राजाराम भादू
ललित निबंध सिर्फ विचार- मंथन ही नहीं, वहाँ कल्पना की उन्मुक्त उड़ान भी है। कल्पना की उड़ान तो उन्मुक्त ही होगी, तो क्या फिर कल्पना का भी क्षरण हो गया? उसके पर कतर दिये गये या उसे उन्मुक्त उड़ान भरने को आकाश ही नहीं बचा है?
यह सही है कि हमारी जीवन- शैली में अभूतपूर्व बदलाव आया है। हम एक कठोर अनुशासित और यांत्रिक जिन्दगी जी रहे हैं। यहाँ विकल्प के चयन की गुंजाइश नहीं, बाध्यता है। कथित विकास ने हमारी जीवन- पद्धति को कंडीशंड बना दिया है। शायद इसी का प्रतिबिंबन साहित्य की विधाओं में है। जो विधाएं हमारी अनुकूलित जीवन- स्थितियों के अनुकूल हैं, वेे ही हमारा सृजन- क्षेत्र बनकर रह गयी हैं। अनुकूलित जीवन- पद्धति में चला आ रहा विचार खपता है। ढर्रे की जिन्दगी यथास्थिति का पोषण करती है। नया विचार वस्तुत: हमारे आभ्यन्तर में ही बैचेनी पैदा नहीं करता, वह हमारे जीवन में खलल पैदा करता है। वह अनुकूलन में विचलन उत्पन्न करता है। वह ठहरे हुए पानी में कंकड मारता है। अंग्रेजी का एक प्रसिद्ध निबंध है- आन डूइंग नथिंग यानी कुछ न करने पर- वह हमारी एकरस जीवनचर्या की निरर्थकता पर प्रश्न खडे करता है।
कल्पना ललित निबंध को पंख प्रदान करती है। यह हमारी जिन्दगी को ललित छटाएं देती है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का एक प्रसिद्ध निबंध है- लालित्य की भूख- मनुष्यता लालित्य की भूख के कारण ही विशिष्ट है। लालित्य कल्पना के बिना संभव नहीं। विचार और कल्पना का संयोग ललित निबंध का स्थापत्य गढता है। प्रसंग- दर- प्रसंग हम चिन्तन के सहयात्री बनते हैं, कल्पना की उड़ान का आनंद लेते हैं। यहाँ वर्णन की विविधता होती है।
ललित निबंध शायद उपन्यास के बाद ऐसी दूसरी विधा है जो साहित्य की और अनेक विधाओं को अपने भीतर समेट लेने की सामर्थ्य रखती है। उपन्यास में कथातत्व प्रबल है तो ललित निबंध में कविता को आत्मसात कर लेने की क्षमता है। गद्य- कविता के अनेक नमूने उत्कृष्ट ललित निबंधों में जहां- तहां मिल जायेंगे।
जीवन में नवोन्मेष चिन्तन के बिना संभव नहीं है। एक चिन्तन तो दर्शन का है। साहित्य में जीवन का चिन्तन कल्पना के पंखों पर सफर करता है। यह दर्शन की तुलना में कहीं अधिक समूर्त है। नवोन्मेष के बिना हम आगे नहीं बढ सकते, जडता टूटे बिना प्रगति संभव नहीं। ऐसा नहीं कि कविता और कहानी की नवोन्मेषकारी भूमिका नहीं है। इस मामले में तो कोई विवाद ही नहीं, लेकिन गद्य का भी कोई विकल्प नहीं है। कहानी के इतर गद्य के बिना हमारा साहित्यिक परिदृश्य बहुत रीता- रीता नज़र आयेगा। कभी हम चिंता करने लगते हैं कि इथर बेहतर उपन्यास नहीं आ रहे हैं। जो आ रहे हैं, उनमें ज्यादातर बोझिल हैं अथवा निरर्थक प्रयोग हैं। जबकि उपन्यास जीवन का वृहद आख्यान है। जब हम जीवन को सृजनात्मक दस्तावेज में दर्ज करने वाली दूसरी विधाओं से मुंह चुराने लगेंगे तो फिर कैसे महत्वपूर्ण उपन्यास सामने आ सकेगा।
उपन्यास आज भी एपिकल आर्ट है। नाटक का महाकाव्यात्मक रूप तिरोहित हो गया, फिर भी दुनिया में कभी न कभी कहीं न कहीं कोई महाकाव्यात्मक नाटक निकल ही आता है। हिन्दी में बडे उपन्यास इधर हर साल नहीं आ पाते, ज्यादा समय लगता है, लेकिन दुनिया की और भाषाओं में एपिकल नावेल बराबर आ रहे हैं। बल्कि अंग्रेजी में तो कहा गया था कि नैरेटिव ( वर्णन) की वापसी हो रही है। वर्णन ही तो वह चीज थी जिसके लिए कहा गया था कि अब इसकी जरूरत नहीं। पाठक के पास वक्त कहां जो वह इस नीरस गद्य में खपा सके। कविता तो महाकाव्य को क्या खंडकाव्य को भी कभी का अलविदा कह चुकी। इधर लंबी कविताएँ भी नज़र नहीं आ रही हैं। यह सही है कि पुराने चलन के महाकाव्य- खंडकाव्यों की अब जरूरत भी नहीं, मौजूदा यथार्थ की जटिलता, संश्लिष्टता और संस्तर इस तरह व्यक्त नहीं किये जा सकते, लेकिन इसे बेहतर तरीके से व्यक्त करने के लिए हमने पद्य और गद्य की इतनी विधाएं ईजाद की हैं। हमारे समय का महाकाव्य अनेक रचनाकार अनेक विधाओं में सामूहिक तौर पर रच सकेंगे, पृथक- पृथक और एक ही तरह नहीं। इसके लिए हमें विधाओं के संकीर्ण घेरे को भी तोडना होगा।
रेणु कथाकार थे- उन्होने श्रेष्ठ रिपोर्ताज लिखे हैं। उनसे भी पहले महादेवी जी लब्धप्रतिष्ठ कवि थीं, लेकिन उन्होंने यादगार रेखाचित्र लिखे हैं। मुक्तिबोध एक नये तरह का सौंदर्य- चिन्तन कर रहे थे, इसके लिए उन्होंने अलग ही तरह की डायरी विधा चुनी। इसी तरह निर्मल वर्मा के यात्रा संस्मरण और हरिशंकर परसाई व शरद जोशी के व्यंग्य- ऐसे रचनाकारों की एक लंबी फेहरिस्त है जिन्होंने अपनी एक चुनिंदा विधा में पर्याप्त ख्याति अर्जित करने के बाद दूसरी गद्य विधाओं में सृजन किया। यहां ये भी दर्ज करना जरूरी है कि ऐसा इन्होंने सिर्फ हाथ आजमाई के लिए नहीं किया बल्कि उनके पास ऐसी अनुभव संपदा थी जिसे वे अपनी चयनित विधा में व्यक्त नहीं कर सकते थे, जिसके लिए किसी और विधा की जरूरत थी- यह अन्तर्वस्तु का स्वाभाविक दबाव था।
यह सब विचार करने पर एकबारगी तो यह लगने लगता है कि वाकई गद्य पर अधिकार पाये बगैर शायद बेहतर कवि या कथाकार हो पाना संभव नहीं है। अतीत तो कुछ ऐसा ही निष्कर्ष भी देता है। हां, ललित निबंध की अपनी अपेक्षाएं हैं लेकिन जो आलोचना के क्षेत्र में काम कर रहे हैं- वे क्या साहित्य के सवालों को इतना रूखा मानते हैं? सौंदर्यशास्त्र की अपनी मौज उन्हें विचार और कल्पना की उन्मुक्त उड़ान के लिए प्रेरित नहीं करती या उन्होंने लेखन की अपनी अनुकूलित जिन्दगी को सहज स्वीकार कर लिया है? असल में यह उड़ान कहने भर को उन्मुक्त है, वरना खतरा तो उन्मुक्त उड़ान में ही है, लेकिन नवोन्मेष के लिए संधान जरूरी है और संधान के लिए उन्मुक्त उड़ान। उड़ान के तयशुदा मार्ग तो वहीं ले जाते हैं, जहाँ अनेक यात्री पहले ही पहुँच चुके हैं। ललित निबंध चीजों को नयी दृष्टि से उद्भासित करने के लिए नये क्षितिजों का मार्ग प्रशस्त कर सकता है।
अष्टभुजा शुक्ल समकालीन कविता में अपने ठेठ कथ्य और खास तेवर के लिए पहचाने जाते हैं। उनकी एक और विशिष्ट पहचान उनके ललित निबंधों के कारण है। " मिठऊवा" के बाद इनका दूसरा संचयन आया है- पानी पर पटकथा। पुस्तक की भूमिका में विश्वनाथ त्रिपाठी विशेष उल्लेख करते हैं कि वे हिन्दी के पहले कवि ललित निबंधकार हैं। अष्टभुजा ने यह पुस्तक इस परंपरा के पुरोधा आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी को समर्पित की है। भूमिका में विश्वनाथ त्रिपाठी उन्हें संस्कृत- हिन्दी की परंपरा से जोडते हुए लिखते हैं: अष्टभुजा शुक्ल के ललित निबंध सिर्फ ललित नहीं। ललित तो विधा या काव्यरूप बोधक है। अन्तर्वस्तु में तो ये पाठक को हमारे समय की असाध्य, दुस्साध्य समस्याओं, जीवन के जटिल और बीहड पथों पर ले जाते हैं। इस बीहडता में सर्वत्र प्रायः हाशिए पर स्थित वंचित व्यक्ति, स्पष्टतः निम्नवर्गीय और निम्नवर्णीय भारतीय जन की जीवन कथा है।
अपनी बात में अष्टभुजा ने इस विधा की चिंताजनक हालत पर चर्चा करते हुए इस पर विचार करने का प्रस्ताव किया है। यहां हमने पहले वही करने की कोशिश की है। इस पुस्तक को छपने के संघर्ष से भी गुजरना पडा। पहले मैं ने एक प्रकाशक से बात की थी। वह राजी हो गया था। प्रेस कापी भी तैयार हो गयी लेकिन फिर टालने लगा। तंग आकर अष्टभुजा जी ने ही उसे मना करवा दिया। लेकिन तब से एक तरह की ग्लानि मुझ पर तारी थी। अब उससे मुक्त हुआ। यह अच्छा हुआ, भले ही देर लगी लेकिन किताब भारतीय ज्ञानपीठ जैसे प्रतिष्ठित प्रकाशन से आयी। बधाई अष्टभुजा शुक्ल!
ललित निबंध सिर्फ विचार- मंथन ही नहीं, वहाँ कल्पना की उन्मुक्त उड़ान भी है। कल्पना की उड़ान तो उन्मुक्त ही होगी, तो क्या फिर कल्पना का भी क्षरण हो गया? उसके पर कतर दिये गये या उसे उन्मुक्त उड़ान भरने को आकाश ही नहीं बचा है?
यह सही है कि हमारी जीवन- शैली में अभूतपूर्व बदलाव आया है। हम एक कठोर अनुशासित और यांत्रिक जिन्दगी जी रहे हैं। यहाँ विकल्प के चयन की गुंजाइश नहीं, बाध्यता है। कथित विकास ने हमारी जीवन- पद्धति को कंडीशंड बना दिया है। शायद इसी का प्रतिबिंबन साहित्य की विधाओं में है। जो विधाएं हमारी अनुकूलित जीवन- स्थितियों के अनुकूल हैं, वेे ही हमारा सृजन- क्षेत्र बनकर रह गयी हैं। अनुकूलित जीवन- पद्धति में चला आ रहा विचार खपता है। ढर्रे की जिन्दगी यथास्थिति का पोषण करती है। नया विचार वस्तुत: हमारे आभ्यन्तर में ही बैचेनी पैदा नहीं करता, वह हमारे जीवन में खलल पैदा करता है। वह अनुकूलन में विचलन उत्पन्न करता है। वह ठहरे हुए पानी में कंकड मारता है। अंग्रेजी का एक प्रसिद्ध निबंध है- आन डूइंग नथिंग यानी कुछ न करने पर- वह हमारी एकरस जीवनचर्या की निरर्थकता पर प्रश्न खडे करता है।
कल्पना ललित निबंध को पंख प्रदान करती है। यह हमारी जिन्दगी को ललित छटाएं देती है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का एक प्रसिद्ध निबंध है- लालित्य की भूख- मनुष्यता लालित्य की भूख के कारण ही विशिष्ट है। लालित्य कल्पना के बिना संभव नहीं। विचार और कल्पना का संयोग ललित निबंध का स्थापत्य गढता है। प्रसंग- दर- प्रसंग हम चिन्तन के सहयात्री बनते हैं, कल्पना की उड़ान का आनंद लेते हैं। यहाँ वर्णन की विविधता होती है।
ललित निबंध शायद उपन्यास के बाद ऐसी दूसरी विधा है जो साहित्य की और अनेक विधाओं को अपने भीतर समेट लेने की सामर्थ्य रखती है। उपन्यास में कथातत्व प्रबल है तो ललित निबंध में कविता को आत्मसात कर लेने की क्षमता है। गद्य- कविता के अनेक नमूने उत्कृष्ट ललित निबंधों में जहां- तहां मिल जायेंगे।
जीवन में नवोन्मेष चिन्तन के बिना संभव नहीं है। एक चिन्तन तो दर्शन का है। साहित्य में जीवन का चिन्तन कल्पना के पंखों पर सफर करता है। यह दर्शन की तुलना में कहीं अधिक समूर्त है। नवोन्मेष के बिना हम आगे नहीं बढ सकते, जडता टूटे बिना प्रगति संभव नहीं। ऐसा नहीं कि कविता और कहानी की नवोन्मेषकारी भूमिका नहीं है। इस मामले में तो कोई विवाद ही नहीं, लेकिन गद्य का भी कोई विकल्प नहीं है। कहानी के इतर गद्य के बिना हमारा साहित्यिक परिदृश्य बहुत रीता- रीता नज़र आयेगा। कभी हम चिंता करने लगते हैं कि इथर बेहतर उपन्यास नहीं आ रहे हैं। जो आ रहे हैं, उनमें ज्यादातर बोझिल हैं अथवा निरर्थक प्रयोग हैं। जबकि उपन्यास जीवन का वृहद आख्यान है। जब हम जीवन को सृजनात्मक दस्तावेज में दर्ज करने वाली दूसरी विधाओं से मुंह चुराने लगेंगे तो फिर कैसे महत्वपूर्ण उपन्यास सामने आ सकेगा।
उपन्यास आज भी एपिकल आर्ट है। नाटक का महाकाव्यात्मक रूप तिरोहित हो गया, फिर भी दुनिया में कभी न कभी कहीं न कहीं कोई महाकाव्यात्मक नाटक निकल ही आता है। हिन्दी में बडे उपन्यास इधर हर साल नहीं आ पाते, ज्यादा समय लगता है, लेकिन दुनिया की और भाषाओं में एपिकल नावेल बराबर आ रहे हैं। बल्कि अंग्रेजी में तो कहा गया था कि नैरेटिव ( वर्णन) की वापसी हो रही है। वर्णन ही तो वह चीज थी जिसके लिए कहा गया था कि अब इसकी जरूरत नहीं। पाठक के पास वक्त कहां जो वह इस नीरस गद्य में खपा सके। कविता तो महाकाव्य को क्या खंडकाव्य को भी कभी का अलविदा कह चुकी। इधर लंबी कविताएँ भी नज़र नहीं आ रही हैं। यह सही है कि पुराने चलन के महाकाव्य- खंडकाव्यों की अब जरूरत भी नहीं, मौजूदा यथार्थ की जटिलता, संश्लिष्टता और संस्तर इस तरह व्यक्त नहीं किये जा सकते, लेकिन इसे बेहतर तरीके से व्यक्त करने के लिए हमने पद्य और गद्य की इतनी विधाएं ईजाद की हैं। हमारे समय का महाकाव्य अनेक रचनाकार अनेक विधाओं में सामूहिक तौर पर रच सकेंगे, पृथक- पृथक और एक ही तरह नहीं। इसके लिए हमें विधाओं के संकीर्ण घेरे को भी तोडना होगा।
रेणु कथाकार थे- उन्होने श्रेष्ठ रिपोर्ताज लिखे हैं। उनसे भी पहले महादेवी जी लब्धप्रतिष्ठ कवि थीं, लेकिन उन्होंने यादगार रेखाचित्र लिखे हैं। मुक्तिबोध एक नये तरह का सौंदर्य- चिन्तन कर रहे थे, इसके लिए उन्होंने अलग ही तरह की डायरी विधा चुनी। इसी तरह निर्मल वर्मा के यात्रा संस्मरण और हरिशंकर परसाई व शरद जोशी के व्यंग्य- ऐसे रचनाकारों की एक लंबी फेहरिस्त है जिन्होंने अपनी एक चुनिंदा विधा में पर्याप्त ख्याति अर्जित करने के बाद दूसरी गद्य विधाओं में सृजन किया। यहां ये भी दर्ज करना जरूरी है कि ऐसा इन्होंने सिर्फ हाथ आजमाई के लिए नहीं किया बल्कि उनके पास ऐसी अनुभव संपदा थी जिसे वे अपनी चयनित विधा में व्यक्त नहीं कर सकते थे, जिसके लिए किसी और विधा की जरूरत थी- यह अन्तर्वस्तु का स्वाभाविक दबाव था।
यह सब विचार करने पर एकबारगी तो यह लगने लगता है कि वाकई गद्य पर अधिकार पाये बगैर शायद बेहतर कवि या कथाकार हो पाना संभव नहीं है। अतीत तो कुछ ऐसा ही निष्कर्ष भी देता है। हां, ललित निबंध की अपनी अपेक्षाएं हैं लेकिन जो आलोचना के क्षेत्र में काम कर रहे हैं- वे क्या साहित्य के सवालों को इतना रूखा मानते हैं? सौंदर्यशास्त्र की अपनी मौज उन्हें विचार और कल्पना की उन्मुक्त उड़ान के लिए प्रेरित नहीं करती या उन्होंने लेखन की अपनी अनुकूलित जिन्दगी को सहज स्वीकार कर लिया है? असल में यह उड़ान कहने भर को उन्मुक्त है, वरना खतरा तो उन्मुक्त उड़ान में ही है, लेकिन नवोन्मेष के लिए संधान जरूरी है और संधान के लिए उन्मुक्त उड़ान। उड़ान के तयशुदा मार्ग तो वहीं ले जाते हैं, जहाँ अनेक यात्री पहले ही पहुँच चुके हैं। ललित निबंध चीजों को नयी दृष्टि से उद्भासित करने के लिए नये क्षितिजों का मार्ग प्रशस्त कर सकता है।
अष्टभुजा शुक्ल समकालीन कविता में अपने ठेठ कथ्य और खास तेवर के लिए पहचाने जाते हैं। उनकी एक और विशिष्ट पहचान उनके ललित निबंधों के कारण है। " मिठऊवा" के बाद इनका दूसरा संचयन आया है- पानी पर पटकथा। पुस्तक की भूमिका में विश्वनाथ त्रिपाठी विशेष उल्लेख करते हैं कि वे हिन्दी के पहले कवि ललित निबंधकार हैं। अष्टभुजा ने यह पुस्तक इस परंपरा के पुरोधा आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी को समर्पित की है। भूमिका में विश्वनाथ त्रिपाठी उन्हें संस्कृत- हिन्दी की परंपरा से जोडते हुए लिखते हैं: अष्टभुजा शुक्ल के ललित निबंध सिर्फ ललित नहीं। ललित तो विधा या काव्यरूप बोधक है। अन्तर्वस्तु में तो ये पाठक को हमारे समय की असाध्य, दुस्साध्य समस्याओं, जीवन के जटिल और बीहड पथों पर ले जाते हैं। इस बीहडता में सर्वत्र प्रायः हाशिए पर स्थित वंचित व्यक्ति, स्पष्टतः निम्नवर्गीय और निम्नवर्णीय भारतीय जन की जीवन कथा है।
अपनी बात में अष्टभुजा ने इस विधा की चिंताजनक हालत पर चर्चा करते हुए इस पर विचार करने का प्रस्ताव किया है। यहां हमने पहले वही करने की कोशिश की है। इस पुस्तक को छपने के संघर्ष से भी गुजरना पडा। पहले मैं ने एक प्रकाशक से बात की थी। वह राजी हो गया था। प्रेस कापी भी तैयार हो गयी लेकिन फिर टालने लगा। तंग आकर अष्टभुजा जी ने ही उसे मना करवा दिया। लेकिन तब से एक तरह की ग्लानि मुझ पर तारी थी। अब उससे मुक्त हुआ। यह अच्छा हुआ, भले ही देर लगी लेकिन किताब भारतीय ज्ञानपीठ जैसे प्रतिष्ठित प्रकाशन से आयी। बधाई अष्टभुजा शुक्ल!
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