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नवगीत - जयप्रभा यादव

गीत
हिन्दी में गीत- गजलें मुक्त- छंद कविताओं के समानान्तर रची जा रही हैं। हर रचनाकार अपनी मन: स्थिति और अभिमुखीकरण के अनुसार अभिव्यक्ति विधा का चयन करता है। तब महत्वपूर्ण यह है कि वह अपने लिए उस विधा का कैसे अभिनवन करता है। जयप्रभा यादव की गीति- कविता में अनुभूति, संवेदना, शब्द- विन्यास और शैली में प्रभावी समन्वयन है। मीमांसा में उनके कुछ गीत प्रस्तुत हैं।



*जीवन रसधारा बहने दे।*

जीवन रसधारा बहने दे।

यह कीकर मन मधुरिक्त रहा।
कब पुष्पों से अभिसिक्त रहा ।।

कदली रसाल का साथ न था।
गर्वोन्नत था नत माथ न था।।

अब नीडों की ऋतु आई है।
कलरव दे रहा सुनाई है।।

शतस्वप्न पले इन विहगों से 
अब तो तू मन की कहने दे ।
*जीवन रसधारा बहने दे ।।*

मृग सिकता में भ्रम खाता था।
बन पागल दौड़ लगाता था ।।

उसको जलधारा मिली न थी ।
यह दीठ तृषा भी बुझी न थी ।।

मग में थी अथक थकान भरी ।
प्राणों की जाती डूब तरी ।।

अब जलदों का मौसम आया
दुश्चिन्ताओं को दहने दे ।
*जीवन रसधारा बहने दे।।*

घाटों घाटों के पगधर थे ।
मन मिले नहीं यायावर थे।।


दिनमणि सँग चलते पाँव रहे।
पाते ठूँठों की छाँव रहे।।


आशाओं के व्यापारी थे।
अंत:ज्योति के पुजारी थे।।

ऋण चुका सभी मधु ऋतु आई
निज नेहकुटी में रहने दे।
*जीवन रसधारा बहने दे।।*

*कैसा मुझको आकाश मिला*

 *मुझको कैसा आकाश मिला ,कैसा मुझको आकाश मिला*।

जिसमें उडु की आभा न दिखी शशि की द्युति भासित हो न सकी।
है रेख न रविरथ की जिसमें पगराह प्रकाशित हो न सकी ।।

*वेदना सामने से आई ,दुबका- दुबका उल्लास मिला ।*
*मुझको कैसा आकाश मिला।।*

अश्वत्थ कदलि महुआ बरगद मेरे कानन में नहीं मिले।
इन्दिरा कुमुदिनी भ्रम में भी मन के तडाग में नहीं  खिले।।

*मुझको बबूल की वंशावलियों से पग-पग पर त्रास मिला  ।*
*मुझको कैसा आकाश मिला।।*


हम ढूंँढ न पाए वे सहपग जो अपरिहार्य मग तक चलते।
जलभरे दो नयन नहीं मिले जिनमें अपने  सपने पलते ।।

*नर्तन करता तम मिला किन्तु उषा का नहीं उजास मिला ।*
*मुझको कैसा आकाश मिला।।*


पङ्खों से पङ्ख मिलाकर कोई गरुड़ न दो पल उड़ पाया ।
अधबने नीड़ में भी सहसा झञ्झावाती झोंका आया ।।

*बाजों की तो छोड़ो साथी हर खग करता उपहास मिला ।*
*मुझको कैसा आकाश मिला।।*


नभ को तकते-तकते कितनी आशान्वित बेलें सूख गईं।
सावन में उड़ती रही धूल बदलियांँ धरणि से रूठ गईं ।।

*छिटका-छिटका पतझड़ आया मुरझाया सा मधुमास मिला।*
*मुझको कैसा आकाश मिला।।

*बावरा मन* 

*आज कहना चाहता कुछ अनमना सा बावरा मन।*

सर्वहारा के पसीने की कमाई छिन रही है ।
दासता की श्रृंखला अब दिन हमारे गिन रही है।।

इन कपोलों की मधुरिमा चुक रही कुछ वक़्त ठहरो।
भगतसिंह का बम न फूटेगा सुनो रे ढीठ बहरों।।

कब तलक तुम केंचुए बन पालथी खाते रहोगे।
ढाँपकर ये पटविवेकी मृषासुख पाते रहोगे।।

रीढ़ सीधी करो सुधरो कब बनोगे स्वाभिमानी।
समय की द्रुत नब्ज़ पकड़ो जा रही नाहक़ जवानी।।

बचो अब घर में तुम्हारे नाग करते विष वमन।
*आज कहना चाहता कुछ अनमना सा बावरा मन।।*

ठेठ कबिरा को सुना जब रूढ़ि कारागार दरके।
परमहंसी ज्ञान पाकर भक्ति के संसार महके।।

लोग काशी में पहुँचकर मोक्ष अपना ढूँढते हैं।
ज्ञानवापी में नमाज़ी भूमि को नित चूमते हैं।।

हुए एकाकार सारे पन्थ आकर इस धरा में।
भिक्षु सूफी औलिया अथवा पुरोहित की गिरा में।।

जो हमारे पूर्वजों ने स्वत्त्व से अर्जित किया है।
उस मलय को घृणित झोंकों ने सखे दूषित किया है।।

बुद्ध की गरिमा बचा लो शोख कलियों का चमन।
*आज कहना चाहता है कुछ अनमना सा बावरा मन।।*

सिन्धु गोदावरी गंगा ढो रहीं मल के पनाले।
बाँस पीतल जूट खादी बेंत के निकले दिवाले।।

कब अशिक्षा तम हटेगा, पुष्ट बालक जन्म लेंगे।
बुर्जुवा कब शोषितों को दमन से अवमुक्ति देंगे।।

विवश कलियों को मसलना क्रूरता की है निशानी।
भाल की मिथ्या लकीरें अब तुम्हें ही हैं मिटानी।।

तुम श्रमण हो श्रमण संस्कृति को नए आयाम दे दो।
कुछ करों को काम दे दो,कुछ करों से काम ले लो।।

सच यही है, यही सच है धर्म से पहले वतन।
*आज कहना चाहता है कुछ अनमना सा बावरा मन।।*

*मैं धरा हूंँ*

मैं धरा हूंँ।
जन्म जब से लिया जग ने दी हजारों यातनायें।
छला पग -पग उसी ने जिसके लिए की कामनायें।।

अन्न आभूषण वसन दे आँक दी कीमत हमारी ।
छीनकर अस्तित्व मेरा हो गए पूरे प्रभारी ।।

*शस्य स्वेच्छा से उगाई सोचकर मैं उर्वरा हूंँ।*
*मैं धरा हूंँ।*

उषा से ले निशा तक कब मिल सका विश्राम आली ।
परिधि मेरी नियत मैं हूँ प्रकृति की रचना निराली।।

जब हुआ असहाय आहत हृदय भी कुछ लड़खड़ाया ।
नेह के दो बोल कोई बोलने कब पास आया।।

*कर न दूँ विद्रोह कोई इसलिए मैं नापरा हूंँ।*
*मैं धरा हूंँ।*

सोचकर अपमान अपने सब सहूंँ मैं मूक होकर ।
सदा चाहूंँ भड़कना पर शान्त हो जाऊंँ रुदन कर।।

प्रि‌ये, तुम अर्धाङ्गिनी सुख - दु:ख की सहभगिनी।
प्रथम पूज्या धरा सी अविचल सहिष्णु सुभाषिनी ।।

*रही सबके लिए मीठी सिक्त रस शुचि शर्करा हूँ।*
*मैं धरा हूंँ।*

_ *प्रेम जीव सुगबुगा उठे हैं*_
 
थके -थके उन्मन बहेलिए सा दिनकर सो गया  साँंझ को,

देख सुधाकर की अंँगड़ाई प्रेमजीव सुगबुगा उठे हैं। 

श्याम मेघ की बांँह पकड़कर दिन में विकट प्रभञ्जन आया।

 शाखें उलझी पात क्षत-विक्षत पारिजात की टूटी काया।।

 नीड़ उड़ गया गौरैया का हुआ कपोती का मन भारी। 

 बन्जारन की उड़ी ओढ़नी सहमा बन्जारा परिसारी ।।

 दिन के झञ्झावाती झोंकों में उच्छिन्न हुए थे सपने, 

लेकिन विधु की अमीधार पा चन्द्रपुष्प महमहा उठे हैं।

*देख सुधाकर की अँंगड़ाई प्रेमजीव सुगबुगा उठे हैं।।*

 चन्द्रबिम्ब जब पड़ा सरोवर में वनमुर्गी कुड़- कुड़ बोली। 

बाल कुमुदिनी कुछ मुस्काई युवतर करने  लगी ठिठोली।। 

और रमणियों की अलकावलि में महके बेलों के गजरे। 

प्रणयी पर पञ्चशर चलाने को मचले नयनों के कजरे।। 

 ताजमहल की मुण्डेरी पर विभास्नात अपलक लख प्रिय को, 

चोंच  फँसाकर क्रीड़ा करते चक्रवाक फिर लजा उठे हैं।

 *देख सुधाकर की अंँगड़ाई प्रेमजीव सुगबुगा उठे हैं।।*

 नीलकमल की खुली पाँखुरी मनहर ब्रह्मकमल मुस्काए। 

 सञ्झाफूल खिले आंँगन में पवन महकती आए जाए।।

 रजनीगन्धा की मादकता से मदहोश निशा की रानी, 

चन्द्ररश्मियों का दुकूल ले झूमे वासन्तिया सयानी।। 

नाच - नाच कर लुभा रहे हैं नर बुलबुल विरहिणी प्रिया को,

 निशि में उनका गाना सुनकर रॉबिन भी गुनगुना उठे हैं।

 *देख सुधाकर की अंँगड़ाई प्रेमजीव सुगबुगा उठे हैं।।*

*हिन्दी है जन- जन की भाषा।*

नव जलधर की धवल धार सी
जो प्राची से पश्चिम आई।
अथवा मन्द समीरण बहकर
ज्यों मधुकानन से टकराई।।
वारिजवदनी उषादेवि ने
निशि के कुञ्चित केश सँवारे,
त्यों ही छोड़ बोलियों का तट
यह संस्कृत की बेटी आई।।

इसके आने से ब्रज अवधी
बुन्देली को नहीं निराशा।
*हिन्दी है जन-जन की भाषा।।*

ले इसका आश्रय सधुक्कड़ी
में कबिरा ने इसे सँवारा।
मीतादास  सन्त ने अपने
उपदेशों में लिया सहारा।।
और खगनिया ने भी हिन्दी
में कितनी मुकरियाँ सुनाईं,
नानक दादू के सन्देशों 
में भी बही इसी की धारा।।

भारतेन्दु भगवतीचरण ने
इसे सराहा इसे तराशा।
*हिन्दी है जन- जन की भाषा।।*

गीतगुञ्ज परिमल अनामिका
कुल्ली भाट निराला वाला।
कामायनी अजातशत्रु तितली
इरावती का मतवाला।।
हरिऔध ने जिस भाषा में
ठेठ हिन्दी का ठाठ लिखा है,
मन्नू और सुभद्रा चित्रा ने
सहेजकर उसे सँभाला।।

धनिया होरी के मन में जो
जागी गोदानी अभिलाषा।
*हिन्दी है उस जन की भाषा।।*

बालकृष्ण शर्मा "नवीन" बच्चन
माखन थे हिन्द सितारे।
मुक्तिबोध अज्ञेय मैथिली
दिनकर मिलकर इसे सँवारे।।
जिन आँखों से नागार्जुन ने
बादल को घिरते देखा था,
विद्रोही राजेन्द्र त्रिलोचन
राघव इसके बने सहारे।।

मुखर चेतना की स्वरदायिनि
आगामी पीढ़ी की आशा।
*हिन्दी है जन -जन की भाषा।।*

नीरभरी दुःख की बदली में
 महादेवि ने जिसको गाया।
और अमृता ने जिस तेवर में
टोंका कि "तू नहीं आया"।।
मृदुला और महाश्वेता देवी 
के आँगन में जो गूँजी,
मेहरुन्निसा मालती जोशी
की कहानियों की मृदु काया।
देवनागरी लिपि की वाहक
भावी भारत की जिज्ञासा।
*हिन्दी है जन -जन की भाषा।।*

*रुक-रुककर मत बरसो मतङ्ग*

रुक-रुककर मत बरसो मतङ्ग।

प्राची में श्यामल घटा घिरी अम्बर का वर्ण कुवर्ण हुआ।
उर अन्तर में इक घटा घिरी पर मन का वर्ण सुवर्ण हुआ।।

कितने परतों वाली बदली टकराती रही हृदय काँपा।
मानस की अनदेखी बदली का टकराना किसने भाँपा।।

*ये नेत्र देखना चाह रहे फिर से जीवन में राग- रङ्ग।*
*रुक- रुककर मत बरसो मतङ्ग*।।

प्यासी नदियाँ प्यासे सरवर प्यासा मानसतट का तरुवर।
प्यासे पठार प्यासे कछार प्यासा, हाँ ,प्यासा यह मरुवर ।।

प्यासी यह मैंना शुक प्यासा चातक प्यासा मर्कट प्यासा। 
घट- घट प्यासा मरघट प्यासा कान्हा का वंशीवट प्यासा।।

*इक बूँद बूँद के लिए यहाँ पर छिड़ी हुई है घोर जङ्ग।*
*रुक-रुककर मत बरसो मतङ्ग।*

तृण-तृण हो हरित और पुलकित यह रसा रसमयी बनी रहे।
सौष्ठव हो कण-कण का अपना ये घटा नीर की धनी रहे।।

कचनार कदम्ब कमल विकसें कमनीय कलाधर साथ रहे।
चेरी हो तेरी मलयवात यह शस्यसमूह सनाथ रहे।।

*यह बात बन्धु कब समझोगे धरणी रति तुम उसके अनङ्ग।*
*रुक-रुककर मत बरसो मतङ्ग।।*



*मन बोला सावन आया है* 

जलदराशि उमड़ी नभतल में मन बोला सावन आया है।

रुक्ष धरणि का तृण-तृण डोला विहगों ने फैलाए डैने।
बन्द चोंच चातक ने खोली आया पिहू -पिहू की लय में।।

लोट- लोटकर गौरैया सँग किए चिरौंटे ने मन भारी।
पंख खोलकर नीलमयूरों ने भी की स्वागत तैयारी।।

*वट में लिपटी हुई लताओं ने फिर से मंगल गाया है।*
*मन बोला सावन आया है।।*

प्रथम फुहार पड़ी धरणी पर नीड़ों में खगकुल बौराए।
जीवन को जीवन ने देखा सब हर्षाए सब हुलसाए।।

फंँसा- फँसाकर सींग हिरण भी देखो निज उल्लास जताते।
उछल-उछलकर मीन कूलिनी के सूखे तट से टकराते।।

*भूमि फोड़कर निकला पीला मेंढक फिर से टर्राया है।*
*मन बोला सावन आया है।।*

बेले विकसे कदली विलसे पारिजात की डोली पाती।
अश्वत्थों के अरुण दलों की हुई आज फिर पुलकित छाती।।

झीलों का ठहरा जल डोला कूलिनियों  में भी गति आई।
शिखरों से धाराएँ भागीं मरुथल की सिकता ठण्डाई।।

*सबकी प्यास बुझी पर भू ने अपना श्यामल तन पाया है।*
*मन बोला सावन आया है।।*

*मालाकार  हमें भी रंँग दो ।*

जगनिकुञ्ज के कुशल चितेरे  मालाकार हमें भी रंँग दो।

एक रङ्ग से मनोकामिनी  चम्पा और चमेली रँग दी।
एक रङ्ग से गेंदा सरसों सूरजमुखी नवेली रँग दी।।

हौले -हौले चला समीरण महक उठी वन बगिया सारी। 
घर आँगन दहलीजें  महकीं महक उठी  जीवन की क्यारी।।

जगविद्यालय के उपवन के नन्हें से अधखिले पुहुप हम,
इन्द्रधनुष के सप्तवर्ण से हम सबके प्राणों को रँग दो।

*मालाकार हमें भी रँग दो।।*

एक रङ्ग से नानक दादू कबिरा के स्वर को रंँग डाला।
एक रङ्ग की महावीर चैतन्य महाप्रभु पहने माला।।

राजस्थानी मीरा की हृत्त्तन्त्री की जो जीवनपूंँजी।
जिस रङ्ग में रँग  गए तथागत दुनिया में करुणाध्वनि गूंँजी।।

बुद्धं शरणं धम्मं शरणं संघं शरणं रङ्ग अनोखा,
महाप्रभो उस मध्यम पथ का रङ्ग हमारे उर में भर दो।

*मालाकार हमें भी रंँग दो।।*

जिस रङ्ग में रंँगकर हमीद ने पैटन टैङ्क नष्ट कर डाले।
भगतसिंह अशफाक बटुक सर्वस दे रङ्ग का मान संँभाले।।

जिस रङ्ग में योगेन्द्र सिंह रंँगे रिपु ने तन छलनी कर डाला।
बढ़ते रहे विजयपथ पर वह लौटे ले करके जयमाला।।

रेजङ्गला के केहरियों में फूटी जो सौरज की धारा,
ओज शौर्य की वही रँगीली धार हमें भी अर्पित कर दो।

*मालाकार हमें भी रंँग दो।।*

एक मुक्तक

इन लाल ईंटों के दुमहलों में क्षोभ है, सन्त्रास है, चीत्कार है,
समय की रङ्गत देखिए, श्मशानों में बहार आई है।

तुझ जैसे कितने झञ्झावातों को मैंने राह दिखाई,
मैं दूर्वा हूँ इसी जमीं पर अडिग रही हूँ, अडिग रहूँगी।।

हवा में है ठण्डक न रौनक फिज़ा में,
यह कैसा निज़ाम आया है, सदाबहार भी मुरझाने लगे।।

तुमने बरगद की छांँव में बैठकर ज़िन्दगी बिता दी यारा,
हमारे साथ चलते तो जान पाते,ताम्बई रंग कितनी मेहनत से मिलता है।।

मधु से तर रहने वाले कण्ठों को नीर नहीं मिल पाया,
छालों ने मुँह खोल दिए हैं ऐसा दुर्दिन कभी न देखा।।

हम ग़ुलाब के सख़्त काँटे़ हैं, खुशबू के पहरेदार हैं,
लचक छोड़ो, नोंक सुधारो,तुम पर तो रूप  का भार है।।

रोपे गए इस खेत में कुनबा बढ़ा है धान का ,
अब बिल खुदेंगे मूषकों के फसल सोने सी हुई है।।

तुम हमारे नीड़ में बैठो न बैठो किन्तु यह तो याद होगा,
रातरानी के महकते अङ्क में तिनके सजाकर,
यह मधुर उपहार तुमने ही दिया था।
*जयप्रभा यादव*
जन्म-25.07.1976
शिक्षा - परास्नातक (अंग्रेजी साहित्य, संस्कृत, प्राचीन भारतीय इतिहास) 
प्रकाशित पुस्तकें - 
01. *उन्नाव की काव्य साधना* साझा काव्य संग्रह

02.  *तिनका - तिनका आशियाँ* साझा काव्य संग्रह (रीड पब्लिकेशन, इलाहाबाद) 

03.   *किसने उनका दीप जलाया* काव्य संग्रह 2019 (  *भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली*) 

सम्प्रति -    अध्ययन, अध्यापन व स्वतंत्र लेखन 
पता - 932,इन्दिरानगर, उन्नाव ( उ. प्र. ) 
सम्पर्क सूत्र - 8874621954 
E-mail - jaiprabha111213@gmail.com



टिप्पणियाँ

  1. जयप्रभा यादव के गीति काव्य में शब्द संयोजन की कलात्मक नक्काशी यथानुसार तत्सम और तद्भव के समीचीन प्रयोग से अनायास बनती प्रतीत होती है | इन गीतों/नवगीतों/मुक्तक में लोक प्रकृति के बिम्ब बहुत सधे हुये हैं | जयप्रभा यादव की रचनायें पढ़ते हुये लगातार यह प्रतीत होता रहा कि ये रचनायें अन्तस्थल से निकल रही हैं | उन्हें बधाई और मीमांसा को साधुवाद कि ये पढ़ने का अवसर दिया |

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शोध कथौडी एक ऐसी जनजाति है जो अन्य जनजातियों से तुलनात्मक रूप से पिछड़ी और उपेक्षित है। यह अल्पसंख्यक जनजाति महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान के कुछ अंचलों में छितरायी हुई है। दक्षिण राजस्थान में इनके हालात प्रस्तुत कर रही हैं अध्येता सुचेता सिंह। दक्षिण राजस्थान के आदिवासी क्षेत्र में कथौड़ी जनजाति है जो वहां रहने वाली जनजातियों में सबसे कम संख्या में है। एक शोध रिपोर्ट के अनुसार इस जनजाति समुदाय की वृद्धि दर दशक वार घट रही है। 'ये लोग कैथ के पेड़ से कत्था निकालने का काम करते थे जो पान में लगाया जाता है इसलिए इनका नाम कथौड़ी पड़ा।' वैसे ये लोग कत्था बनाने के साथ-साथ बहुत से वन सम्बन्धी कार्य करते हैं, जैसे-बांस कटाई एवं दुलाई, वृक्ष कटाई, वन उपज संग्रहण, वन्य जीव आखेट, हाथ औजार निर्माण तथा वन औषध उपचार आदि। राजस्थान में इन लोगों का इतिहास कोई अधिक पुराना नहीं है। इन्हे महाराष्ट्र से इस क्षेत्र में कत्था उत्पादन और वन कटाई के लिए लाया गया। ऐसा अनुमान है कि जंगल के ठेकेदार इन्हे कोंकण महाराष्ट्र से यहां लेकर आये। ऐसा लगता है कि पूर्व में भी ये घुमक्कड़ जीवन जीते थे। इनकी बसाहटें म...

समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान-1

रंगमंच  समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान -1                                         राघवेन्द्र रावत  समकालीन हिंदी रंगमंच के बारे में बात बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध से भी की जा सकती थी लेकिन मुझे लगता है कि उससे पूर्व के भारतीय रंगमंच के परिवर्तन की प्रक्रिया पर दृष्टिपात कर लेना ठीक होगा | उसी तरह राजस्थान के समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करने से पहले भारतीय हिंदी रंगमंच पर चर्चा करना जरूरी है, और उससे भी पहले यह जानना भी आवश्यक है कि वस्तुतः रंगमंच क्या है ?और रंगमंच के बाद हिंदी रंगमंच और उसके बाद समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करना एक उचित क्रम होगा भले ही यह मेरे अध्ययन की गरज ही लगे | राजस्थान के रंगमंच पर बात करना इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि इस पर हिंदी साहित्य की तरह चर्चा नहीं हुई चाहे वह आलोचना की दृष्टि से देखें या इसके इतिहास की नज़र से देखें | दो वर्ष पहले ‘जयरंगम’ नाट्य समारोह के एक सेशन में बोलते हुए वरिष्ठ रंग एवं फिल्म समीक्षक अजित राय ने कहा था-“ पता नहीं कौन सा नाटक...

भूलन कांदा : न्याय की स्थगित तत्व- मीमांसा

वंचना के विमर्शों में कई आयाम होते हैं, जैसे- राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक इत्यादि। इनमें हर ज्ञान- अनुशासन अपने पक्ष को समृद्ध करता रहता है। साहित्य और कलाओं का संबंध विमर्श के सांस्कृतिक पक्ष से है जिसमें सूक्ष्म स्तर के नैतिक और संवेदनशील प्रश्न उठाये जाते हैं। इसके मायने हैं कि वंचना से संबंद्ध कृति पर बात की जाये तो उसे विमर्श के व्यापक परिप्रेक्ष्य से जोडकर देखने की जरूरत है। भूलन कांदा  को एक लंबी कहानी के रूप में एक अर्सा पहले बया के किसी अंक में पढा था। बाद में यह उपन्यास की शक्ल में अंतिका प्रकाशन से सामने आया। लंबी कहानी  की भी काफी सराहना हुई थी। इसे कुछ विस्तार देकर लिखे उपन्यास पर भी एक- दो सकारात्मक समीक्षाएं मेरे देखने में आयीं। ऐसी ही प्रतिक्रिया रणेन्द्र के उपन्यास ग्लोबल गाँव के देवता को भी मिल चुकी थी। किन्तु आदिवासी विमर्श के संदर्भ में ये दोनों कृतियाँ जो बड़े मुद्दे उठाती हैं, उन्हें आगे नहीं बढाया गया। ये सिर्फ गाँव बनाम शहर और आदिवासी बनाम आधुनिकता का मामला नहीं है। बल्कि इनमें क्रमशः आन्तरिक उपनिवेशन बनाम स्वायत्तता, स्वतंत्र इयत्ता और सत्त...

'ब्लड ऑफ़ दी कॉनडोर' [ Blood of the Condor]

सिने -संवाद                                                                            ' ब्लड ऑफ़ दी कॉनडोर'  [ Blood of the Condor]                                          मनीष आजाद 1960 का दशक भारी उथल पुथल का दौर था। पूरे विश्व में समाज के लगभग सभी शोषित तबके व वर्ग अपनी पहचान व अधिकार हासिल करने के लिए शोषणकारी व्यवस्था से सीधे टकराने लगे थे। साहित्य, कला, संगीत इससे मूलभूत तौर पर प्रभावित हो रहा था और पलटकर इस संघर्ष में अपनी भूमिका भी निभा रहा था। अपेक्षाकृत नई कला विधा सिनेमा भी इससे अछूता न था। इसी दशक में यूरोपियन सिनेमा में ‘नवयथार्थवाद’ की धारा आयी जिसने फिल्म की विषयवस्तु के साथ साथ फिल्म मेकिंग को भी मूलभूत तौर पर बदल डाला और यथार्थ के साथ सिनेमा का एक नया रिश्ता बना।  लेकिन...

लेखक जी तुम क्या लिखते हो

संस्मरण   हिंदी में अपने तरह के अनोखे लेखक कृष्ण कल्पित का जन्मदिन है । मीमांसा के लिए लेखिका सोनू चौधरी उन्हें याद कर रही हैं , अपनी कैशौर्य स्मृति के साथ । एक युवा लेखक जब अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी के उस लेखक को याद करता है , जिसने उसका अनुराग आरंभिक अवस्था में साहित्य से स्थापित किया हो , तब दरअसल उस लेखक के साथ-साथ अतीत के टुकड़े से लिपटा समय और समाज भी वापस से जीवंत हो उठता है ।      लेखक जी तुम क्या लिखते हो                                             सोनू चौधरी   हर बरस लिली का फूल अपना अलिखित निर्णय सुना देता है, अप्रेल में ही आऊंगा। बारिश के बाद गीली मिट्टी पर तीखी धूप भी अपना कच्चा मन रख देती है।  मानुष की रचनात्मकता भी अपने निश्चित समय पर प्रस्फुटित होती है । कला का हर रूप साधना के जल से सिंचित होता है। संगीत की ढेर सारी लोकप्रिय सिम्फनी सुनने के बाद नव्य गढ़ने का विचार आता है । नये चित्रकार की प्रेरणा स्त्रोत प्रकृति के साथ ही पूर्ववर्त...