राजाराम भादू हिन्दनामा पर इसके रचयिता खुद कृष्ण कल्पित ने जितना बोल- लिख दिया है उसने दूसरों के लिए मुश्किल पैदा कर दी है। यदि कोई इस किताब के पक्ष में कुछ कहता है तो वह कल्पित की किसी अथवा किन्हीं बातों का अनुमोदन मात्र होगा क्योंकि इसके पक्ष में शायद ही कोई बात हो जिसे वे पहले न कह चुके हों। यदि कोई आलोचना में कुछ कहता है तो दूसरी मुश्किल है। जब उनके कुछ कहे पर किसी ने प्रतिक्रिया दी कि आप तो अपनी किताब का प्रचार कर रहे हैं तो उनका जबाव था, प्रचार कर रहा हूं, दुष्प्रचार नही। तो आप पर दुष्प्रचार करने का लांछन लग सकता है। असल में, लेखकों द्वारा अपनी किताब के प्रमोशन में उतरने से ऐसी दुविधा उत्पन्न हुई है। वैसे रचनाकार अपनी कृति के बारे में कितना बोले, क्या बोले- इसे लेकर कोई नियम - कायदे तो हैं नहीं , और होने भी नहीं चाहिए। लेखक काफी समय से अपनी किताबों के ब्लर्व लिखते रहे हैं। पहले ये बेनामी होते थे, अब इसके साथ अपना नाम दिया जाने लगा है। किताब की भूमिका लिखने का रिवाज तो ऐतिहासिक है। वे अपनी रचना- प्रक्रिया पर बोलते- लिखते रहे हैं और साक्षात्कारों में अपनी पसंद के पेन, कागज...
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