आलेख
लोक- जीवन में कला स्वत: स्फूर्त रूप में यत्र- तत्र बिखरी रहती है। वह इतनी सहज व्याप्त है कि उसकी कलात्मकता और सौंदर्य पर प्रायः हमारा ध्यान नहीं जाता। अक्सर उसके परिष्कृत रूप ही हमारे विमर्श में आते हैं। लोक- सृजन में निहित कला और सौंदर्य को अपने लेख में सुभाष सिंगाठिया ने बड़ी सूक्ष्मता से रेखांकित किया है।
साहित्य और कला- सौंदर्य बोध से भरपूर अपनी खूबसूरती को समेटे हुए ये दोनों बेहद महत्त्वपूर्ण और संवेदनशील घटक किसी भी समाज के यथार्थ से लबरेज ऐसे सजीव और जीवंत चेहरे हैं जो उसके साँस्कृतिक और कलात्मक अस्तित्व को सहेजे हुए रहते हैं- आवरण रहित बहुआयामी चेहरे। एस्थेटिक सेंस से लबालब इन चेहरों को लोक कला में ढूँढें तो ये जीवन के और अधिक नजदीक महसूस होते हैं- जीवन की गहन अनुभूति लिए हुए। जिनमें जीवन, जीवन-संघर्ष, जीवन-आनंद और जीवन-उत्सव के व्यापक आयाम निहित हैं, यानि लोक-कला लोक-जीवन और लोक-मानस के ही सदृश है और इसका मूल उद्देश्य या लक्ष्य अंततः लोकहित ही होता है।
मैंने कहीं पढ़ा था कि- "शब्द जहाँ अपनी अभिव्यक्ति का सामर्थ्य खो देते हैं, ठीक वहीं से रंग और रेखाएँ बोलना शुरू होती हैं।" जब हम किसी बहुआयामी चित्र को देखते हैं, विशेषकर प्रतीकात्मक चित्रों को तो यह बात अक्षरशः सही साबित होती है, क्योंकि ये चित्र साक्षात् बतियाते हुए, संवाद करते हुए नजर आते हैं। यहाँ पर चित्रकार की सूक्ष्म दृष्टि और उसकी व्यूह रचना अपनी विशेष भूमिका निभा रही होती है, जो कि एक बिंदु से शुरू होकर क्षितिज के उस पार तक संपूर्ण ब्रह्मांड को देख पाने में सक्षम है। यह स्वभाव अकेले चित्रकला का ही नहीं बल्कि हर तरह की कला का होता है। गौरतलब है कि इस कला को एक आम घरेलू औरत की कशीदाकारी और उसके चौका पूरने से लेकर दुनिया के नामी-गिरामी चित्रकारों की तूलिका में से धरती, आकाश और प्रकृति के अनेकानेक घटकों को सृजित होते हुए देखा जा सकता है- लोक से सतरंगी-इंद्रधनुषी-जुगलबंदी करते हुए।
लोक की यही खूबसूरती और खासियत है कि प्रकृति और प्रकृति से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष जुड़ी चीजों के बिना उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती- बेल, फूल, वृक्ष, पशु-पक्षियों आदि का चित्रण लोकगीतों से लेकर लोक कला से संबद्ध चित्रों और अन्य कलाओं में होता है, जो यह बताता है कि लोक की जीवंतता प्रकृति और प्राणी मात्र पर आश्रित हैं और कोई भी कला इन्हीं घटकों के अवलंबन से सृजित होती है- और स्वयं लोक भी। घरों में विभिन्न अवसरों पर बनाए जाने वाले भित्ति चित्रों के रूप में माँडणा और फर्श पर अल्पना और रंगोली लोककला से सृजित चित्र होते हैं, जिनकी पृष्ठभूमि में लोक से जुड़ी कोई ना कोई कथा-कहानी होती है। ये चित्र बिलकुल साधारण, सादा और प्राकृतिक रूप से बनाए जाते हैं- बिना किसी जोड़-तोड़ या मिलावट के। इन चित्रों में भले ही लालित्य ना हों, बावजूद इसके लोक की सौंधी खुशबू उन्हें बेहद आकर्षक और मनभावक बना देती है जो कि लोक और उसकी कला की ही तासीर है। खुशी के विशेष अवसरों पर घरों के प्रवेश द्वार पर दाएँ-बाएँ गोबर से बनाए जाने वाले माँडणा और हिरमच (गहरा महरून रंग) से बनाए जाने वाले साँखिया (स्वास्तिक चिह्न) लोक कला की बेहतरीन बानगी है। घर में प्रवेश करते समय उन पर नजर पड़ते ही उनकी सकारात्मक वाईब्रेशन से मन उल्लास से भर जाता है। यह लोक कला का ही प्रभाव या मनोविज्ञान है जो यह बताता है कि वह सामाजिक और साँस्कृतिक सरोकारों से भरपूर है और उसके संपर्क में आने वाले हर व्यक्ति पर वह अपना प्रभाव छोड़े बिना नहीं रहता।
हालांकि विश्वभर की कलाएँ कभी इस आरोपण से मुक्त नहीं रह पाईं कि उनमें लोक नदारद रहता है और इसके साथ-साथ उन पर कभी विदेशी प्रभाव का आरोप लगता आया है तो कभी दरबारी होने का, बावजूद इसके प्रामाणिक पुष्टि के आधार पर यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि कला का मूल ओरिजन लोक ही है- वह लोक जो साँस्कृतिक वैक्यूम को शिद्दत से भर सकने में सक्षम है। परिवार-समाज में समय-समय पर होने वाले विवाह सरीखे महत्वपूर्ण अवसरों, पारिवारिक संस्कारों, त्योहारों, पर्वों पर अर्चना-आराधना में कला से जुड़े अद्भुत उत्कृष्ट चित्रों का समावेश- कहीं पटचित्रों के माध्यम से फूल-पत्तियों का अंकन, कहीं भित्ति चित्रों से साँस्कृतिक विकास को दर्शाता हुआ अलंकरण- माँडणा आदि, तो कहीं प्रेम प्रतीक के रूप में देहचित्र के माध्यम से मोर, पपीहा, तोता आदि का चित्रण। शुभ-शकुन वाले अवसरों पर लड़कियों और महिलाओं के हाथों और पैरों पर लगाई जाने वाली मेहंदी भी देहचित्रण का एक उदाहरण है।
दरअसल यही वह ठेठ लोक है, जो जन्म से मृत्यु तक आजीवन किसी न किसी रूप में हमारे साथ रहता है, जिसमें ना तो दरबारी कला का कोई प्रभाव या दबाव है और ना ही विदेशी कला से कोई आयातित अंश- यहाँ तक कि मितांश भी नहीं। उल्लेखनीय है कि ये लोक-कला के चित्र-प्रतीक जिस भी परिवेश में मौजूद रहते हैं अपने आसपास ताज़गी, उल्लास और खुशियों का संचार करने में सक्षम हैं- और यकीनन जब ऐसा घटता है तब यह भावनाओं से ओतप्रोत लोक कला का सामाजिक और साँस्कृतिक सरोकार बोल रहा होता हैं- जिसे दिल की अतल गहराइयों तक बखूबी महसूसा जा सकता है। प्रकृति का छोटे से छोटा हिस्सा- बेल, फूल, वृक्ष और प्राणी मात्र लोक के आलंबन हैं और लोक के बिना प्रकृति भी अधूरी-अधूरी-सी लगती है। लोक कला के संपर्क में आते ही ये तमाम घटक जैसे महक उठते हैं। लोक कला खुद भी प्रकृति के संपर्क में आने से निखर-निखर जाती है । यहाँ यह कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि लोक कला और प्रकृति परस्पर पूरक हैं। बल्कि यह कहा जा सकता है कि इसी पूरकता में ही समाज का साँस्कृतिक और कलात्मक विकास संभव है- जो एक-दूसरे की महक से ही गतिमान रहते हैं ।
लोक जीवन के मर्म को समझने वाले विद्वान आचार्य डाॅ. हजारी प्रसाद द्विवेदी लोक को रेखांकित करते हुए कहते हैं कि- "लोक शब्द का अर्थ जनपद या ग्राम्य नहीं है बल्कि नगरों और गाँवों में फैली वह समुची जनता है जिनके व्यावहारिक ज्ञान का आधार पोथियों नहीं हैं । ये लोग नगर में परिष्कृत, रुचि-संपन्न तथा सुसंस्कृत समझे जाने वाले लोगों की अपेक्षा अधिक सरल और अकृत्रिम जीवन के अभ्यस्त होते हैं और परिष्कृत रुचि वाले लोगों की समूची विलासिता और सुकुमारिता को जीवित रखने के लिए जो भी वस्तुएँ होती हैं उनको उत्पन्न करते हैं।"
इसी तरह भारतीय लोक को लेकर डॉ वासुदेव शरण अग्रवाल कहते हैं- "कश्मीर से कन्याकुमारी तक फैले हुए भू-भाग पर पनपता हुआ मानव समाज भारतीय लोक है। भारतीय लोक हमारे सुदीर्घ इतिहास का अमृत फल है। जो कुछ हमने सोचा, किया और सहा, उसका प्रकट रूप हमारा लोकजीवन है। लोक राष्ट्र की अमूल्य निधि है। हमारे समाज में जो भी सुंदर तेजस्वी तत्व है, वह लोक में कहीं न कहीं सुरक्षित है। हमारी कृषि, अर्थशास्त्र, ज्ञान, साहित्य, कला के नाना रूप, भाषाएँ और शब्दों के भंडार, जीवन के आनंदमय पर्व-उत्सव, नृत्य, संगीत, कथा, वार्ताएँ, आचार विचार सभी कुछ भारतीय लोक में ओत-प्रोत है।"
लोक पर इन विद्वानों के दृष्टिकोण से एक बात पूरी तरह से स्पष्ट और पुष्ट हो जाती है कि लोक हमारे जीवन और समाज का आधार है। साँस्कृतिक और सौंदर्य-चेतना से युक्त मजबूत आधार स्तंभ जिस पर यह समाज ना सिर्फ खड़ा है बल्कि बिना लोक के इस समाज और जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। क्योंकि हमारे जीवन में, हमारे आस-पास जो कुछ भी सुंदर है, तेजस्वी है, कलात्मक है, साहित्यिक है, प्राकृतिक है, साँस्कृतिक है, वास्तविक है वह सब कहीं न कहीं, किसी ना किसी रूप में लोक में सुरक्षित है। लोक कथाएँ, लोक नृत्य, लोक गीत, लोक साहित्य, लोक नाट्य, लोक समाज इसके जीवंत उदाहरण हैं- इनमें लोक रूप और लोक समाज बसे और बचे हुए(संरक्षित) हैं। दरअसल इन कलाओं में कल्पना के लिए कोई जगह नहीं होती और ना ही यह सब मनोविनोद के लिए होते हैं बल्कि इनमें जीवन से जुड़ी सच्चाई, संवेदना और जीवन की बारीकियाँ छिपी होती हैं, जिन पर जीवन आधारित होता है और इसी 'आधार' में लोक और इसकी कलाओं की महती भूमिका और संवेदना होती है- बशर्ते कि जीवन की अंतरंगता से जुड़ी इस कला में बसी संवेदना को उसी गहराई से अनुभूता जा सके।
करीबन 25 साल से सक्रिय पत्रकारिता। लगभग 10 साल तक श्रीगंगानगर से निकलने वाले' दैनिक प्रशांत ज्योति' के रविवारीय का साहित्य संपादन। पिछले 8 साल से साहित्यिक और वैचारिक पत्रिका ' पूर्वकथन' का संपादन।
हंस, समयांतर, मीमांसा, अभिव्यक्ति, समय माजरा, युद्धरत आम आदमी, नवभारत जैसे स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में समय-समय पर रचनाओं का प्रकाशन और दिल्ली दूरदर्शन, जयपुर दूरदर्शन और आकाशवाणी से प्रसारण।
जनवादी लेखक संघ श्रीगंगानगर का जिला महासचिव, प्रदेश कार्यकारिणी में संयुक्त सचिव और राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य।
संप्रति स्वतंत्र लेखन और भगवती गर्ल्स कॉलेज, लालगढ़ जाटान् में हिंदी साहित्य विभाग में अध्यापन।
संपर्क - 9829099479
लोक जीवन में कलायें अपनी अंतरंगता के रूप में विद्यमान रहती हैं | जिन लोगों ने बैलों द्वारा चड़स से पानी सींचने वाले गूणिये के दूहे सुने हैं वे समझ सकते हैं कि वहाँ कविता श्रम सौन्दर्य से एकरस हो जाती है | इसी प्रकार विवाहोत्सव या अन्य त्यौहारों के अवसर पर लिपे हुये आँगन में माँडणे, द्वार पर चित्रांकन या अहोई अष्टमी और दीवाली पूजन के कलात्मक चित्र सहजता से उकेरे जाते हैं | सुभाष सिंगाठिया ने पूरी तन्मयता से यह टिप्पणी लिखी है, उन्हें बधाई और मीमांसा को साधुवाद कि यह पढ़ने का अवसर दिया |
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