सत्यदेव बारहठ एक छुपे हुए कवि थे। लंबे छुपाव और संकोच के बाद वे इस रूप में प्रकट हुए हैं। उनके कवि का स्वागत करते हुए हम उनकी कविताएँ मीमांसा में प्रस्तुत कर रहे हैं। साथ ही, कविताओं पर सत्यनारायण की टिप्पणी है।
सत्यदेव बारहठ की कविताएं अपने समय, समाज और स्वयं से रूबरू कविताएं हैं। इन कविताओ ंका फलक तीन साढ़े तीन दशक के बीच फैला हुआ है। हालांकि इस बीच कवि के विचार और स्वभाव में ज्यादा परिवर्तन नहीं आया बल्कि वह अधिक प्रौढ़़ और ज्यादा निखरकर सामने आया है। इसीलिए ये कविताएं आज भी बराबर विश्वसनीय बनी हुई हैंै। कवि को तब भी यह विश्वास था कि - ’’तार वीणा के बजेंग/ कर्ण स्वर आनंद लेंगे/ मधुर वेला की प्रतीक्षा हेतु/ अब यह जागरण है/ जागरण है/ जागरण है।’’ चार दशक पहले लिखी कविता के ये अंश हैं तो सन् दो हजार में लिखी कविता की पंक्तियां हैं - ’’मनुष्य होने का अर्थ तलाशते/ हमारे हाथ यह सत्य लगा है/ कि हम हारें नहीं/ अपनी पूरी सामथ्र्य से/ मुकाबला करें/ मनुष्य के खिलाफ खड़ी/ ताकतों का/ मनुष्य को/ विवेकहीन, दीन-हीन, कातर/ बना देने वाली ताकतों का।’’ लेकिन दो हजार पांच तक आते आते कवि को लगता है कि - ’’सत्य का उद्घाटन कैसी विवशता है/ न जाने/ क्यों कर/ अंधकार फिर धिरने लगा है/ भोेर की उम्मीद/ फिर प्रबल होने लगी है/ मेरी पीड़ा/ कितनी अकेली है/ निरी अकेली।’’
कवि का अपना तरल मन भी अपने समय और समाज के साथ है। प्रेम के क्षणों में भी वह इनको नहीं भूलता बल्कि वह अधिक सचेत है - ’’प्यार/पराजय का नाम नहीं है/ मैं जीता/ तो तुम हारे नहीं/ वैसे ही/ जब तुम जीते थे/ तब मैं भी नहीं हारा था।’’
यही कारण है कि विस्तृत फलक में फैले होने के बावजूद इन कविताओं में अपने समय का स्वर है जिसकी अनुगूंजेें वर्तमान तक सुनायी दे रही हैं या दूसरे शब्दों में कहेें तो आज के साथ एकमेक हैं। शायद इसीलिए ये आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी जब ये लिखी गयीं थी। कविताओं के साथ तिथियों के कारण हम उस समय के संवेदनात्मक इतिहास से रूबरू होकर उस धडकऩ को महसूस कर सकते हैं जो कवि का निर्माण करती है। - सत्यनारायण
अंतर वीणा
अंतर वीणा के झंकृत स्वर
मुझको ही जान नहीं पड़ते
यह आत्म-बोध का रूप नहीं
हैं यह मेरी निद्रा के क्षण
तार वीणा के बजेंगे
कर्ण स्वर-आनन्द लेंगे
मधुर वेला की प्रतीक्षा हेतू
अब यह जागरण है
जागरण है
जागरण है
चिर-प्रतीक्षित
नैना निहार हार गए
क्षितिज के उस पार गए
देखने तुम्हें कहीं
खोजने तुम्हें वहीं
खो दिया यहीं कहीं
पा सका न फिर कहीं
तूलिका ले हाथ आज
चित्रकार बन गया
रंग लगा खोजने
कल्पना में डूबकर
नेत्र गए कब कहां
हृदय गया खो कहां
भंगिमा उतारते
हम तो खुद ही हार गए
क्षितिज के उस पार गए
क्षितिज की वो लालिमा
कालिमा बने नहीं
रात्रि का पदार्पण
हो सके न अब कहीं
इसलिए यही समझ
भोर की सहभागिनी
तिमिर को जरा सके
दीप्ति को जो ला सके
सब उसी की चाह में
भोर के उछाह में
हम स्वयं को खोजते
बन सभी का भार गए
क्षितिज के उस पार गए
इक अधूरी सी कहानी
इक अधूरी सी कहानी, सौ बरस की है पुरानी
पूर्ण करने का जिसे मैं
स्वप्न दृग में ही संजोकर
ओ’ उमंगों को दबाकर
हृदय को खुद से छुपाकर
चाह में जानें किसी की
पीर पावन पी गया था
कहूं तो किससे कहूं फिर
यह समझकर ही
भटकता मैं रहा था
आज तक यूं सत्यको
सबसे बचाकर
कथ्य झूठे यूं बनाकर
कहानी का नाम देकर
कलम लिखती ही रही थी
यह मेरी झूठी कहानी
सौ बरस की है पुरानी
और कब मंैं जान पाया
दाह किसको दे गया था
राह किसकी ले गया था
साथ मैं अपने चुराकर
मंजिलें पायीं किसी ने
मार्ग में ही रह गया मैं
मील का पत्थर बना सा
फिर किसी ने पोत डाला
मापदंडों को बदलकर
और फिर जब तोड़ डाला
हो गया मैं यूं अजाना
युग-युगों चलती रहेगी
यह मेरी टूटी कहानी
सौ बरस की है पुरानी
चित्र जो हमने बनाया
भावना के रंग भरकर
कल्पना से स्वर संवारे
चेतना के गीत गाकर
समय ने संभाव्य पाकर
रंग उसके सब मिटाकर
गीत के स्वर छीन डाले
प्रीत के सपनें अजाने तोड डाले
चित्र खाली रह गया तब
बोध उसका भी मिटानें
नया रेखा-चित्र लाने
तोड़ डालो तुम उसे अब
बच रही जो भित्ति-षाला
शेष है जो गीत-माला
चाहना मत घोर रजनी
भोर का अभिसार करना
कहानी तो है कहानी
कब हुई पूरी कहानी
सौ बरस की है पुरानी
शुरू होती कब कहानी
अंत ही आरंभ जिसका
खत्म होती कब कहानी
हो नहीं सकती शुरू जो
अंत जीवन का नहीं तब
कहानी का अन्त कैसा
एक क्रम ही हो रहे तो
कहानी की जिन्दगानी
हे समन्दर यह कहानी
लहर बनकर लौट जानी
सौ बरस की है पुरानी
खोजता ही मैं रहा हूं
छोर इसके, मध्य इसका
प्रयासों के हर कदम ने
बढ़ाया केवल निरन्तर
असीमित फैलाव इसका
सहमति के हस्ताक्षरों को
जब कभी भी थाम कागज
फैलाया आगे जगती के
स्वीकृति के चिन्ह इतने
उभरकर अंकित हुए हंैं
अमिट हो, होते गए हैं
जिन्हें मैं तो आज तक भी
लगा गिनने, गिन न पाया
पूर्व से आरंभ के भी
अंत के भी बाद तक
है रही जो चल कहानी
नहीं मेरी, है सभी की
पूर्ण-आधी अर्ध-पूरी
चिर-पुरातन की कहानी
नवल-नूतन की कहानी
सौ बरस की है पुरानी
सत्य होती गर कहानी
शेष ना रहती निषानी ...
सौ बरस की है पुरानी
श्याम सखे
श्याम सखे
तुम दूर नहीं
भीतर मेरे
कितने करीब।
ज्वार उबलता
तन मन में
अंगारों पर है
सेज सजी
घोर निषा का अंत नहीं
पाकर प्रभात भी
क्या होगा?
अहसास तुम्हारे होने का
हे श्याम सखे
अखिल जगत के
कण कण में।
अलग कहां हूं
मैं जगती से
रोम-रोम मेेरे
बसती वह
रोम-रोम कण-कण
व्यापे तुम
द्वैत कहां है
तुममें मुझमें
इसीलिए तो श्याम सखे
तुम दूर नहीं
भीतर मेरे
कितने करीब।
राधा
गोपी सब जान रही
तुम दूर गए हो
दूर रहोगे
निष्ठुर हो, भूलोगे
सबको।
भूल न पावो
तब भी कहना
भूल गये हो
ज्ञान सिखाने
हमको सारा
सखा भेजना मत
उद्धव सा।
पर श्याम सखे
तुम भूलो चाहे
याद तुम्हारी
अजर अमर बन
व्याप रही
जगती के कण-कण।
श्याम तुम्हारा नाम
अकेला कभी न होगा
उसके संग होगी राधा
गोपी भी होगी एक-एक
उस अमर प्रेम की
गाथा कहती
कोटि-कोटि
बातें होंगी
जन-जन के होंठ चढ़ी होंगी
तन-मन में खूब रमी होंगी
श्यामल रंग
खूब रंगी होंगी।
श्याम सखे
आराध्य बनोगे
उन सबके तुम
जिनके मन में
पीर रहेगी
मीरा जैसी।
अब तो बोलो
श्याम सखे
तुम दूर नहीं
भीतर मेरे
कितने करीब।।
तुम जल्दी में थे
तुम जल्दी में थे
और मेरे पास थी
फुरसत ही फुरसत
तुम्हारे प्रस्ताव
कितने साफ थे
सच के कितने करीब
वो तो मैं ही था
जो नासमझ बना था
तुम जल्दी में थे
और मेरे पास थी
फुरसत ही फुरसत
तुम्हारी हर बात
जीवन के कठोर अनुभवों से
निकलकर आयी थी
मैं कायल था बेहद कायल
और इसीलिए
चाहा था तुम्हारा साथ
मगर
तुम जल्दी में थे
और मेरे पास थी
फुरसत ही फुरसत
तुम राही
सचमुच
निराले थे
जिसे न मंजिल
का पता था
न राह का
मगर
दौड़ने की
दौड़ते रहने की
अथाह चाह थी तुम में
उसी का तो मैं
दीवाना बना था
मगर
तुम जल्दी में थे
और मेरे पास थी
फुरसत ही फुरसत
तुम जानते थे कि
तुम घरौंदा बना रहे हो
हाल ही में हुई
बारिष से भीगी माटी का
घरौंदा, जिसे
खेलकर तुम खुद ही
डहा दोगे
बनाने और
मिटाने का खेल
तुम्हारे लिए
कोई नया नहीं था
इसीलिए तो तुमने
एक ही वाक्य में
सब कुछ खारिज कर
दिया था
घरौंदा एक नया बनाने
के लिए
मैं तो तुम्हारी
इस गतिमानता का भी
आषिक बना था
मगर
तुम जल्दी में थे
और मेरे पास थी
फुरसत ही फुरसत
जीवन की बेहद पेचीदा परतों को
सत्यनिष्ठा के सहारे
तुमने
कितनी सहजता से खोल डाला था
मैंने ऐसी सत्यनिष्ठा
पहले कभी नहीं देखी थी
तुम्हारे सत्य के मैं
और करीब आना चाहता था
मगर
तुम जल्दी में थे
और मेरे पास थी
फुरसत ही फुरसत
उम्मीदों के सहारे
जीने की आदत
किसे नहीं होती
मैं भी यह उम्मीद
जगाए बैठा था
कि कभी तो
तुम्हें भी होगी फुरसत
और मुझे भी
नहीं होगी जल्दी
मैं यह बात तुम्हें समझाता
मगर
तुम जल्दी में थे
और मेरे पास थी
फुरसत ही फुरसत
जीवन सत्य
प्यार
पराजय का नाम नहीं है
मैं जीता
तो तुम हारे नहीं
वैसे ही
जैसे जब तुम जीते थे
तब मैं भी नहीं हारा था
हारना टूटने का नाम है
मगर हम कभी टूटे नहीं
इसीलिए हम कभी हारे भी नहीं
पराजय की ओर
ले जाता हर पड़ाव
हमारे लिए
अधिक शक्ति का स्त्रोत
साबित हुआ है
और इसीलिए
शरीर की रोग-रोधी शक्ति
जैसे रोग से लड़ती है
और रोग को परास्त कर देती है
वैसे ही हमने भी विपरीत परिस्थितियों को
सत्य और साहस से अनुकूल बनाया है
मनुष्य होने का अर्थ तलाषते
हमारे हाथ यह सत्य लगा है
कि हम हारें नहीं
अपनी पूरी सामथ्र्य से
मुकाबला करें
मनुष्यता के खिलाफ खड़ी
ताकतांे का
मनुष्य को
विवेकहीन, दीन-हीन, कातर
बना देने वाली ताकतों का
जीतना शायद हमारे हाथ में नहीं
मगर न हारना तो
निष्चय ही हमारे हाथ में है
इसीलिए न तुम हारते हो
न मैं
जम्हूरियत
निकम्मों की फौज में
नए निकम्मों की भर्ती है
सबसे पहले जिसे चुना गया
मालूम हुआ
यह वही आदमी है
जिसे कुछ साल पहले
यहीं से निकम्मा करार देकर
निकाल दिया गया था
और यूं
इस नई जम्हूरियत में
निकम्मापन परवान चढ़ने लगा है
सदाव्रत
पीपल की छांव में
बाबा के गांव में
लगी है हाट
सदाव्रत के ठाठ
सूरज, बिरदी, रामू
सभी आओ
बांके, किलाण, प्रकाष
तुम भी आओ
हेला दे देकर
यारों को बुलाओ
आओ रे आओ
लूट में तुम पीछे क्यों
दोनों हाथ से लूटो
और खूब लुटाओ
बाबा के सदाव्रत खुला है
मैं और तुम
जब-जब मैंने तुम्हें
पाने की कौषिष की है
तब-तब मैंने तुम्हें
खोया है
तुम्हें मैं जितना भी पाता हंू
उससे कहीं ज्यादा
तुम्हंे खो भी देता हूं
तुम्हंे खोने के अहसास
मात्र से मैं तुम्हंे
पाने का अहसास भी
नहीं करना चाहता
मैं तुम्हें पाना नहीं चाहता
खोने के लिए
इसे तुम मेरी कायरता कहो
तो मुझे दुःख नहीं होगा
दुःख तो तब होगा
जब मैं तुम्हें खोने के
लिए हिम्मत जुटा लूंगा
पर तब तक
बहुत देर हो चुकी होगी
तुम कोई देह नहीं हो
जो अदृष्य होते ही
खो जावोगी
तुम क्या हो
मुझे नहीं मालूम
पर मंैं इतना अवष्य जानता हूं
कि तुम देहहीन होकर भी
मेरी देह में मौजूद हो
मेरे रोम-रोम में बसी हो
तुम मेरी ऊर्जा हो
मेरे मन को रौषन करने वाली ऊर्जा
तुम अकूत हो
तुम्हारा कोई ओर-छोर ही नहीं है
फिर भी तुम कितनी निष्चित हो
ब्रह्माण्ड के पदार्थ की भंाति
जो न कभी तिल घटता है
न बढ़ता है
तुम रूप बदलती हो, आकार बदलती हो
पर रहती हो, ब्रह्माण्ड के भीतर ही
उसके बाहर जाना
तुम्हारी नियति में है ही नहीं
तुम ब्रह्माण्ड के भीतर हो
बाहर नहीं जा सकती
तुम्हारा हर रूप पूर्ण है
हर खंड पूर्ण है
उतना ही
जितनी तुम सम्पूर्ण
इसीलिए तुम चाहो तब भी
इस पूर्णता को खो नहीं सकती
मैं भी तुम्हें खो नहीं सकता
क्योंकि मैंने तुम्हें
पाया ही कब है
तुम तो न जाने कब से
मेरी चेतना में बसी हो
अवचेतन में रची हो
न मंैं कुछ कर सकता हूं
न तुम
तुम जिसे अपनी हिम्मत कहती हो
और मेरी कायरता
वे दोनों बेमाने हैं
अपने को पहचानो
और अन्तर्मुखी हो जावो
मैं और तुम
तुम और मैं
अलग-अलग हैं ही कब
इस अहसास में डूब जाओ
एक बार फिर,
हां, एक बार फिर
न मैं रहूंगा
न तुम
सत्यदेव बारहठ आरम्भ में वनस्थली विद्यापीठ में पढाते थे। उसके बाद वे जयपुर स्थित राज्य संदर्भ केंद्र में साक्षरता और जनसंख्या शिक्षा के लिए काम करते रहे। उन्होंने सामाजिक अनुसंधान के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किया है। साहित्य सहित कलाओं में उनकी विशेष अभिरुचि है। संपर्क : 9829369834
सत्यदेव बारहठ जी की इन कविताओं में उनके बाह्य जगत के अनुभव अन्तर्मन की संवेदनाओं के रूप में अभिव्यक्त हुये हैं | सत्यनारायण ने सही कहा है कि इन कविताओं का फलक पर्याप्त व्यापक होते हुये भी ये कवितायें हमारे समय और समाज का सही चित्रण करती हैं | सत्यदेव जी को बधाई और मीमांसा को ये कवितायें साझा करने हेतु साधुवाद |
जवाब देंहटाएंMane ko chunai wali kavita ....atisunder sabdawali
जवाब देंहटाएंReal Gem in all aspects !
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