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लुप्त होते ललित निबंध भाग -एक


राजाराम भादू
हमें इस ओर भी एक नज़र जरूर डाल लेनी चाहिए कि इस समय ललित निबंध की  स्थिति क्या है। इसके लिये हमें बहुत तकलीफ नहीं उठानी होगी, बल्कि हम बहुत जल्दी यह निष्कर्ष दे देंगे कि ललित निबंध शीघ्र लुप्त हो जाने वाली विधा है। ललित निबंध जैसी विधा का क्षरण एक गंभीर घटना है, यदि हम हिन्दी को एक ठोस धरातल प्रदान करने में ललित निबंध की ऐतिहासिक महत्ता को समझते हैं। ललित निबंध की स्थिति प्रकारान्तर से यह दर्शाती है कि हिन्दी में गंभीर और कलात्मक गद्य एक खतरनाक संकट की स्थिति में है। जिस समीक्षा की हम आज अपेक्षा करते हैं, क्या वह सबसे गंभीर और सरस गद्य नहीं होती? इसका क्या कारण है कि आज कोई लेखक ललित निबंध नहीं लिखना चाहता और न केवल आलोचना।

आखिर कोई पत्रिका कविता या कहानी से इतर विशेषांक निकालने में ज्यादा दिलचस्पी क्यों नहीं लेती, जबकि हिन्दी में साहित्यिक पत्रिकाओं की कमी नहीं है। ऐसा क्यों है कि संपादक सिर्फ कविता या कहानी के संकट की समस्या उठाते हैं,  अथवा आलोचना के गतिरोध का मामला उठाया जाता है? लेकिन हम यह भूल जाते हैं कि किसी विधा को समग्र परिप्रेक्ष्य से काटकर किन्हीं सुसंगत निष्कर्षों तक नहीं पहुंचा जा सकता। विधा की स्थिति समूचे साहित्य के समानांतर होती है। सृजन के परिदृश्य  की जडता , मंथरता या ऊहापोह की स्थिति में किसी विधा विशेष के निरपेक्ष फलते- फूलते जाने की कल्पना कैसे की जा सकती है, लेकिन ऐसा होता रहा है। समीक्षा पर विचार करते हुए भी गद्य- लेखन की दशा पर हल्की- सी नज़र भी नहीं डाली गयी।

ललित निबंध तो लुप्त हो ही रहे हैं, अन्य गद्य- विधाओं का हाल भी ठीक नहीं है। संस्मरण, रेखाचित्र,  रिपोर्ताज, डायरी आदि कहानी से इतर गद्य- विधाएं गर्दिश में गुजर रही हैं। क्या इसके लिए यही कहा जा सकता है कि हिन्दी में इनके पाठक नहीं हैं। या यह कि कोई कथाकार अथवा कवि यह सब क्यों लिखे, अलग-अलग विधाओं में टांग फंसाता फिरे? इससे तो यही प्रमाणित होता है कि हम साहित्य में जिस कंपार्टमेंटलाइजेशन से डर रहे थे, वह हो रहा है। यदि ऐसा खंड- विभाजन है तो यह बहुत खराब बात है क्योंकि यह स्थिति सृजन- परिदृश्य की प्रकृति के प्रतिकूल है। साहित्य- सृजन में विधाओं के मध्य उन्मुक्त आवाजाही रही है ‌‌‌। किसी विधा  को दोयम श्रेणी प्रदान कर हम गैर- जनतांत्रिक दृष्टिकोण प्रदर्शित करते हैं और अभिव्यक्ति के एक मौलिक तरीके को हतोत्साहित करते हैं। कहीं हिन्दी में जाने-  अनजाने ऐसा ही तो नहीं हुआ है।

हिन्दी साहित्य के इतिहास में एक दौर ऐसा भी रहा है, जब भाषा के स्थापत्य और विधाओं के विकास में साहित्यकारों ने दिन- रात एक किया। हिन्दी साहित्य की तमाम विधाओं को समर्थ और समृद्ध किया गया ताकि किसी भी अन्य प्रतिष्ठित देशी- विदेशी भाषा से इसकी तुलना की जा सके। लगता है, आजादी के दो दशक बाद मोहभंग के जिस दौर की बात की जाती है उसमें हिन्दी भाषा के निर्माण और साहित्य सर्जना का वह उत्साह जाता रहा। जबकि होना तो यह चाहिए था कि सृजन की और- और विधाएं तथा रूपाकार सामने आते। यथार्थ जितना जटिल और विरूपित हुआ है, अन्तर्वस्तु जितनी उलझी और भ्रमावृत है,अभिव्यक्ति के रूप उतने ही ज्यादा सीमित और सपाट होते गये हैं। क्या यह जीवन में यथास्थिति की स्वीकृति और सरलीकरण को अपनाने की सामान्य होती जा रही प्रवृत्ति का प्रतिबिंबिन तो नहीं है? हम परंपरा का पुनरावलोकन इस अर्थ में क्यों नहीं करना चाहते? कलाएं एक व्यापक और खुले नजरिये की मांग भी तो करती हैं।

डा. नामवरसिंह ने आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबंधकार स्वरूप पर विचार करते हुए मांतेन का जिक्र किया है: आखिर मांतेन से पहले यूरोप में भी "एसे" कहां था? और जब वह गद्य की एक विधा बनकर बेकन से हैजलिट तक पहुंचा तो क्या वह अपनी प्राणवत्ता में मांतेन का ही " एसे" रह गया था? दरअसल इस विधा के जन्म का संबंध एक निश्चित सांस्कृतिक वातावरण और एक निश्चित मानसिकता के मनुष्य से है। ( दूसरी परंपरा की खोज) आगे नामवर जी कलाओं के इतिहासविद केनेथ क्लार्क की अत्यंत लोकप्रिय पुस्तक सिविलाइजेशन (१९६९) से उस वातावरण और उस मनुष्य की याद को उद्धृत करते हैं: सोलहवीं सदी के मध्य में कोई समझदार और खुले दिमाग का आदमी क्या कर सकता था? चुपाई मारे एकान्त में काम करे, बाहर से हां- हां करे,  अंदर स्वतंत्र रहे। यह स्थिति आज के मनुष्य की स्थिति से कितनी मेल खाती है। तब मांतेन पर केनेथ की टिप्पणी ललित निबंध के प्रसंग में और भी महत्वपूर्ण हो जाती है: अतीत में आत्म परीक्षा पीडादायी और पश्चाताप पूर्ण थी, मांतेन के लिए वह आनंददायक थी। उसने " एसे" का आविष्कार इसी कार्य के लिए किया।

मांतेन और बेकन ने अंग्रेजी के " एसे" को परिभाषित करते हुए इसे विचारों की खुली उड़ान और कल्पना की उन्मुक्त उड़ान कहा था। हमारे यहाँ इसे कहा गया " निबन्ध "। यह कितना प्रीतिकर तथ्य है कि हमें इस शब्द और विधा के सूत्र संस्कृत में मिले। संस्कृत में ही गद्य को कवि का निकष कहा गया है। जब निबन्ध ने साहित्य का अतिक्रमण कर लेखन की एक स्वतंत्र विधा का रूप अख्तियार कर लिया तो इसे साहित्य में अलग से दिखाने के लिए कहा गया- ललित निबंध।

हमारे बडे रचनाकारों ने गद्य को अपने श्रम और मेधा से पोषित किया और हिन्दी को श्रेष्ठ ललित निबंध दिये। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के निबंधों को याद करें तो इस विधा का आकर्षण और सामर्थ्य साफ- साफ पता चल जाती है। लेकिन इसके बाद ललित निबंध के संदर्भ में सिर्फ दो- तीन नाम और याद आते हैं- विवेकीराय, कुबेरनाथ राय और विद्यानिवास मिश्र। इसके बाद कितने लोगों ने इस विधा को समर्पण भाव से अपनाया? यह सुनकर तो आशंका होती है कि ललित निबंध कहीं गुजरे जमाने की चीज तो नहीं होने जा रहे?

गद्य विचार का संवाहक है। यहाँ चिन्तन और विश्लेषण की गुंजाइश है। फिर ललित निबंध में विचार की उड़ान भरना संभव है। द्विवेदी जी की विचार - प्रक्रिया में ये उद्धरण दृष्टव्य हैं: देवदारू के बार-बार कंपित होते रहने में एक प्रकार की मस्ती है, कुटज वैसे तो अदना- सा फूल है पर ऐसा मनस्वी और मस्त कि कठोर पाषाण को भेदकर , पाताल की छाती चीरकर और झंझा- तूफान  को रगडकर जीने का रस खींच लेता है; कालिदास का दुलारा शिरीष तो ऐसा है कि जब धरती और आसमान जलते रहते हैं, तब भी यह हजरत न जाने कहां से अपना रस खींचते रहते हैं। ( वही) तो क्या अब विचार- प्रक्रिया का अंत हो गया? क्या यह समय विचार के ह्रास का है? यदि किसी विचारधारा का अंत हो भी गया तो क्या यह मान लेना चाहिए कि विचार मात्र का अंत हो गया? क्या विचारों की भिन्नता के जनतंत्र में विचार शून्यता की स्थिति पैदा हो गयी है अथवा विचारों की उड़ान के लिए अवकाश नहीं है?

( जारी)

टिप्पणियाँ

  1. बहुत ही दुःख की बात है की जिस विधा से गद्य साहित्य का परिष्कार हुआ उसे ही आज अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है

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