कविताएँ
हम तो उसे मनमोहन भारती के नाम से ही जानते हैं। जिन दिनों मैं मुम्बई महानगर में ( अखबार में भी ) था, मनमोहन भारती और केसर सिंह बिष्ट दो युवा और साहसी रिपोर्टर थे। उन्होंने ही रातों की यात्राओं में मेरी बम्बई से कुछ पहचान करायी। बाद में धीर गंभीर प्रणव प्रियदर्शी इस टीम में आये। वापस आने पर भी मुझे महानगर के हालचाल मिलते रहे। इनमें मनमोहन किसी किस्से कहानियों का उदात्त चरित्र लगता है।
जैसे लंबे संकोच के बाद प्रणव ने अपनी कहानियों के बारे में बताया। वे मीमांसा में और फिर दूसरी जगह आयीं और सराही गयीं। मनमोहन तो जितने साहसी हैं, उतने ही विनम्र और शर्मीले। उसने भी अपने भीतर एक कवि को जज्ब किया हुआ था। हमें खुशी है कि वह भी मीमांसा के जरिए बाहर आ रहा है। कविता कुछ लंबा रियाज चाहती है। आप इन्हें एक सच्चे, जज्बाती किन्तु निर्भय व्यक्ति के अंतस की शक्ति के रूप में भी पढ सकते हैं। - राजाराम भादू
1.
अंधेरों से हिस्से करने लगा हूं मैं
जिंदगी तुम ही से डरने लगा हूं मैं
अंधेरों में ही उजाले नजर आने लगे हैं
अंधेरों से दीए जलाने लगा हूं मैं
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2.
बिखर चुका हूं,
समेटना मुश्किल है खुद को
ज़र्रा ज़र्रा हूं,
कर लो आज़ाद खुद को
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3.
खोलता हूं किताब
खोजता हूं
पंखुड़ी सूखे गुलाब की
जो दी नहीं तुमने
किताब लौटाते बखत
हां
चुपके से उठा ली थी
कंटीली डंठल
जो तुमने फेंक दी थी
उसे देते बखत
तुम हो हिफाजतन मुझ में
काम कांटों का यही तो है
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4.
उड़ना सीख ही रहा था कि पंख काट दिया
तुर्रा की खुशी के लिए बच्चों में बांट दिया
बेशक तुम्हारी चाहत पर तुम्हारा ही हक है
चाहत से रोकने का हक तुम्हें किसने दिया
सच है के गर्म पानी से घर नहीं जला करते
छालों में बदलने का हक तुम्हें किसने दिया
शर्मो हया रस्मे रिवाज शराफ़त सब अपनी जगह
तबीयत से पैमाना बदलने का हक तुम्हें किसने दिया
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5.
बस यूं ही
जज़्बाती हो गए
इतने हुए
के खैराती हो गए
बेगानी शादी में
बाराती हो गए
बस यूं ही
जज़्बाती हो गए
समझाया था बहुत
जमाने ने
फलसफा है सिकंदरी का
जज़्बात जमाने में
खैर
मशवरे जमाने हो गए
बस यूं ही
जज़्बाती हो गए
इतने हुए
के खैराती हो गए
रिश्तों की परछाई
अंधेरों में नजर आए
अपनो की नजर में
अपना सा नजर आए
खैर
नजरों के नजा़रे हो गए
बस यूं ही
जज़्बाती हो गए
इतने हुए
के खैराती हो गए
उनकी चाहत को
चाहत का ठिकाना मिले
अपनी चाहत का क्या
मिले ना मिले
खैर
चाहत के फसाने हो गए
बस यूं ही
जज़्बाती हो गए
इतने हुए
के खैराती हो गए
बेगानी शादी में
बाराती हो गए
बस यूं ही
जज़्बाती हो गए
*****
6.
बैरन के घर गये सांवरिया
मैं सिंगार सजाए बैठी
जा कह दे कारी बदरिया
तन ना लगीहों सौतन
के
रुसाय मैं बैठी
कजरा बरसे यों नैनन से, ज्यों बरसे बदरिया
हिया जलै चिता जले यों, जलै पापन नगरिया
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7.
सूना है दिल
और
घर का वह कमरा
उस दिन से
जिस दिन
आने की बात
कही थी
तुमने
न उस दिन
बारिश हुई
न आसमां से
बरसे शोले
चांद भी देर
तक रोया
सूरज
जगा उदास
हवाएं
रुक रुक
इंतजार में
रही
खोयीं,खोयीं,
सांसें
भी
तार तार
जा़र जा़र
खूब
रोईं
खैर
तुम्हारे घर का
मौसम
आज भी
और
उस दिन भी
खुशगवार
रहा,
अब तो
यूं भी
ऐतबार
पर
नहीं रहा
ऐतबार
*****
8.
जब हम साथ थे
हम कम नसीब थे
खुशनसीब
कोई और रहा.
अब
पास आए तो
मौत भी करीब है
देखें
कौन बाजी़ मारता है
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9.
सुना है श्राद्ध में पित्तरों का वास होता है
श्राद्ध में पित्तर का आवास
आस पास होता है
आते हैं पित्तर अपने परिजनों से मिलने
बडी़ आस लगी है
पिता जी,
आप मिलने क्यों नहीं आते ?
रातें नहीं लगती
अब
डरावनी
न बुरे बुरे सपन आते हैं
कट जाती है रात आंखों में
दिन भी
काट खाते हैं
पिता जी,
आप मिलने क्यों नहीं आते ?
भोर की पहली किरन में
तलाशता हूं
लालिमा लिए बादल में
आंगन में प्रांगण में
देखना चाहता हूं
प्रातः वंदन में
शीश झुका है
चरण शरण में
सिर पर रखने हाथ
पिता जी,
आप क्यों नहीं आते ?
प्रार्थना स्वर आपका
हर वक्त महसूस होता है
लौट आओगे
एहसास यह होता है
एहसास हमारा
आपको
अब
एहसास नहीं होता है?
ऐसी भी क्या
खता हमारी
कि
बगिया के फूल नहीं भाते
पिताजी,
आप मिलने क्यों नहीं आते ?
आंखों का वह
स्नेह
और दुलार
बरसते नेह,
गिरते हम
पीड़ा से कराहते तुम
इस पीडा़ की
कराहट
क्यों नहीं सुन पाते
पिताजी,
आप मिलने क्यों नहीं आते ?
स्पर्श को
आत्मा
है तड़पती
हमारी
पुकार लोगे
लाड़ से
संवेदना
है तरसती
नाम रखे थे जो
हमारे
क्या वह नहीं भाते
पिताजी,
आप मिलने क्यों नहीं आते?
अविरल
अपराध हमारे
अनजाने
कृत्य हमारे
क्षमा
बड़न को चाहिए
ऐसे थे कुछ
बोल तुम्हारे
अब कर दो छमा
संतान
शरणागत
के नाते
पिताजी,
आप मिलने क्यों नहीं आते?
*****
10.
वो मोहब्बत जो तुमने नहीं की,
वो वक्त जो तुमने नहीं गुजारा ,
वो हंसी जो मैंने नहीं देखी
वो गेसू जो मैंने नहीं सुलझाए
वो आंखें जो मुझसे कुछ नहीं बोलीं
वो दिल जो मेरे लिए नहीं धड़का
वो लब जिन पर मेरा नाम नहीं आया
वो सिर जो मेरे कांधे पर नहीं झुका
मेरे कान उस सरगोशी के लिए
मेरी सांस तुम्हारी सांसों की गर्मी के लिए
उंगलियां तुम्हारे माथे पर चमकते
पसीने के लिए
वो दामन जिसके आगोश के लिए
मैं तड़पता रहा
वो सीने की तेज धड़कन जो
मैं सुन न सका
सब चाहता हूं
वो घबराहट
वो बेचैनी
वह उदासी
वह खामोशी
वह तड़प
जो कभी मेरे लिए नहीं रही
वो आंसू जो कभी मेरे लिए नहीं बहे
वो फूल जो मेरे लिए नहीं सूखे
वो फोन जो मेरे लिए नहीं आए
वो बातें जो तेरी सखी ने नहीं बतायी
किताबों के वो पन्ने
जिन पर मेरा जिक्र नहीं था
हथेली पर नहीं लगी
मेरे नाम की स्याही
वो बात जो तुमने सबसे छिपाई
उन हाथों का कंपन
वो छुवन जिनसे मैं रहा जुदा
होंठों के वो निशान
जो मेरे पेशानी पर नहीं सजे
दांतों के वो अलामत
जो गर्दन पर मेरे नहीं छपे
वो खुशबू जिसमें मैं नहीं था
वो सदाएं जो मेरे लिए नहीं थीं
प्यार की कशिश,
दिल की हूक,
तन की अंगडाई,
चेहरे का नूर,
इजहार
इकरार
इनकार
तकरार
मन का अर्पण
तन का समर्पण
कुछ भी नहीं है मेरे पास
चाहता हूं सब कुछ
मैं मैं मैं
हां मैं
एक
जिंदा लाश
......
11.
किशोरी उम्र की लड़कियां
किशोरी उम्र की लड़कियां
खुद-ब-खुद गुम हो जाती हैं
डरती हैं शर्माती हैं घबराती हैं
खुद ही अपने हाथों से
बिखरी लटे सुलझाती है ं
किशोरी उम्र की लड़कियां
खुद-ब-खुद गुम हो जाती हैं
मन की उलझने करती हैं
यक ब यक बेचैन उन्हें
कुछ चेहरे कुछ सपने
नहीं देती सोने उन्हें
कुछ शिकवे कुछ गिले
जैसे
अपनों से ही मिले
पल कुछ याद कर
कुछ भूल जाती हैं
किशोरी उम्र की लड़कियां
खुद ब खुद गुम हो जाती हैं
क्या कहें किससे कहें
कहें या फिर ना कहें
क्या गरज है
बेगरज क्यों कहें
क्या सुने किसकी सुने
न सुने और क्यों ना सुने
कहने सुनने की
गफलत में खो जाती हैं
किशोरी उम्र की लड़कियां
खुद-ब-खुद गुम हो जाती हैं
कितने किस्से कितनी ग़ज़लें
कितने गीत शायरी रुबाइयां
मिलने बिछड़ने की
कितनी सारी कहानियां
फंतासी के जंगल से
निकल नहीं पाती हैं
किशोरी उम्र की लड़कियां
खुद ब खुद गुम हो जाती
खुद ही राजी होकर
कभी खुश होती हैं
न जाने क्या सोचकर
गमज़दा हो जाती हैं
मां की आंखों में 'मेरा बच्चा'
नजरों में दुनिया की
बडी़ क्यों हो जाती हैं
नासमझ
समझ नहीं पाती हैं
किशोरी उम्र की लड़कियां
खुद ब खुद गुम हो जाती हैं
छायांकन- मनमोहन भारती
*मनमोहन सिंह नौला, जिन्हें उनके मित्र मनमोहन 'भारती' के नाम से भी जानते हैं, बेहद जुझारू पत्रकार और संवेदनशील इंसान हैं।*
*सांध्य हिंदी दैनिक 'निर्भय पथिक', साप्ताहिक 'संडे आॅब्ज़रवर',और 'करंट' से होते हुए वह दैनिक 'हमारा महानगर' पहुंचे। यहां मनमोहन की रिपोर्टिंग का असली जलवा दिखा। 1992-93 मुंबई दंगों की रिपोर्टिंग में वह चाकू के हमले में बुरी तरह ज़ख्मी होकर जिंदा बच गये, जो एक तरह से पुनर्जन्म ही था* ।
*सेकंड इनिंग उनका इलेक्ट्रॉनिक मीडिया रहा। मुंबई का पहला लोकल न्यूज़ चैनल हिंदूजा ग्रुप का 'इन टाइम' और पहला धार्मिक एवं सांस्कृतिक चैनल 'संस्कार' उनकी सोच का नतीजा रहा।* *इसके अलावा, 'सहारा समय' और 'इंडिया न्यूज़', 'मिड़-डे मल्टिमीडिया' टुडे ग्रुप 'जिया न्यूज'और हैल्थ चैनल 'केयर टीवी' समेत विभिन्न संस्थान से जुडे़ रहे।*
*फ्रि लांस के तौर पर मनमोहन '* *नवभारत टाईम्स' , 'जनसत्ता' 'तहलका' 'आई नेक्स्ट* ' *के लिए भी लिखते रहे हैं।**
संपर्क : 3850515738
*महेश राजपूत*
अपने अन्तर्जगत और बाह्यजगत के अनुभवों से निसृत कवितायें हैं मनमोहन भारती की | वे अपने अन्तर्विरोधों को पकड़ने की भरपूर कोशिश करते प्रतीत होते हैं | कविता की रचनाप्रक्रिया से गुज़रते हुये मनमोहन भारती सहजता से अपनी बात कहते हैं | उन्हें बधाई और मीमांसा को ये कवितायें साझा करने हेतु साधुवाद |
जवाब देंहटाएंशानदार मनमोहन जी...अपना ये रूप दिखाकर आपने मन मोह लिया। । आबिद नकवी
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जवाब देंहटाएंपिता जी,
आप मिलने क्यों नहीं आते ? किशोरी उम्र की लड़कियां ...आपने बहुत ही उम्दा लिखा है । बहुत बहुत शुभकामनाएं
मनमोहन के जज़्बातों के साथ जीवन का अधिकांश हिस्सा गुज़रा है।
जवाब देंहटाएंदर्द का साझीदार हूँ। कविताएं मन में गहरे उतर गयीं।
I know Manmohan ji for last two decades . Have always felt that he has easy ability to penetrate into the subject.
जवाब देंहटाएंThe poems are mirror of society. His poem especially 'Pitaji...' has connect with me. Thats the beauty of poet/writer what you see(read feel) is depicted in few lines or words can related with each and every word of it. So good to see that it has been given proper platform so as it can reach masses. Great efforts by ..'mimansa ' looking forward to seeing more of commone's connect