अन्तर्पाठ
आलोचक राजाराम भादू अन्तर्पाठ श्रृंखला में प्रतिष्ठित कथाकारों की उन कहानियों की चर्चा कर रहे हैं जो महत्वपूर्ण होते हुए भी चर्चा में उतनी नहीं आ पायीं। हमारे विशेष आग्रह पर शुरू की गयी इस श्रृंखला में अभी तक आप मोहन राकेश की कहानी- जानवर और जानवर तथा कमलेश्वर की - नीली झील- पर पढ चुके हैं। इस श्रृंखला की तीसरी कडी में आप पढ रहे हैं धर्मवीर भारती की कहानी -यह मेरे लिए नहीं- और इस कहानी पर राजाराम भादू की टिप्पणी।
- विनोद मिश्र सं. / कृति बहुमत, अक्टूबर, २०२१
धर्मवीर भारती ने अनेक कहानियाँ लिखी हैं। इनमें गुलकी बन्नो और बंद गली का आखिरी मकान जैसी तीन- चार कहानियों की ज्यादा चर्चा होती है। उनकी कहानी- यह मेरे लिए नहीं- ने मुझे विशेष प्रभावित किया जो १९६३ में प्रकाशित बंद गली का आखिरी मकान संकलन में शामिल है। भारती ने अपने बारे में बहुत कम लिखा है। कथा- साहित्य ही नहीं, उनकी कविता में भी अपने समकालीनों की तुलना में आत्मपरकता कम है। यह मेरे लिए कहानी आत्मपरक शैली में लिखी है लेकिन मुझे पहली बार पढते ही लगा था कि यह केवल शैली- मात्र नहीं है। इसमें उनके जीवन का एक बड़ा निर्णायक प्रसंग है। आगे जब उनके जीवन के कुछ निजी संदर्भ मिल गये तो यह बात लगभग प्रमाणित हो गयी। किन्तु सिर्फ इसी से तो यह कहानी बड़ी हो नहीं जाती बल्कि यह तो इसकी कमजोरी होगी। आत्मकथ्य के लिए आत्मकथा है, कहानी को उसके लिए प्रयुक्त नहीं करना चाहिए। यह मेरे लिए नहीं कहानी की स्वायत्तता ही इसकी शक्ति है। तमाम वैयक्तिक संदर्भ कलात्मक रचाव के चलते अपनी पृथक और स्वतंत्र इयत्ता स्थापित कर लेते हैं। इस कहानी को इसलिए भी पढा जाना चाहिए कि कैसे एक समर्थ रचनाकार अपने अनुभूत सत्य को बड़े दार्शनिक संदर्भ से जोडकर कला की निष्पत्ति करता है।
मैं इसीलिए कथानक के साथ भारती जी के कुछ जीवन वृत्त जोड रहा हूं। आप पाठ के समानांतर इन्हें रखकर सृजन के उस स्तर का आकलन कर सकते हैं जो कहानी अर्जित करती है। वैसे सरलीकृत तौर पर कहें तो इस कहानी का मूल विषय पीढीगत संघर्ष दिखाई दे सकता है। उस दौर में ऐसी अनेक कहानियाँ आयी थीं। यह संघर्ष सामान्यतः पिता- पुत्र के बीच दिखाया जाता था जो भारती की कहानियों के बाद तक चलता रहा। ज्ञानरंजन की कहानी के पिता अकेले और निरीह हैं तो रमेश बक्षी की कहानी तक पहुंचते ये संबंध आक्रामक रूप ले लेते हैं। मां- बेटे अथवा बेटी के बीच के रिश्तों पर प्रायः बनावटी और भावुकता पूर्ण लिखा गया है। मोहन राकेश की आर्द्रा और दूधनाथसिंह की माई का शोकगीत इसके सुखद अपवाद है। इसके इतर आप देखेंगे कि भारती की यह कहानी सिर्फ पीढी के अंतराल तक सीमित नहीं है।
निश्चित रूप से इसमें परम्परा और आधुनिकता का संघर्ष भी है जो उन दिनों बहस के केंद्र में रहा करता है। और भारतीय बनाम पाश्चात्य मूल्य- सरंचना का संघर्ष भी। यह अतीत में जीते ऐसे शहर की कहानी है जिसके लिए कहा गया है : ऐसी सुबहें सिर्फ उस गली में होती थीं। सीले घर, टूटे मन, अंदर- बाहर अंधेरा, हर चीज पर कुढन और खीझ। यह समाज के आभ्यन्तर का रूपक भी है। इसमें भी कहीं से अलस्सुबह धूप का एक चकत्ता आ निकलता है जो जैसे चेतना के नये आलोक का प्रतीक है - स्थिर नहीं गतिशील और सतत् रूपान्तरित होता। इसमें स्थानीय समुदाय की जडता और धूर्तता का तीखा क्रिटीक है। लेकिन यह कहानी इन अन्तर्विरोधों को लेकर तत्कालीन रूढ नजरिये का रचनात्मक प्रतिकार करती है। ऐसा करना आसान नहीं था। इसके पीछे रचनाकार भारती का वह आत्मसंघर्ष और आत्म- संधान है जिसने उनकी जीवन- दृष्टि को निर्मित किया। संभवतः यही इस कहानी की अन्त:शक्ति है जो इसे उत्कृष्टता प्रदान करती है।
धर्मवीर भारती का सम्बन्ध एक जमींदार परिवार से था। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर जिले के खुदागंज में उनकी जमींदारी थीभारती जी भी बचपन में वहाँ जाया करते थे। लेकिन उनके पिता को सामंती जीवन से लगाव नहीं था। वे पहले आर्यसमाजी रहे, बाद में गांधी जी से प्रभावित होकर उन्होंने अपनी नौकरी तक छोड दी थी। भारती इसे याद करते लिखते हैं : हम लोगों का खुदागंज जाना भी छूट गया। उसका कारण यह था कि मेरे पिता एक प्रकार से अपने परिवार की सामंती जमींदारी परम्परा के विद्रोही थे। बाबा और ताऊ चाहते थे कि लगान वसूली और लेन- देन का काम संभालें, लेकिन मेरे पिता छुटपन से ही बरेली चले गये। कुछ पढ- लिख कर रुडकी इंजीनियरिंग कॉलेज में ओवरसियरी का इम्तहान पास कर आये। बाबा ने मारे गुस्से के बहुत- कुछ सख्त- सुस्त कहा तो घर छोड़कर जंगलात के टोले की किसी फर्म में ओवरसियर होकर बर्मा चले गये और वहाँ सागौन के जंगलों में भटकते रहे। वहाँ से काफी रुपया कमाकर लाये तो मीरजापुर में बसे, वहाँ आटे की चक्की और आटे की मिलें लगायीं पर उनमें नुकसान हुआ और जाने कैसे इलाहाबाद आ बसे। वहाँ अतरसुइया मुहल्ले में मकान बनाया। यह सब मेरे इस संसार में आने के पहले की बात है।
यहाँ जिस मकान का ज़िक्र है, वह इस कहानी के केन्द्र में है। पुराना मकान जर्जर हो रहा है। कथानायक की मां लगातार उसकी मरम्मत कराती रहती है। परिवार में सिर्फ मां- बेटे हैं। बेटा दीनू जिसका पूरा नाम एस. एन. दीन है, एक रिसर्च स्कालर है। वह स्वयं अपनी पढाई और घर चलाने के लिए जद्दोजहद करता है। लेकिन मां की प्राथमिकता मकान है। वह इसे उसके पिता की आखिरी निशानी मानती है। दीनू को शिकायत है, क्या बाप की निशानी सिर्फ यह मकान है, वह नहीं ? हम देखते हैं कि कथा की अंतिम परिणति तक यह मकान एक सांस्कृतिक विरासत, दूसरे शब्दों में परंपरा में बदल जाता है। किन्तु यहाँ उसकी महज दरारें भरने अथवा ऊपरी मरम्मत का प्रस्ताव नहीं है बल्कि उसे पुनर्नवा करने की उत्प्रेरणा है।
वैसे इस मकान के अलावा भी पिता की अन्य सम्पत्तियां थीं। परिवार की तंगी और किंचित सहायता के बदले वे दीनू के नाते- रिश्तेदारों ने हडप लीं। भारती इसे यूं लिखते हैं : पिताजी ने जो साधन- सम्पत्ति जुटाई थी, वह सब रिश्तेदारों ने लूट ली। और वक्त जरूरत के समय सभी ने मुंह फेर लिया। मन में वितृष्णा पैदा होने का यह भी एक कारण था। कहानी में भी दीनू इन नृशंस रिश्तेदारों से नफरत करता है। जबकि मां उन्हें अपना मानती है और बुआ, ताऊजी वगैरह को उस पर आरोपित करने की कोशिश करती रहती है।
कहानी में जो डाक्टर चाचा- चाची के स्नेहिल चरित्र हैं, असल जीवन में वे भारती के मामा थे, हालांकि उनके साथ कहानी की तरह के किसी अलगाव का जिक्र वे नहीं करते : उन भयानक दिनों में हमारे दूर के रिश्ते के मामा श्री अभय कृष्ण चौधरी ने बहुत सहायता की। कर्ज उतारने और गुजर- बसर करने के लिए मां छोटी बहन को लेकर गुरुकुल में नौकरी करने चली गयीं और मैं मामा के पास रहा। मामी ने मांं से बढकर स्नेह दिया और मामा ने संरक्षण और अमिट ममता दी, और मैंं खूब पढूं- लिखूं और कुछ बड़ा काम करूं- इसकी प्रेरणा वे बराबर मन में भरते रहे।
कथानायक की ही तरह भारती जी का भी अपनी माँ से मतभेद था। मां की तुलना में वे स्मृतियों में बसे अपने पिता से कहीं अधिक अनुप्रेरित होते थे। स्वयं भारती इसे कुछ इस प्रकार याद करते हैं : बचपन से ही मैं फक्कड और बिन्दास रहा हूं। दुनियादारी और व्यवहार के प्रति कभी भी मैं चुस्त- चौकस नहीं रहा। सुख की मेरी कल्पना ही सर्वथा भिन्न थी। मैं मां का अत्यंत लाडला और इकलौता बेटा था। मेरा आचार, व्यवहार, सोच... कुछ भी तो उसे पसंद नहीं था।
...मां जरा कट्टर किस्मी आर्य समाजी थीं। उन्हें यह साहित्यिक लेखन और जीवन बहुत पसंद नहीं था पर मामा ने बहुत प्रोत्साहन दिया।
...कितना अजीब लगता है न... मां का प्रेम और पिता का प्रेम दोनों के मूल ढांचे में ही बुनियादी अंतर होता है। पिता के प्यार का दायरा व्यापक होता है। एक खास दृष्टि प्रदान करता है, विकास को गतिमान करता है, जबकि मां का प्यार अधिकार मांगना सिखाता है। पिताजी का ह्रदय विशाल होने से मेरा झुकाव उन्ही की ओर अधिक था। उनके गुजर जाने के बाद उन्ही का आदर्श मेरी आंखों के सामने था। वही मेरे नायक थे।
अपने बचपन और उस समय के आत्मसंघर्ष का स्मरण करते हुए उन्होंने लिखा है :बी.ए. और एम. ए. की पढाई ट्यूशनोंं के सहारे चली।
...मशहूर मोहल्ला अहियापुर- अतरसुइया का एक अंदर से चंचल बाहर से चुप्पा लडका, हर पास- पडोस के घर से मिलने वाले निश्छल प्यार में पगा, हर मुंहबोले चचा, ताऊ, भइया, भाभी, दीदी का मुंहलगा, मिलने वाली हर आत्मीयता के आगे फूल- सा बिछा हुआ, नितान्त, नितान्त सामान्य और हर प्रकार की असामान्यता से भागने वाला, जिन्दगी के कुछ खरे टटके मूल्यों पर गहरी आस्था...
...उस समय हम एक जीवन से बंधे हुए थे- एक निम्न मध्यवर्ग का जीवन था। उसका जो कुछ भी संत्रास, यंत्रणा थी, मानवीय संबंध था...
कहानी में वर्णित मां- बेटे के बीच टकराव की जो मुख्य घटना है, उसका धर्मवीर भारती के यहां कहीं कोई उल्लेख नहीं है। हो सकता है, इसे उन्होंने इतिवृत्त की जगह कहानी के लिए अधिक उपयुक्त समझा हो। अन्यथा उस द्वंद्व को एक दार्शनिक और कलात्मक निष्पत्ति तक पहुंचाने के लिए उन्होने अपनी कल्पना का सहारा लिया हो। तथापि उसमें दर्ज अनुभूतियों में आप उनके वास्तविक जीवन की तपिश महसूस कर सकते हैं। इस द्वंद्व के मूल में दीनू के फटे पैबंद लगे बचपन के बरक्स मां की नासमझ जबरदस्तियां हैं।
दीनू को मां द्वारा हर छठे माह मकान की मरम्मत की धुन नागवार लगती है। कारीगरी को चिट्ठा बांटकर पाई- पाई चुका देने पर मां को जितनी तृप्ति होती है, दीनू को उतनी ही चिढ। उसकी साईकल भी इस मकान- मरम्मत की भेंट चढ चुकी है। वह पैदल भाग- भाग कर ट्यूशन करके जो कमाता है, वह मकान की दरारें भरने में खप जाता है। जबकि उसके लिए पढाई महत्वपूर्ण है।
उधर बाबूजी की निशानी को अक्षुण्ण रखना मां अपना फर्ज मानती है। उनके लिए अपने सगे- संबंधी पहले हैं। डाक्टर चाचा- चाची ने चाहे दीनू का कितना ही खयाल रखा हो, मां मानती हैं- कहीं परायों के चौके का अन्न तन- बदन में लगता है। बल्कि दीनू के प्रतिकार के पीछे भी उन्हें वे ही नज़र आते हैं, मेरे बेटे को परायों ने वश में कर रखा है। जबकि दीनू की कोशिश रही कि मां द्वारा अपने समझे जाने वाले रिश्तेदारों का कोई अहसान न ले। मां के अनुसार कभी बनैनी ( सांजी ) से दीनू का नाम जुडता है कभी बंगालिन ( अपर्णा) से। दीनू के लिए ये सब अरुचि, विद्रोह पूर्ण घृणा और विक्षोभ का उबाल लाते, कभी उसे आत्महत्या का विचार आता। मां से डाक्टर चाचा का कहना बिल्कुल सही था- तुमने दीनू को पैदा किया है, लेकिन उसे समझा नही।
मां द्वारा लाये एक विवाह प्रस्ताव को दीनू के नकारने के बाद यह द्वंद्व चरम पर पहुंचता है। दीनू गुस्सा होकर घर छोड़कर होस्टल चला जाता है। इसके बाद दोनों की ही मन: स्थिति में निर्णायक बदलाव आता है। बीस दिन बाद काफी मान- मनुहार के बाद जब दीनू घर लौटता है तो चीजें विपर्यस्त हो चुकी हैं। मां की चट्टानों प्रतिमा यकायक बूढी, खामोश टूटी और पराजित हो चुकी है। उसे देखकर दीनू को दुर्घटना ग्रस्त गाय कुसला की आंखों की असहायता का स्मरण हो जाता है। दीनू का घर से निष्क्रमण मां के लिए एक दुर्घटना ही तो थी। कहां गयी वह तेजस्विनी, युद्धरत, जिद्दी, आक्रमणकारी मांजी ! मां की इस बदली हुई हालत से दीनू विह्वल हो उठता है : ओ मां, ओ मां ! यह दृष्टि नहीं सही जाती। दीनू ने विजय चाही थी अपनी निष्ठा, अपनी ईमानदारी, अपने स्वाभिमान को प्रतिष्ठित करने के लिए। तुम्हारी आंखों में इस दृष्टि के लिए नहीं! तुम्हारी दृष्टि में विजयी- सा शासक- सा दीनू अपनी दृष्टि में और छोटा लगने लगता है।... यही आत्म- ग्लानि दीनू को आत्म- संधान की ओर प्रवृत्त करती है। वस्तुतः दीनू के पिता के मरने के बाद उसकी माँ ने अपने लिए पिता की भी भूमिका ओढ ली थी। बाबूजी होते तो.. उसे लगातार विरासत और बेटे के संरक्षण- सम्वर्धन का स्मरण कराते हैं। हालांकि वह चीजों को आर्य समाजी सुधारवादी नजरिये से देखती है जो तब तक अपनी संकीर्णता के चलते लगभग प्रतिक्रियावादी हो चुका था। उसकी वागीश के नयी पीढ़ी के प्रति नकारात्मक रुख से सहमति है जबकि दीनू दृष्टांत सागर और भक्ति दर्पण दो किताबों के आधार पर पूरी पाश्चात्य सभ्यता को कोसने वाले वागीश को सहन नहीं करता। बाबू जी होते... का एक अभिप्राय दीनू के लिए भी है जहाँ सप्तर्षि और ध्रुव के प्रतीकों से वे दीनू को वर्चस्वी भव का आशीर्वाद देते हैं, जिसमें उन्मुक्त आकाश में विचरने के लिए खुला प्रोत्साहन है। मां पिता की इस दृष्टि को आत्मसात नहीं कर पायी थी, शायद पिता ने ऐसा चाहा भी नहीं होगा।
प्रस्तुत कहानी में कथानायक दीनू की दो बालिका- मित्रों की संक्षिप्त किन्तु दीप्तिमान भूमिका है। इनमें एक सांजी आयु में उससे छोटी है : सांजी उसकी छोटी- सी मित्र थी, संरक्षिका थी, उसकी लडाकू सिपाही थी...छोटी- सी नन्ही मां भी थी। जबकि दूसरी परना उर्फ अपर्णा बनर्जी उम्र में बड़ी थी, हालांकि वह दीनू को बोडदा यानी बड़ा भाई बुलाती है। सुबह हरसिंगार के फूलों के साथ परना दी की उजली हंसी अक्सर उसका स्वागत करती थी। सांजी के चले जाने के बाद तो वही दीनू का संबल बनती है। उसी के लिए तो दीनू के ये उद्गार हैं : पिता तुम यह टूटी निशानी गले से बांधकर चले गये तो क्या ? रिश्तेदारो तुमने दस रुपये के लिए लांछित किया तो क्या ? मां तुम मुझे घोंट- घोंटकर कुढा रही हो तो क्या ? सांजी, तुमने निराधार छोड दिया तो क्या ? एक सूरज मेरे लिए उगता है, गली में उतरता है।... सचाई यह थी कि अपर्णा उन दोनों के बीच अदृश्य सेतु बनने का आखिर तक प्रयास करती है। स्थितियों को बदलने में उसका भी योग है। कहानी के अंत में हम देखते हैं कि वह अपने परिवार के साथ चंदन नगर चली जाती है।
असल जीवन संदर्भ में भारती ऐसे संबंधों को संकेतों में उदात्तता पूर्वक इस प्रकार दर्ज करते हैं : दिल में एक ओर यह खट्टापन
था, तो दूसरी ओर अपरिचितों से मिले अपार स्नेह की ऊष्मा भी थी। प्यार की इसी ऊष्मा ने सौहार्द और सह्रदयता का शीतल स्पर्श मुझे दिया और हर कीमत पर तन- मन की पवित्रता को दृढ़तापूर्वक संजोने का तीव्र अहसास हुआ। किशोरावस्था की ये दो विपरीत स्थितियां मेरे जीवन- मूल्यों का मूलाधार बन गयीं।
अपनी जीवन - दृष्टि की निर्मिति के बारे में धर्मवीर भारती ने काफी विस्तार से लिखा है। हम जानते हैं कि दर्शन का मार्ग प्रश्नाकुलता से होकर गुजरता है। वे लिखते हैं : मैं भी मध्यवर्ग का एक किशोर ही तो था। मां जो इसे पाप कह रही है, वह पाप क्यों है? या चाची जी जो कह रहे हैं कि चींटियों को आटा डालना चाहिए, तो क्या वाकई में पुण्य मिलता है या नहीं ? ये प्रश्न अन्त तक जिन्दा रहते हैं। ... बी. ए. में हमारे बीच साहित्य की समस्याओं पर बहस नहीं होती थी। हम लोग विभिन्न दर्शनों पर बातचीत किया करते थे।...उनके संवाद और अध्यवसाय साथ- साथ चल रहे थे।.... तभी मैं ने छहों भारतीय दर्शन, वेदांत तथा विस्तार से वैष्णव और संत साहित्य पढा और भारतीय चिन्तन की मानवतावादी परंपरा मेरे चिन्तन का मूल आधार बन गयी
अपने आत्म की पहचान और जीवन की दिशा को लेकर दीनू की जद्दोजहद बहुस्तरीय और दुधुर्ष है। सत्रह - अठारह वर्ष का वह क्लास का सबसे तेज, सबसे गरीब, सबसे दुर्बल और सबसे कम उम्र का लडका है। उसे महसूस होता है, उससे सब छिनते गये- पहले पिता का साया, फिर मांं का विश्वास, फिर सांजी...। इस अहसास के चलते उसका ईश्वर से मोहभंग हो गया। आत्मीय चाची से दीनू कहता भी है : ईश्वर कहीं नहीं है चाची कहीं नहीं है। सब झूंठ है। पहले मैं मानता था लेकिन सब झूंठ है। जब दीनू वापस हवन की ओर लौटता है, तब भी ईश्वर- विहीन ही है। असल में वह जडों की ओर लौटा है लेकिन अब वह जडता से मुक्त हो चुका है।
हवन में इदन्न मम् उद्घोष के अर्थ होते हैं- यह ( आहुति ) मेरे लिए नहीं है। जैसे इन्द्राय इदन्न मम् अर्थात यह मेरे लिए नहीं, इन्द्र के लिए है। दीनू की आहुतियाँ हैं - यह विजय, यह स्वामित्व, यह आतंक - इदन्न मम् ! ईश्वर तो दीनू के लिए था नहीं, उसने खुद अपने चारों ओर अपनी सृष्टि बनायी थी और हर प्राणी को वह अपने अनुरूप बनाकर रखना चाहता था। अब यह सृष्टि भी नहीं। उसे कुछ नहीं चाहिए- इदन्न मम् ! एक शांत निर्वेद ! वह जो मैं है वह भी मेरे लिए नहीं है।... यही इस कहानी की यूनिवर्सल अपील है। यह सिर्फ कहने भर की बात नहीं है कि उत्कृष्ट रचना की जडें अपनी जमीन में गहरे धंसी होती हैं।
( M ) 9828169277
Email : rajar.bhadu@gmail.com
धर्मवीर भारती जी की कहानियों की तरल संवेदना बहुआयामी होती है | निजता को बचाये रखते हुये अन्य के प्रति भी सोचना किन्तु निजता के संघर्ष को बनाये रखना "यह मेरे लिये नहीं" की मूल संवेदना है | आहुति देवता के लिये है किन्तु दे मैं रहा हूँ |
जवाब देंहटाएंराजाराम जी ने बहुत गहराई से इस कहानी का अन्तर्पाठ किया है | उन्हें साधुवाद और मीमांसा को भी यह लेख साझा करने हेतु धन्यवाद |
Bahut gaharai se do peedhiyon ke paraspar virodh ka vistrit vishleshan kiya hai. Yah kahani aaj bhee apne aap mein paimana hai.
जवाब देंहटाएंBhadujee, ab sarthak aalochana padhne ka anand mila!