समीक्षा
कविता कैसे हमारे बाहर- भीतर इर्द- गिर्द बिखरी है, बस उसे सृजनात्मक रूप से सहेजने की सामर्थ्य होनी चाहिए- इस बात को समझना है तो नूतन गुप्ता की कविताएँ आपकी मदद कर सकती हैं। कविताओं के भीतर किस विनम्रता और भाव- बोध से उतरना चाहिए और अवगाहन से जो हासिल हो, उसे सहजता से प्रस्तुत करें - यह समीक्षा ऐसा संदेश देती लगती है। शिवानी ने बड़े मनोयोग से इन निन्यानवें कविताओं का पाठ किया है, वह इस प्रक्रिया को उत्सव में बदल देता है।
जिजीविषा की कहानी
कविता की ज़ुबानी"
जो पाया वो पाने की चाहत से कम था! पर और पाने के लिए ज़िन्दगी से चिरौरी न करके, पाए गए को सहेजने में ही लगे रहे! इसीलिए कहा कि "कम है तो अच्छा है!"
जब बात संवेदनाओं की होती है तो उनके कम-ज्यादा होने की मापनी कैसे की जाए!जो एक बात किसी एक के लिए अति संवेदनशील होती है वही किसी दूसरे के लिए बिल्कुल साधारण सी भी हो सकती है! मगर उस साधारण सी बात को कहने का वैशिष्ट्य उसकी संवेदनशीलता को सर्वग्राही बना सकता है! नूतन गुप्ता जी की कविताओं से गुज़रते हुए यही बात सत्यापित होती है!
बिना किसी कठिन शब्दावली और गूढ़ार्थ के,ये कविताएँ पूरी सहजता के साथ सीधे संवाद करती हैं और हृदय के मर्मस्थल तक पहुँचती हैं!
भाग-दौड़ भरी ज़िन्दगी ने ठहर कर सोचने का समय कहाँ दिया। ! मगर उन दिनों की स्मृतियाँ संचित रही हैं हृदय में! और तब हृदय जैसे स्मृतियों का जीवित जीवाश्म हो गया ! स्मृतियों की परतें हृदय पर चढ़ती रहीं! अब,जब फुर्सत मिलने पर उन्हें कुरेदा गया है तो प्रस्फुटित हो उठी हैं कविताएँ…
कविताएँ, जिनमें संघर्ष की गाथा है, कभी न हारने के हौसले का दंभ भी है और न पाए गए सुख की टीस भी है! सबसे महत्वपूर्ण बात जो मैंने इन कविताओं में पाई वो है तेवर! ज़िन्दगी ने जैसा भी जीवन दिया, उसे सिर उठाकर, आँख में आँख डालकर पूरी बहादुरी से स्वीकार किया! रोने-गिड़गिड़ाने से दूर हैं ये कविताएँ! फिर भी अकड़ी हुई गर्दन में रात के सन्नाटे में उमड़ती पीड़ा भी दर्ज की गई है!
ये कविताएँ हमें एक स्त्री के स्त्री होने की कोमलता को ललकारती हुई सी भी लगती हैं और उसके आत्मविश्वासी कठोर फैसलों को लेकर उत्साहित भी करती हैं! जैसे-
"वो मुझसे
मेरा सूरज
छीनना चाहता था
मैंने उसके दिन ही छीन लिए!"
समग्र संघर्ष और उसके प्रति अपने तेवर को दर्शाती ये एक आकार में छोटी-सी कविता अपने संदर्भ में बहुत विस्तार लिए हुए है! समूचे जीवन-संघर्ष की गाथा इसमें छिपी हुई है! दुखों की, बदले की और जीत की अमर गाथा का संक्षिप्तीकरण है ये कविता! नूतन गुप्ता का कहना है कि जब कम शब्दों में कहा जा सकता है तो ज़्यादा शब्द क्यों खर्च करना! और यही उनकी कहन की विशेषता है! कभी-कभी ऐसा भी होता है कि वे अपनी बात कह कर आगे चल देती हैं और हम समझने के लिए वहीं खड़े रह जाते हैं! सोचते रहते हैं कि साधारण सी दिखाई देने वाली इस कविता में क्या ख़ास है! जैसे इस कविता को ही ले लें-
वो मुझे ले आता था
शीशे की अलमारी में
बंद कर देता था
खुद नहीं पढ़ता था
तो प्रतिक्रिया तो क्या देता
किसी को पढ़ने भी नहीं देता था
लगभग तीस चालीस साल तक
हर बरस मिट्टी झाड़कर
वापस कैद किया गया मुझे
अब पढ़ नहीं सकता था वह
तो बेच देगा मुझे
ऐसे सुना मैंने
मेरा कारावास समाप्त हुआ शायद
मेरा स्वामी बदलेगा या जीवन भी?
कह नहीं सकती!
यह तो अच्छा है
कि अस्तित्व समाप्त नहीं होता मेरा
ना ही मज़मून बदल सकता है
कहीं भी रहूँ, बनी रहूँगी किताब ही
इस दौर का सबसे कठिन काम है
किताब बने रहना!
चाहें तो इसे पुस्तक के संदर्भ में देखें या फिर एक ऐसी स्त्री की पीड़ा के रुप में, जिसके जीवन से सामाजिकता छीन ली गई हो!
शतरंज की बिसात के बहाने से बेबसी की बात है तो नदी के बहाने से जीवन के रीतने को भी दर्ज किया गया है! एक कवितांश देखिए-
एक दिन सूख जाएगी नदी
दिखने लगेगी सुनहरी रेत
तब तक शायद तप तप कर
सोना बन जाए वो लड़की!
बचपन के अभाव, संघर्ष, उम्मीद और दृढ़ संकल्प से लेकर सफलता तक की बात करते हुए वे एक उपजती हुई टीस हम तक पहुँचाती हैं! वे कहती हैं कि
बचपन जूझ पड़ता है
पूरा करने के लिए
पूरे करके ही दम लेता है!
उसकी हिम्मत उसकी ताकत को
नहीं सराहता कोई
बस एक मुहावरा कह देते हैं
लाल गुदड़ी में ही छिपे होते हैं!
58 क्रम पर एक बड़ी मार्मिक कविता है! आजकल के एकल परिवार और छोटे बच्चों के जीवन से संबन्धित इस कविता के बारे में वरिष्ठ साहित्यकार, शिक्षाविद् और समालोचक राजा राम भादू जी का कहना है कि इस कविता का फलक इतना विशाल है कि केवल इस कविता पर ही एक विस्तृत चर्चा हो सकती है! संग्रह में ऐसी कई कविताएँ मौजूद हैं।
अपने जीवन में लिए गए कुछ फैसलों की कठोरता से कालांतर में हमारे जीवन की नमी की छीजत शुरू हो जाती है! पर मिट्टी में दबे बीज की तरह ही कहीं न कहीं कोमल भावनाएँ और संवेदनाएँ संरक्षित रहती हैं। पावस में अँखुआए उस बीज की तरह ही कोमल भावनाएँ जब-तब सिर उठाती हैं और तब उस तड़प और इंतज़ार से बह निकलती है बेबसी की एक शब्द-सरिता! इन कविताओं को व्यक्तिगत कहना उचित नहीं! ये हर उस जीवन की व्यथा है जिसमें परहित में स्वहित का त्याग करते हुए कठोर फैसले लिए गए हैं!
कोई कितना भी सामाजिक सरोकारों को लेकर लेखन करे पर अपने जीवन के सुख-दुख, समाज में नज़दीकी से देखा हुआ और भोगा हुआ यथार्थ भी लेखन में गाहे-बगाहे बराबर परिलक्षित होता है! वस्तुत: कविता अनुभूति के प्रदर्शन या पीड़ा से मुक्ति का ही तो मार्ग है! इसीलिए अकेलापन उनकी लेखनी की स्याही में रचा-बसा है और अलग-अलग रंग से मुखरित हुआ है! कुछ कवितांश यहाँ उद्धृत करना आवश्यक है-
अकेले जैसी होनी चाहिए थी
ठीक वैसी मन गई दीवाली
साथ के लिए कोई दिया जला लेना चाहिए था
जलाया भी था!
अभी तक जल भी रहा है!
उसे अखंड ज्योति की तरह जलने देना चाहिए
हम लोगों के जीवन के लिए यही
सर्वाधिक महत्वपूर्ण है!
एक हम ही नहीं यह सजा भुगतने वाले
कुछ पटबीजने भी थे
जो भोग रहे थे एक आजीवन सज़ा
रातों को जागने की
जब नहीं दिखाई दे राह
वही काम आते हैं!
पता नहीं मैं कब तक हूँ
तो जब तक हूँ
तुम मुझसे मेरा हाल तो पूछो
कैसे गुजरे इतने सारे साल तो पूछो
पता नहीं मैं कब तक हूँ
साथ रहने और साथ चलने का अंतर
पटरियों से बेहतर नहीं जानता कोई
मूंगफली के खाली छिलकों की तरह
हवा में उड़ते हुए समाप्त होती है यात्राएँ
क्या जीवन का सारा अर्थ उन दानों में था
जो हम सौंप आए किसी सहयात्री को
बाज़ार, मंदिर, पार्क, क्लब सब नजदीक आ गए
करीबी रिश्ते कंक्रीट के जंगलों में लापता हो गए
पीछे छूट गई परछाइयों के सहारे
सफर पूरे नहीं होते!
कब कह पाएगी
कि संबंधों का निर्वहन
उस अकेली का दायित्व नहीं होता
कब कह पाएगी कि
अकेली देखकर कैसे झपटते हैं अधम
न दिन ने कुछ बताया
ना रात ने कुछ पूछा
बदहवास दुपहरी करती रही
किसी समझौते की कोशिश
इस संग्रह में एक ओर जहाँ निराशा,धोखे और मायूसी की कविताएँ हैं वहीं दूसरी ओर बुलंद हौसले, आत्मविश्वास और आशा की कविताएँ भी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज करवा रही हैं! अधूरी इच्छाओं को पूरी करने का दिवास्वप्न.. और खुद ही अचकचा कर आँख खोल लेना कि बहुत देर हो चुकी अब! मानिनी का मान है तो उपालंभ भी अपनी जगह खड़ा है! कुछ कविताएँ आगे बढ़ने से रोकती हैं! तिरसठ क्रम की कविता भी ऐसी ही एक कविता है! आपको जकड़ लेगी और मुक्त होने की संभावना भी नहीं छोड़ेगी!
ज़िन्दगी जितनी सुलगती हुई है उतनी ही संघर्ष की आग अभी बाकी है! तेवर अभी सुरक्षित हैं! और यही बात सीखने समझने की है! नूतन गुप्ता जी का मानना है कि जीवन के विपुल अनुभवों को कुछ एक कविताओं में कहाँ समेटा जा सकता है! जहाँ से सोचना शुरू करें वही एक कविता मुस्कुराते हुए स्वागत करती है!
मैं नहीं लिख सकती सिलसिले वार
मेरे पास तो
ऊन की एक लच्छी है
जो बहुत पुरानी होने से
बीच-बीच से
जगह-जगह से कट गई है
चाय बनाती हुई स्त्री के बहाने से, सुबह पाँच चालीस की जीप के बहाने से, अभिजात्यता के बहाने से, सड़क किनारे लगे दो पेड़ों के बहाने से, गलियारे में सूखते कपड़ों और गमले में खिलते फूलों के बहाने से भी स्त्री जीवन के विभिन्न पहलुओं पर सुंदर कविताएँ हैं जो बरबस ही हमें इन सबके बारे में नये सिरे से सोचने की दृष्टि प्रदान करती हैं! कविता का कर्म ही चीज़ों को एक अलग और बेहतर दृष्टिकोण से देखने-समझने का फलक प्रस्तुत करना है! और इस दृष्टि से इस संग्रह की कविताएं पूर्णतः सफल सिद्ध हो रही हैं।
नूतन गुप्ता जी कविताओं में सहज स्वाभाविक रूप से स्री जीवन की
हताशा-निराशा भी है तो आखिरकार थक कर कठोर निर्णय लेने के भाव भी हैं-
गाँठें खोलने का
समय रहा नहीं अब
अब तो बंधन ही खोलना बेहतर होगा!
निन्यानवे कविताओं में से लगभग हर कविता में कुछ पंक्तियाँ आपको ठिठक कर मनन करने पर विवश करती हुई, गहरे तक मन की थाह लेती हुई अचंभित करती हैं। सभी को यहाँ उद्धृत नहीं किया जा सकता पर फिर भी मेरी पसंदीदा कुछ और चुनिंदा पंक्तियाँ साझा करती हूँ.
मेरी मुस्कुराहट ही कौन सी अपनी है
सबके मुस्कुराने के बाद
जो बजती है उसे ही पहन पाती हूँ
कौन हो तुम?
जुलाहे हो
कुंभकार हो
कि कोई कवि हो
जो भी हो महसूस करना है
तुम्हारा स्पर्श
कि कोई रंग तो हो
इस श्वेत श्याम जीवन में
बारिशें
केवल तुम्हारी छत का
सरमाया नहीं
मेरे पास भी है
एक आँगन छोटा सा!
पता नहीं मन के अंदर
फूलों की फसल
बोने का मौसम कौन सा है
कैसे बोए जाते हैं
कौन बोता है
यही तलाश करने
रोज़ उतर जाती हूँ उस जंगल में
कहीं रही होगी कुछ नमी
वहाँ उग आई है काई
फिसलन बहुत है
मंजिल से भटकने के
खतरे भी हैं बहुत!
बोधि प्रकाशन से जनवरी 2020 में आए इस संकलन की कोरोना के कारण चर्चा नहीं हो सकी थी ! पर अब, जब इसे पढ़ रही हूँ तो महसूस कर रही हूँ कि कविता समझने और पसंद करने वाले सभी लोगों को इसे अवश्य ही पढ़ना चाहिए! कविताओं के शीर्षक की बजाय क्रमांक दिए गए हैं जो कि निन्यानवे पर आकर ठहरते हैं! प्रकाशक माया मृग जी का ये नया और नायाब प्रयोग जो कि शीर्षक के साथ संगत कर रहा है, मुझे बहुत पसंद आया। और पसंद आया अनुप्रिया जी का बनाया आवरण चित्र जो कि कविताओं के कलेवर में बिल्कुल सही बैठता है!
छपाई की कोई गलती नहीं होने से पढ़ने का प्रवाह बराबर बना रहा है! एक सौ बत्तीस पृष्ठ का ये संग्रह पुस्तक प्रेमियों के ताखे में अपनी जगह अवश्य बनाएगा।
शिवानी शर्मा राजस्थान के विभिन्न शहरों में पली-बढ़ी हैं। शैक्षणिक योग्यता बी कॉम, एम बी ए , मॉन्टेसरी डिप्लोमा, जनसंचार एवं पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिप्लोमा है।
शिवानी पिछले लगभग सात वर्षों से 'शिवानी जयपुर' के नाम से लेखन में सक्रिय हैं।इनकी कविताएँ, कहानियाँ, लघुकथा और समसामयिक विषयों पर लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में न केवल प्रकाशित होते रहते हैं बल्कि राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत भी हुए हैं।
कविता संग्रह "कुछ ख़्वाब कुछ हक़ीक़त" 2016 में प्रकाशित ( राजस्थान साहित्य अकादमी से अनुदानित)
कविता संग्रह "कुछ मत पूछना हम सच कह बैठेंगी" 2020 में किंडल पर प्रकाशित है।
रेडियो कॉम्पीयर के रूप में पिछले तीस वर्षों से सक्रिय हैं और अब दूरदर्शन से भी जुड़ी हुई हैं।
अजमेर पोएट्री क्लब (APC) की संस्थापक सदस्य और सहयोग सेतु (NGO) की अध्यक्ष हैं।
संपर्क - 95091 05005
मीमांसा टीम को बहुत बहुत धन्यवाद 🙏💐
जवाब देंहटाएंनूतन गुप्ता के कविता संग्रह "कम है तो अच्छा है" की अच्छी तरह थाह लेकर की गई समीक्षा है यह |नूतन जी की कविताओं में जो संतृप्ति,संचेतना और संवेदनायें हैं उन्हें शिवानी ने गहरे से पकड़ा है | इस अच्छी समीक्षात्मक टिप्पणी के लिये शिवानी और मीमांसा को साधुवाद तथा नूतन जी को बहुत बहुत बधाई |
जवाब देंहटाएंनूतन गुप्ता दी के काव्य संग्रह 'कम है तो अच्छा है कीं' शिवानी जयपुर द्वारा बहुत ही अच्छी और गहरी समीक्षा के लिए शिवानी को साधुवाद और नूतन दी को बहुत-बहुत बधाई! वास्तव में कम और सरल शब्दों में बहुत कुछ कह देना नूतन दी की कविताओं की विशेषता है।
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