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कविताएं - चंचला पाठक

चंचला पाठक के हालांकि दो कविता- संकलन आ चुके हैं लेकिन लगता नहीं कि हमने उनके कहन की तिर्यक शैली और आर्त्त संवेदना को ठीक से लक्षित किया है। इस पर भी विशेष यह कि उनकी भाषा में स्वाभाविक प्रवाह है। उनका मुहावरा और शब्द- विन्यास अर्थ की अनुगूंज उत्पन्न करता है। इन कविताओं में आप इसे सहज रूप में अनुभव कर सकते हैं


बिखेर दो मुझे

मुझे बिखरते हुए
कविता होना था
तुमने वर्णों की आकृतियाँ चुनी 
मैंने छंदों के निर्बंध के 
बीच आकाश में रहना चाहा 
तुमने जाने कितने नामों में 
जड़ दिये
आदिम अर्थों का 
निर्वसन 
मुझे अतिशय प्रिय था
तुमने निर्बाध गढ़े 
आभूषण
मेरे रोमकूपों से ध्वनित 
मालकौंस में
सप्तपदी का परिहार कर डाला
...छिन्न-भिन्न कर डाला मुझे
बिखेर दो मुझे
सुन्दरी के वनों में.....
मैं दूर से ही सही-
समुद्र का अनुनाद
बांचना चाहती हूं

निर्मम- सा एकांत

डूबती नहीं
किसी घाट पर 
मृत्यु
बस लहरों पर 
हंस बनी फिरती है
तुम्हारे चले जाने का 
सौंदर्यबोध नहीं मेरे पास
बस निर्मम सा एकांत है 
 ........
यहाँ तुम्हारी प्रतिबिम्ब की बात नहीं कर पाऊँगी मैं
तुम्हीं हो 
एकनिष्ठ
एकलय
और 
हहराती हुई
मणिकर्णिका का 
निर्वसन है ......

यात्रा का पाथय

उस तट छूटा
क्या ऐसाकि 
ब्याज में
तुम्हारी नीली आँखें
इतनी भरी भरी हैं 
.....छलकती तक नहीं
कैसी सम्भ्रांत है
तुम्हारीअग्नि 
शोष लेती है
थलथल करती
आंखों के जल प्लावन को
 बस उतना ही
 कि
बना रहे
संतुलन पानी का
इस पार की
यात्रा का पाथेय
है कि नहीं...
या
सच में
छोड़ आई तुम
स्मृतियाँ भी उस तट
और स्पर्श ...
पलायन कर
इस तट तो नहीं
पहुँचा कोई...
तुम  निशान्त 
प्लावन साधती
अतिशय कज्जल लगती हो
.....इससे गहर 
हो ही नहीं सकता कुछ
अन्तहीन  अतल
सिरजती हो तुम सच में 
कभी समझ नहीं आई 
तुम्हारी कोई भी
मुद्रा
कि विलीन होना चाहता हूँ
तुझमें
तटबंधों की परिधि से
मुक्त
उन्मुक्त



मुझी में

मुझसे छूटते हुए
मुझी में 
रचे जा रहे तुम
रचित में
ठहर नहीं रहा
राग-द्वेष
अमृत-विष
..........बिछलाता जाता है कुछ 
निरंतर 
समुद्र की भंगिमाएं हैं बस्स
रत्न- मोती- सीप- द्वीप
भँवर लहर नमक रेत.....
जाने क्या क्या 
औचक आकर तुम 
नदियों के
वलय 
छूना चाहते हो अब
जबकि
एक नदी 
आकुल-व्याकुल 
सती हो गयी सद्यः
समुद्र की बाड़वाग्नि में

अल्पविराम का विस्तार

जब सबसे मधुर हो स्मृतियाँ
तुम चुनना 
किसी तरल नदी को 
और
बहा देना इन्हें
निःशेष 
गहरी निस्तब्ध रात्रि के
उत्ताप में
घोलना इकतारे की 
ध्वनि-गंध
रहना प्राणपूत
किसी निर्मम एकांत में 
जगा कर जुगनुओं सी 
जिज्ञासा
बुझती निःश्वास पर 
भुरट लेना 
महुए के निपत सौंदर्य-
 -टपकते हैं जो अविरल
निःशब्द निरुत्तर प्रणय में
बिछुए का एक बूंदा
छोड़ आना सिरहाने कि
पाती का ज्यूँ अनहद
फिर रहना अघट अनुगूंज में
लहलह ...
...ताउम्र
परंतु लौटना मत कभी वहाँ
जैसे नहीं लौटता प्राण कभी त्यक्त में
 अल्प विराम का विस्तार
आलिंगन मात्र नहीं-
सृष्टि का अनघ अजस्र वैभव है
रहना दीप्त उद्दीप्त
स्वयं के अपरिमित विस्तार में

खिलती नहीं सुगंध

तालपत्तों से ढके
सघन जल में
घाट बाँधते पत्थरों पर 
अनंतिम काई है...
निरभ्र आकाश का 
प्रतिबिम्बित
नहींं समाता
इस जलाशय में
जंघाओं तक 
निरावरण है 
कुमुदिनी
और-
कंठभर 
उत्ताल है जल
खिलती नहींं
सुगंध 
ग्रस रहा 
मेरा ही प्राण मुझे
तुम लौटते तो
लौं-भर 
देखती तुझे
कंठस्थ से 
मुक्त होते 
शब्द

स्मृतियों का मसान नही होता

मेरी देहगंध से फूटते तुम
स्वांग नहीं
जीवन-परायण है यह
 मुझमें तुम्हारे होने का
स्मृतियों का
मसान नहीं होता
..... पुनर्नवा होती हैं ये
काल देह रति यति से परे
वसंत का 
प्रथम ही चरण पड़ऻ है बस्स
और
उत्ताल पर हैं
आकाशगंगाएँ
मैं सहेज रही तुम्हें
नदी सीप मोती लहर 
कि नौकायन में  भी .......



कथानक से वंचित

अकथ ताल में 
बहा दिए सारे प्रेमपत्र 
रोम कूपों पर लिखे थे
....उचर रहे 
पक्षियों के
कण्ठ से...
भाप बन रचे क्षितिज पर
समुद्र के संदेश
का अभिनव गान...
हरा रचा 
धरती के थनों पर
और
चित्रलिखित से तलों में जा बैठे
उतालते रहे बुलबुले...
लहरें मीन-मछरी हुईं
बाँचती हैं 
कथानक से वंचित रिक्तियों के
रेत तट को

जो अघट संगीत था

अंजुरी भर-
रहे तुम
टूटती रही मैं
जैसे तारागण
दुआओं भर टघरे तुम
हृदय के ठीक बीचोंबीच से
किसी रेतीली पगडंडी पर 
मँडते पगचिह्नों में 
अल्पनाओं के संगीत
कौन गुनगुनाता है भला
.....और कौन सुनता है!
किसी यायावर की 
प्यास बांचती नदी के मौन में
जो अघट संगीत था-
खिरते धोरों ने 
बेहद अपनेपन से 
नम और महक से भरी 
पूरबइया को 
बाँचा है-
वही संगीत
यह टपर-टुपुर उसी की लगी है

सुन रहे न तुम

जब लौट रहे हो तुम
उस पार 
चहल-पहल कुछ अधिक गूंजती है
इधर की चुप्पियाँ के
सारे मार्ग
इस गहरे कूप के 
जगत पर आ बैठे हैं 
प्रतिध्वनियों के अवाक्
कितनें करुण हैं 
रक्त मांस मज्जा वाक् अवाक्
सबसे निथर कर
क्षर रहा प्राण
जा रहा उस पार ये भी
रेशमी धागे पर
धवल आकाश ही 
रंथी बन उतर रहा
कल-कल की ध्वनि
सुन रहे न तुम...
..।प्रयाग से छूट रही एक नदी का विलाप है ये
.....नदी
जो नहीं लौटती कभी
कोई विकल्प तक नहीं देती 
प्रकट-अप्रकट 
यात्रा-यति अथवा जन्म-मृत्यु का



तुम उसे सुनना

कहे गए शब्दों के बीच
अथाह आकाश है
और पसरा है
अंतहीन
अवाक्
तुम उसे ही सुनना
कहे हुए की पराकाष्ठा पर
यही तो बचता है
क्षितिज रचता है
                      
             छायांकन - मनमोहन भारती

अथर्ववेद के दार्शनिक सूक्तों का समीक्षात्मक अध्ययन- पीएचडी के लिए शोध। वेद, तंत्र एवं कुछ समसामयिक विषयों पर शोध- पत्रों का राष्ट्रीय- अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रस्तुतीकरण। खंडहरों की ओट से एवं सुनो सूत्रधार तुम कविता- संकलन। संक्रांति विनियोश्च नाटक जवाहर कला केन्द्र जयपुर से पुरस्कृत। संपर्क :9828369820












टिप्पणियाँ

  1. चंचला पाठक की इन कविताओं में दर्शन और चिन्तन की गहराई पूरे मर्म के साथ अभिव्यक्त हुई है | चंचला के आत्मानुभव और बाह्यजगत के अन्तर्द्वन्द्वों का इनमें बहुत अच्छा चित्रित हुआ है | उन्हें बधाई और मीमांसा को साधुवाद कि ये कवितायें पढ़ने को उपलब्ध करवाईं |

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