिता और स्त्री विमर्श’ पर लघु शोघ व ‘हिन्दी स्त्री-कविता में स्त्री-स्वरः एक विमर्श’ पर स्वतंत्र शोध किया। इनकी रचनाओं के दिल्ली दूरदर्शन, जयपुर दूरदर्शन एवं आकाशवाणी पर प्रसारण हुये हैं। सुभाष ने वर्षो ‘प्रशान्त ज्योति’ के साहित्यिक परिशिष्ट का संपादन किया। अभी तक साहित्यिक पाक्षिक ‘पूर्वकथन’ के संपादन में संलग्न हैं। सम्पर्क: 15 नागपाल कॉलोनी, गली नं. 1, श्रीगंगानगर- 335001 मो.: 9829099479  प्रसि( आलोचक स्व. शुकदेव सिंह ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था कविता मूलतः और अंततः भाषा होती है। कवि सुभाष सिंगाठिया की कविता पढ़ते हुए यह बात बरबस याद आ गयी। हांलाकि शुकदेव सिंह ने अपनी बात को खोलते हुए इसी साक्षात्कार में कविता में विन्यस्त संवेदना, विचार, सौंदर्यशास्त्र आदि की भी बात की थी किंतु उनकी कही ये पंक्ति आज भी मेरे जेहन में कांेधती हैं। सोचता हूं कविता को अंततः और मूलतः भाषा मानना कविता की आलोचकीय दृष्टि के चलते कहां तक न्याय संगत है? सुभाष सिंगाठिया की कविताओं में भाषा अपनी व्यावहारिकता में अंशिक सघन, गूढ़ और संस्कारित नज

कविता और टिडिडयों का बवाल-अनिरुद्ध उमट

(संदर्भ-भूमण्डलीकरण और कविता की चुनौतियां) अनिरुद्ध उमट एक प्रयोगशील रचनाकार हैं। उनके उपन्यास, कहानी व कविता संकलनों ने अपनी विशिष्टता के चलते ध्यान खींचा है। इकहरी अभिव्यक्ति के इस दौर में उनकी कृतियां अपनी संश्लिष्टता और बहुपर्ती आशयों के चलते पाठक एक अलग कलात्मक अनुभव से गुजरता है। सृजन के प्रति गहरी सभ्यृक्ति रखने वाले अनिरुद्ध इस तरह का गद्य कभी-कभार लिखते हैं। फिक्रे दुनिया में सर खपाता हूँ मैं कहाँ और ये बवाल कहाँ - मिर्जा ग़ालिब ‘मानवीय नियति हमारे समय में अपने को अनिवार्यतः राजनीतिक शब्दावली में व्यक्त करती है।’ -टॉमस मान भूमंडलीकरण और उसकी चुनौतियाँ जैसे नितान्त राजनीतिक क्षेत्रा से जुड़े इन दिनों के चर्चित-प्रिय-बिकाऊ विषय पर जहाँ एक से एक तर्क-कुतर्क बेहद सधे अन्दाज में इसके विशेषज्ञ करते हैं और इस जानी-पहचानी सरल सी पहेली को और जटिल बनाते-सुलझाते लगभग निरुपाय या बेहद समर्थ हो हमारे सामने प्रकट होते हैं, उसी विषय पर एक ऐसी विधा के व्यक्ति से पूछना जो विधा अपने में सर्वस्व है और सर्वस्व के कणकण में स्वयं को समाहित-स्पंदित पाती है, बेहद चतुराई भरा उपक्रम लगता है। जैसे

कालबेलिया-नागरिकता का सवाल

नवीन नारायण ने जे.एन.यू. नयी दिल्ली से उच्च शिक्षा ली है। वे दलित मुद्दों पर लिखते रहे हैं। फिलहाल एक्शन एड इंडिया जयपुर में कार्यरत है। मोबाइल: 9413340889 ई-मेल: navin.narayan@actionaid.org     राजस्थान का कालबेलिया समुदाय पारंपरिक रुप से दो कामों से जुडा रहा है- सांप दिखाना और पत्थर घिसाई। इस पेशे की प्रकृति के हिसाब से ये लोग गांव-गांव घूमते रहते, ग्रामीणों का मनोरंजन करते। इसके बदले, अपनी आजीविका की दो मुख्य आवश्यकताओं के लिए गांव वाले इन्हें रोटी (जो प्रायः बासी या बची हुई होती) और कपडे (जो उतरन होते) दे देते थे। इस तरह, पूरा परिवार समूहों में घुम्मकड जीवन बिताता रहा और कहीं एक जगह ठिकाना बनाकर नहीं रहा। कालान्तर में मनोरंजन के सामाजिक रुपों में परिवर्तन आया। मनोरंजन के पारंपरिक रुपों की जगह नये टेलिविजन और सिनेमा जैसे सशक्त माध्यमों ने ले ली। इन दिनों समाज में पारंपरिक कलाओं का दर्शक वर्ग कहीं खो गया। इस परिवर्तन का कालबेलिया समुदाय पर दो तरह से असर हुआ। एक तरफ वे अपना पारंपरिक पेशा छोडने पर विवश हुए और दूसरी ओर उन्हे भीख मांगने के लिए मजबूर होना पडा। इसके नतीजे में वे एक ज

अलवर में फिल्म समारोह

मौजूदा समय का मुम्बइया सिनेमा देश के जमीनी यथार्थ से पूरी तरह कट चुका है। अब यह भारत ही नहीं इंडिया का सिनेमा भी नहीं रहा। जबकि विडम्बना यह है कि जो लोग बेहतर फिल्में बनाते हैं उन्हें बाजार बहिष्कृत कर देता है। ऐसे में सार्थक फिल्मों को सही दर्शकों तक पहुँचाने के लिए जन हस्तक्षेप जरुरी हो जाता है। सार्थक सिनेमा को लोकप्रिय बनाने के लिए अमन दिल्ली और समान्तर जयपुर ने मिलकर एक प्रयास शुरु किया है। अलवर में फिल्म समारोह इसी उपक्रम का हिस्सा था। अलवर में इस समारोह का आगाज ‘मई दिवस’ (1 मई 2010) को श्रमिक समस्या और विस्थापन से जुडी फिल्मों व उन पर विमर्श से हुआ। ऐसे समय में यह उपक्रम और भी महत्वपूर्ण हो जाता है जब मजदूर और किसानों के मुद्दे कहीं पृष्ठभूमि में जा रहे हैं। इस फिल्म समारोह की शुरुआत पहली मई 2010 को सुबह दस बजे अलवर के सामान्य चिकित्सालय स्थित आई.एम.ए. हॉल में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एन.एस.डी.) दिल्ली के स्कॉलर और रंगकर्मी दौलत वैद्य ने दीप प्रज्वलित कर की। कार्यक्रम की शुरुआत में अमन पब्लिक चेरिटेबिल ट्रस्ट के निदेशक जमाल किदवई ने कहा कि कुछ ऐसी फिल्में हैं जिनका समाज पर ग

'द प्लैनेट अर्थ' का लोकार्पण

नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, नयी दिल्ली मानव संसाधन विकास मंत्रालय-भारत सरकार के अधीन एक स्वायत्त संस्थान है जो हिन्दी व अंग्रेजी में ज्ञान-विज्ञान और कला-संस्कृति पर भारतीय भाषाओं में लिखी स्तरीय और उत्कृष्ट पुस्तकों को प्रकाशित और वितरित करता है। इसी के साथ नेशनल बुक ट्रस्ट पुस्तक लेखन और पढ़ने की संस्कृति विकसित करने के लिए संवाद व कार्यशालाएं भी आयोजित करता रहा है। बच्चों के लिए ज्ञान-विज्ञान और सृजनशील साहित्य को प्रोत्साहित करने के लिए नेशनल बुक ट्रस्ट में अलग से राष्ट्रीय बाल साहित्य केन्द्र स्थापित किया गया है जहां से पाठक-मंच बुलेटिन का नियमित प्रकाशन किया जाता है। नेशनल बुक ट्रस्ट ने हाल के वर्षों में अपनी गतिविधियों को दिल्ली से बाहर विस्तारित किया है। इस क्रम में नये प्रकाशनों के लोकार्पण दिल्ली से बाहर किये जा रहे हैं। ‘द प्लेनेट अर्थ’ का लोकापर्ण 23 अगस्त 2010 को राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी सभागार, जयपुर में किया गया। इस अवसर पर पुस्तक पर चर्चा और प्रश्नोत्तरी का भी आयोजन किया गया। यह कार्यक्रम नेशनल बुक ट्रस्ट और समान्तर के संयुक्त तत्वावधान में सम्पन्न हुआ। एस.एम.माथुर क

स्मृति-शेष

सुष्मिता बनर्जी का परिवार बहुत वृहद है जिसके कुछ सिरे देश से बाहर तक फैले थे। ये बहुत विविधतापूर्ण और समृद्ध परिवार है जो उन्होंने ही बनाया है। इससे उनके बहुआयामी, आकर्षक और सृजनशील व्यक्तित्व को जाना जा सकता है। उनके ना रहने पर शोक समारोह (इसे ‘समारोह’ ही कहना ज्यादा ठीक है, सुष्मिता खुद समारोह का शायद ही कोई अवसर जाने देती थीं।) को ‘हमारी सुष्मिता’ नाम दिया गया। इसी नाम से एक ब्लॉग भी बनाया गया। यह उपक्रम सुष्मिता के अर्जित परिवार की सामूहिकता की अभिव्यक्ति है। लेकिन हम उनके व्यक्तित्व की उस खूबी को भी रेखांकित करना चाहते हैं जिसके चलते हर जना उनमें अपनी सुष्मिता भी पाता है। वे अपने परिवार के हर सदस्य को दूसरों से मिलाने के सहज अवसर देखती रहती थीं। लेकिन हरेक की निजता के प्रति भी बहुत सचेष्ट रहती थीं। यही कारण है कि कोई भी उनसे बेझिझक और अपनापे के साथ अपना अंतरंण शेयर कर सकता था। और शायद यही उनसे रिश्ते की मजबूती का आधार भी था। सुष्मिता कई कार्यों के लिए जानी जाती हैं। हमने उन्हें कवि, रंगकर्मी, शोधकर्ता, संपादक और एक्टिविस्ट के रुप में देखा है। हमें दो बार उनकी कविताओं को सामने लाने