आकलन
प्रभात ने अपनी कविताओं के जरिये एक विशिष्ट कवि की छवि अर्जित की है। आज जब बहुतेरी कविताएँ निष्प्रभावी मानी जाती हैं, प्रभात की हर कविता अपना गहरा प्रभाव छोडती है। इसके चलते वे बड़े पाठक वर्ग के चहेते कवि हैं। उनके अभी तक प्रकाशित दो संकलनों पर कम किन्तु बहुत बेहतर लिखा गया है। जबकि उनकी बाल- कविताओं पर तो अभी तक सलीके से बात ही नहीं शुरू हुई है जो बाल- साहित्य में एक नया प्रस्थान हैं। बहरहाल, साहित्य की गंभीर अध्येता रेणु व्यास ने प्रभात की कविता का एक आरंभिक आकलन प्रस्तुत किया है। प्रभात के जन्म दिन पर मीमांसा द्वारा इसे आपके साथ बांटा जा रहा है।
सतही तौर पर उसे किसानों और श्रमिकों का कवि कह सकते हैं’’ (पृष्ठ 15)
अपनी ही कविता में प्रभात ने ‘लोक गायक’ और उसकी रचनात्मकता का परिचय देते हुए जो लिखा है, उसमें ‘किसानों और श्रमिकों’ के साथ आदिवासियों, स्त्रियों, वृद्धों और बच्चों को, नदी-नालों, पोखर और पर्वतों को, पशु-पक्षी, सुबह-साँझ, बादल, बरसात, शीत-आतप, गाँव-जंगल भी जोड़ दें (वैसे यह सूची अधूरी है) तो प्रभात की कविता बनती है। इक्कीसवीं सदी के इस लोक गायक की कविता जीवन को निवेश कर कमाए हुए शब्दों से बनी है। शब्दों की इस किसानी में कवि को ख़ुद बीज होना होता है। प्रभात के ही शब्दों में उनकी कविता को देखें -
‘‘उनके जीवन से जो शब्द बनते हैं
प्रायः उन्हीं को काम में लेता है वह कविता रचने के लिए
धूल की तरह साधारण शब्द
ओस की तरह चमकने लगते हैं उसकी कविता में आने पर
बीजों की तरह अँकुआने लगते हैं गाए जाने पर’’ (पृष्ठ 15)
लोककथा के फूल
वह जीवन का गायक है, सिर्फ़ लेखक नहीं। उसकी आवाज़ है - ‘वह आवाज़ जिसमें आँधियाँ हैं’ पर वह ‘आँधियों की नहीं है’। ‘वह आवाज़ जिसमें बारिशें हैं’ पर वह ‘बारिशों की नहीं है’।
‘‘पवन झकोरों और बारिश की बौछारों सी काल से टकराती आती यह आदिम आवाज़
पृथ्वी पर आदमी की है’’
कविता वही आदिम आवाज़ है जो मनुष्य के साथ अब तक चली आई है और जब तक मनुष्यता है, यह बची भी रहेगी। प्रभात की कविता इसी आदिम आवाज़ की इक्कीसवीं सदी में प्रतिध्वनि है। ‘जीवन के दिन’ संग्रह में प्रभात की कुछ सुंदर कविताएँ लोक जीवन और उसके गायकों से जुड़ी हैं। ‘लोकगायक’ से पहले हैं - ‘लोकगायिकाएँ’ जिनका गाना आज से नहीं है, आजभर के लिए नहीं है। वे तब से गा रही हैं जब से लताओं में फूल खिल रहे हैं, कन्दराओं में महलों से निष्कासित मनुष्यता नया जन्म ले रही है -
‘‘वे उस महाभारत को गाती हैं
जो महाभारत में लिखने से रह गया
वे उस रामायण को गाती हैं
जो रामायण में लिखने से रह गई’’
गति हमारी नज़र को धुंधला कर देती है। तब न रंग ठीक से नज़र आते हैं, न आकार। यदि ‘पक्षियों के पंखों में छिपती युवतियों’ को देखना है जिनके गीत ये लोकगायिकाएँ गाती हैं तो धीरे चलना होगा, इस लोकजीवन की गति से तालमेल बैठाते हुए। अध्यापक पूर्ण सिंह के निबन्ध ‘मज़दूरी और प्रेम’ की याद दिलाती प्रभात की कविता ‘धीरे’ सिर्फ़ चरवाहा जीवन का चित्र ही नहीं है। यह रूपक है प्रेम, सहयोग और संतोष की उस जीवन-शैली का जिसे गति, शक्ति, लोभ, प्रतिस्पर्धा और वर्चस्व के उन्माद से ग्रस्त विकास का नारा लगाकर विनाश करती आक्रामक दुनिया ने अस्तित्व के संकट में ला खड़ा किया है। प्रभात उसी विकास की शरणार्थी, अस्तित्व बचाने को प्रयासरत जीवन-शैली के कवि हैं जिसे परपीड़क गति के उन्माद से ग्रस्त जीवन-शैली का सामना करना है। इतना धीरे चलना जीवन में, जितना धीरे चलते हैं गडरिए बीहड़ में, अकारण नहीं है -
‘‘कि पीड़ा को और पीड़ा न पहुँचे
मैं ऐसे हौले-हौले धीरे-धीरे चलना चाहता हूँ जीवन में’’
‘‘वे आकाश में पैदल-पैदल जा रही बारिश के पीछे-पीछे दूर तक जाते हैं अपने रेवड़ सहित’’ और वापस आते हैं ‘‘आकाश से पैदल-पैदल आ रहे जाड़े के पीछे-पीछे’’। स्मृतियों के आँगन में खाट डाले इस गडरिए कवि की कविताओं में ‘जिए हुए’ और ‘नहीं जिए जा सके’ जीवन के चित्र हैं। जीवन की ‘हरियाली’ और ‘सूखी हरियाली’ दोनों अंकित हैं, ‘जीवन के दिन’ में संगृहीत कविताओं में। पिछले संग्रह ‘अपनों में नहीं रह पाने का गीत’ में प्रभात की कविता यथार्थ की पथरीली भूमि पर खड़ी थी, जहाँ अपनों से हमेशा के लिए बिछुड़ने के कारण चारों ओर दुख और विषाद की राख बिखरी थी। पर इस संग्रह में यथार्थ की भूमि पर पैर दृढता से रखे प्रभात की नज़र में कल्पना का आकाश भी है। पिछला संग्रह उजड़ते गाँवों का विषादभरा रिपोर्ताज़ था। इस संग्रह में जीवन के दूसरे रंग भी हैं। विषाद में भी अदम्य जिजीविषा। यहाँ सपने हैं, वैयक्तिक भी, सामाजिक भी। चाहे ‘उमर दर्जी’ ने उन्हें कतर-ब्यौंत कर छोटा कर दिया हो।
प्रभात के यहाँ जीवन एक लोककथा है और ये कविताएँ हैं लोककथा के फूल।
दुख का आकाश
बकौल प्रभात की ही ‘लोककथा’ - सूरज और चाँद के बाद कवि ही तो वह तीसरा इंसान है, जिसे चैन नहीं है। चाहे वह निराला हो या प्रभात। ‘अपनों में नहीं रह पाने का गीत’ गहरे विषाद के सुरमई रंग में डूबा था। वे इस निजी और सार्वजनीन दुख और विषाद के भीतर खड़े थे। इस संग्रह की ‘दुख’ कविता में प्रभात अपने भीतर टहलने वाले, बसने वाले दुख को बड़े निरपेक्ष भाव से देखते हैं। ‘अपने हिस्से के आकाश की तरह’ इस हटाए न जा सकने वाले दुख को अतिक्रमित कर जीवन के और रंगों को भी कवि ने ढाला है कविता में। यह दुख और विषाद जीवन की शक्ति के रूप में कविता के भीतर मौज़ूद है। इस जीवनी शक्ति को सरसों की तरह पैरों-तले लेना आसान है, दबाना कठिन। यह दुख जीवन के दूसरे रंगों को रोकता नहीं, उन रंगों को और भी चमकीला और उदात्त बनाता है।
‘‘बेघर, किसान, मज़दूरों को काम ने इतना तोड़ रखा है
दुख तो इन्हें जानते हैं लेकिन ये दुख को नहीं जानते हैं
काम करते बतियाते हँसते हैं ठठाकर जब-तब
इसका मतलब ये नहीं कि ये सुखी हैं
यह सुख से बड़ी कोई मार्मिक हरकत है’’
मृत्युबोध से प्रभात की कविता का पुराना रिश्ता है। ऐसी कुछ कविताएँ - ‘सफेद चादर’, ‘दाह की लकड़ी’ इस संग्रह में भी हैं।
अँधेरे में श्रम
‘‘रात भर पानी रहा गिरता
कर्ज-कर्ज का शोर मचाती रही
फूस पर छान की बौछार’’ (पृष्ठ 39)
‘मार्च में वर्षा’ नाम की प्रभात की कविता में एक चैथाई बारहमासा है। मार्च, अप्रेल, मई। कर्ज़-कर्ज़ का शोर, पहले स्वाभिमान का और फिर ईमान का वैसे ही ख़तरे में होना जैसे काँधे के ऊपर के सर पर ख़तरा हो ज़ानू पर आ टिकने का -
‘‘हुआ जब ग़म से यों बेहिस, ग़म क्या सर के कटने का
न होता गर जुदा तन से, तो जानू पर धरा होता’’1
भारत में सिर को घुटनों पर ला देने वाली ही नहीं, हर तरह की मजबूरी का दूसरा नाम किसान होता है। बाकी के नौ महीने भी किसान के लिए हिज्र के ही हैं। जब काल ‘सात महीने के शिशु की पसलियों सा’ चल रहा हो तो पाला, ओले या वर्षा के असमय होने और समय पर न होने के अलावा भी कीड़े, टिड्डी, नीलगाय ही नहीं, बैंक-महाजन, गिरदावर-पटवारी जाने कितने संकट हैं जो उसकी विरह-वेदना को और बढ़ा देते हैं। इल्लियाँ और ‘जीप पर सवार इल्लियाँ’ दोनों। किसान को उसकी मेहनत के फल से वंचित कर प्रकृति और व्यवस्था दोनों इस बारहमासे को रचते हैं। प्रभात की ‘पखेरू’ कविता में बहुत सुन्दर रूपक का इस्तेमाल हुआ है, किसान और उसके खेत के अविभाज्य संबंध के लिए।
‘‘कैसा सारस का सा जोड़ा है
खेत और किसान का
समय की नदी के इसी तट पर
यह अटूट जोड़ा भी देखो कैसे एक दिन
धान के तन सा बेआवाज़ टूट जाता है
भरा-पूरा खेत रह जाता है यहीं
किसान पखेरू उड़ जाता है कहीं का कहीं’’ (पृष्ठ 33)
आज तो हालात ऐसे हैं कि खेत भी भरा-पूरा नहीं रह पाता। वहाँ बिल्डर्स के हाउसिंग प्रोजेक्ट्स उगते हैं। इस कंक्रीटी लौह फसल को उगाने का कौशल किसान के पास नहीं। जब-जब किसी व्याध ने एक क्रौंच पक्षी को निशाना बनाया है, दूसरे की मौत तो बिना तीर के ही हो जाती है। क्या फ़र्क पड़ता है कि किसान पहले दुनिया से कूच करता है या खेत!
विकास के शरणार्थी
हश्र वही होता है जो होना होता है, इस व्यवस्था में, सारस के जोड़े का।
‘‘गाँव से जाने के रास्ते तो बचे थे
गाँव जाने के रास्ते नहीं बचे थे
.........
हरेक का काम छीन लिया गया था
हरेक को काम पर बुला लिया गया था’’
किसान किसान नहीं रहता, मज़दूर हो जाता है। खेत खेत नहीं रहता, विकास के नाम पर अपने ख़िलाफ़ छेड़े युद्ध में खेत रहता है। पुरखों से चले आते अभ्यास के कारण ‘अँधेरे में श्रम’ करने वाले लोग अपने ख़ेत ही नहीं, अपनी संस्कृति के साथ आज ख़तरे में हैं। ‘रामायण’ में लिखे जाने से रह गया यह क्रौंच वध जिस एक और रामायण का उत्प्रेरक बनता है, उस रामायण के - निकट अतीत में, सबसे बड़े गायक प्रेमचंद थे - आज उसके कई गायकों में से एक प्रभात हैं। इस व्याध का आक्रमण जानलेवा है और ईमान-लेवा भी। क्योंकि यह हमला किसानों-आदिवासियों पर भी है और उनकी संस्कृति पर भी। इनकी कविता ‘विकास के शरणार्थी’ में इसी करुण रामायण का गायन है -
‘‘तुम्हारे बीजों के साथ शिकार किया गया
तुम्हारे खेतों के साथ शिकार किया गया
तुम्हारी फसलों की कीमतों का शिकार किया गया
तुम्हारे मनुष्य-प्रेम का शिकार किया गया
तुम्हारी जिजीविषा का शिकार किया गया’’
इसी कारण किसानों-आदिवासियों ने अपने बगीचों, तालाबों, बच्चों को सूखते देखा, बिना यह जाने कि आख़िर ये सूखे कैसे ? इस शोषण के रहस्य का पर्दाफाश सबसे पहले दादाभाई नौरोजी ने किया था - ‘पाॅवर्टी एंड अनब्रिटिश रूल आॅफ इंडिया’ में। प्रभात उसी औपनिवेशिक प्रकृति की सत्ता को चुनौती देते हैं जिसका निशाना आज तीसरी दुनिया के मुल्कों के सबसे ग़रीब लोगों की बची-खुची संपत्ति, उनके जल-जंगल-ज़मीन और जीवन-शैली है। दूसरों का श्रम चुराने वाले और हथियारों के दम पर इस चोरी को जारी रखने वाले व्याध का यह आक्रमण उस सभ्यता पर है जो प्रभात के ही शब्दों में बिना युद्धों और नरसंहारों के अन्न और फूल उगाती हुई, श्रम में रस लेना सिखाती हुई अब तक चली आई है।
‘‘इस घर से जंगल की ओर जाती थी एक पगडंडी
अब जंगल यहाँ आ गया है’’
जंगल आ गया है, जंगलराज के रूप में, जहाँ शक्तिशाली को ही विजयी होना है, शेष को रहना है, शरणार्थी या गु़लाम बनकर। आधार कार्ड का क़ैदी नंबर भी अब पर्याप्त नहीं, अपनी ही ज़मीन से खदेडे जाने से बचने के लिए। आज ‘सुंदर कांड’ का चंदा माँगने वाले ज़्यादा ताक़तवर हो गए हैं और किसी ‘फिरोज’ को ख़तरा इस छद्म और ‘असुंदर कांड’ से है।
सूखा खाई आवाज़
इस व्याध सभ्यता का एक असर यह हुआ कि ‘कुछ ही लोग’ बचे जो खदानों, खेतों, दफ़्तरों, घरों से अपना काम छोड़कर किसी की मदद को आते हैं, वक़्त-ज़रूरत। बाकी के पास बची है बस एक ‘सूखा खाई आवाज़’ जो परित्यक्ता बहन, विधवा बुआ, बेरोज़गार छोटे भाई, बूढ़े पिता के घर आकर ठहरने की आशंका में सूख गई है। क्या यही ‘हश्र’ होना था?
‘‘अब भी नाम थे रिश्तों के
लेकिन सिर्फ़ नाम
रिश्ते नहीं बचे थे’’
क्या सिर्फ़ एक ही रिश्ता बचेगा, लेन-देन का? व्यक्ति को उपभोक्ता मात्र में बदलने के बाज़ार के प्रयासों के बीच ‘शिशु और वृद्ध’, बहुत ही मार्मिक कविता है प्रभात की, स्नेह की इस छीजती जा रही डोर को बचाए रखने का प्रयास।
‘‘किसी को तो बनना होगा वृद्ध की माँ ताकि वृद्ध उसकी अँगुली थामकर
जीवन से सुरक्षित वापसी कर सके’’
साँझ में घुली पृथ्वी
‘साँझ में घुली पृथ्वी’ कविता में प्रभात भादौ की साँझ के अंधकार में घुलमिल गई स्त्री के श्रमशील जीवन का चित्र प्रस्तुत करते हैं। पर इस कविता से परे यह शीर्षक व्यापक रूप में प्रभात की कविता की उस विशेषता को अभिव्यक्त करता है जो इनकी कविता के प्राकृतिक बिंबों को अनूठा बनाती है। जहाँ कल्पना का वितान धरती से आसमान तक फैला हुआ है। ‘भादौ की साँझ’ कविता का उदाहरण लें जब मैदानों, पहाड़ों, जंगलों को हिलाने वाली पछाँही हवा बहने लगी -
‘‘पेड़ों के पंख फड़फड़ाने लगे
लगा जैसे उड़ जाएँगे
और जिनके पंख थे
वे पेड़ों में आने लगे
पानी के पहाड़ फिर गड़गड़ाने लगे’’
किंवदंती के अनुसार किसी समय इन्द्र ने पहाड़ों के पंख काट दिए थे तो वे धरती पर अचल रहने को बाध्य हुए। प्रभात की कल्पना की उड़ान ने बिना पंखों के ही फिर उन्हें आकाश दे दिया। बादलों को ‘पानी के पहाड़’ से उपमित करना अनूठा काव्य-व्यापार है। कल्पना की इस तरह की उड़ान प्रभात के इस संग्रह में कई जगह दिखाई देती है जो उनके पिछले संग्रह से इस संग्रह को विशिष्ट बनाती है। प्रभात के यहाँ प्रकृति जनजीवन के साथ जुड़ी हुई है। या यों कहें कि प्रकृति की गोद में साँस ले रहे जनजीवन के चित्र उनकी कविता में हैं। ‘हमारी नदी’ ऐसी ही रचना है जिसमें बारिश में बहती नदी का डबरे में, फिर गीली-चिकनी मिट्टी, भूरी रेत में सिलसिलेवार ढंग से बदलते जाना, और फिर मतीरे, प्याज, टमाटर, ककड़ी उगाने से इस ऊँट की पीठ सी धूसर नदी का हरिया जाना, प्रकृति और जनजीवन दोनों के आत्मीय संबंध में पैठ किए बिना दर्शाना संभव नहीं है।
आतप में पेड़
नफ़रत का अँधेरा जब चारों तरफ़ हो तो हर तरह की प्रेम कविता उजास की तरह आती है, चाहे वह प्रेम वैयक्तिक हो या सार्वजनीन। प्रेम को ही गाँधीजी सृष्टि का नियम मानते थे। व्यष्टि से समष्टि तक, ‘नरलोक से किन्नर-लोक तक’ इसी की रागात्मिका शक्ति व्याप्त है। जिगर मुराबादी के शब्दों में कहें तो -
‘‘इक लफ़्ज़ मुहब्बत का अदना ये फ़साना है
सिमटे तो दिले आशिक़ फैले तो ज़माना है’’2
प्रभात ऐसे ‘लोकगायक’ हैं जो मनुष्यता से प्रेम करने के लिए किसी मनुष्य-विशेष से प्रेम को बाधक नहीं मानते।
‘‘अर्द्धरात्रि में जब वह उठाता है कोई गीत
रात के मायने बदल देता है’’
‘जीवन के दिन’ में यह उजास प्रेम की आदिम ऊष्मा और श्रम की गरिमा के साथ आया है। ‘पीली लूगड़ी’ जिसमें ‘खेतों की खक’ और ‘छुअन की धक धक’ भरी है, उसका पल्ला लेते हुए लोभी चाँद जब ताके तो ‘नींद का समुद्र’ जगाती प्रभात की इसी शीर्षक की कविता रीतिकाल के ही नहीं, छायावादी शृंगारिक चित्रों को फीका कर सौन्दर्य के मायने बदल देती है। प्रभात के यहाँ ओस भीगी घासों की गंध से भरा प्रेम है जो गाँव की धरती पर उगा, प्रकृति के बीच पला है। श्रम करने वाले प्रेम भी करते हैं। और यह प्रेम होरी और धनिया के गार्हस्थ्य तक ही सीमित नहीं है।
"अनगिनत लोगों ने दुनिया में मुहब्बत की है
कौन कहता है कि सादिक़ न थे जज़्बे उनके
लेकिन उनके लिए तश्हीर का सामान नहीं
क्योंकि वो लोग भी अपनी ही तरह मुफ़लिस थे’’3
प्रभात के यहाँ ऐसे ही मुफ़लिस लोग हैं लेकिन प्रेम की जीवनीशक्ति से भरे हुए।
‘‘साधारण पेड़ हैं ये
सूखते हुए जीते हुए
मेरे इलाके़ के ग़रीब हैं ये
जीवन के प्रेम में पड़े हुए’’
ऐसा ही एक अनाम जोड़ा है ‘सारस’ कविता में। और है, खेतों के बीच उगा, भेड़ों के बीच पलता प्रेम। ‘श्रम के सौन्दर्य’ के रूढ़ अंकन से आगे बढ़कर ‘श्रम का राग’ चित्रित है यहाँ।
‘‘थोड़ी ही दूरी पर
चरागाह में चरती भेड़ों के बीच खड़े
गडरिए से बातों में लगने की कोशिश करता
जाने किसका प्रेमी है यह
जाने कौन है
जो आई नहीं है।’’
‘जैसे’ - जीवन का राग
प्रभात की कविता में सहज प्रेम के कई रंग हैं। रीतिकाल की तरह इन्हें हम ‘संयोग’ और ‘विप्रलंभ’ में विभाजित नहीं करेंगे। सुविधा के लिए पहले प्रकार को हम ‘जैसे’ की कविता कहेंगे। ‘जैसे’, यह कौनसी कविता है ? ख़ुद ही देख लीजिए -
‘‘जैसे पेड़ को नहीं बताना पड़ता
क्यों बैठा हूँ उसकी छाँव में
..........
जैसे नदी को नहीं बताना पड़ता
क्यों जा रहा हूँ दूसरे किनारे
जैसे बादलों को नहीं बताना पड़ता
कहाँ तक चलूँगा उन्हें देखता’’
कबीर कह गए हैं कि ‘‘सहज सहज हर कोई कहे सहज न चीन्हे कोय’’, ‘सहज’ को प्रभात की कविता में चीन्हा जा सकता है। यहाँ पेड़, रास्ते, नदी और बादल की ही तरह सहज है प्रेम। इनकी कविता में प्रेमिका की आँखों की और लौटना वैसा ही सहज है जैसे तोते लौटते हैं अपने कोटरों में। यहीं प्रेमिका को उसका होना सुनाई देता है, फूलों के टपकने की तरह। प्रभात का ऐंद्रिय बोध प्रकृति से अभिव्यक्ति पाता है। एक छोटी सी कविता ‘इतना नहीं’ ऐसा ही एक रूमानी बिंब रचती है। ़
‘‘इतना मत फुसफुसाओ ओ हवा
कि लगे जैसे कान के लवों पर होंठ रख दिए हों
.......
इतना मुझमें मत गहराओ ओ रात
कि लगे जैसे ख़ून में बह रही हो।’’
जब दिल की पूरी दुनिया ही रूमानी अहसास से भर जाए तो रेल की सीटी में भी किसी की साँस सुनाई दे सकती है। ‘पाक़ीज़ा’ में रेल उद्दीपन थी, यहाँ तो आलंबन है। प्रभात से पहले रेल को उजाड़ में हिरनी सी छलांगें भरते हुए शायद ही किसी ने देखा हो।
‘‘अब रेल से प्यार है तो वह
जब जहाँ मिल जाए
हर रूप में अच्छी लगती है’’
चिता सजेगी तब भी किसी रंजीता, किसी शन्नो से एक बार बात करने की इच्छा, ‘एक सादा सी इच्छा’ है जिसका पीछा बरसों दूर तक किया जाता है। इसी भीतरी ऊष्मा के सहारे ‘पृथ्वी पर पेड़ की तरह’ टिकना संभव है। प्रभात की सूक्ति है - ‘‘अमृत कोई बार-बार पीने की चीज़ थोड़े ही है’’। प्रेम कवि की जीवनधर्मिता का दूसरा नाम है। बड़ी आसानी से वह कह देता है -
‘‘प्रेम में जो मिला
घास-फूस, खरपतवार
झोंपड़ी बनाने के लिए काफी है’’
और कविता रचने के लिए भी।
उत्तर राग: ‘कि .....’ की कविता
प्रभात की ही उक्ति है - ‘‘रेशम की कहानी रेशमी नहीं’’। प्रेम की डगर भी ऐसी ही है। इन कविताओं में घास पर ओस की तरह बिछी बूँदें, बूँदें नहीं, वे मोती हैं जो बिछुड़ते वक़्त किन्हीं आँखों से झरे हैं। ‘कि’ प्रभात की एक कविता का शीर्षक है। ‘जैसे’ वह अव्यय है जिसके बाद कहानी शुरू होती है, आगे बढ़ती है, क़दम दर क़दम। और ‘कि’ वह अव्यय है, जहाँ वाक्य अधूरा छूट जाता है, मानो वह प्रेम की कहानी में आया हुआ मोड़ हो। और बन जाता है ‘कि.....’, अनभिव्यक्त, अपरिभाषेय।
‘‘यह सोचकर दुखी भी रहता था कि
उसने शायद अभी भी नहीं सोचना शुरू किया मेरे बारे में
एक दिन उसकी ओर से मिले सन्देश से मुझे पता चला कि
वह इतना अधिक सोचती है मेरे बारे में जिसकी
मैं कल्पना नही ंकर सका था
पर मैंने उसके सन्देश का कोई जवाब नहीं दिया
क्या जवाब देता
क्या कहता उससे कि ......’’
दो बरस कुछ महीने उसे देखने की इच्छा होने पर चाँद को देखकर संतोष करने वाला दिल ‘कि.......’ पर जाकर अटक जाता है। सोचना भी कम हो जाता है धीरे-धीर,े जैसे नदियाँ क्षीण हो जाती हैं। प्रभात की यह ‘कि.....’ की कविता विरह की कविताओं से अलग है। जीवन में बीत चुके ‘कि......’ की यह कविता उत्तर राग की कविता है जो ‘पूर्व राग’, ‘मान’, ‘प्रवास’ और ‘करुण’ आदि विप्रलंभ के सभी भेदों से विशिष्ट है, पर वीतराग नहीं। जब प्रेम विशुद्ध संवेदनारूप रह जाता है। व्यतीत अतीत के ‘कि......’ की कई कविताएँ इस संग्रह में हैं। ‘बिछुड़ने के बाद’ ऐसी ही एक ‘कि.....’ कविता है। तीस साल बाद, जब मिल जाएँ तो पहचानना भी मुश्किल, पहचान भी जाएँ बच निकलने से बढ़िया कुछ न लगे। पर अपने आपसे बचकर निकला है कोई कभी! दो खिले हुए जीवन जाने कितना झर जाते हैं इन तीस सालों में। ‘हवा बुहार कर ले गई हो शायद यादों के सूखे पत्ते भी’। और बचा रह गया है ‘कि......’। पर इस ‘कि......’ में भी बहुत कामनाएँ और संभावनाएँ छुपी हुई हैं, जीवन की संभावनाएँ -
‘‘पर जैसे मैं किसी अनहोनी का शिकार नहीं हुआ
और जीवित हूँ
तुम्हारे जीवित होने की कामना करता हूँ’’
न राग बचा, न विराग। न पीड़ा, न मलाल। बची हैं केवल यादें। और बचा है जीवन जिसे समाज की बनाई राहों पर ही चलना पड़ा। क्योंकि बकौल भाभी इन राहों से अलग राह चुनने वालों के पैर सोते में काट कर ले जाता है, कोई।
‘‘मेरे पैर कटने से बच गए
समाज ने सबके लिए राहें बना छोड़ीं थीं
जिसके लिए कहती थी भाभी
वह उसके लिए बनाई राह पर चली गई
मैं भी मेरे लिए बनाई राह पर चला गया
मोर की तरह रोता हूँ
देख-देख कर भद्दे पैरों को
ये तो कटे से भी बुरे हैं
उस दिशा में नहीं चले ये
जिस दिशा में चलना था इन्हें’’
समाज इन्हीं ‘भद्दे पैरों’ का अजायबघर है। ‘तुम्हारा हिस्सा’ प्रभात की एक और ‘कि......’ कविता है जिसमें किसी के हिस्से के, किसी के पाँव कोई दूरी तय नहीं करते। किसी के हिस्से के, किसी के हाथ पड़े रहते हैं निकम्मे। भीतर और बाहर बहुत कुछ अनहुआ, अनकिया रह जाता है -
‘‘तुम्हारे हिस्से के मेरे होंठ
ढक गए हैं दिनों की धूल से
तुम्हारे हिस्से की मेरी आँखों में
फैला पड़ा है सपनों का असबाब’’
सपने ही ऐसी चीज़ हैं जिस पर न समाज का पहरा है, न ख़ुद इंसान का बस। पर जो दर्द बेदवा पाया इंसान ने, उसने इंसान को सपने देखने की आज़ादी से भी महरूम कर रखा है।
‘‘सपने में तुमने बुलाया
और मैं आ नहीं सका
कितना आसान था
ख़ुद के सपने में तो कम से कम
तुम्हारे बुलाने पर
तुम्हारे पास आता
पर नहीं आ सका’’
प्यार और सपनों का बहुस्तरीय रिश्ता है। प्रेम सपने देखना सिखाता है, दिन में भी। वह सपनों की अपनी ही दुनिया रच लेता है। माशूक से मिलने का वादा, असल ज़िन्दगी में न सही, सपने में तो पाया ही जा सकता है-
‘‘ता फिर न इन्तिज़ार में नीन्द आये अुम्र भर
आने का वादः कर गये, आये जो ख़्वाब में’’
ग़ालिब की मुश्किल यह थी कि सपनों में मिलने की उत्सुकता में नींद नहीं आ रही और प्रभात की कविता में हाल यह है कि किसी के बुलाने पर सपने में भी आया नहीं जा सकता। जब अपना ही दिमाग़ बुला रहा था और अपना ही दिमाग़ मना कर रहा था। ख़ुद के सपने में भी उसके बुलाने पर उसके पास आ पाना आसान नहीं था। ग़ालिब की मुश्क़िल व्यक्तिगत है, प्रभात की सामाजिक। ग़ालिब के ज़माने में भी इश्क का दुश्मन ज़माना उसे ‘ख़लल है दिमाग़’ का क़रार दिया करता था। पर ज़माने का दख़ल आशिक़ के सपनों में भी हो, इसका सबूत नहीं मिलता। यह नए ज़माने की रवायत है कि इंसान के सपने भी सेल्फ-सेंसरशिप का शिकार हों। चाहे वे बेहतर ज़िंदगी के व्यक्तिगत सपने हों या बेहतर दुनिया बनाने के सामूहिक स्वप्न। यह ज़माना तय करता है कि किसी का किसी से कोई लेना-देना ही न रहे, सपनों में भी नहीं। यही तो ‘सपना’ टूटने पर प्रभात की कविता की अंतिम पंक्ति का आशय है। यह ‘बाज़ार, हिंसा और सताने वाली व्यवस्था’ इंसान को यादों ही से महरूम कर दे, यह प्रभात मानने को तैयार नहीं थे, पिछले संग्रह की अपनी अविस्मरणीय कविता ‘याद’ में। यह व्यवस्था सपनों से वंचित भले न कर पाए, इंसान को, उसके सपने देखने की कंडीशनिंग का प्रयास उसने छोड़ा नहीं है।
इश्क़ की दास्ताँ का मुस्तक़बिल
कहा जाता है कि ‘इश्क़ की दास्ताँ का माज़ी हुआ करता है, मुस्तक़बिल नहीं’। प्रभात के यहाँ प्रेम का भविष्य भी है। असफसल प्रेम का भी। मीराँ के समय से ही बदनामी प्रेम का दूसरा नाम है। प्रभात की ‘बदनामी’ कविता दो ‘बदनामियों’ यानी दो असफल प्रेम के सफल होने की दास्ताँ है। यहाँ एक ‘बदनामी’ दूसरे को नहीं जानती थी, पर उसके दुख को जानती थी (बतर्ज विनोद कुमार शुक्ल)।
‘‘वह किसी और की बदनामी थी
मेरे आगे आकर खड़ी हो गई थी
उसमें कुछ भी असुन्दर नहीं था
...............
भटकोगी क्यों - मैंने कहा आसक्त भाव से
मेरे जीवन में रहो मेरे अस्तित्व तक
बदनामी मुस्कुराई
उसकी आँख भर आई
मुझसे लिपट गई
लिपटी रही’’
अहमद फ़राज़ कहते हैं ‘ग़म-ए-दुनिया भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लो’। प्रभात के यहाँ इससे उलट निजी दुख-दर्द समष्टिगत होकर उदात्त बन जाते हैं। एक उदात्त करुणा प्रभात की प्रेम कविताओं का भी मूल तत्त्व है।
अनपहुँचे संदेश
आधी मनुष्यता से जुड़ा बहुत-कुछ अनलिखा ही रह गया, ‘रामायणों’ और ‘महाभारतों’ में। बहुत-कुछ अनकहा-अनसुना ही रह गया, शताब्दियों से आदमीयत का पर्याय बनी मनुष्यता द्वारा, क्योंकि वह स्त्री-मनुष्य की वाणी नहीं बन पाई।
‘‘इस विपुल पृथ्वी पर हर युग में
अनपहुँचे ही रहे हैं
सदा ही कुछ सन्देश’’
प्रभात के भीतर एक स्त्री है, उनकी कविता की लोकगायिकाओं की तरह, जो इन अनकहे-अनपहुँचे सन्देश अभिव्यक्त कर देती है। ‘हे राम’ ऐसी ही दिल को हिलाने वाली करुण कविता है। एक भयानक सच्चाई कि दुहाजू प्रौढ़ पति उर्फ़ एक ‘ग़रीब’ का घर बसाने में एक दूसरे ‘ग़रीब’ की लड़की ठिकाने लगा दी गई, उसे ख़रीदने-बेचने वाले दो सौदागर ‘ग़रीबों’ द्वारा। किसे सिहरन
नहीं होगी यह देखकर कि किसी सरकारी स्कूल में दसवीं में पढ़ रही इस लड़की की अंगुलियों की जली हुई।
सम्पर्क: 9413887224
बहुत महत्वपूर्ण समीक्षा.
जवाब देंहटाएंप्रभात जी को जन्मदिन मुबारक हो💐