कविताएँ मीमांसा में गरिमा की उपन्यासिका ने सुधी पाठकों का ध्यान आकृष्ट किया था। अब उनकी कविताएँ प्रस्तुत कर रहे हैं। इनमें अदृश्य शक्ति संरचनाओं की शिनाख्त की गयी है तो अभिव्यक्ति के अन्तसंघर्ष का भी बयान है। इन कविताओं मे सामाजिक संबंधों के क्षरण से उपजा विषाद है। साथ ही, बहुत कुछ ऐसा कहा गया है, जो स्रियों के संदर्भ में प्रायः अनकहा रह जाता है। तृप्ति की खोज में अतृप्तियों के दग्ध हृदय में हूक सी उठती है तृप्ति की एक लंबा कश खींचती हैं इच्छाएं धुआं धुआं होते जाते हैं नियम उसूल मर्यादाओं की पतली लकड़ियां पकड़ लेती हैं चिंगारी और धीरे धीरे रेंगते हुए खाक कर देती एक पूरा गांव जो बच जाता है उस पर पड़े फफोले रिसते रहते हैं ताउम्र खोजते एक सुकून की मलहम अनवरत। लिख तो दूं मगर… मैं लिख तो दूं मगर पढ़ेगा कौन उसे? क्या वही जो पहले से ही वाकिफ है उससे बस पिरो नहीं पाया शब्दों में या पिरो पाया था किसी और ढब से वो बांटेगा वाहवाही और मुझे अपना कद थोड़ा और ऊंचा लगने लगेगा नीचे खून पसीने में लथपथ कुचले दबे अनभिज्ञ लोट रहे होंगे वही जिन की आवाज़ बनने का दावा कर मैं...
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