समीक्षा
विशाखा मुलमुले की कविताएँ समालोचन से लेकर कई जगहों से प्रकाशित हुई हैं जिनमें मीमांसा भी शामिल है। उन्हे सर्वत्र लक्षित किया गया। बोधि प्रकाशन ने प्रतिष्ठित दीपक अरोड़ा पाण्डुलिपि प्रकाशन योजना में उनके पहले संकलन का चयन कर इसे प्रकाशित किया है। कवि- कहानीकार मंजुला बिष्ट द्वारा लिखी गयी यह समीक्षा शायद पहली है जिससे विशाखा की कविताओं पर समीक्षा- संवाद शुरू होने जा रहा है।
विशाखा मुलमुले का कविता-संग्रह"पानी का पुल"बोधि प्रकाशन,जयपुर द्वारा आयोजित 'दीपक -अरोड़ा पांडुलिपि प्रकाशन योजना"के तहत चयनित है।संग्रह में कुल 71 कविताएँ हैं,जिनके बारे में निर्णायक मंडल की व्यक्तिगत टीप भी किताब में दर्ज है।कवि दीपक अरोड़ा की स्मृति में नए कलमकारों को सम्मान दिए जाने के इस साहित्यिक प्रयास हेतु बोधि प्रकाशन व मायामृग जी अवश्य ही बधाई के पात्र है।
जैसा कि हर कवि की अपनी भावभूमि होती है और उसके ऊपर गहराता उसका अपना मन-आकाश,इस संग्रह में भी यह कविमन अपने सुगठित व्यवहारिक ताने-बाने के साथ प्रस्तुत होता है।विशाखा की कविताओं को पढ़ते हुए लगता है कि उन्हें अपनी बात कहने का असीम धैर्य है,जिसे वे बेहद तार्किक तरीक़े से लोक में आवाजाही कराती है।संग्रह में यह आवाजाही वैविध्य विषयों की गहन पड़ताल करती है।व्यक्तिगत तौर पर कलमकार के अनुभूत सुख-दुःख..जब लोक से सम्पर्क करता है,सामंजस्य साधता है तो यह देखना दिलचस्प होता है कि कलमकार के भीतर यह प्रक्रिया किस हद तलक व किस तरीके से घटित हुई है..संवर्धित हुई है,यही रचना की ग्राह्यशीलता बनाती है।और रचना की ग्राह्यशीलता ..हर पाठक के भीतर उसकी व्यक्तिगत सामर्थ्य-रुचि पर निर्भर करती है।
विशाखा की कविताओं में लोक से हुई उसकी अनुभूतियों का लेन-देन ..शाइस्तगी लेक़िन मजबूती से दर्ज हुई है ।कविता'गिरफ़्त' में वे अपने समय को शंकालु ,संकोची,कटीला,निष्ठुर और यहाँ तलक कि हमलावर रूप में भी देख रही है..जिसकी गिरफ्त में आज हर संवेदनशील मनुष्य है।
"इस निष्ठुर समय में
अन्नदाता के समर्थन में
बापू के देश में
जीभ की परतंत्रता में
एक रोज़ का भी उपवास साध न सकी"
"रोटी,रेणु और मैं''कविता में रोटी बनाती हुई गृह-स्वामिनी व झाडू बुहारती सहयोगिनी के बीच जो तानाबाना बुनता है..उसे अंत की जाते देखना सुखद है,उम्मीद है।
वहीं,रोटी..को केंद्रबिंदु बनाकर लिखी गई अन्य कविता"वजूद" में अंत अवाक कर जाता है।जीवन मे महज रोटी कमाने में स्वयं की चाहनाओं ,दमित सपनों की तिलांजलि देते मनुष्य का अंत मार्मिक है।इन दोनों कविताओं में आत्मा के झरोखों से 'रोटी 'को बिम्ब बनाकर ..जगत को देखने-समझने की प्रक्रिया में कवि मन की विवशता महसूस होती है।दोनों कविताओं के आसपास रहने पर महसूस होता है जैसे,सुख पकड़ते हुए मुट्ठी से छूट गया..और दुःख न चाहकर भी अंगुली थाम रहा हो।
संग्रह में स्त्री-मन,स्त्री की दुनिया..में झांकती कुछ बहुत सुंदर कविताएँ हैं जो स्वाभाविक है भी।"नदी के तीरे" कविता में किशोरवय बेटे के असमंजस पर मरहम रखती,समझाती हुई माँ ...
"मैं कहती हूँ , पिता है पर्वत समान
जो खाते है बाहरी थपेड़े
रहते हैं मौन गम्भीर
देते हैं तुम्हें धीर
मैं उस पर्वत की बंकिम नदी
टटोलती हूँ तुम्हारे समस्त भूभाग
आजकल की नहीं यह बात
इतिहास में है वर्णित
सभ्यताएं पनपती है नदी के तीरे !"
एक कविता है जिसे पढ़कर पाठक मुस्कराते हुए अचानक चुप हो सकते हैं।" गधापच्चीसी" कविता में कवि जब घोड़े व गधे के जीवन और उनके कार्य-व्यवहार पर नजर रखती है तो अहसास होने लगता है कि यह दरअसल सदियों से चले आ रहे स्वभाव के आधार पर बरते जा रहे भेदभाव पर प्रहार है।समाज में जोर से चिल्लाती आवाज़ें,समयानुसार बदलती मानसिकता ही अवसर पाती है..किसी नियत रास्ते पर चलते लकीर के फकीर नहीं।यह कविता बहुत धीमी आहट से दिलोदिमाग में प्रवेश कर वर्षों से लगी सांखल को खटखटा जाती है।शानदार कविता है यह,प्रभावी शिल्प के साथ
"गधों ने स्वीकार किया गधा होना
तो वह ढोता रहा माल - असबाब , आदेश
घोड़ा रहा चालाक
सीखता गया नित नई चाल
ठुमक , लयबद्ध , तिरछी , कभी मौके पर अढाई घर
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उन्हें मालूम है घोड़ों की हिनहिनाहट से गूँजती है वादी
उनकी ठसक पर निहाल होती बहुसंख्यक आबादी
बोझ तो आखिर में उन्हें ही ढोना है
गधा तो आरम्भ से उन्हें ही होना है ।"
एक शब्द पूरी कविता का केंद्र-बिंदु बनकर अपने पूरे प्रभाव में मौजूद रह सकता है ,यह कविता" पीछे" पढ़कर जाना जा सकता है।कलम यहाँ भी भावातिरेक में लंबे-गहरे व्याख्यान नहीं देकर सुगठित-सुचिंतित पंक्तियों के जरिये अपने उद्देश्य को पाती दिखती है,जो विशाखा की कलम की विशेषता भी है।यह कविता कवि के जीवन-मीमांसा की एक झलक प्रस्तुत करती है।
कोरोना महामारी के इस समय में 'संक्रमण -काल' किसी वायरस से उपजे नैराश्य,अवसाद संताप व हाहाकार को नहीं बताती है,वरन यह कविता मानवीय रिश्तों में घुसपैठ कर चुकी शीतलता का रिपोर्ट-कार्ड दिखाती है।यह एक पठनीय कविता है।
संग्रह में एक अति महत्वपूर्ण कविता बार-बार मेरा ध्यान खींचती है.."और स्वतंत्रता फिर हाथ से निकल गई"।यह कविता पाठक से धैर्य व समय की मांग करती है..स्त्री-स्वतन्त्रता जो देश को स्वंतत्रता मिलने के इतने वर्षों बाद भी सिर उठाकर किसी सहयोग की आशा में मुँह छिपा रही है।यह कविता भीतर धँसती है..बेचैनी पैदा करती है।यहाँ कवि बदलते समय के तेवर पर नहीं बल्कि स्त्री देह के स्वयं के भीतर सिमटने पर सजग निगरानी रखती है..जो प्रभावित करता है।यहाँ कलम आधुनिक-शिक्षित स्त्री को कच्छप गति से मिल रही सुविधाओं/सुरक्षा के लिए एक आवश्यक गम्भीर विमर्श की सम्भावना दिखाती है।
"परतंत्रता हमारे गुणसूत्रों में क्या कुंडली मार पैठ गई
जबकि , जब बापू चल रहे थे लाठी टेक
नमक सत्याग्रह का था वह समय
हम दौड़ रहीं थी पीछे ख़ून का नमक किये
बापू की लाठी न होने पर , बनी हम लाठी , दिया अपना कंधा
एक दिन भाग ही गए विदेशी देश छोड़
बच्चे , बूढे , जवान सबको मिली स्वतंत्रता
मवेशी , हवा , पंछी तो पहले ही थे स्वतंत्र
हम भारत माता की जय में अटक गईं
हम सोने की चारदीवारी में देवी
मिट्टी की चारदीवारी में बनी रहीं भोग्या
चारों खानों से चित्त हुईं हम
अचानक ही कच्छपों में बदलने लगी
समेटने लगी ख़ुद को अपनी ही देह में
और स्वतंत्रता दाएँ - बाएँ से गुज़र गई"
"पानी पर पुल" शीर्षक कविता प्रेमिल कविताओं की कोमल लेकिन सशक्त भावनाओं का संधिस्थल है।प्रेम से बावस्ता हो चुके मन से बेहतर कौन जानता -समझता होगा कि प्रेम में" अनिद्रा" का कितना मोल होता है!कविता में प्रेम की उनींदी तरंगों की छुवन महसूस होती है..
"तुम्हारे प्रेम में संक्रमित हो चुका जीवन
आज अर्धरात्रि तुम्हारी निद्रा का संक्रमण चाह रहा
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शिशु के समीप से आती है जैसे दुग्ध की सुगन्ध
तुम्हारे सामिप्य में मुझे मिलती गहन निद्रा की गंध
अनिद्रा में गिनती हूँ तुम्हारे हृदय का एक - एक स्पंदन
और रैन बीतते न बीतते मेरे नैन लग जाते हैं ।"
आज के मौजूद राजैनतिक-आर्थिक-सामाजिक परिदृश्य में,सुव्यवस्था और आम आदमी जैसे दो विपरीत ध्रुव सिद्ध हैं।"आंकड़ा"कविता सीधी-सपाट भाषा में लेक़िन,विचारणीय प्रश्न करती है..इसे पढ़ते हुए कवि के सामाजिक सरोकारों के प्रति जिम्मेदारी को समझा जा सकता है,यही साहित्य के मुख्य उद्देश्यों में से एक है।मौजूद राजनीतिक-सामाजिक उठापटक और जनपक्षधरता की हिमायत करती हुई यह एक सशक्त सृजन है..जिसे पढ़ते हुए बिसराए हुए किसी अख़बार की सुर्खियों पर ध्यान जाने लगता है।
"पार्षद के चुनाव में दो सौ
विधायक के चुनाव में पांच सौ
थोड़े और बड़े चुनाव में
उसका अंगूठा हजार तक में बिका
इस तरह अठारह से साठ की उम्र तक
पहुँचते - पहुँचते
गर जीवित रहता तो
तकरीबन जमा लेता वह बीस हजार रुपये"
'उसके जाने के बाद' कविता नागर जीवन में किरायेदार के चले जाने के बाद पसरे निचाट सन्नाटे के बहाने मानवीय सम्बन्धों पर बहुत सुंदर कविता है ।कविता में चली आई इन सहज अभिव्यक्ति इंसानी रिश्तों में उपस्थित सीमित व्यवहार की ओर कचोट पैदा करती है..अनमने से उद्वेग जैसे अन्तर्मन को टीस देती चली जाती है,विदाई से उपजे नैराश्य को पुकारती है।
"जब घर हरा भरा था
तब उसकी एक चाबी मेरे पास रहा करती थी
आज जब घर खाली है
तब उस घर की सारी चाबियां मेरे पास है---
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घर से नहीं घरवालों से मेरा सम्बंध था
उनके स्थानांतरण के बाद
चाबियां होकर भी
उस घर का दरवाजा मेरे लिए बंद था "
विशाखा एक ही शब्द/भाव के ज़रिए अचानक ही अन्य लोक में ले जाकर जब छोड़ देती है तो एक पाठक के तौर पर देखना दिलचस्प होता है कि कोई भी शब्द/भाव ...अपने साथ एक विहंगम दृश्य लेकर उपस्थित हो सकता है।संग्रह में यदि पहली कविता में कोई किरायेदार स्थानांतरण होकर स्थान छोड़कर चला गया तो दूसरी कविता" किरायेदार"में पिता-पुत्र के मध्य सँवाद के जरिये देह को 'किराए की'कहा गया है वह कवि की आध्यात्म में रुचि व मानवीय जीवन के प्रति संवेदनशील सलंग्नता को बताता है।यह सलंग्नता कविमन के बदलते दृश्य पर थमी नजर को देखते हुए सुखद आश्चर्य भी देती है तो अपने वातावरण के प्रति सजग भी करती है।
"सोच में पड़ गए पिता
देह भी तो किराए का मकान
जन्मते ही लग जाता है उपनाम
एक रंग विशेष से जुड़ जाता है नाता
लगती फिर उसी धर्म की कील
टंगती उसी की तस्वीर "
आध्यात्म और आत्मदर्शन की सुवास लिए अन्य कविताएँ..धम्मम शरणम गच्छामि,"तमसो मा ज्योतिर्गमय,और नृत्य हैं।' नृत्य' कविता बेहद ही खूबसुरती से सम्पूर्ण सृष्टि को नृत्यमय होते महसूस कराती है..जिसका समापन इन पंक्तियों पर जब होता है तो मन भीतर से भीजने लगता है..विश्रांति पैठ करने लगती है।नेत्र कुछ अधिक देखने की चाहनाएँ कुछ अधिक देर तलक मुलतवी कर सकते हैं...
"शिव के सम्मुख नृत्य है
आकाश में नृत्य है ,
सूर्य , चंद्र , आकाशगंगाओं का
नेपथ्य में भी चलता नृत्य है
अलौकिक है , असीम है ,
अनंत है , नृत्य है
धरा पर भी नृत्य है ,
सूर्य किरणों का नृत्य है
रज -रज में नृत्य है ,
कण -कण में नृत्य है
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हम भी है नृत्य में
प्रकृति के हर कृत्य में
देह के भीतर आत्मा का नृत्य है
विदेह परमात्मा का नृत्य है
सर्वत्र है ,
नृत्य है ..."
अपने रचना संसार को लेकर विशाखा की मनन-चिंतन शैली उनकी व्यक्तिगत है,जहाँ वे किसी भी वायवीय संसार में विचरण नहीं करती है न कराती है।उनकी कविताएं वास्तविकता का सन्धान करती है,संताप प्रकट करती है,उम्मीद जगाए रखती हैं और विचारणीय प्रश्न भी छोड़ देती हैं।कहते हैं न कि एक अच्छी कविता न सिर्फ़ स्वयं रची जाती है बल्कि अपने सृजक को भी रचती है और उसकी विचारशीलता का पता देती है।
विशाखा के इस प्रथम-कविता संग्रह को पढ़ते हुए मेरा व्यक्तिगत तौर पर यह विश्वास है कि उनके पास बगैर कोई भाषिक चमत्कार पैदा किए वे अपने समय व सच को ध्यान में रखते हुए सार्थक संवाद कायम करने में और व्यवहारिक दृष्टिकोण स्थापित करने में सफल हुई है।इस संसार में जब स्वयं को खोने का खतरा सबसे ज़्यादा होने लगा हो तो कविताओं के इस व्यवहारिक पक्ष को पढ़ा जाना बेहद ज़रूरी हो जाता है।
संग्रह में बहुआयामी और बहुसंदर्भी कविताएँ हैं जहाँ विशाखा अपने दृष्टिसम्पन्न और सामर्थ्यवान होने का परिचय देती हैं।विशाखा को प्रथम कविता संग्रह को महत्वपूर्ण प्रकाशन योजना के अंतर्गत प्रकाशित होने के लिए हार्दिक बधाई व भविष्य हेतु असीम शुभकामनाएं।मुझे उम्मीद है वे अधिक ऊर्जावान,सजग व संवेदनशील होकर सृजन पथ पर आगे बढ़ेंगी..इसी शुभेच्छा के साथ पुनश्च असीम मंगलकामनाएं।
मंजुला बिष्ट
वर्तमान में उदयपुर (राजस्थान) में निवास कर रही मंजुला बिष्ट की रचनाएं सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं , साहित्यिक पोर्टल तथा ब्लॉग पर प्रकाशित हो चुकी हैं ।
ईमेल आईडी-bistmanjula123@gmail.com
संपर्क : +91 94146 47315
विशाखा की कविताओं पर मंजुला ने बहुत समीचीन समीक्षात्मक टिप्पणी लिखी है | विशाखा की कवितायें विभिन्न ब्लाग्स और और उनकी पोस्ट्स पर पढ़ता रहा हूँ | "पानी का पुल" के लिये विशाखा को बधाई और समीक्षात्मक टिप्पणी के लिये मंजुला विष्ट को साधुवाद |
जवाब देंहटाएंमीमांसा और विशेष रूप से राजाराम भादू को बहुत बहुत धन्यवाद कि नई पीढ़ी के रचनाकारों और अध्येता समीक्षकों को वे मंच उपलब्ध करा रहे हैं |