राजाराम भादू
हिन्दनामा पर इसके रचयिता खुद कृष्ण कल्पित ने जितना बोल- लिख दिया है उसने दूसरों के लिए मुश्किल पैदा कर दी है। यदि कोई इस किताब के पक्ष में कुछ कहता है तो वह कल्पित की किसी अथवा किन्हीं बातों का अनुमोदन मात्र होगा क्योंकि इसके पक्ष में शायद ही कोई बात हो जिसे वे पहले न कह चुके हों। यदि कोई आलोचना में कुछ कहता है तो दूसरी मुश्किल है। जब उनके कुछ कहे पर किसी ने प्रतिक्रिया दी कि आप तो अपनी किताब का प्रचार कर रहे हैं तो उनका जबाव था, प्रचार कर रहा हूं, दुष्प्रचार नही। तो आप पर दुष्प्रचार करने का लांछन लग सकता है। असल में, लेखकों द्वारा अपनी किताब के प्रमोशन में उतरने से ऐसी दुविधा उत्पन्न हुई है। वैसे रचनाकार अपनी कृति के बारे में कितना बोले, क्या बोले- इसे लेकर कोई नियम - कायदे तो हैं नहीं , और होने भी नहीं चाहिए। लेखक काफी समय से अपनी किताबों के ब्लर्व लिखते रहे हैं। पहले ये बेनामी होते थे, अब इसके साथ अपना नाम दिया जाने लगा है। किताब की भूमिका लिखने का रिवाज तो ऐतिहासिक है। वे अपनी रचना- प्रक्रिया पर बोलते- लिखते रहे हैं और साक्षात्कारों में अपनी पसंद के पेन, कागज अथवा गजेट का नाम बताते रहे हैं। तो क्या इसकी कोई सीमा रेखा होनी चाहिए? मेरी राय में तो इतना भर निवेदन है कि कम से कम उसे कृति पर मूल्य- निर्णय से बचना चाहिए। हो सकता है, उसे आलाचकों पर भरोसा न हो और गंभीर आलोचना का अकाल तो हिन्दी में दशकों से है, लेकिन पाठकों पर तो वह भरोसा कर ही सकता है।
बहरहाल, यह भूमिका मैं ने इसलिए नहीं बनायी है कि मैं कृष्ण कल्पित की इस नयी किताब के विरुद्ध कुछ कहने जा रहा हूं। यह वैसी ही एक त्वरित टिप्पणी है, जैसी अक्सर यहां की जाती हैं। इस किताब की पहली विशेषता ही यही है कि यह आपसे गंभीर प्रतिक्रिया मांगती है, यह पांच मिनिट का मौन भी हो सकता है और ऐसी प्रतिक्रियाओं के लिए आपको बाध्य कर देती है। अंग्रेजी के कवि कालरिज ने कविताएँ लिखना छोड कर आलोचना में लिखना शुरू किया और साहित्य को भी जीवन की आलोचना कहा। उसके बाद अंग्रेज़ी के ही कवि- आलोचक मैथ्यू अर्नाल्ड ने कहा कि साहित्य को सभ्यता- समीक्षा करनी चाहिए। हमारे यहाँ तो शुक्ल जी ने साहित्य को समाज के दर्पण से आगे बढाकर उसे लोक- मंगल से जोड दिया था। कल्पित की यह ३०० पृष्ठों और २८३ कविताओं को समेटे महाकाय किताब इस महादेश भारत की सभ्यता- समीक्षा है।
कल्पित भूमिका में लिखते हैं: यह किताब न हाली की मुसददस है, न मैथिलीशरण गुप्त की भारत- भारती। न यह बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय की आनंदमठ है, न जवाहरलाल नेहरू की भारत की खोज। न यह वी एस नायपाल का अंधेरे का इलाका है और न यह अमर्त्य सेन का तर्कशील भारत, न यह दिनकर की संस्कृति के चार अध्याय है और न ही यह गांधी की हिन्द स्वराज है। कल्पित के इस नामजद नकार और इसके बावजूद, कि किताब में आनंद मठ के अलावा इनमें से किसी किताब का कोई संदर्भ भी नहीं है, हिंद नामा पर विचार का परिप्रेक्ष्य तो इनसे व ऐसी ही कुछ और किताबों से बनता है क्योंकि ये सभी एक ध्येय- इस उप महाद्वीप की सभ्यता- समीक्षा- से सम्बद्ध हैं। और हो सकता है कल्पित अपनी खास शैली में इसी बात का संकेत कर रहे हों।
कल्पित की अगली बात इस किताब के संदर्भ में बहुत महत्वपूर्ण है: हिन्दनामा एक कवि की किताब है, जिसमें कवि का देश दिखाई पड़ता है। एक कवि का पढा हुआ, लिखा हुआ, सुना हुआ, जाना हुआ और पूरी तरह आत्मसात् किया हुआ। हिन्दनामा मूलतः एक कवि का कार्यभार था- जहाँ किस्से- कहानियाँ, इतिहास, भूगोल, कल्पना - स्मृति- यथार्थ, जादू- टोना, तंतर- मंतर सब अपनी जरूरी आवाजाही करते हैं।... इसके मायने हैं कि हमें इस कृति को इसकी समग्रता में एक कविता की तरह देखना चाहिए जहाँ कवि ने जन- सामान्य के चित्त, संवेदना और स्वप्नों को समझने और प्रतिबिंबित करने की चेष्टा की है। कविता अपने में ही एक सृजनात्मक सांस्कृतिक रूप है तो उससे पहली अपेक्षा भी सांस्कृतिक ताने- बाने को परिलक्षित करने की हो सकती है। इसे सौंदर्यशास्त्रीय प्रतिमानों पर ही जांचा- परखा जाना चाहिए।
इधर कथ्य और शैली के अन्तर्सम्बन्ध पारंपरिक दायरे तोडने लगे हैं और इसमें तब तक कोई समस्या नहीं है जब तक कि मूल सृजन को यह प्रैक्टिस मूल्यवान बनाती हो। सृजनात्मक साहित्य अपनी काव्य- भाषा या गल्प-शैली के माध्यम से समाजशास्त्रीय वक्तव्य जारी करने लगा है और समाजशास्त्र अपने तथ्यों और कथ्य को साहित्य की ललित शैलियों में बयान करने की कला विकसित कर रहा है। बंगला में महाश्वेता देवी और हिंदी में संजीव और उदय प्रकाश के नाम तो इस प्रसंग में तुरंत याद आ रहे हैं।
समाज- विज्ञान से मुझे सुनील खिलनानी यहाँ दो कारणों से उल्लेखनीय लगते हैं। एक तो उनकी पुस्तक दि आइडिया आफ इंडिया भारतीय आजादी की अर्द्ध- शताब्दी (१९९७) के अवसर पर प्रकाशित हुई जिसका अनुवाद भारतनामा शीर्षक (अनु. अभयकुमार दुबे) से हिस्सा में राजकमल से ही छपा और मकबूल हुआ। दूसरे, मूलतः राजनीति की कृति होने के बावजूद इसकी शैली ललित निबंध से बेहद प्रभावित है। इसमें उद्धरणों का इस्तेमाल भी इस तरह किया गया है कि वे एक सतत् प्रवाहमान अनुभूति का अंग लगते हैं। नेहरू, गांधी, अम्बेडकर और सावरकर समेत भारतीय राजनीति के कई नायक शैलीगत विशिष्टता के योगदान में व्यक्ति नहीं रहते बल्कि एक विचार में तब्दील हो जाते हैं। भारत या इंडिया नाम का राष्ट्र अपने भौगोलिक और ऐतिहासिक अस्तित्व के साथ धीरे- धीरे एक समग्र विचार के रूप में उभरता है। खिलनानी का राजनीति शास्त्र गालिब के पत्रों में दर्ज पुरानी दिल्ली के ध्वंस की त्रासदी से होते हुए भारतीय उपमहाद्वीप के सीने पर विभाजन की अमिट तसवीर खींचने वाले सिरिल रैडक्लिफ की एकांत हवेली के वर्णन, डबल्यू एच आडेन की कविता के जरिये करता है। वह पंचवर्षीय योजनाएं बनाने वाले प्रशांत चंद्र महलनोविस की सांख्यिकीय निपुणता और रवीन्द्र नाथ टैगोर के गद्य- काव्य के संबंधों को स्पर्श करता है। यह समाज विज्ञान राजनेताओं के साथ- साथ नीरद सी चौधरी, नायपाल और मंटो के माध्यम से राष्ट्रवाद, औपनिवेशिकता व विभाजन की जांच- पडताल करता है। लगभग यही काम कल्पित की कविता तमाम उन स्रोतों के माध्यम से करती है जिनका उन्होने उल्लेख किया है। लेकिन विभाजन के संदर्भ को कल्पित ने पता नहीं क्यों छोड दिया है। हम लोग, जो भारत की साझी विरासत और यहां की सामासिक संस्कृति की बात करते हैं, उनके लिए विभाजन पर विमर्श एक विकट चुनौती रहा है।
इस महत्वाकांक्षी रचनात्मक प्रोजेक्ट की प्रेरणा के बारे में बताते हुए कल्पित कहते हैं: आलोचकों का काम कुछ आसान करते हुए यह स्पष्ट कर दूं कि हिन्दनामा फारसी के महाकवि फिरदौसी के अमर महाकाव्य शाहनामा से प्रेरित है। प्रेरित इस मायने में कि यह सोचकर ही रोमांच होता है कि कोई कवि अपने जीवन भर अपने देश पर कविता लिखता रहा। इसके बाद कल्पित फिरदौसी का एक इतिवृत्त वर्णित करते हैं जो इस प्रकार है:
महमूद ग़ज़नवी ने फिरदौसी को यह कार्य सौंपा था। हर पंक्ति/ शे र पर एक दीनार ( स्वर्ण मुद्रा) देने का वायदा किया गया। लेकिन जब ६० हजार शे रों का शाहनामा पूर्ण हुआ तो महमूद ग़ज़नवी ने फिरदौसी को दीनार के बजाय दिरहम ( रजत मुद्रा) देने चाहे। फिरदौसी नाराज हो गया- दिरहमों को ठोकर मारकर चला आया। फिरदौसी ने कहा- गुलाम वंश का आदमी गुलाम ही रहता है, चाहे वह शहंशाह बन जाये। बदनामी से बचने के लिए महमूद गजनवी ने फिरदौसी के पास दीनार भिजवाये। लेकिन जब स्वर्ण मुद्राओं से लदे घोडे फिरदौसी के गाँव पहुंचे तो फिरदौसी को दफनाया जा रहा था।
इस प्रसंग में कई चीजें अन्तर्निहित हैं। कि फिरदौसी अपनी प्रेरणा से यह काम नहीं कर रहा था। उसे कहा गया था और धन दिया जा रहा था। जब धन दिया जा रहा था तो सिर्फ फारस की तारीफ के लिए तो उस जमाने में दिया नहीं जा रहा होगा। मैं शाहनामा के बारे में कुछ नहीं जानता लेकिन नाम से तो लगता है, यह मूलतः शाह की प्रशस्ति में है। फिर फिरदौसी को पहली बार शाह के पूर्व में गुलाम होने का अहसास तब हुआ, जब उसकी पगार घट गयी। और अंत में उसे अपनी गुलामी का तो अहसास शायद आखिर तक नहीं हुआ, या हो सकता है इसी के सदमे से मरा हो। कल्पित हिन्दनामा की तुलना महाभारत से करते हैं, इस पर सुधीजन विचार करें लेकिन इतना जरूर है कि ईरान से भारत की तुलना नहीं की जा सकती।
वैसे कल्पित आगे लिखते हैं कि हिन्दनामा प्राथमिक तौर पर शाहनामा से प्रेरित होने के बावजूद एक अलग कृति है। इसे लिखने का काम किसी महमूद गजनवी ने कवि को नहीं सौंपा, और न यह कृति हिन्दुस्तान का गौरव- गान है। यहीं कल्पित को यह भी साफ कर देना चाहिए था कि वह फिरदौसी की उस मानसिकता से इत्तेफाक नहीं रखते जो एक गुलाम की संतान को गुलाम समझती है, भले ही वह राजा हो जाये। कल्पित इस सोच के निहितार्थ न जानते हों, ऐसा मानने में मुश्किल होती है। भूमिका के अलावा संकलन में इसी इतिवृत्त पर कविता है और उसमें भी यही संवाद इसी लहजे में आता है। ऐसे में गलत संदेश जाने की संभावना रहती है, उस देश में जहां हजारों लोग गुलामी जैसी स्थिति से निकल कर आज सत्ता के शीर्ष पर मौजूद हैं। यहाँ साफ कर देना चाहता हूं कि संकलन की मूल प्रस्थापना पूरी तरह वंचित वर्ग के पक्ष में है। एक कविता में कल्पित उदघोष जैसा करते हैं कि इस देश को शूद्रों ने बनाया है। वे इतिहासकारों की इस अवधारणा का समर्थन करते हैं कि विभाजित समाज ने भारत को कमज़ोर किया। फिरदौसी प्रसंग खुद कल्पित की उन तार्किक और काव्यात्मक निष्पत्तियों के विरुद्ध जाता है जो इस संकलन में सर्वत्र व्याप्त हैं।
कल्पित ठीक ही हिन्दनामा को देश का गौरव- गान नहीं कह रहे हैं। यह सच में देश की आत्मा और चित्त की पडताल है और एक सांस्कृतिक संधान भी। टी एस ईलियट की वेस्ट लैंड कविता जिस तरह पश्चिम की आधुनिक सभ्यता की क्रिटिकल इनक्वायरी करती है, यह कुछ- कुछ वैसी ही प्रक्रिया है। खिलनानी की भारतनामा का फोकस वर्तमान पर है , उसके परिप्रेक्ष्य में अतीत है। इसके विपरीत यहां फोकस अतीत पर है। इसकी एक वजह हमें कल्पित की उस बात में नजर आती है जो उन्होंने पुस्तक की भूमिका के आखिर में कही है: उग्र राष्ट्रवाद के इस वैश्विक दौर में अपने राष्ट्र को जानने की कोशिश निश्चय ही जोखिम का काम है , और यह कहने की शायद कोई जरूरत नहीं कि हिन्दनामा हिन्दूनामा नहीं है। हिन्दुस्तान का इन्द्रधनुष सात रंगों से मिलकर बना है। कल्पित इस सतरंगी परंपरा को चीन्हते अतीत तक गये हैं। वैसे ईलियट ने ही कहा है कि अतीत का एक हिस्सा वर्तमान में रहा करता है।
चूँकि कविता इतिहास के साथ मुखामुखम है तो उसे अतीत को द्वंद्वात्मक समझ के साथ देखना चाहिए, कल्पित की कविता ठीक यही करती है। वहाँ हर धारा, सोच और पद्धति अन्तर्विरोधों और विपर्यय के साथ विन्यस्त है। इतिहास दर्शन के विद्वान ई एच कार मानते हैं: इतिहास वर्तमान और अतीत के बीच लगातार चलने वाली अन्योन्य क्रिया है और इतिहासकार और उसके तथ्यों के बीच कभी न समाप्त होने वाला संवाद है।... भारत एक पुरातन सभ्यता है और यहां समुदाय, जाति और धर्मों का बाहुल्य है। कहा जाता है कि भारत में जितने प्रकार के और जितनी मनोवृत्तियों के लोग हैं, उतनी ही तरह के देवी- देवता हैं, यहाँ तक कि पशु- पक्षी किस्म के अवतार भी मौजूद हैं। हिन्दनामा इन सबका बोलता अजायबघर है। सिमोन वेल कहते हैं, मनुष्य की आत्मा की जरूरतों में अतीत की जरूरत सबसे अधिक शक्तिशाली है।
आज से दो दशक पहले भारतनामा में सुनील खिलनानी ने एकत्ववादी शक्तियों के वर्चस्व की आशंका जताई थी। लेकिन इसके बावजूद वे इसे भारत के मूल विचार के प्रतिकूल मान रहे थे। भारतनामा के हिन्दी संस्करण की भूमिका के अंत में वे लिखते हैं: .... भारत एक है, लेकिन उसके विचार अनेक हैं।... कारण साफ है: एकनिष्ठ. किस्म की और अन्य अवधारणाओं के मुकाबले भारत की केवल यही अवधारणा ऐसी है जो अन्य विचारों को उभारने तथा दूसरी अवधारणाओं से सहअस्तित्व की गुंजाइश देती है।... यह प्रीतिकर है कि जोखिम भरे इस समय में यही बात कविता में तमाम इतिवृत्तों , प्रसंगों, उपाख्यानों और रह्यटोरिक के साथ कही जा रही है जो एक संश्लिष्ट और अपेक्षाकृत प्रतिष्ठित विधा है। वैसे कल्पित चाहते तो संकलन का कलेवर कुछ छोटा हो सकता था, कम से कम वे कविताएँ तो निकाली जा सकती थीं जो हिन्दनामा और हिन्दनामाकार की महिमा में हैं और जैसी कविताओं के कारण उन पर आत्ममुग्धता का आरोप लगता है।
हिन्दनामा पर इसके रचयिता खुद कृष्ण कल्पित ने जितना बोल- लिख दिया है उसने दूसरों के लिए मुश्किल पैदा कर दी है। यदि कोई इस किताब के पक्ष में कुछ कहता है तो वह कल्पित की किसी अथवा किन्हीं बातों का अनुमोदन मात्र होगा क्योंकि इसके पक्ष में शायद ही कोई बात हो जिसे वे पहले न कह चुके हों। यदि कोई आलोचना में कुछ कहता है तो दूसरी मुश्किल है। जब उनके कुछ कहे पर किसी ने प्रतिक्रिया दी कि आप तो अपनी किताब का प्रचार कर रहे हैं तो उनका जबाव था, प्रचार कर रहा हूं, दुष्प्रचार नही। तो आप पर दुष्प्रचार करने का लांछन लग सकता है। असल में, लेखकों द्वारा अपनी किताब के प्रमोशन में उतरने से ऐसी दुविधा उत्पन्न हुई है। वैसे रचनाकार अपनी कृति के बारे में कितना बोले, क्या बोले- इसे लेकर कोई नियम - कायदे तो हैं नहीं , और होने भी नहीं चाहिए। लेखक काफी समय से अपनी किताबों के ब्लर्व लिखते रहे हैं। पहले ये बेनामी होते थे, अब इसके साथ अपना नाम दिया जाने लगा है। किताब की भूमिका लिखने का रिवाज तो ऐतिहासिक है। वे अपनी रचना- प्रक्रिया पर बोलते- लिखते रहे हैं और साक्षात्कारों में अपनी पसंद के पेन, कागज अथवा गजेट का नाम बताते रहे हैं। तो क्या इसकी कोई सीमा रेखा होनी चाहिए? मेरी राय में तो इतना भर निवेदन है कि कम से कम उसे कृति पर मूल्य- निर्णय से बचना चाहिए। हो सकता है, उसे आलाचकों पर भरोसा न हो और गंभीर आलोचना का अकाल तो हिन्दी में दशकों से है, लेकिन पाठकों पर तो वह भरोसा कर ही सकता है।
बहरहाल, यह भूमिका मैं ने इसलिए नहीं बनायी है कि मैं कृष्ण कल्पित की इस नयी किताब के विरुद्ध कुछ कहने जा रहा हूं। यह वैसी ही एक त्वरित टिप्पणी है, जैसी अक्सर यहां की जाती हैं। इस किताब की पहली विशेषता ही यही है कि यह आपसे गंभीर प्रतिक्रिया मांगती है, यह पांच मिनिट का मौन भी हो सकता है और ऐसी प्रतिक्रियाओं के लिए आपको बाध्य कर देती है। अंग्रेजी के कवि कालरिज ने कविताएँ लिखना छोड कर आलोचना में लिखना शुरू किया और साहित्य को भी जीवन की आलोचना कहा। उसके बाद अंग्रेज़ी के ही कवि- आलोचक मैथ्यू अर्नाल्ड ने कहा कि साहित्य को सभ्यता- समीक्षा करनी चाहिए। हमारे यहाँ तो शुक्ल जी ने साहित्य को समाज के दर्पण से आगे बढाकर उसे लोक- मंगल से जोड दिया था। कल्पित की यह ३०० पृष्ठों और २८३ कविताओं को समेटे महाकाय किताब इस महादेश भारत की सभ्यता- समीक्षा है।
कल्पित भूमिका में लिखते हैं: यह किताब न हाली की मुसददस है, न मैथिलीशरण गुप्त की भारत- भारती। न यह बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय की आनंदमठ है, न जवाहरलाल नेहरू की भारत की खोज। न यह वी एस नायपाल का अंधेरे का इलाका है और न यह अमर्त्य सेन का तर्कशील भारत, न यह दिनकर की संस्कृति के चार अध्याय है और न ही यह गांधी की हिन्द स्वराज है। कल्पित के इस नामजद नकार और इसके बावजूद, कि किताब में आनंद मठ के अलावा इनमें से किसी किताब का कोई संदर्भ भी नहीं है, हिंद नामा पर विचार का परिप्रेक्ष्य तो इनसे व ऐसी ही कुछ और किताबों से बनता है क्योंकि ये सभी एक ध्येय- इस उप महाद्वीप की सभ्यता- समीक्षा- से सम्बद्ध हैं। और हो सकता है कल्पित अपनी खास शैली में इसी बात का संकेत कर रहे हों।
कल्पित की अगली बात इस किताब के संदर्भ में बहुत महत्वपूर्ण है: हिन्दनामा एक कवि की किताब है, जिसमें कवि का देश दिखाई पड़ता है। एक कवि का पढा हुआ, लिखा हुआ, सुना हुआ, जाना हुआ और पूरी तरह आत्मसात् किया हुआ। हिन्दनामा मूलतः एक कवि का कार्यभार था- जहाँ किस्से- कहानियाँ, इतिहास, भूगोल, कल्पना - स्मृति- यथार्थ, जादू- टोना, तंतर- मंतर सब अपनी जरूरी आवाजाही करते हैं।... इसके मायने हैं कि हमें इस कृति को इसकी समग्रता में एक कविता की तरह देखना चाहिए जहाँ कवि ने जन- सामान्य के चित्त, संवेदना और स्वप्नों को समझने और प्रतिबिंबित करने की चेष्टा की है। कविता अपने में ही एक सृजनात्मक सांस्कृतिक रूप है तो उससे पहली अपेक्षा भी सांस्कृतिक ताने- बाने को परिलक्षित करने की हो सकती है। इसे सौंदर्यशास्त्रीय प्रतिमानों पर ही जांचा- परखा जाना चाहिए।
इधर कथ्य और शैली के अन्तर्सम्बन्ध पारंपरिक दायरे तोडने लगे हैं और इसमें तब तक कोई समस्या नहीं है जब तक कि मूल सृजन को यह प्रैक्टिस मूल्यवान बनाती हो। सृजनात्मक साहित्य अपनी काव्य- भाषा या गल्प-शैली के माध्यम से समाजशास्त्रीय वक्तव्य जारी करने लगा है और समाजशास्त्र अपने तथ्यों और कथ्य को साहित्य की ललित शैलियों में बयान करने की कला विकसित कर रहा है। बंगला में महाश्वेता देवी और हिंदी में संजीव और उदय प्रकाश के नाम तो इस प्रसंग में तुरंत याद आ रहे हैं।
समाज- विज्ञान से मुझे सुनील खिलनानी यहाँ दो कारणों से उल्लेखनीय लगते हैं। एक तो उनकी पुस्तक दि आइडिया आफ इंडिया भारतीय आजादी की अर्द्ध- शताब्दी (१९९७) के अवसर पर प्रकाशित हुई जिसका अनुवाद भारतनामा शीर्षक (अनु. अभयकुमार दुबे) से हिस्सा में राजकमल से ही छपा और मकबूल हुआ। दूसरे, मूलतः राजनीति की कृति होने के बावजूद इसकी शैली ललित निबंध से बेहद प्रभावित है। इसमें उद्धरणों का इस्तेमाल भी इस तरह किया गया है कि वे एक सतत् प्रवाहमान अनुभूति का अंग लगते हैं। नेहरू, गांधी, अम्बेडकर और सावरकर समेत भारतीय राजनीति के कई नायक शैलीगत विशिष्टता के योगदान में व्यक्ति नहीं रहते बल्कि एक विचार में तब्दील हो जाते हैं। भारत या इंडिया नाम का राष्ट्र अपने भौगोलिक और ऐतिहासिक अस्तित्व के साथ धीरे- धीरे एक समग्र विचार के रूप में उभरता है। खिलनानी का राजनीति शास्त्र गालिब के पत्रों में दर्ज पुरानी दिल्ली के ध्वंस की त्रासदी से होते हुए भारतीय उपमहाद्वीप के सीने पर विभाजन की अमिट तसवीर खींचने वाले सिरिल रैडक्लिफ की एकांत हवेली के वर्णन, डबल्यू एच आडेन की कविता के जरिये करता है। वह पंचवर्षीय योजनाएं बनाने वाले प्रशांत चंद्र महलनोविस की सांख्यिकीय निपुणता और रवीन्द्र नाथ टैगोर के गद्य- काव्य के संबंधों को स्पर्श करता है। यह समाज विज्ञान राजनेताओं के साथ- साथ नीरद सी चौधरी, नायपाल और मंटो के माध्यम से राष्ट्रवाद, औपनिवेशिकता व विभाजन की जांच- पडताल करता है। लगभग यही काम कल्पित की कविता तमाम उन स्रोतों के माध्यम से करती है जिनका उन्होने उल्लेख किया है। लेकिन विभाजन के संदर्भ को कल्पित ने पता नहीं क्यों छोड दिया है। हम लोग, जो भारत की साझी विरासत और यहां की सामासिक संस्कृति की बात करते हैं, उनके लिए विभाजन पर विमर्श एक विकट चुनौती रहा है।
इस महत्वाकांक्षी रचनात्मक प्रोजेक्ट की प्रेरणा के बारे में बताते हुए कल्पित कहते हैं: आलोचकों का काम कुछ आसान करते हुए यह स्पष्ट कर दूं कि हिन्दनामा फारसी के महाकवि फिरदौसी के अमर महाकाव्य शाहनामा से प्रेरित है। प्रेरित इस मायने में कि यह सोचकर ही रोमांच होता है कि कोई कवि अपने जीवन भर अपने देश पर कविता लिखता रहा। इसके बाद कल्पित फिरदौसी का एक इतिवृत्त वर्णित करते हैं जो इस प्रकार है:
महमूद ग़ज़नवी ने फिरदौसी को यह कार्य सौंपा था। हर पंक्ति/ शे र पर एक दीनार ( स्वर्ण मुद्रा) देने का वायदा किया गया। लेकिन जब ६० हजार शे रों का शाहनामा पूर्ण हुआ तो महमूद ग़ज़नवी ने फिरदौसी को दीनार के बजाय दिरहम ( रजत मुद्रा) देने चाहे। फिरदौसी नाराज हो गया- दिरहमों को ठोकर मारकर चला आया। फिरदौसी ने कहा- गुलाम वंश का आदमी गुलाम ही रहता है, चाहे वह शहंशाह बन जाये। बदनामी से बचने के लिए महमूद गजनवी ने फिरदौसी के पास दीनार भिजवाये। लेकिन जब स्वर्ण मुद्राओं से लदे घोडे फिरदौसी के गाँव पहुंचे तो फिरदौसी को दफनाया जा रहा था।
इस प्रसंग में कई चीजें अन्तर्निहित हैं। कि फिरदौसी अपनी प्रेरणा से यह काम नहीं कर रहा था। उसे कहा गया था और धन दिया जा रहा था। जब धन दिया जा रहा था तो सिर्फ फारस की तारीफ के लिए तो उस जमाने में दिया नहीं जा रहा होगा। मैं शाहनामा के बारे में कुछ नहीं जानता लेकिन नाम से तो लगता है, यह मूलतः शाह की प्रशस्ति में है। फिर फिरदौसी को पहली बार शाह के पूर्व में गुलाम होने का अहसास तब हुआ, जब उसकी पगार घट गयी। और अंत में उसे अपनी गुलामी का तो अहसास शायद आखिर तक नहीं हुआ, या हो सकता है इसी के सदमे से मरा हो। कल्पित हिन्दनामा की तुलना महाभारत से करते हैं, इस पर सुधीजन विचार करें लेकिन इतना जरूर है कि ईरान से भारत की तुलना नहीं की जा सकती।
वैसे कल्पित आगे लिखते हैं कि हिन्दनामा प्राथमिक तौर पर शाहनामा से प्रेरित होने के बावजूद एक अलग कृति है। इसे लिखने का काम किसी महमूद गजनवी ने कवि को नहीं सौंपा, और न यह कृति हिन्दुस्तान का गौरव- गान है। यहीं कल्पित को यह भी साफ कर देना चाहिए था कि वह फिरदौसी की उस मानसिकता से इत्तेफाक नहीं रखते जो एक गुलाम की संतान को गुलाम समझती है, भले ही वह राजा हो जाये। कल्पित इस सोच के निहितार्थ न जानते हों, ऐसा मानने में मुश्किल होती है। भूमिका के अलावा संकलन में इसी इतिवृत्त पर कविता है और उसमें भी यही संवाद इसी लहजे में आता है। ऐसे में गलत संदेश जाने की संभावना रहती है, उस देश में जहां हजारों लोग गुलामी जैसी स्थिति से निकल कर आज सत्ता के शीर्ष पर मौजूद हैं। यहाँ साफ कर देना चाहता हूं कि संकलन की मूल प्रस्थापना पूरी तरह वंचित वर्ग के पक्ष में है। एक कविता में कल्पित उदघोष जैसा करते हैं कि इस देश को शूद्रों ने बनाया है। वे इतिहासकारों की इस अवधारणा का समर्थन करते हैं कि विभाजित समाज ने भारत को कमज़ोर किया। फिरदौसी प्रसंग खुद कल्पित की उन तार्किक और काव्यात्मक निष्पत्तियों के विरुद्ध जाता है जो इस संकलन में सर्वत्र व्याप्त हैं।
कल्पित ठीक ही हिन्दनामा को देश का गौरव- गान नहीं कह रहे हैं। यह सच में देश की आत्मा और चित्त की पडताल है और एक सांस्कृतिक संधान भी। टी एस ईलियट की वेस्ट लैंड कविता जिस तरह पश्चिम की आधुनिक सभ्यता की क्रिटिकल इनक्वायरी करती है, यह कुछ- कुछ वैसी ही प्रक्रिया है। खिलनानी की भारतनामा का फोकस वर्तमान पर है , उसके परिप्रेक्ष्य में अतीत है। इसके विपरीत यहां फोकस अतीत पर है। इसकी एक वजह हमें कल्पित की उस बात में नजर आती है जो उन्होंने पुस्तक की भूमिका के आखिर में कही है: उग्र राष्ट्रवाद के इस वैश्विक दौर में अपने राष्ट्र को जानने की कोशिश निश्चय ही जोखिम का काम है , और यह कहने की शायद कोई जरूरत नहीं कि हिन्दनामा हिन्दूनामा नहीं है। हिन्दुस्तान का इन्द्रधनुष सात रंगों से मिलकर बना है। कल्पित इस सतरंगी परंपरा को चीन्हते अतीत तक गये हैं। वैसे ईलियट ने ही कहा है कि अतीत का एक हिस्सा वर्तमान में रहा करता है।
चूँकि कविता इतिहास के साथ मुखामुखम है तो उसे अतीत को द्वंद्वात्मक समझ के साथ देखना चाहिए, कल्पित की कविता ठीक यही करती है। वहाँ हर धारा, सोच और पद्धति अन्तर्विरोधों और विपर्यय के साथ विन्यस्त है। इतिहास दर्शन के विद्वान ई एच कार मानते हैं: इतिहास वर्तमान और अतीत के बीच लगातार चलने वाली अन्योन्य क्रिया है और इतिहासकार और उसके तथ्यों के बीच कभी न समाप्त होने वाला संवाद है।... भारत एक पुरातन सभ्यता है और यहां समुदाय, जाति और धर्मों का बाहुल्य है। कहा जाता है कि भारत में जितने प्रकार के और जितनी मनोवृत्तियों के लोग हैं, उतनी ही तरह के देवी- देवता हैं, यहाँ तक कि पशु- पक्षी किस्म के अवतार भी मौजूद हैं। हिन्दनामा इन सबका बोलता अजायबघर है। सिमोन वेल कहते हैं, मनुष्य की आत्मा की जरूरतों में अतीत की जरूरत सबसे अधिक शक्तिशाली है।
आज से दो दशक पहले भारतनामा में सुनील खिलनानी ने एकत्ववादी शक्तियों के वर्चस्व की आशंका जताई थी। लेकिन इसके बावजूद वे इसे भारत के मूल विचार के प्रतिकूल मान रहे थे। भारतनामा के हिन्दी संस्करण की भूमिका के अंत में वे लिखते हैं: .... भारत एक है, लेकिन उसके विचार अनेक हैं।... कारण साफ है: एकनिष्ठ. किस्म की और अन्य अवधारणाओं के मुकाबले भारत की केवल यही अवधारणा ऐसी है जो अन्य विचारों को उभारने तथा दूसरी अवधारणाओं से सहअस्तित्व की गुंजाइश देती है।... यह प्रीतिकर है कि जोखिम भरे इस समय में यही बात कविता में तमाम इतिवृत्तों , प्रसंगों, उपाख्यानों और रह्यटोरिक के साथ कही जा रही है जो एक संश्लिष्ट और अपेक्षाकृत प्रतिष्ठित विधा है। वैसे कल्पित चाहते तो संकलन का कलेवर कुछ छोटा हो सकता था, कम से कम वे कविताएँ तो निकाली जा सकती थीं जो हिन्दनामा और हिन्दनामाकार की महिमा में हैं और जैसी कविताओं के कारण उन पर आत्ममुग्धता का आरोप लगता है।
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