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जाति का उच्छेद : एक पुनर्पाठ

परिप्रेक्ष्य
जाति का उच्छेद : एक पुनर्पाठ
                                                              ■  राजाराम भादू
जाति का उच्छेद ( Annihilation of Caste )  डॉ॰ भीमराव अम्बेडकर की ऐसी पुस्तक है जिसमें भारतीय जाति- व्यवस्था की प्रकृति और संरचना को पहली बार ठोस रूप में विश्लेषित किया गया है। डॉ॰ अम्बेडकर जाति- व्यवस्था के उन्मूलन को मोक्ष पाने के सदृश मुश्किल मानते हैं। बहुसंख्यक लोगों की अधीनस्थता बनाये रखने के लिए इसे श्रेणी- भेद की तरह देखते हुए वे हिन्दू समाज की पुनर्रचना की आवश्यकता अनुभव करते हैं। पार्थक्य से पहचान मानने वाले इस समाज ने आदिवासियों को भी अलगाया हुआ है। वंचितों के सम्बलन और सकारात्मक कार्रवाहियों को प्रस्तावित करते हुए भी डॉ॰ अम्बेडकर जाति के विच्छेद को लेकर ज्यादा आश्वस्त नहीं है। डॉ॰ अम्बेडकर मानते हैं कि जाति- उन्मूलन एक वैचारिक संघर्ष भी है, इसी संदर्भ में इस प्रसिद्ध लेख का पुनर्पाठ कर रहे हैं- राजाराम भादू।

जाति एक नितान्त भारतीय परिघटना है। मनुष्य समुदाय के विशेष रूप दुनिया भर में पाये जाते हैं और उनमें आंतरिक व पारस्परिक विषमताएं भी पायी जाती हैं लेकिन हिन्दू समाज की सोपान- क्रमिक जाति- संरचना विलक्षण है। देश में १९ वीं सदी के आरम्भ से सामाजिक सुधार के शुरूआती चरण में इसमें अन्तर्निहित अन्याय को कुछ लोगों ने लक्षित किया और उस पर प्रश्न उठने शुरू हुए। वैसे कहते और मानते तो हम यह हैं कि भक्ति आन्दोलन के संत कवियों ने इस पर सबसे पहले प्रहार किया। बल्कि अतीत में और भी पीछे जायें तो चार्वाकों, जैन और बौद्ध धर्म ने जाति को अवांछनीय माना था। लेकिन आधुनिक परिप्रेक्ष्य में जाति से टकराने की ठोस प्रक्रिया को चीन्हने के लिए हमें पूर्व प्रसंगों की महत्ता के साथ उनकी सीमाओं को भी समझना होगा। चार्वाक, जैन और बौद्ध काल का जाति विमर्श अन्ततः धर्म के दायरे में है, भले ही यह अनीश्वरवाद तक जाता है। फिर भक्ति काल में संत कवि इसे नैतिक धरातल पर रखते हैं। १९ वीं सदी के सुधार आन्दोलन में इसे ठोस रूप से सामाजिक रूपान्तरण के ऐजेन्डा में शामिल करने के प्रयत्न परिलक्षित होते हैं। इनमें आर्य समाज, ब्रह्म समाज से लेकर ज्योतिवा फुले का सत्यशोधक समाज है तो दूसरी ओर पेरियार की प्रतिक्रियाएं हैं। इन्हीं के बीच कहीं महात्मा गाँधी के हरिजन उद्धार अभियान हैं। लेकिन इनमें सबसे निर्णायक डॉ॰ भीमराव अम्बेडकर का संघर्ष है जो जमीनी होने के साथ सैद्धांतिक रूप से भी सुदृढ़ है, यद्यपि यहाँ निर्णायक का मतलब यह नहीं है कि उन्हें अपने संघर्ष के मूल लक्ष्य हासिल हो गये। वे तो अभी भी हमारी पहुँच से बहुत दूर दिखते हैं।

अपने शुरूआती दौर में अम्बेडकर जाति का पूरी तरह उन्मूलन चाहते थे। इस पर उनकी पुस्तक - जाति का उच्छेद- सन् १९३६ में आयी। इसमें वे एकाधिक जगह कहते हैं कि उन्हें उम्मीद नहीं है कि जाति का पूरी तरह उन्मूलन संभव है। आगे अपने संघर्ष के अनुभवों के साथ उन्होंने हिन्दू धर्म की संरचना और उसकी जटिलता को और बेहतर समझा। उनकी पुस्तक- रिडिल्स आफ हिन्दूज्म- १९५६ में आयी। इसी क्रम में उन्होंने बौद्ध धर्म में दीक्षित होने का निर्णय लिया। बाद में हम पाते हैं कि धर्मान्तरण ने भी दलितों को सामाजिक बराबरी और मानवीय गरिमा बहाल करने में कोई उल्लेखनीय मदद नहीं की। वे नव- बौद्ध, सिक्खों में मजहबी, ईसाइयों में धर्म संस्थान से जुडने पर भी काले पादरी और मुसलमानों में पसमांदा के रूप में अलहदा पहचाने गये। तो सवाल फिर घूमकर वापस वहीं आता है जहां इसे - इन्हिलेशन आफ कास्ट- में डॉ॰ अम्बेडकर ने उठाया था कि आखिर जाति क्यों नहीं जाती।


जाति का उच्छेद इस प्रश्न पर मेरी जानकारी में अभी तक अकेली किताब है, जो इस परिघटना को मूल में चीन्हती है, इसकी भयावहता को प्रस्तुत करती है और जो जाति की संरचनागत हिंसा का अत्यंत वस्तुपरक क्रिटीक है। इसलिए हमें एक बार फिर डॉ॰ अम्बेडकर की इस चुनौती से हुई वैचारिक जद्दोजहद से होकर गुज़रने की जरूरत है। डॉ॰ अम्बेडकर को जात- पांत तोडक मंडल का सभापति चुना गया था। यह पुस्तक वस्तुत: जात- पांत तोडक मंडल के सम्मेलन में दिये जाने वाला लिखित भाषण है। लेकिन वह सम्मेलन हुआ ही नहीं, किन्तु अच्छी बात यह रही कि ये भाषण पुस्तक रूप में प्रकाशित हो गया। डॉ॰ अम्बेडकर को सामाजिक सुधार की चुनौती का गहरा अहसास था। वे कहते हैं : सामाजिक सुधार का मार्ग, कम से कम भारत में, मोक्ष- मार्ग के सदृश्य, अनेक कठिनाइयों से भरा पड़ा है।

डॉ॰ अम्बेडकर ने पहले अछूतों को संगठित किया था, बाद में इसमें अन्य शोषित - आप्रेस्ड- जातियों काे शामिल करते हुए इसे व्यापक रूप दिया। मराठी में इनके लिए दलित शब्द है जो बहुत उपयुक्त है और वहींं से हिन्दी में भी प्रचलित हो गया है। डॉ॰ अम्बेडकर दलितों के साथ होने वाले नृशंस अत्याचारों का संक्षिप्त किन्तु हैरतअंगेज ब्यौरा देते हैं। कैसी विडम्बना है कि राजस्थान में जयपुर के निकट चकवाडा गाँव में अप्रैल, १९३६ में सवर्णों ने दलितों के एक सहभोज का विरोध करते हुए  आमंत्रितों का अपमान किया था। इस शताब्दी के पहले दशक में उसी गाँव के एक दलित को सार्वजनिक तालाब में नहाने पर प्रताड़ित किया गया। इस विवरण के बाद पहले वे लोकतांत्रिक विचारक जे एस मिल के वक्तव्य को उद्धरित करते हैं : एक देश को दूसरे देश पर शासन करने का कोई अधिकार नहीं है। डॉ॰ अम्बेडकर इस अवधारणा को विस्तार देते हैं : एक श्रेणी को भी दूसरी श्रेणी पर शासन करने का भी अधिकार नहीं है।

आपको यह इस किताब से ही पता चलता है कि लोगों ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के ऐजेन्डे में सामाजिक सुधारों को शामिल करने के प्रयास किये थे। उन्हें इसमें तो सफलता नहीं मिली लेकिन कांग्रेस के सम्मेलन के साथ उन्हें उसी परिसर में सामाजिक सम्मेलन करने की अनुमति मिल गयी जिन्हें कॉन्फ्रेंस कहा जाता था। चूंकि कांग्रेस में सवर्णों का आधिपत्य था तो जब कॉन्फ्रेंस में दलित- भेद के मुद्दे प्रभावी होने लगे तब इसके परिसर में आयोजन का विरोध होने लगा। बाद में इन्हें कांग्रेस सम्मेलनों के समानांतर पृथक स्थान पर आयोजित किया जाने लगा किन्तु तदनन्तर कांग्रेस से इनका सम्बन्ध विच्छन्न हो गया। मि. बनर्जी लंबे समय इन सम्मेलनों के सूत्रधार रहे जो इनमें विधवा विवाह के समर्थन, बाल विवाह के विरोध और स्त्री शिक्षा जैसे मुद्दे रखते थे। डॉ॰ अम्बेडकर इन्हें समाज सुधार के मुद्दे भी न मानकर हिन्दुओं के पारिवारिक मसले मानते हैं जिनका वर्णभेद से कोई संबंध नहीं है। डॉ॰ अम्बेडकर के अनुसार असल मुद्दा हिन्दू समाज की पुनर्रचना या उसका पुनर्गठन था।

डॉ॰ अम्बेडकर कई ऐतिहासिक प्रसंगों से यह अवधारणा प्रस्तुत करते हैं कि बड़े राजनीतिक परिवर्तनों की पृष्ठभूमि सामाजिक सुधारों से बनती है। ध्यान रहे कि उस समय यह विचार प्रबल था कि पहले आजादी मिल जाये, समाज के मामले बाद में सुलझते रहेंगे। डॉ॰ अम्बेडकर मानते थे कि दोनों चीजें साथ चलनी चाहिए, तभी राजनीतिक परिवर्तन को भी स्थायित्व मिलता है। उन्होंने इस संदर्भ में यूरोपीय राजनीतिक परिवर्तन की पृष्ठभूमि में मार्टिन लूथर के धर्म सुधार और प्यूरिटनों के धार्मिक आन्दोलनों का उल्लेख किया है। वे कहते हैं : किसी जाति ( नेशनेलिटी ) के राजनीतिक विस्तार के लिए पहले उसकी आत्मा और बुद्धि का उद्धार होना परम आवश्यक है। भारत में कम्युनिस्ट एप्रोच को भी वे अपनी आलोचना के दायरे में लेते हैं जो आर्थिक प्रश्नों को मूलभूत मानते थे और धर्म से जुड़े मामलों की अनदेखी करते थे। अम्बेडकर कहते हैं, भारत का इतिहास दिखलाता है  कि धर्म एक बड़ी शक्ति है। भारत में सर्व साधारण पर धार्मिक नेताओं का शासन मजिस्ट्रेट से भी बढकर होता है। 



रोम में लंबे संघर्ष के बाद प्लीबियन लोगों ने कौंसिल में अपना प्रतिनिधित्व हासिल किया लेकिन वे कभी वहाँ अपना दमदार प्रतिनिधि नहीं भेज पाये। वे भी पैट्रिशियनों की तरह अपना प्रतिनिधि डेल्फी देवी की अनुशंसा के संकेत पर भेजते थे और वहाँ से सही प्रतिनिधि के लिए अनुशंसा नहीं मिलती थी। जाहिर है कि वहाँ पैट्रिशियनों ने कोई घपला कर रखा था जबकि प्लीबियन देवी डेल्फी के प्रति आस्थावान थे। इस वृतान्त के जरिये डॉ॰ अम्बेडकर कहते हैं : यदि किसी विशेष समय में, या किसी विशेष समाज में शक्ति और प्रभुत्व सामाजिक और धार्मिक हो तो सामाजिक सुधार मानना पड़ेगा। जबकि हिन्दू समाज में जन्म से लेकर मृत्यु तक सभी चीजें धार्मिक रूप से जाति के साथ जुड़ी हैं। यही नहीं, बल्कि चार हजार जाति- उपजातियों में बंटे हिन्दी समाज में पारस्परिक घृणा और द्वेष-भाव है।

आर्य समाज की वर्ण- व्यवस्था के समर्थन में दी जाने वाली दलील को वे प्लेटो द्वारा रिपब्लिक में श्रम- विभाजन की धारणा के साथ देखते हैं‌। वे कहते हैं कि आर्य समाज श्रम- विभाजन की नहीं, श्रेणी- भेद की बात कर रहा है। यदि विभाजन जन्मना न होकर गुणों के आधार पर है तो फिर उसके साथ वर्ण का लेबिल लगाने की क्या जरूरत है। सच तो यह है कि चातुर्वण्य ऐसी सामाजिक संरचना है  जिसमें किसी के सामने अपने काम के चयन की कोई गुंजाइश नहीं है। बल्कि कुछ कामों को इतना हीन माना गया है कि उनसे जुड़े लोगों को तिरस्कृत किया जाता है। इसका नस्लीय व रक्त शुद्धता से भी कोई संबंध नहीं है वरना विभिन्न जातियों के बीच सहभोज क्यों नहीं है। और न ही इसका दक्षता से कोई संबंध है क्योंकि जहां लोग विवशता में  काम करते हैं वहाँ हम कौशलों की उम्मीद कैसे कर सकते हैं।

मुस्लिम व ईसाइयों से तुलना करते हुए डॉ॰ अम्बेडकर कहते हैं कि बेशक जातियाँ वहाँ भी हैं लेकिन वहाँ एक धर्म के आधार पर उनमें एकत्व है। जबकि हिन्दू धर्म की संरचना वैसी नहीं है। इसे तो यह नाम ही दूसरों ने दिया है। यह विभिन्न जाति- उपजातियों का समुच्चय है जहां पार्थक्य से पहचान होती है। प्रत्येक जाति खुद में बंद है और दूसरों से सादृश्य के बावजूद उनके मनोभाव अलग हैं। वहाँ चीजों पर वैसा साझा धार्मिक आधार पर भी नहीं है जैसा मुस्लिम व ईसाइयों में है। निम्न समझी जाने वाली जातियाँ भी त्यौहार व अन्य अनुष्ठान औरों की तरह करती हैं पर वे इन्हें औरों से साझा नहीं करतीं। वैसी ही चीजें करना चीजों पर साझे का अधिकार रखने से सर्वथा भिन्न है।

यह अत्यंत महत्वपूर्ण तथ्य है कि डॉ॰ अम्बेडकर इस क्रम में भारत के आदिवासियों की बदहाली पर विचार करते हुए इसके लिए भी हिन्दू जाति व्यवस्था को दोषी ठहराते हैं। वे कहते हैं : ये आदिम जातियां एक ऐसे देश में जो सहस्रों वर्षों की पुरानी सभ्यता की डींग हांकता है, अपनी पहली असभ्य दशा में ही पडी रही हैं। वे इनके बीच काम को हिन्दू समाज के समक्ष चुनौती की तरह पेश करते हुए कहते हैं : आदिम निवासियों को सभ्य बनाने का अर्थ है उनको अपना बनाना, उनके बीच निवास करना और सहानुभूति पैदा करना, सारांश यह है कि उन्हें प्रेम करना। इसके विपरीत हिन्दू समाज ने उनमें से न केवल कुछ जनजातियों को जरायम पेशा ठहरा दिया है बल्कि उन सबको वे घृणित अनार्यों के अविष्टांग मानते हैं। 


शुद्धि आन्दोलन को प्रश्नित करते हुए वे कहते हैं कि हिन्दू धर्म में धर्मान्तरित व्यक्ति के मामले में यह तय नहीं होता कि उसे कहां रखा जाये ? उसे किस बिरादरी में जगह दी जाये ? हिन्दू धर्म कोई क्लब तो है नहीं। हिन्दू होने का मतलब अनिवार्यत : किसी जाति समुदाय का सदस्य होना है जबकि मुस्लिम, ईसाई व सिखों के मामले में ऐसा नहीं है। दूसरे, हिन्दू सामाजिक संरचना में जातियों का सोपान- क्रम घोर अमानवीय है जिसमें हर  ऊपर वाला अपने नीचे वालों को अनवरत रूप से प्रताड़ित करता है। इसके लिए मारिस ने कहा है : आप उनमें बडों द्वारा छोटों को रौंदते, सबलों द्वारा निर्बलों को पीटते, क्रूरों को किसी से न डरते, दयालुओं को साहस न करते और बुद्धिमानों को परवाह न करते हुए पाते हैं। सभी हिन्दू देवताओं के क्षमाशील होते हुए भी हिन्दुओं में दलितों  और अत्याचार पीड़ितों की दयनीय दशा किसी से छिपी नहीं। उदासीनता से बढकर बुरा और कोई रोग नहीं हो सकता। हिन्दू उतने उदासीन क्यों हैं ? डॉ॰ अम्बेडकर मानते हैं कि इस विखंडन की वजह से हिन्दुओं में कोई सर्वमान्य नेतृत्व नहीं उभरा, महात्मा गांधी को वे एक अपवाद मानते हैं।

डॉ॰ अम्बेडकर हिन्दू समाज के पुनर्गठन के लिए स्वाधीनता, समता और बन्धुत्व को अनिवार्य आधार मानते हैं और ये मूल्य लोकतंत्र के बिना संभव नहीं हैं। वे समता के संदर्भ में तीन तरह के कारकों की बात करते हैं- १. शारीरिक २. सामाजिक, जिसमें पारिवारिक पृष्ठभूमि व उत्तराधिकार आदि शामिल होते हैं और ३. व्यक्ति के अपने प्रयत्न। पहले दो प्रदत्त हैं और ये तीसरे में निर्णायक भूमिका निभाते हैं। दलित गरीबी व कुपोषण के चलते शारीरिक रूप से कमजोर होते हैं। सामाजिक रूप से उपेक्षा व तिरस्कार के साथ प्रायः संपत्ति- हीन होते हैं। उनके प्रयत्नों के सामने अंतहीन सीमाएँ होती हैं। ऐसे में, डॉ॰ अम्बेडकर प्रश्न उठाते हैं, क्या उनके असमान होने के कारण हम उनके साथ असमानता का व्यवहार करें ? यही वह प्रश्न है जिसने दलित व आदिवासियों को सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक रूप से सम्बलन की कार्रवाई ( एफर्मेटिव एक्शन) और सकारात्मक विभेद ( पाजीटिव डिस्क्रिमेशन) करते हुए आरक्षण के प्रावधान के लिए जमीन तैयार की।

जाति का उच्छेद मूलतः सभी हिन्दुओं को सम्बोधित है जिसमें डॉ॰ अम्बेडकर उनकी राजनीतिक पराजयों व आर्थिक दुरावस्था के लिए सामाजिक वैषम्य को उत्तरदायी मानते हैं। डॉ॰ राधाकृष्णन जैसे लोग हिन्दुओं के शताब्दियों से अस्तित्व में बने रहने का महिमा- मंडन करते हैं। अम्बेडकर उनके प्रत्युत्तर में कहते हैं : प्रश्न यह नहीं है कि कोई समाज जीता है या मरता है। प्रश्न यह है कि वह किस अवस्था में जीता है। जाति- उन्मूलन के संदर्भ में वे इस पुस्तक में दो उपाय सुझाते हैं- अन्तर्वर्णीय सहभोज और अन्तर्वर्णीय विवाह। इस दिशा में लाहौर के जात- पांत तोडक मंडल के कार्यों की वे सराहना करते हैं। उनके अनुसार जो सुधारक समाज को ललकारता है, वह गवर्नमेंट का विरोध करने वाले राजनीतिक से कहीं अधिक निर्भीक है। वे अपृश्यता सहित विभेद के सभी निर्मम रूपों के लिए स्थापित मूल्य- मान्यताओं को जिम्मेदार मानते हैं जिन्हें हिन्दू- शास्त्रों ने वैधता प्रदान की है। पुरोहित वर्ग जिसका ठेकेदार बना है, जिसकी योग्यता का कोई मानदंड नहीं है और जिसकी शक्तियाँ किसी भी सरकारी अधिकारी से कहीं ज्यादा और मनमानी हैं। तब अम्बेडकर ने हिन्दू धर्म की किसी एक किताब को आचार- व्यवहार का आधार बनाने और पुरोहितों की योग्यता के आधार पर सरकारी नियुक्ति का सुझाव दिया था। इसी विचार का विकास आगे चलकर भारतीय संविधान से जुडा।

डॉ॰ अम्बेडकर स्पष्ट कहते हैं कि ब्राह्मणवाद जाति- उन्मूलन का सबसे बड़ा अवरोधक है क्योंकि इसके साथ सवर्णवर्चस्व और उनके निहित स्वार्थ जुड़े हैं। चूँकि जाति- उन्मूलन मूलतः एक वैचारिक संघर्ष है इसलिए इसमें बुद्धिजीवियों की अहम भूमिका है। उनके अनुसार जातपांत एक भावना है, मन की एक अवस्था है। इसलिए जातपांत तोडने का अर्थ किसी स्थूल रुकावट को नष्ट करना नहीं। दूसरी ओर वे यह भी मानते हैं कि बुद्धिमान मनुष्य धर्मात्मा हो सकता है परंतु वह आसानी से दुरात्मा भी हो सकता है। किसी भी देश का समूचा भाग्य उसकी बुद्धिजीवी श्रेणी पर निर्भर करता है। यदि वह श्रेणी ईमानदार, स्वाधीन और निष्पक्ष हो तो उस पर विश्वास किया जा सकता है कि संकट आने पर वह नेतृत्व करके मार्ग दिखायेगी। ऐसे आशा जगाने वाले संकेत नहीं पाकर ही शायद वे हताशा में कहते हैं कि मैं तो जातिभेद को मिटा देना प्रायः असंभव देखता हूं।

इस किताब के प्रकाशन को एक शताब्दी पूरे होने में सिर्फ सोलह वर्ष कम हैं। हम देख सकते हैं कि देश में सामाजिक हालातों में ठोस परिवर्तन की क्या स्थिति है। जातिगत गोलबंदियां बढती गयी हैं। आज भी अन्तर्जातीय सहभोज और विवाह अपवाद हैं और उन्हें प्रतिवाद झेलना पड़ता है। आरक्षण और संवैधानिक सुरक्षात्मक प्रावधानों के बावजूद अधिसंख्य दलित- आदिवासी आबादी घोर विपन्नता, विभेद व उत्पीड़न झेल रही है। साहसी समाज सुधारकों की तो नस्ल ही लुप्त हो गयी लगती है। जैसे बुद्धिजीवियों की डॉ॰ अम्बेडकर ने बात की थी, वे आज भी दुर्लभ हैं। उम्मीद की जाती थी कि आरक्षण के जरिये जो सामाजिक गतिशीलता बढी है और उससे जो शिक्षित पीढी निकली है, वह बौद्धिक भूमिका निभायेगी, लेकिन प्राय: उन्होंने दलितों के नाम पर राजनीति करने वालों से गठबन्धन कर खुद डॉ॰ अम्बेडकर को राष्ट्रीय नेता से लगभग एक दलित नायक के रूप में अपघटित कर दिया। उनका चिन्तन, जो जन- क्षेत्र ( पब्लिक स्फियर ) में आकर इस समाज की चूलें हिला सकता था, अक्सर इनके निजी शास्रों के रूप में सीमित होकर रह गया। दूसरी ओर हिन्दू व्यवस्था में यथास्थितिवाद और ब्राह्मणवादी वर्चस्व को बनाये रखने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उनके सहस्रों अनुषांगिक- धार्मिक संगठन सत्ता के शीर्ष तक जा पहुंचे। तब जाति- उन्मूलन को लेकर हमें वैसी ही हताशा होती है जैसी उस समय डॉ॰ अम्बेडकर को हुई थी।

राजाराम भादू
मानव शास्त्र से लेकर शिक्षा के क्षेत्र तक राजाराम भादूू का कार्यस्थल फैला हुआ है । संपादन , सामाजिक कार्यकर्ता समेत अनेक भूमिकाओं का सफल निर्वाहन । आलोचना के क्षेत्र में लंबे समय से सक्रिय राजाराम भादू वर्तमान में समानांतर संस्थान के निदेशक हैंं ।

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वंचना के विमर्शों में कई आयाम होते हैं, जैसे- राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक इत्यादि। इनमें हर ज्ञान- अनुशासन अपने पक्ष को समृद्ध करता रहता है। साहित्य और कलाओं का संबंध विमर्श के सांस्कृतिक पक्ष से है जिसमें सूक्ष्म स्तर के नैतिक और संवेदनशील प्रश्न उठाये जाते हैं। इसके मायने हैं कि वंचना से संबंद्ध कृति पर बात की जाये तो उसे विमर्श के व्यापक परिप्रेक्ष्य से जोडकर देखने की जरूरत है। भूलन कांदा  को एक लंबी कहानी के रूप में एक अर्सा पहले बया के किसी अंक में पढा था। बाद में यह उपन्यास की शक्ल में अंतिका प्रकाशन से सामने आया। लंबी कहानी  की भी काफी सराहना हुई थी। इसे कुछ विस्तार देकर लिखे उपन्यास पर भी एक- दो सकारात्मक समीक्षाएं मेरे देखने में आयीं। ऐसी ही प्रतिक्रिया रणेन्द्र के उपन्यास ग्लोबल गाँव के देवता को भी मिल चुकी थी। किन्तु आदिवासी विमर्श के संदर्भ में ये दोनों कृतियाँ जो बड़े मुद्दे उठाती हैं, उन्हें आगे नहीं बढाया गया। ये सिर्फ गाँव बनाम शहर और आदिवासी बनाम आधुनिकता का मामला नहीं है। बल्कि इनमें क्रमशः आन्तरिक उपनिवेशन बनाम स्वायत्तता, स्वतंत्र इयत्ता और सत्त...

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डांग: परिपार्श्व कवि- कथाकार- विचारक हरिराम मीणा के नये उपन्यास को पढते हुए इसका एक परिपार्श्व ध्यान में आता जाता है। डाकुओं के जीवन पर दुनिया भर में आरम्भ से ही किस्से- कहानियाँ रहे हैं। एक जमाने में ये मौखिक सुने- सुनाये जाते रहे होंगे। तदनंतर मुद्रित माध्यमों के आने के बाद ये पत्र- पत्रिकाओं में जगह पाने लगे। इनमें राबिन हुड जैसी दस्यु कथाएं तो क्लासिक का दर्जा पा चुकी हैं। फिल्मों के जादुई संसार में तो डाकुओं को होना ही था। भारत के हिन्दी प्रदेशों में दस्यु कथाओं के प्रचलन का ऐसा ही क्रम रहा है। एक जमाने में फुटपाथ पर बिकने वाले साहित्य में किस्सा तोता मैना और चार दरवेश के साथ सुल्ताना डाकू और डाकू मानसिंह किताबें भी बिका करती थीं। हिन्दी में डाकुओं पर नौटंकी के बाद सैंकड़ों फिल्में बनी हैं जिनमें सुल्ताना डाकू, पुतली बाई और गंगा- जमना जैसी फिल्मों ने बाक्स आफिस पर भी रिकॉर्ड सफलता पायी है। जन- सामान्य में डाकुओं के जीवन को लेकर उत्सुकता और रोमांच पर अध्ययन की जरूरत है। एक ओर उनमें डाकुओं के प्रति भय और आतंक का भाव होता है तो दूसरी तरफ उनसे जुड़े किस्सों के प्रति जबरदस्त आकर्षण रहत...

चौकन्नी स्त्रियाँ - रजनी मोरवाल

कहानी-कहानीकार महिला संघर्षों का कोलाज - रजनी मोरवाल का कथा संसार                               चरण सिंह पथिक राजस्थान ही नहीं वरन समूची हिंदी पट्टी में पिछले एक दशक में जिस तेजी से अपनी कहानियों के वैशिष्ट्य के कारण कथा जगत में जो-जो नाम प्रमुखता से लिए जाते हैं , उनमें रजनी मोरवाल का नाम प्रमुख है । रजनी मोरवाल ने अपने पहले कहानी-संग्रह 'कुछ तो बाकी है' से कथा जगत के इस जटिल प्रदेश में अपनी कहानियों के बलबूते अपनी अलग पहचान कायम की है । किसी भी रचनाकार के लिए अपने लेखन को शुरुआती जुनून के जैसा बरकरार रखना , एक चुनौती होता है ।  ऐसे में अगर आप महिला हैं तो और भी कठिनाइयां आपके सामने होती हैं । जिनसें कदम-कदम पर आपको जूझना होता है । रजनी मोरवाल ने इन चुनौतियों की परवाह ना करते हुए अपना लेखन निरंतर जारी रखा । 'नमकसार' संग्रह की कहानियाँ तथा उसके बाद का उपन्यास 'गली हसनपुरा' रजनी के रचना वैशिष्ट्य की गवाही देता है । 'नमकसार' कहानी पर एक सफल नाटक का मंचन भी हो चुका है । दरअसल रजनी मोरवाल के यहां किरदारों और विष...