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जुलाई, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

गांव की स्मृतियाँ - ज्ञान चंद बागड़ी

भूमंलीकरण और आर्थिक उदारवादी नीतियों ने गाँव, कृषि और पारंपरिक उद्यमों का भयावह हाशियाकरण किया है। कथाकार ज्ञानचंद बागडी अपनी स्मृतियों के गाँव को प्रस्तुत कर रहे हैं। ऐसा नहीं कि अतीत का वह गाँव कोई आदर्श था लेकिन जिस तरह बदलाव आया, वह भी सहज नहीं कहा जा सकता। इसी संदर्भ में ये संस्मरण- लेख मीमांसा में प्रस्तुत किया जा रहा है। मेरा गाँव मेरे लिए दुनिया की सबसे सुंदर जगह है , जहां मेरा बचपन बीता था । गाँव और बचपन की स्मृतियाँ  मुझे रोमांचित कर देती हैं । दिल करता है कि उड़कर गाँव पहुंच जाऊं । यही कारण है कि समय निकालकर वहां जाता रहता हूँ । वहां बिताये हुए कुछ ही दिन मुझे पूरे साल के लिए ऊर्जा प्रदान करते हैं । मेरे लिए गाँव का मतलब है प्रकृति का साथ , खेत-खलिहान ,  जहाँ सुबह आपकी आँख मुर्गे की बांग या किसी पशु के रंभाने से खुले , जहां मोर नाचते हों , झिंगुरों की आवाज सुनी जा सके , रात में एक-एक तारा साफ दिखाई दे , अंधेरे का संगीत और सन्नाटा सुनाई दे , साझी विरासत हो और साझी ही बहन-बेटियां , सहयोग हो , सामाजिकता हो , सादा खाना हो , मोटा पहनावा हो । ऐसा ही तो था मेरा गाँव , सरल औ...

कविताएं : सत्यदेव बारहठ

सत्यदेव बारहठ एक छुपे हुए कवि थे। लंबे छुपाव और संकोच के बाद वे इस रूप में प्रकट हुए हैं। उनके कवि का स्वागत करते हुए हम उनकी कविताएँ मीमांसा में प्रस्तुत कर रहे हैं। साथ ही, कविताओं पर सत्यनारायण की टिप्पणी है। सत्यदेव बारहठ की कविताएं अपने समय, समाज और स्वयं से रूबरू कविताएं हैं। इन कविताओ ंका फलक तीन साढ़े तीन दशक के बीच फैला हुआ है। हालांकि इस बीच कवि के विचार और स्वभाव में ज्यादा परिवर्तन नहीं आया बल्कि वह अधिक प्रौढ़़ और ज्यादा निखरकर सामने आया है। इसीलिए ये कविताएं आज भी बराबर विश्वसनीय बनी हुई हैंै। कवि को तब भी यह विश्वास था कि - ’’तार वीणा के बजेंग/ कर्ण स्वर आनंद लेंगे/ मधुर वेला की प्रतीक्षा हेतु/ अब यह जागरण है/ जागरण है/ जागरण है।’’ चार दशक पहले लिखी कविता के ये अंश हैं तो सन् दो हजार में लिखी कविता की पंक्तियां हैं - ’’मनुष्य होने का अर्थ तलाशते/ हमारे हाथ यह सत्य लगा है/ कि हम हारें नहीं/ अपनी पूरी सामथ्र्य से/ मुकाबला करें/ मनुष्य के खिलाफ खड़ी/ ताकतों का/ मनुष्य को/ विवेकहीन, दीन-हीन, कातर/ बना देने वाली ताकतों का।’’ लेकिन दो हजार पांच तक आते आते कवि को लगता है कि - ’’सत...

संकट में संस्कृति - सुचेता सिंह

विगत शताब्दी के आखिर में शुरू वैश्वीकरण की प्रक्रिया के प्रतिफलन में सांस्कृतिक संकट की चर्चा आरम्भ हुई थी। दशकवार इस विमर्श में संस्कृति की जटिलताओं का समावेश होता गया है। अभूतपूर्व यह है कि यह एवं वैश्विक परिघटना है। मीमांसा में अध्येता सुचेता सिंह इस पर हमारे देश के संदर्भ में लिख रही हैं। संस्कृति जीवन का अभिन्न अंग है। संस्कृृति का विकास मानव सभ्यता के साथ-साथ हुआ है। मुख्यतः संस्कृति मानव-मन में आधार-भूत सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों का प्रतिबिम्ब है। दूसरे शब्दों में, हम कह सकते हैं कि यह सामाजिक-आर्थिक आधार की ऊपरी संरचना का एक भाग है। किसी भी देश या क्षेत्र की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों में परिवर्तन के अनुसार इसमें परिवर्तन होते रहे हैं। आजकल हम मानव-मूल्यों के क्षय होने की मानवीय अनुभूति, प्रेम व सम्मान के कम होने की तथा भौतिकवाद की बातें करते हैं। ये सब आज के सांस्कृतिक संकट का हिस्सा हैं। 90 के दशक के शुरू में भारतीय अर्थ-व्यवस्था के निजीकरण व उदारीकरण के बाद यह संकट तीव्र हुआ है। इसका मतलब यह नहीं है कि इस दशक से पहले और आजादी से पहले सांस्कृतिक संकट नहीं था । संकट था-लेकिन...

हाशिये के समुदायों में शिक्षा

आकलन हिन्दी मे ज्ञान- विज्ञान के अन्य साहित्य की तरह शैक्षिक साहित्य का भी अभाव है। इस क्षेत्र में मौलिक साहित्य के लेखन में कमी को लेकर गंभीर चिंता जताई जाती है जोकि उचित ही है। शिक्षा में विभिन्न विश्वविद्यालय और संस्थानों में शोध होते रहे हैं लेकिन एकाध अपवाद को छोडकर ये भी प्रायः अंग्रेजी में प्रकाशित होते हैं। जाहिर है इसके चलते अनुसंधान का वास्तविक लाभ जमीनी स्तर तक नहीं पहुँच पाता। क्रियात्मक शोध पर आधारित पुस्तक  हाशिये  के  समुदाय ों में शिक्षा इस दृष्टि से संभवतः हिन्दी की अकेली किताब है जिसे हिन्दी में ही लिखा गया है। दूसरे, यह शोध सहभागी अध्ययन पर आधारित था , इसलिए इसमें एक समूह की भूमिका रही है जिसके संयोजित करने और पुस्तक  रूप  देने का काम राजाराम भादू ने किया है। उन्होंने सूक्ष्म स्तर पर क्रियान्वित परियोजनाओं के निष्कर्षों को व्यापक परिप्रेक्ष्य में विश्लेषित किया है। इसके चलते पुस्तक को एक प्रामाणिक और वस्तुपरक आधार मिला है। पूर्वकथन में राजाराम भादू ने कहा है कि आधुनिकता के विमर्श ने हमें मुख्यधारा और  हाशिये  की अवधारणाएं दी हैं। इसक...

कविताएं - चंचला पाठक

चंचला पाठक के हालांकि दो कविता- संकलन आ चुके हैं लेकिन लगता नहीं कि हमने उनके कहन की तिर्यक शैली और आर्त्त संवेदना को ठीक से लक्षित किया है। इस पर भी विशेष यह कि उनकी भाषा में स्वाभाविक प्रवाह है। उनका मुहावरा और शब्द- विन्यास अर्थ की अनुगूंज उत्पन्न करता है। इन कविताओं में आप इसे सहज रूप में अनुभव कर सकते हैं । बिखेर दो मुझे मुझे बिखरते हुए कविता होना था तुमने वर्णों की आकृतियाँ चुनी  मैंने छंदों के निर्बंध के  बीच आकाश में रहना चाहा  तुमने जाने कितने नामों में  जड़ दिये आदिम अर्थों का  निर्वसन  मुझे अतिशय प्रिय था तुमने निर्बाध गढ़े  आभूषण मेरे रोमकूपों से ध्वनित  मालकौंस में सप्तपदी का परिहार कर डाला ...छिन्न-भिन्न कर डाला मुझे बिखेर दो मुझे सुन्दरी के वनों में..... मैं दूर से ही सही- समुद्र का अनुनाद बांचना चाहती हूं निर्मम- सा एकांत डूबती नहीं किसी घाट पर  मृत्यु बस लहरों पर  हंस बनी फिरती है तुम्हारे चले जाने का  सौंदर्यबोध नहीं मेरे पास बस निर्मम सा एकांत है   ........ यहाँ तुम्हारी प्रतिबिम्ब की बात नहीं कर पाऊँगी ...

प्रभात की कविता- रेणु व्यास

आकलन प्रभात ने अपनी कविताओं के जरिये एक विशिष्ट कवि की छवि अर्जित की है। आज जब बहुतेरी कविताएँ निष्प्रभावी मानी जाती हैं, प्रभात की हर कविता अपना गहरा प्रभाव छोडती है। इसके चलते वे बड़े पाठक वर्ग के चहेते कवि हैं। उनके अभी तक प्रकाशित दो संकलनों पर कम किन्तु बहुत बेहतर लिखा गया है। जबकि उनकी बाल- कविताओं पर तो अभी तक सलीके से बात ही नहीं शुरू हुई है जो बाल- साहित्य में एक नया प्रस्थान हैं। बहरहाल, साहित्य की गंभीर अध्येता रेणु व्यास ने प्रभात की कविता का एक आरंभिक आकलन प्रस्तुत किया है। प्रभात के जन्म दिन पर मीमांसा द्वारा इसे आपके साथ बांटा जा रहा है। सतही तौर पर उसे किसानों और श्रमिकों का कवि कह सकते हैं’’ (पृष्ठ 15) अपनी ही कविता में प्रभात ने ‘लोक गायक’ और उसकी रचनात्मकता का परिचय देते हुए जो लिखा है, उसमें ‘किसानों और श्रमिकों’ के साथ आदिवासियों, स्त्रियों, वृद्धों और बच्चों को, नदी-नालों, पोखर और पर्वतों को, पशु-पक्षी, सुबह-साँझ, बादल, बरसात, शीत-आतप, गाँव-जंगल भी जोड़ दें (वैसे यह सूची अधूरी है) तो प्रभात की कविता बनती है। इक्कीसवीं सदी के इस लोक गायक की कविता जीवन को निवेश कर कम...