सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

मई, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

अबोली की डायरी- जुवि शर्मा

डायरी अबोली की डायरी- जुवि शर्मा किसी ने कहा है, जो अदृश्य को देख सकते हैं वही उसे संभव भी बना सकते हैं। जुवि ने अपनी डायरी में अवसाद की दारुण यातना को अभिव्यक्त किया है। सृजन के लिए अवसाद का पुनरावलोकन भी कम विषादकारी नहीं रहा होगा। सृजन ने उनके आत्मसंघर्ष में अन्त: शक्ति का काम किया है। इस क्रम में जुवि ने अपने अस्तित्व की तलाश भी की है। हिन्दी की डायरी विधा में एक और नवोन्मेष।                 - राजाराम भादू 27 जून 1993 सेवंथ ' बी ' ढूंढ़ते ढूंढते गीला स्कर्ट पानी टपकाता और गीले चमड़े के जूते पच - पच करते चरमराने लगे थे , रिपटने के डर से मैं बेबी स्टेप्स चल रही थी । क्लास मिलते ही किताबें निकालकर , बैग पंखे के नीचे सुखने छोड़ दिया  और फटाफट अपनी मेज़ चुन ली । बारिश से व्यथा यह थी कि कपड़ें बचाए या किताबें ; वो भी जब किताबें दो साल पुरानी जुगाड़ की हुई हो , मैंने किताबों को प्राथमिकता दी   । माँ , " बरसाती जूते खरीदने पड़ेंगे , चमड़े के जूते भीग भीग कर सड़ जाएंगे और इनमें पानी भर जाता है , फिर इनकी चु  - चु से मुझे शर्म आती हैं " ...

सारिका पारीक 'जुवि' की कविताएँ

संभावना सारिका पारीक 'जुवि' की कविताएँ रहस्य के एक अपरिभाषित आवरण से ढंकी रहती हैं। इनमें अन्तर्मन पर पडी यथार्थ की प्रतिच्छाया और प्रति- छवियां हैं। उन्हे समझ सकना थोडा मुश्किल होता है लेकिन उसी से जुवि की कविताओं के पाठ का रास्ता खुलता है। इन कविताओं में दि ब्लडी कर्स का अभिशप्त अंधेरा है। कैसी विडम्बना है कि जुवि जैसी युवा कवि की कविताओं में मृत्यु की छाया जहां- तहां डोलती रहती है। यह अलग बात है कि इसी के कन्ट्रास्ट में वहाँ जीवन दीप्तिमान है। कविता और सृजन के प्रति जुवि का दृढ विश्वास चकित करता है और इससे उपजे बिम्ब एक ऊष्म और आवेशित प्रतीति से हमें आच्छादित कर देते हैं। मैं मसखरा बनना चाहती थी ----------------------------------- शीर्षाशन पर पहुँचकर आइने में जब अपना   बालिश्त जितना ही प्रतिबिंब देखा एक सेकंड को विचार आया नदियों का अस्तित्व सागर है आंखों का खारा पानी कहां जाता होगा ? शुभ अश्लेषा नक्षत्र में  क्यों न आंखों को उसका पानी लौटा दिया जाएं तेरा तुझ को अर्पण वाली तर्ज़ पर  निस्सारता जब चरम शिखर पर हो ऐसी ही अंट - शंट बिंब प्रज्वलित होते है और प्रस्फुटित हो...

जाति का उच्छेद : एक पुनर्पाठ

परिप्रेक्ष्य जाति का उच्छेद : एक पुनर्पाठ                                                               ■  राजाराम भादू जाति का उच्छेद ( Annihilation of Caste )  डॉ॰ भीमराव अम्बेडकर की ऐसी पुस्तक है जिसमें भारतीय जाति- व्यवस्था की प्रकृति और संरचना को पहली बार ठोस रूप में विश्लेषित किया गया है। डॉ॰ अम्बेडकर जाति- व्यवस्था के उन्मूलन को मोक्ष पाने के सदृश मुश्किल मानते हैं। बहुसंख्यक लोगों की अधीनस्थता बनाये रखने के लिए इसे श्रेणी- भेद की तरह देखते हुए वे हिन्दू समाज की पुनर्रचना की आवश्यकता अनुभव करते हैं। पार्थक्य से पहचान मानने वाले इस समाज ने आदिवासियों को भी अलगाया हुआ है। वंचितों के सम्बलन और सकारात्मक कार्रवाहियों को प्रस्तावित करते हुए भी डॉ॰ अम्बेडकर जाति के विच्छेद को लेकर ज्यादा आश्वस्त नहीं है। डॉ॰ अम्बेडकर मानते हैं कि जाति- उन्मूलन एक वैचारिक संघर्ष भी है, इसी संदर्भ में इस प्रसिद्ध लेख का पुनर्पाठ कर रहे हैं- र...