कहानी प्रणव प्रियदर्शी की एक लंबी कहानी हम पहले मीमांसा में दे चुके हैं जिसे काफी सराहना मिली थी। उनकी यह कहानी प्रिन्ट मीडिया में प्रविष्ट पतनशीलता को उद्घाटित करती है। वैसे तो भारत के समूचे मीडिया का ही चरित्र बदल गया है। लेकिन यह बदलाव एक सच्चे आदमी की नैतिकता में कैसे सेंध लगाता है, यह कहानी इस परिघटना का विचलित कर देने वाला आख्यान है। नरक में मोहलत प्रणव प्रियदर्शी घर से निकलते समय ही अनिता ने कहा था, ‘बात अगर सिर्फ हम दोनों की होती तो चिंता नहीं थी। एक शाम खाकर भी काम चल जाता। लेकिन अब तो यह भी है। इसके लिए तो सोचना ही पड़ेगा।’ उसका इशारा उस बच्ची की ओर था जिसे अभी आठ महीने भी पूरे नहीं हुए हैं। वह घुटनों के बल चलते, मुस्कुराते, न समझ में आने लायक कुछ शब्द बोलते उसी की ओर बढ़ी चली आ रही थी। अनिता के स्वर में झलकती चिंता को एक तरफ करके अशोक ने बच्ची को उठा लिया और उसका मुंह चूमते हुए पत्नी अनिता से कहा, ‘बात तुम्हारी सही है। अब इसकी खुशी से ज्यादा बड़ा तो नहीं हो सकता न अपना ईगो। फिक्कर नॉट। इस्तीफा वगैरह कुछ नहीं होगा। जो भी रास्ता निकलेगा, उसे मंजूर कर लूंगा, ऐसा भी क्या है।’ बच...
संस्कृति केंद्रित पत्रिका