आकलन
लोकतंत्र और राज्य की कल्याणकारी अवधारणा के चलते हमने वंचित समुदायोंों को मुख्यधारा में लाने का संकल्प सामने रखा। इसी के चलते संविधान में सामाजिक न्याय को सुनिश्चित करने के लिए सकारात्मक विभेद और वंचित तबकों के लिए आरक्षण के प्रावधान किये गये। दुर्भाग्य से इस सबके बावजूद विकास के बरक्स हाशियाकरण की प्रक्रिया जारी रही है और अनेक समुदाय वंचना की ओर धकेले जाते रहे हैं। सामाजिक गतिशीलता हेतु जिन श्रेणियों के लिए विशेष प्रावधान किये गये थे, उसके लाभ भी कुछ खास तबकों तक ही सीमित होकर रह गये हैं। राजस्थान के राज्य - स्तरीय परिप्रेक्ष्य से दलित, महिलाओं और अल्पसंख्यकों में बच्चों की शिक्षा को इस पुस्तक में शीर्ष और जमीनी- दोनों स्तरों पर देखा गया है। इसमें मेवात अंचल, दलित बस्तियाँ और कथौडी जैसे वंचना से घिरे परिवार शामिल हैं।
यहां उल्लेख करना आवश्यक है कि नयी शिक्षा नीति ( १९८६) के बाद प्रारंभिक शिक्षा के प्रसार के लिए वृहद स्तर पर परियोजनाएं आरंभ हुई जिनमें जिला प्रारंभिक शिक्षा परियोजना ( डी पी ई पी) और सर्व शिक्षा अभियान ( एस एस ए ) मुख्य हैं। इस संदर्भ में राजाराम भादू कहते हैं, आठवें दशक के बाद आरम्भ हुई भूमंडलीकरण और आर्थिक उदारीकरण की राज्य घोषित नीति ने हाशियाकरण की प्रक्रिया को भयावह रूप दे दिया है। भारतीय राज्य- सत्ता ने कल्याणकारी राज्य की संकल्पना को महज घोषणा से ज्यादा कभी नहीं समझा था। राज्य की रीति- नीति वर्चस्वशाली तबकों के हितों को केन्द्र में रखकर निर्धारित की जाती रही। नयी आर्थिक नीतियों के चलते राज्य - सत्ता ने संवैधानिक संकल्पों को भी तिलांजलि दे दी और खुलकर बहुराष्ट्रीय उद्यमों के हितों की पैरोकारी शुरू कर दी। नतीजतन देश के मूल्यवान प्राकृतिक संसाधनों- जल, जंगल और जमीन का अभूतपूर्व दोहन आरम्भ हो गया।
हिन्दी मे ज्ञान- विज्ञान के अन्य साहित्य की तरह शैक्षिक साहित्य का भी अभाव है। इस क्षेत्र में मौलिक साहित्य के लेखन में कमी को लेकर गंभीर चिंता जताई जाती है जोकि उचित ही है। शिक्षा में विभिन्न विश्वविद्यालय और संस्थानों में शोध होते रहे हैं लेकिन एकाध अपवाद को छोडकर ये भी प्रायः अंग्रेजी में प्रकाशित होते हैं। जाहिर है इसके चलते अनुसंधान का वास्तविक लाभ जमीनी स्तर तक नहीं पहुँच पाता। क्रियात्मक शोध पर आधारित पुस्तक हाशिये के समुदायों में शिक्षा इस दृष्टि से संभवतः हिन्दी की अकेली किताब है जिसे हिन्दी में ही लिखा गया है। दूसरे, यह शोध सहभागी अध्ययन पर आधारित था , इसलिए इसमें एक समूह की भूमिका रही है जिसके संयोजित करने और पुस्तक रूप देने का काम राजाराम भादू ने किया है। उन्होंने सूक्ष्म स्तर पर क्रियान्वित परियोजनाओं के निष्कर्षों को व्यापक परिप्रेक्ष्य में विश्लेषित किया है। इसके चलते पुस्तक को एक प्रामाणिक और वस्तुपरक आधार मिला है।
पूर्वकथन में राजाराम भादू ने कहा है कि आधुनिकता के विमर्श ने हमें मुख्यधारा और हाशिये की अवधारणाएं दी हैं। इसके परिप्रेक्ष्य में स्वतंत्र भारत में लोकतंत्र की स्थापना और राज्य का कल्याणकारी स्वरूप है। आधुनिकता के साथ विकास की अवधारणा को हमने जोडकर देखा और अपने संविधान में इसे राज्य के कल्याणकारी स्वरूप के साथ सम्बद्ध किया। इसी क्रम में हम देखते हैं कि व्यापक भारतीय समाज का जो हिस्सा आधुनिकता के प्रवाह में शामिल हो गया, उससे मुख्यधारा निर्मित होती गयी और बाकी हिस्से हाशिये के समुदाय होकर रह गये। विडम्बना यह रही कि मुख्यधारा की तुलना में हाशिये के समुदायों का दायरा कहीं वृहद रहा
पूर्वकथन में राजाराम भादू ने कहा है कि आधुनिकता के विमर्श ने हमें मुख्यधारा और हाशिये की अवधारणाएं दी हैं। इसके परिप्रेक्ष्य में स्वतंत्र भारत में लोकतंत्र की स्थापना और राज्य का कल्याणकारी स्वरूप है। आधुनिकता के साथ विकास की अवधारणा को हमने जोडकर देखा और अपने संविधान में इसे राज्य के कल्याणकारी स्वरूप के साथ सम्बद्ध किया। इसी क्रम में हम देखते हैं कि व्यापक भारतीय समाज का जो हिस्सा आधुनिकता के प्रवाह में शामिल हो गया, उससे मुख्यधारा निर्मित होती गयी और बाकी हिस्से हाशिये के समुदाय होकर रह गये। विडम्बना यह रही कि मुख्यधारा की तुलना में हाशिये के समुदायों का दायरा कहीं वृहद रहा
लोकतंत्र और राज्य की कल्याणकारी अवधारणा के चलते हमने वंचित समुदायोंों को मुख्यधारा में लाने का संकल्प सामने रखा। इसी के चलते संविधान में सामाजिक न्याय को सुनिश्चित करने के लिए सकारात्मक विभेद और वंचित तबकों के लिए आरक्षण के प्रावधान किये गये। दुर्भाग्य से इस सबके बावजूद विकास के बरक्स हाशियाकरण की प्रक्रिया जारी रही है और अनेक समुदाय वंचना की ओर धकेले जाते रहे हैं। सामाजिक गतिशीलता हेतु जिन श्रेणियों के लिए विशेष प्रावधान किये गये थे, उसके लाभ भी कुछ खास तबकों तक ही सीमित होकर रह गये हैं। राजस्थान के राज्य - स्तरीय परिप्रेक्ष्य से दलित, महिलाओं और अल्पसंख्यकों में बच्चों की शिक्षा को इस पुस्तक में शीर्ष और जमीनी- दोनों स्तरों पर देखा गया है। इसमें मेवात अंचल, दलित बस्तियाँ और कथौडी जैसे वंचना से घिरे परिवार शामिल हैं।
यहां उल्लेख करना आवश्यक है कि नयी शिक्षा नीति ( १९८६) के बाद प्रारंभिक शिक्षा के प्रसार के लिए वृहद स्तर पर परियोजनाएं आरंभ हुई जिनमें जिला प्रारंभिक शिक्षा परियोजना ( डी पी ई पी) और सर्व शिक्षा अभियान ( एस एस ए ) मुख्य हैं। इस संदर्भ में राजाराम भादू कहते हैं, आठवें दशक के बाद आरम्भ हुई भूमंडलीकरण और आर्थिक उदारीकरण की राज्य घोषित नीति ने हाशियाकरण की प्रक्रिया को भयावह रूप दे दिया है। भारतीय राज्य- सत्ता ने कल्याणकारी राज्य की संकल्पना को महज घोषणा से ज्यादा कभी नहीं समझा था। राज्य की रीति- नीति वर्चस्वशाली तबकों के हितों को केन्द्र में रखकर निर्धारित की जाती रही। नयी आर्थिक नीतियों के चलते राज्य - सत्ता ने संवैधानिक संकल्पों को भी तिलांजलि दे दी और खुलकर बहुराष्ट्रीय उद्यमों के हितों की पैरोकारी शुरू कर दी। नतीजतन देश के मूल्यवान प्राकृतिक संसाधनों- जल, जंगल और जमीन का अभूतपूर्व दोहन आरम्भ हो गया।
विकास की अवधारणा ही बदल गयी है और विकास के नाम पर विस्थापन और बेदखली की अन्यायकारी योजनाएं शुरू कर दी गयीं। इसके चलते देश की बहुसंख्यक आबादी हाशियाकरण की चपेट में आ गयी है।
साम्राज्यवाद की तरह नव- साम्राज्यवाद भी केवल आर्थिक आक्रामकता के साथ नहीं आया बल्कि सांस्कृतिक वर्चस्व की शक्ति और संसाधनों से लैस होकर आया है। इसने हमारे तमाम देशज समुदायों की संस्कृति, बोली, भाषा, कला, अभिव्यक्ति और जीवन- शैली को नष्ट करने के व्यापक उपक्रम शुरू कर दिये हैं। भारत सरकार की ओर से संविधान के जरिये प्रदत्त नि: शुल्क और अनिवार्य प्रारंभिक शिक्षा के कानून से भी हाशियाकृत समुदायों के बच्चों को सार्वजनीन प्रारंभिक शिक्षा सुनिश्चित नहीं हो सकी है। बल्कि राजस्थान सरकार विगत वर्षो में प्राथमिक व उच्च प्राथमिक स्कूलों को बंद करती रही है। दूसरी तरफ, इन स्कूलों में शैक्षिक गुणवत्ता का क्षरण निरंतर जारी है। जबकि इन स्कूलों में जाने वाले तकरीबन सभी बच्चे हाशिये के समुदायों से आते हैं।
पुस्तक में विशेष रूप से कहा गया है कि देशज समुदायों में स्मृति और संस्कृति में प्रतिरोध की परम्परा की जड़ें भी गहरी हैं। आज जहां राज्य -- सत्ता वर्चस्वशाली शक्तियों के पक्ष में खडी है, उसके बावजूद कहीं संगठित और अन्यत्र स्वत: स्फूर्त प्रतिरोध हाशिये के समुदायों की ओर से उभर रहा है।
यह पुस्तक राजस्थान में हाशिये के समुदायों के साथ प्रत्यक्ष कार्यों पर आधारित है। इन समुदायों के साथ लेखक और समान्तर के दूसरे साथी किसी न किसी रूप में जुड़े रहे हैं। पुस्तक के आरम्भ में हाशिये के समुदायों की वृहद श्रेणियों- दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यकों - की सामाजिक- सांस्कृतिक स्थिति का प्रादेशिक परिप्रेक्ष्य प्रस्तुत किया गया है। इसके बाद समुदायों के विस्तृत प्रोफाइल दिये गये हैं। निश्चय ही इनसे राजस्थान में इन समुदायों की मुकम्मिल स्थिति का पता नहीं चलता। इन्हें शोध की भांति नमूने के रूप में सूक्ष्म
प्रतिदर्श की तरह लेना चाहिए। शिक्षा विकास के संदर्भ में सबसे गतिशील संकेतक है। और हम देख रहे हैं कि इन समुदायों के बच्चों के सामने स्कूली शिक्षा को लेकर कितनी और कैसी चुनौतियां हैं।
साम्राज्यवाद की तरह नव- साम्राज्यवाद भी केवल आर्थिक आक्रामकता के साथ नहीं आया बल्कि सांस्कृतिक वर्चस्व की शक्ति और संसाधनों से लैस होकर आया है। इसने हमारे तमाम देशज समुदायों की संस्कृति, बोली, भाषा, कला, अभिव्यक्ति और जीवन- शैली को नष्ट करने के व्यापक उपक्रम शुरू कर दिये हैं। भारत सरकार की ओर से संविधान के जरिये प्रदत्त नि: शुल्क और अनिवार्य प्रारंभिक शिक्षा के कानून से भी हाशियाकृत समुदायों के बच्चों को सार्वजनीन प्रारंभिक शिक्षा सुनिश्चित नहीं हो सकी है। बल्कि राजस्थान सरकार विगत वर्षो में प्राथमिक व उच्च प्राथमिक स्कूलों को बंद करती रही है। दूसरी तरफ, इन स्कूलों में शैक्षिक गुणवत्ता का क्षरण निरंतर जारी है। जबकि इन स्कूलों में जाने वाले तकरीबन सभी बच्चे हाशिये के समुदायों से आते हैं।
पुस्तक में विशेष रूप से कहा गया है कि देशज समुदायों में स्मृति और संस्कृति में प्रतिरोध की परम्परा की जड़ें भी गहरी हैं। आज जहां राज्य -- सत्ता वर्चस्वशाली शक्तियों के पक्ष में खडी है, उसके बावजूद कहीं संगठित और अन्यत्र स्वत: स्फूर्त प्रतिरोध हाशिये के समुदायों की ओर से उभर रहा है।
यह पुस्तक राजस्थान में हाशिये के समुदायों के साथ प्रत्यक्ष कार्यों पर आधारित है। इन समुदायों के साथ लेखक और समान्तर के दूसरे साथी किसी न किसी रूप में जुड़े रहे हैं। पुस्तक के आरम्भ में हाशिये के समुदायों की वृहद श्रेणियों- दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यकों - की सामाजिक- सांस्कृतिक स्थिति का प्रादेशिक परिप्रेक्ष्य प्रस्तुत किया गया है। इसके बाद समुदायों के विस्तृत प्रोफाइल दिये गये हैं। निश्चय ही इनसे राजस्थान में इन समुदायों की मुकम्मिल स्थिति का पता नहीं चलता। इन्हें शोध की भांति नमूने के रूप में सूक्ष्म
प्रतिदर्श की तरह लेना चाहिए। शिक्षा विकास के संदर्भ में सबसे गतिशील संकेतक है। और हम देख रहे हैं कि इन समुदायों के बच्चों के सामने स्कूली शिक्षा को लेकर कितनी और कैसी चुनौतियां हैं।
कुल मिलाकर यहाँ समान्तर के करीबन दो दशक के शैक्षणिक अनुभव और प्रयोगों का सिलसिलेवार और वस्तुपरक विवरण है जिसमें चेतना शाला शिक्षा प्रयोग, शहरी गरीब बच्चों के लिए शिक्षा एवं पुस्तकालय केन्द्र संचालन, सरकारी स्कूलों में शैक्षणिक गुणवत्ता सम्बर्धन कार्यक्रम से लेकर क्षेत्र आधारित शोध शामिल हैं। इस पुस्तक में सम्मिलित आलेखों और समुदाय प्रोफाइल के लिए क्षेत्र- कार्य में समान्तर समूह के जिन साथियों का योगदान रहा है, उनका
उल्लेख भी जरूरी है। इनमें सबीना परवीन, सीमा शर्मा, चेतना सिंह, अनीता मीणा, राजेश माली, रमन दीप, सुचेता सिंह, सरिता अरोड़ा और लोहित जोशी शामिल हैं।
सरिता अरोड़ा समाजशास्त्र में परास्नातक हैं। इन्होंने एक दशक से अधिक समय समान्तर में किशोरी सशक्तिकरण, प्रशिक्षण, संदर्भ- सामग्री निर्माण और प्रलेखन कार्य किया है। अभी बंगलौर के एक संस्थान के कार्यों का स्थानीय समन्वयन कर रही हैं। मीमांसा की मोडरेटर हैं।
संपर्क :8619725711
ईमेल arorasarita466@gmail.com
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