संभावना
घूमती गुड़िया को परे ढकेल देना
रामगढ राजस्थान में जन्मी सारिका पारीक 'जुवि ' वर्तमान में मुंबई में रहती हैंं । प्रमुख पत्रिकाओं ,वेब पोर्टल एवं समाचार पत्रों में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित हुई है । ' सीप के मोती ' नामक काव्य संकलन भी प्रकाशित हो चुका है ।
सारिका पारीक 'जुवि' की कविताएँ रहस्य के एक अपरिभाषित आवरण से ढंकी रहती हैं। इनमें अन्तर्मन पर पडी यथार्थ की प्रतिच्छाया और प्रति- छवियां हैं। उन्हे समझ सकना थोडा मुश्किल होता है लेकिन उसी से जुवि की कविताओं के पाठ का रास्ता खुलता है।
इन कविताओं में दि ब्लडी कर्स का अभिशप्त अंधेरा है। कैसी विडम्बना है कि जुवि जैसी युवा कवि की कविताओं में मृत्यु की छाया जहां- तहां डोलती रहती है। यह अलग बात है कि इसी के कन्ट्रास्ट में वहाँ जीवन दीप्तिमान है। कविता और सृजन के प्रति जुवि का दृढ विश्वास चकित करता है और इससे उपजे बिम्ब एक ऊष्म और आवेशित प्रतीति से हमें आच्छादित कर देते हैं।
इन कविताओं में दि ब्लडी कर्स का अभिशप्त अंधेरा है। कैसी विडम्बना है कि जुवि जैसी युवा कवि की कविताओं में मृत्यु की छाया जहां- तहां डोलती रहती है। यह अलग बात है कि इसी के कन्ट्रास्ट में वहाँ जीवन दीप्तिमान है। कविता और सृजन के प्रति जुवि का दृढ विश्वास चकित करता है और इससे उपजे बिम्ब एक ऊष्म और आवेशित प्रतीति से हमें आच्छादित कर देते हैं।
मैं मसखरा बनना चाहती थी
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शीर्षाशन पर पहुँचकर
आइने में जब अपना
बालिश्त जितना ही प्रतिबिंब देखा
एक सेकंड को विचार आया
नदियों का अस्तित्व सागर है
आंखों का खारा पानी कहां जाता होगा ?
शुभ अश्लेषा नक्षत्र में
क्यों न आंखों को उसका पानी लौटा दिया जाएं
तेरा तुझ को अर्पण वाली तर्ज़ पर
निस्सारता जब चरम शिखर पर हो
ऐसी ही अंट - शंट बिंब प्रज्वलित होते है
और प्रस्फुटित होता है
व्यंग , ठहाका , अट्टहास.......
चूंकि विकृतियों में लिप्त मनुष्य के लिए
हँसना अनैसर्गिक क्रिया था
मैं मसखरा बनना चाहती थी
अडूहल के फूलों से सुसज्जित स्यंदन पर तुरही बजाती
किसी शातिर मसखरे की माफ़िक
मेरे ठहाकों को गुरुत्वाकर्षण का वरदान मिल जाएं तो ?
आंतरिक समुचें दुख मुंह से फेन बनकर बह निकलें
रजनी किंकरी बन द्वार पर गीत गुनगुनाती रहें
अफलातूनी अकल्पनीय अव्यवस्थित कल्पनाएं
चेतना लौटने के बाद
किसी अमर्त्य बीजक के खुरों से
उड़ती विचारों की गर्द भर ही है ........
( सभी चित्र- अमित कल्ला )
मुझे मृत्यु भोज चाहिए
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पहली बार मरने की जब सोची थी
सारूप्य
पहली बार लिखनें की भी सोची होंगी
दोनों ही विकल्प समदर्शी थे
जीने के लिए लिखना श्रेयस्कर था
जीवन का एकमात्र मूलमंत्र
अलभ्यता सर्वश्रेष्ठ मानी गई
और कमतर दुत्कार दिया गया
इस भेड़चाल की शुरुआत किसने की ?
चींटी के मरने पर शोक नहीं हुआ करते
गधे बोझ ढोते ढोते कब दफना दिए गए किसी ने नहीं देखा
सिंधु घाटी सभ्यता में चींटियों की प्रार्थना सभाएं
गधों के मृत्यु भोज की कहीं व्याख्या नहीं
किंतु मुझे मृत्यु भोज और प्रार्थनाएं दोनों ही चाहिए
क्योंकि कविताएं ही वो चकमक पत्थर थी
जिसनें गीली लकड़ियों को बुझने नहीं दिया
जिनकी कोई वृति नहीं थी
शोक सभा में उनकी कविताएं पढ़ी जाएंगी ....
एक नई उड़ान
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सबसे ज़्यादा
कविताएं
नींद न आने पर लिखी जाती होंगी
बगैर कोई आडम्बर के
तारों में लिपटी
प्रथम मिलन की रात्रि सी
लजाती सकुचाती
अबोल भावनाएं
रात्रि का वह अंतिम पहर
जब मंदिरों के द्वार पर लटका
मनौतियों के सिंदूर से लीपा - पुता ताला
स्वयं के अस्तित्व की गणना कर रहा होता है
कितना धर्म शेष रह गया हैं ?
सामने फुटपाथ की दीवारों पर एक बच्चा
पक्के पेंट से रंगता
देश की प्रगति का कोई नया नारा
इन सारे मसलों में खोया
दड़बे पर पड़ा
कनस्तर सा
सफेद पन्नों पर अपनी वैमनस्यता
सिंचन करता
आत्मउन्नति हेतु
कलम से उड़ेल देना चाहता है
जो भोगा है उसने
निरुद्वेग हो
शेष निद्रा को आत्मसमर्पण कर
अचिर अवस्था में
अपने शब्दों से
चरम सूख को प्राप्त
कल्पना करता है
कुछ नए संकल्पों का समाज
तिरोहित होती मानवता को
सबल होने की
अपने शब्दों को देने
एक नई उड़ान ...
मैं केवल लिख सकती हूं
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दिमाग रिक्त
उंगलियां जड़ होने लगी है
ऊपर देखती हूं
किसी बड़े सल्लुलोइड स्क्रीन पर
तुम नज़र आते हो
मेरे होंठ
तुम्हारें होठों पर
तब तक
समर्पित रहते है
जब तक उन्हें
किसी एंटीक फ्रेम में
मड़ न लिया जाएं
हाथ की
जकड़ हल्की न हो
जब तक मैं कलम न उठा लूं
कुछ लिखनें न लगूं
मैं केवल तुम्हें देख सकती हूं
सफेद पर्दे पर
तुम्हारा हँसना
और मुझे हँसाना
बाकी सारी दुनिया
खाली हो चुकी है
केवल हमारी आवाज़ें
एक दूसरे से टकराकर
परस्पर मिल रही है
आंखें बंद है
मैं केवल लिख रही हूं
मेरे रोज़नामचों के किस्सों में
अब एक ही रील
अनवरत घूमती जा रही है
मैं खुश हूं
तुम्हारी ज़मीन पर
एक सुरक्षित सुखद अनुभव कर पाती हूं
मेरे अधखुले तितर बितर पंख
तुम्हें समेटना चाहते है
लिखना चाहते है
एक अपूर्ण पूरक प्रेम
जिसकी संतुष्टि
मात्र तुमको सोचने में है
क्योंकि
तुम वेदना से उपजा
समग्र निरंजन
शाश्वत
केवल प्रेम भाव भर हो .....
दो ग़ज़ ज़मीन
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प्रायश्चित
हर बार चूक गया
आत्मा के प्रारब्ध में विद्रूपता की लकीरें हो तो
मिट्टी अनगढ़ ही धरी रह जाती है
भाव रिक्त कच्चे घड़े की भांति
उन पर चस्पाई हुई गंदी झूठी उंगलियों के दाग़
एल्युमीनियम के तारों से हज़ार बार घिस चुकने के बाद भी
अरे ! और मैली हो गई
कोई ठौर नहीं
भौचकी सी
अधिरोपित चेतना के विदीर्ण स्वर
आह ! रक्षा देव
" कोरी चुनरिया आत्मा मोरी"
कोरापन अब मुक्ति की अच्च्युत अभिलाषा में
मांग रहा हाथ फैलाए
दो गज जमीन और मुट्ठी भर फूल
मेरी सबसे उदास कविताएं
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" द ब्लडी कर्स "
अंधेर घुप्प कमरें में
आवाज़े तैरती है
इनका कोई अर्थ नहीं
काली कथाओं की
उज्ज्वल उदासियां
कोई भाषा नहीं
वो रो सकती है
या लिख सकती है
मेरी कविताओं ने सारे आंसू चुरा कर
किसी निशाचर को
सस्ते दामों पर बेच दिए
रोना भूलकर कोई कब तक जिंदा रह पाएगा
घृणित कलुषित कविताओं का पोथा
जिनका कोई मैटर नहीं
अब मोटी दुखद डायरी बनती जा रही है
आस्थाओं का अडिग आधारस्तंभ
जो हमेशा दुख की हथेली पर पनपा
और फलता फूलता गया
इस श्वेत आत्मा को
विखंडित कर
खंडों में प्रेषित नहीं किया जा सकता
किताबें बिकने के लिए लिखी गई
लेकिन आत्मओं के विदीर्ण स्वर कौन पढ़ेगा ?
घातक सपनों की मेरी सबसे उदास कविताएं....
सपनों की श्रंद्धाजलि
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कभी पंखा देखा है ?
चारों पंख हाथ मिलाएं
अपना जड़त्वीय मान भंग नहीं होने देते
अपनी आवृत्ति के भीतर
स्वछंद विचरण करता
मानों चक्की चला रहा हो
देह का नमकीन पसीना
सुखाने का भरसक प्रयास
किंतु पेट की जठराग्नि
शांत नहीं हो पा रही
बच्चियां गोल गोल रानी खेल रही है
घेरदार चुन्नटों से भरा फ्रॉक
घूम रहा अपनी खिंची भूरी पर
रेखा से बाहर निकली
और आउट .....
अर्थात सारांश यही था
किंतु
चलते पंखे के बीच औचक गौरैया का आना
चक्की में गेहूं के साथ घुन
सब प्रारब्ध था ?
कितना दुखद था
प्रारब्ध के नाम पर
सपनों को श्रद्धांजलि देना...
सारिका पारीक ' जुवि'
रामगढ राजस्थान में जन्मी सारिका पारीक 'जुवि ' वर्तमान में मुंबई में रहती हैंं । प्रमुख पत्रिकाओं ,वेब पोर्टल एवं समाचार पत्रों में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित हुई है । ' सीप के मोती ' नामक काव्य संकलन भी प्रकाशित हो चुका है ।
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