सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

दुष्यंत की राजो... जयश्री शर्मा

स्मृतिशेष
हालांकि दुष्यंत कुमार की लोकप्रियता उनकी उत्प्रेरक गजलों के कारण है। लेकिन वे अपनी ही शैली के कवि- कथाकार भी थे। उनकी सहधर्मिणी राजेश्वरी की उनके जीवन में तो अहम् जगह थी ही, उनके बाद भी बड़ी शिद्दत से उन्होंने पारिवारिक दायित्वों का निर्वहन किया।
संस्मरणकार कांतिकुमार जैन ने दुष्यंत- राजेश्वरी के रागात्मक संबंधों का बडा जीवंत चित्रण किया है। हमने मीमांसा के लिए जयश्री शर्मा से राजेश्वरी की स्मृति में लिखवाया है जिन्होने दुष्यंत कुमार के सृजन पर गंभीर शोध किया है। उनका राजेश्वरी जी से हाल तक संपर्क व संवाद था।

राजेश्वरी सहारनपुर जिले के डंगेटा गाँव के सूरजभान कौशिक की पुत्री थीं जिनका विवाह दुष्यन्त कुमार के साथ 30 नवंबर 1949 को हुआ था। विवाह के समय दुष्यन्त कुमार की उम्र 18 वर्ष और राजेश्वरी की उम्र 16 वर्ष की थी। शादी के समय दुष्यन्त कुमार इंटर पास थे जबकि राजेश्वरी हाई स्कूल पास थीं। राजेश्वरी की माँ सोना देवी गृहणी तथा सूरजभान कौशिक सरकारी विभाग में कानूनगो थे। राजेश्वरी के दो भाई और एक बहन थी।
जिस प्रकार छोटी उम्र के प्यार की आयु लम्बी होती है, उसी तरह छोटी उम्र के विवाह की आयु भी लम्बी होती है! देखा जाए तो छोटी उम्र के इस अरेंज मैरिज से उत्पन्न छोटी उम्र के प्यार ने हीं दुष्यन्त को दुष्यन्त कुमार बनाया था। विवाह से पहले दोनों न एक दूसरे को जानते थे और न ही एक दूसरे से मिले थे। दरअसल उन दोनों का विवाह पढ़ने वाले दो विद्यार्थियों का विवाह था। जिसे आज के बुद्धिजीवी नासमझी ही समझेंगे।
जैसा कि चलन है विवाह के बाद सुहागरात को पति अपनी नव ब्याहता पत्नी को तोहफा भेंट करता है। लेकिन दुष्यन्त कुमार को समझ नहीं आ रहा था कि वह अपनी पत्नी को क्या भेंट करें? फिर भी शादी के दूसरे दिन यानी 1 दिसंबर 1949 को दुष्यन्त ने छत पर बैठकर तोहफे के रुप में एक ऐसी कविता लिखी थी, जिसमें राजेश्वरी जी का चित्र उभारा गया है। इस तरह जो काव्यमय चित्र राजेश्वरी को तोहफे के रुप में भेंट किया गया वह इस प्रकार है -
‘वह चपल बालिका भोली थी
कर रही लाज का भार वहन
झीने घूँघट पट से चमके
दो लाज भरे सुरमई नयन
निर्माल्य अछूता अधरों पर
गंगा - यमुना सा बहता था
सुंदरवन का कौमाय सुधार 
यौवन की घातें सहता था
परिचय विहीन होकर भी हम
लगते थे ज्यों चिर-परिचित हों।

भला इससे सुन्दर तोहफा और प्रेम गीत और क्या होगा? और कमाल देखिए दोनों विवाह के बाद भी पढ़ते रहे। उच्च शिक्षा के लिए एक-दूसरे को प्रेरित करते रहे। दुष्यन्त कुमार की प्रेरणा से दसवीं पास राजेश्वरी ने आगे चलकर बी.ए और बी.एड की डिग्री प्राप्त की। उसके बाद हिन्दी और मनोविज्ञान में डबल एम.ए किया।प्रारंभ से ही राजेश्वरी ने तय कर लिया था कि वह नौकरी करेगीं। घर चलाने में पति का हाथ बँटायेगी। केवल गृहणी बनकर ही चारदीवारी में अब नहीं रहेंगी। यही वजह थी कि राजेश्वरी ने कुछ समय 1962 में बरहानपुर में एक प्राइवेट काॅलेज में हिन्दी प्राध्यापिका के रूप में कार्य किया। तदोपरान्त तात्या टोपे नगर, भोपाल के आदर्श उच्च माध्यमिक विद्यालय में स्थाई 
रूप से हिन्दी की व्याख्याता नियुक्त हुई । उसके बाद राजेश्वरी ने घर का पूरा मोर्चा संभाल लिया था। वह दुष्यन्त कुमार को घर के छोटे-मोटे कार्य और लेन-देन की किसी पचड़े में नहीं पड़ने देती थीं।
बच्चों की शिक्षा दीक्षा और लालन-पालन में भी उन्हें एकदम मुक्त कर दिया था ताकि वे एकाग्रचित्त होकर लिखें।.दरअसल राजेश्वरी ही दुष्यन्त कुमार की प्रथम श्रोता और आलोचक रही हैं। हिन्दी साहित्य में एम.ए होने के नाते उन्होंने यह जिम्मेदारी बखूबी निभाई है। इतना ही नहीं मनोविज्ञान में एम.ए होने के नाते पति की मानसिक शक्तियों और कमजोरियों को सृजनात्मक धरातल की ओर 
उन्मुख करने में भी उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यही वजह है कि दुष्यन्त कुमार का दाम्पत्य जीवन सरस और जीवन्त रहा। उन्होंने पत्नी को पूरा मान-सम्मान और प्यार दिया। वे राजेश्वरी को प्यार से राजो कहते थे। दुष्यन्त कुमार के चले जाने के बाद भी राजेश्वरी ने अपने दमखम से ही घर को संभाला। बेटों की शादियां कीं, उन्हें सेटल किया।मेरा सौभाग्य है कि मैंने कालजयी कवि दुष्यन्त कुमार के सम्पूर्ण साहित्य पर शोध कार्य किया। शोध के सिलसिले में पारिवारिक जानकारी प्राप्त करने के लिए मैंने राजेश्वरी जी को पत्र लिखा था। उस पत्र के जवाब में जो कुछ उन्होंने लिखा वह इस प्रकार है -

प्रिय जयश्री जी,
नमस्कार!
आपका पत्र मिला। इससे पूर्व शायद दो या डेढ़ वर्ष पूर्व आपका मुझे एक पत्र और मिला था।आपने लिखा है कि आप मुझे कई पत्र डाल चुकी हैं। आपने शायद यह पत्र मेरे विद्यालय के पते पर भेजे होंगे इसलिए वह अवश्य ही इधर-उधर खो गए होंगे।इससे पहले मैंने आपसे आग्रह किया था आप भोपाल अवश्य आयें और मेरे पास आकर 
ठहरें।दुष्यन्त जी के बारे में आप जो कुछ जानना चाहती हैं वह सब मैं आपको बता दूंगी।अपने शोध के लिए आप मुझसे जो भी सहायता लेना चाहेंगी, मैं दूंगी। इसलिए आपसे आग्रह है कि आप भोपाल अवश्य आयें। मैं यहाँ भोपाल में एक सरकारी किन्तु छोटे ;जो मेरे लिए काफी है मकान में रहती हूँ और विद्यालय में नौकरी करती हूँ। आपको कोई कठिनाई नहीं होगी मेरे साथ ठहरने में। मेरे बच्चे बड़े हैं उन्हें अपनी नौकरियों पर रहना पड़ता है, इसलिए मैं ही यहाँ अकेली रहती हूँ।
मेरी तीन संताने हैं। सबसे बड़ी बेटी थी, जिसका विवाह दुष्यन्त जी के सामने एक इंजीनियर लड़के से हो गया था और वह स्वयं आकाशवाणी में प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव की पोस्ट पर यहाँ भोपाल में ही नियुक्त थी। मेरा दुर्भाग्य कि 1985 में एक कार एक्सीडेंट में मेरी बेटी और उसके पति दोनों की ही मृत्यु हो गई। बेटी का नाम अर्चना और दामाद का नाम राजकुमार था। उससे छोटे दो बेटे हैं। बड़ा बेटा आलोक स्टेट बैंक आँफ इंदौर में ब्रांच मैनेजर है जो आजकल दिल्ली में पोस्टेड है। उसकी शादी साहित्यकार कमलेश्वर जी की बेटी से हुई है। उसके दो बच्चे हैं - एक बेटा और एक बेटी। मेरा छोटा बेटा अपूर्व आर्मी में है। अभी मेजर बना है जो आजकल लद्दाख में पोस्टेड है। उसका विवाह मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री श्री भगवंतराव मंडलोई की नातिन से हुआ है। उसको भी एक बेटी है। अपने बच्चों के विषय में मैंने आपको पूरी जानकारी दे दी है। कुछ और अधिक यदि आप चाहेंगी तो दूंगी।
दुष्यन्त जी के अप्रकाशित साहित्य के विषय में मुझे स्वयं को पहले कुछ पता ना था कि कितना साहित्य अप्रकाशित है। कुछ साहित्य तो जो मैंने पत्रिका में प्रकाशन के लिए भेजा था उसमें से एकांकी नाटकों की एक अप्रकाशित पांडुलिपि तो खो गई है। मैं अगले सत्र में सेवानिवृत्त हो रही हूँ तभी उनकी रचना वली तैयार करके प्रकाशित कराऊंगी। दुष्यन्त जी की मृत्यु हुई तो मेरे दोनों बेटे पढ़ रहे थे। उनके अचानक चले जाने से मैंने अपना पूरा ध्यान बच्चों को सेटल करने में लगा दिया। एक के बाद कई जिम्मेदारियाँ विस्तार लेती रहीं और मैं उन्हें पूरा करती रही।
इस तरह 18 वर्ष बीतने को आ गए हैं और मैं दुष्यन्त जी के साहित्य से सम्बन्धित एक भी जिम्मेदारी पूरी नहीं कर पाई। अब अपनी नौकरी से सेवानिवृत्त होकर मैं अपना समय उनकी रचनावली में लगाऊंगी। आपने लिखा है कि आपकी कोशिश है कि दुष्यन्त जी को आप अपने शोध कार्य में ऐसा सही रूप प्रदान करना चाहती हैं जिससे साहित्य में उन्हें वह हक मिल सके, जिसके वे हकदार हैं।मेरी शुभकामनाएं आपके साथ हैं - सरस्वती आपकी मदद करें। आशा है आप सब सानन्द होंगे।
भवदीया
राजेश्वरी दुष्यन्त कुमार
 और देखिए राजेश्वरी जी ने अपने इस पत्र में दुष्यन्त कुमार के समस्त साहित्य को प्रकाश में लाने की जो बात कही है उसे 2005 में विजय बहादुर सिंह के संपादन में दुष्यन्त कुमार रचनावली के नाम से चार खंडों में प्रकाशित कराकर ही दम लिया। ऐसी महान स्त्री रत्न राजेश्वरी जी के निधन से मेरी अपूर्णीय और निजी क्षति हुई है। राजेश्वरी जी से मैं मिली जरूर लेकिन पीएचडी पूरी होने के बाद। उन्होंने मुझे वह आम का पेड़ भी दिखाया जो दुष्यन्त जी ने लगाया था, वो सारी जगहें जहाँ दुष्यन्त जी अपनी रचनाए  लिखते थे। बहुत ही सुखद और अविस्मरणीय यादें रहीं जिसे मैंने राजेश्वरी जी से मिलने और उन्हें देख-सुनकर संजोया था। साहित्यकार प्रियदर्शी खैरा जी हम दोनों मेरे पति श्री बाबू खाण्डा को राजेश्वरी जी से मिलवाने लेकर गए थे।आज न तो वह सरकारी मकान रहा और न ही राजेश्वरी जी। उनके चले जाने से पहले ही वहां की सरकार ने दुष्यन्त जी के उस मकान को ढहा दिया विकास के लिए जिस का विरोध मैंने भी अपनी पत्रिका अनुकृति के जरिए किया था। शेष है सिर्फ यादें। यह मलाल ही रहा कि कोरोना की लाॅकबन्दी की वजह से मैं दोबारा उनके आग्रह के बावजूद भी ना जा सकी। कहाँ पता था कि वह एकाएक चली जाएंगी। अलविदा राजेश्वरी जी।

डाॅ जयश्री शर्मा
अध्यक्ष राजस्थान लेखिका संस्थान जयपुर 
प्रकाशित पुस्तकें:
कहानी संग्रह__शिवकोरी,शहीद की चिट्ठी।
आलोचनात्मक पुस्तक-
दुष्यंत कुमार:एक अध्ययन 
कविता संग्रह--गोधूलि का चाँद 
पंचदशी गजल संग्रह। 
सम्पादक कहिन 

कुल छ:प्रकाशित पुस्तकें
21वर्ष से अनुकृति त्रैमासिक का सम्पादन और प्रकाशन
स्त्री मुद्दों पर अनेक रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई।

14/एच/94, इन्दिरा गाँधी नगर,
पुलिस चैकी वाली गली,
जगतपुरा - 302017
जयपुर
मोबाईल - 9413418045


टिप्पणियाँ

  1. बहुत मार्मिक और संवेदनापूर्ण संस्मरण है | जय श्री जी को लिखे राजेश्वरी जी के पत्र से दुष्यंत जी के परिवार के बारे में पूरा पता चलता है |बेटी-दामाद के असामयिक निधन और दोनों बेटों को पढ़ा-लिखा कर योग्य बनाने से ले कर "दुष्यंत कुमार रचनावली" के प्रकाशन तक के कार्य राजेश्वरी जी का दुष्यंत जी और परिवार के प्रति समर्पण ही कहा जायेगा | दुष्यंत कुमार के घर को सरकार द्वारा ढहा देना बताता है कि हमारे यहाँ की सरकारें साहित्यकारों के प्रति कितनी बेरुखी रखती हैं |
    इस संस्मरण को साझा करने के लिये जयश्री शर्मा और मीमांसा को साधुवाद |

    जवाब देंहटाएं
  2. दुष्यंत कुमार जी की कालजयी ग़ज़लें और शेर सर्वाधिक उद्धृत किए गए हैं, किये जाते रहेंगे। उनकी सहचरी के विषय में जानकर मन में श्रद्धा के भाव उमड़ पड़े।
    आपके माध्यम से हम स्त्री रत्न राजेश्वरी जी से परिचित हुए, आपका अभिनंदन आदरणीया।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

जाति का उच्छेद : एक पुनर्पाठ

परिप्रेक्ष्य जाति का उच्छेद : एक पुनर्पाठ                                                               ■  राजाराम भादू जाति का उच्छेद ( Annihilation of Caste )  डॉ॰ भीमराव अम्बेडकर की ऐसी पुस्तक है जिसमें भारतीय जाति- व्यवस्था की प्रकृति और संरचना को पहली बार ठोस रूप में विश्लेषित किया गया है। डॉ॰ अम्बेडकर जाति- व्यवस्था के उन्मूलन को मोक्ष पाने के सदृश मुश्किल मानते हैं। बहुसंख्यक लोगों की अधीनस्थता बनाये रखने के लिए इसे श्रेणी- भेद की तरह देखते हुए वे हिन्दू समाज की पुनर्रचना की आवश्यकता अनुभव करते हैं। पार्थक्य से पहचान मानने वाले इस समाज ने आदिवासियों को भी अलगाया हुआ है। वंचितों के सम्बलन और सकारात्मक कार्रवाहियों को प्रस्तावित करते हुए भी डॉ॰ अम्बेडकर जाति के विच्छेद को लेकर ज्यादा आश्वस्त नहीं है। डॉ॰ अम्बेडकर मानते हैं कि जाति- उन्मूलन एक वैचारिक संघर्ष भी है, इसी संदर्भ में इस प्रसिद्ध लेख का पुनर्पाठ कर रहे हैं- र...

उत्तर-आधुनिकता और जाक देरिदा

उत्तर-आधुनिकता और जाक देरिदा जाक देरिदा को एक तरह से उत्तर- आधुनिकता का सूत्रधार चिंतक माना जाता है। उत्तर- आधुनिकता कही जाने वाली विचार- सरणी को देरिदा ने अपने चिंतन और युगान्तरकारी उद्बोधनों से एक निश्चित पहचान और विशिष्टता प्रदान की थी। आधुनिकता के उत्तर- काल की समस्यामूलक विशेषताएं तो ठोस और मूर्त्त थीं, जैसे- भूमंडलीकरण और खुली अर्थव्यवस्था, उच्च तकनीकी और मीडिया का अभूतपूर्व प्रसार। लेकिन चिंतन और संस्कृति पर उन व्यापक परिवर्तनों के छाया- प्रभावों का संधान तथा विश्लेषण इतना आसान नहीं था, यद्यपि कई. चिंतक और अध्येता इस प्रक्रिया में सन्नद्ध थे। जाक देरिदा ने इस उपक्रम को एक तार्किक परिणति तक पहुंचाया जिसे विचार की दुनिया में उत्तर- आधुनिकता के नाम से परिभाषित किया गया। आज उत्तर- आधुनिकता के पद से ही अभिभूत हो जाने वाले बुद्धिजीवी और रचनाकारों की लंबी कतार है तो इस विचारणा को ही खारिज करने वालों और उत्तर- आधुनिकता के नाम पर दी जाने वाली स्थापनाओं पर प्रत्याक्रमण करने वालों की भी कमी नहीं है। बेशक, उत्तर- आधुनिकता के नाम पर काफी कूडा- कचरा भी है किन्तु इस विचार- सरणी से गुजरना हरेक ...

कवि व्यक्तित्व-तारा प्रकाश जोशी

स्मृति-शेष हिंदी के विलक्षण कवि, प्रगतिशील विचारों के संवाहक, गहन अध्येता एवं विचारक तारा प्रकाश जोशी का जाना इस भयावह समय में साहित्य एवं समाज में एक गहरी  रिक्तता छोड़ गया है । एक गहरी आत्मीय ऊर्जा से सबका स्वागत करने वाले तारा प्रकाश जोशी पारंपरिक सांस्कृतिक विरासत एवं आधुनिकता दोनों के प्रति सहृदय थे । उनसे जुड़ी स्मृतियाँ एवं यादें साझा कर रहे हैं -हेतु भारद्वाज ,लोकेश कुमार सिंह साहिल , कृष्ण कल्पित एवं ईशमधु तलवार । कवि व्यक्तित्व-तारा प्रकाश जोशी                                           हेतु भारद्वाज   स्व० तारा प्रकाश जोशी के महाप्रयाण का समाचार सोशल मीडिया पर मिला। मन कुछ अजीब सा हो गया। यही समाचार देने के लिए अजमेर से डॉ हरप्रकाश गौड़ का फोन आया। डॉ बीना शर्मा ने भी बात की- पर दोनों से वार्तालाप अत्यंत संक्षिप्त  रहा। दूसरे दिन डॉ गौड़ का फिर फोन आया तो उन्होंने कहा, कल आपका स्वर बड़ा अटपटा सा लगा। हम लोग समझ गए कि जोशी जी के जाने के समाचार से आप कुछ अस...

दस कहानियाँ-१ : अज्ञेय

दस कहानियाँ १ : अज्ञेय- हीली- बोन् की बत्तखें                                                     राजाराम भादू                      1. अज्ञेय जी ने साहित्य की कई विधाओं में विपुल लेखन किया है। ऐसा भी सुनने में आया कि वे एक से अधिक बार साहित्य के नोवेल के लिए भी नामांकित हुए। वे हिन्दी साहित्य में दशकों तक चर्चा में रहे हालांकि उन्हें लेकर होने वाली ज्यादातर चर्चाएँ गैर- रचनात्मक होती थीं। उनकी मुख्य छवि एक कवि की रही है। उसके बाद उपन्यास और उनके विचार, लेकिन उनकी कहानियाँ पता नहीं कब नेपथ्य में चली गयीं। वर्षों पहले उनकी संपूर्ण कहानियाँ दो खंडों में आयीं थीं। अब तो ये उनकी रचनावली का हिस्सा होंगी। कहना यह है कि इतनी कहानियाँ लिखने के बावजूद उनके कथाकार पक्ष पर बहुत गंभीर विमर्श नहीं मिलता । अज्ञेय की कहानियों में भी ज्यादा बात रोज पर ही होती है जिसे पहले ग्रेंग्रीन के शीर्षक से भी जाना गया है। इसके अला...

सबाल्टर्न स्टडीज - दिलीप सीमियन

दिलीप सीमियन श्रम-इतिहास पर काम करते रहे हैं। इनकी पुस्तक ‘दि पॉलिटिक्स ऑफ लेबर अंडर लेट कॉलोनियलिज्म’ महत्वपूर्ण मानी जाती है। इन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन किया है और सूरत के सेन्टर फोर सोशल स्टडीज एवं नेहरू मेमोरियल लाइब्रेरी में फैलो रहे हैं। दिलीप सीमियन ने अपने कई लेखों में हिंसा की मानसिकता को विश्लेषित करते हुए शांति का पक्ष-पोषण किया है। वे अमन ट्रस्ट के संस्थापकों में हैं। हाल इनकी पुस्तक ‘रिवोल्यूशन हाइवे’ प्रकाशित हुई है। भारत में समकालीन इतिहास लेखन में एक धारा ऐसी है जिसकी प्रेरणाएं 1970 के माओवादी मार्क्सवादी आन्दोलन और इतिहास लेखन में भारतीय राष्ट्रवादी विमर्श में अन्तर्निहित पूर्वाग्रहों की आलोचना पर आधारित हैं। 1983 में सबाल्टर्न अध्ययन का पहला संकलन आने के बाद से अब तब इसके संकलित आलेखों के दस खण्ड आ चुके हैं जिनमें इस धारा का महत्वपूर्ण काम शामिल है। छठे खंड से इसमें संपादकीय भी आने लगा। इस समूह के इतिहासकारों की जो पाठ्यवस्तु इन संकलनों में शामिल है उन्हें ‘सबाल्टर्न’ दृष्टि के उदाहरणों के रुप में देखा जा सकता है। इस इतिहास लेखन धारा की शुरुआत बंगाल के...

कथौड़ी समुदाय- सुचेता सिंह

शोध कथौडी एक ऐसी जनजाति है जो अन्य जनजातियों से तुलनात्मक रूप से पिछड़ी और उपेक्षित है। यह अल्पसंख्यक जनजाति महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान के कुछ अंचलों में छितरायी हुई है। दक्षिण राजस्थान में इनके हालात प्रस्तुत कर रही हैं अध्येता सुचेता सिंह। दक्षिण राजस्थान के आदिवासी क्षेत्र में कथौड़ी जनजाति है जो वहां रहने वाली जनजातियों में सबसे कम संख्या में है। एक शोध रिपोर्ट के अनुसार इस जनजाति समुदाय की वृद्धि दर दशक वार घट रही है। 'ये लोग कैथ के पेड़ से कत्था निकालने का काम करते थे जो पान में लगाया जाता है इसलिए इनका नाम कथौड़ी पड़ा।' वैसे ये लोग कत्था बनाने के साथ-साथ बहुत से वन सम्बन्धी कार्य करते हैं, जैसे-बांस कटाई एवं दुलाई, वृक्ष कटाई, वन उपज संग्रहण, वन्य जीव आखेट, हाथ औजार निर्माण तथा वन औषध उपचार आदि। राजस्थान में इन लोगों का इतिहास कोई अधिक पुराना नहीं है। इन्हे महाराष्ट्र से इस क्षेत्र में कत्था उत्पादन और वन कटाई के लिए लाया गया। ऐसा अनुमान है कि जंगल के ठेकेदार इन्हे कोंकण महाराष्ट्र से यहां लेकर आये। ऐसा लगता है कि पूर्व में भी ये घुमक्कड़ जीवन जीते थे। इनकी बसाहटें म...

समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान-1

रंगमंच  समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान -1                                         राघवेन्द्र रावत  समकालीन हिंदी रंगमंच के बारे में बात बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध से भी की जा सकती थी लेकिन मुझे लगता है कि उससे पूर्व के भारतीय रंगमंच के परिवर्तन की प्रक्रिया पर दृष्टिपात कर लेना ठीक होगा | उसी तरह राजस्थान के समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करने से पहले भारतीय हिंदी रंगमंच पर चर्चा करना जरूरी है, और उससे भी पहले यह जानना भी आवश्यक है कि वस्तुतः रंगमंच क्या है ?और रंगमंच के बाद हिंदी रंगमंच और उसके बाद समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करना एक उचित क्रम होगा भले ही यह मेरे अध्ययन की गरज ही लगे | राजस्थान के रंगमंच पर बात करना इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि इस पर हिंदी साहित्य की तरह चर्चा नहीं हुई चाहे वह आलोचना की दृष्टि से देखें या इसके इतिहास की नज़र से देखें | दो वर्ष पहले ‘जयरंगम’ नाट्य समारोह के एक सेशन में बोलते हुए वरिष्ठ रंग एवं फिल्म समीक्षक अजित राय ने कहा था-“ पता नहीं कौन सा नाटक...

भूलन कांदा : न्याय की स्थगित तत्व- मीमांसा

वंचना के विमर्शों में कई आयाम होते हैं, जैसे- राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक इत्यादि। इनमें हर ज्ञान- अनुशासन अपने पक्ष को समृद्ध करता रहता है। साहित्य और कलाओं का संबंध विमर्श के सांस्कृतिक पक्ष से है जिसमें सूक्ष्म स्तर के नैतिक और संवेदनशील प्रश्न उठाये जाते हैं। इसके मायने हैं कि वंचना से संबंद्ध कृति पर बात की जाये तो उसे विमर्श के व्यापक परिप्रेक्ष्य से जोडकर देखने की जरूरत है। भूलन कांदा  को एक लंबी कहानी के रूप में एक अर्सा पहले बया के किसी अंक में पढा था। बाद में यह उपन्यास की शक्ल में अंतिका प्रकाशन से सामने आया। लंबी कहानी  की भी काफी सराहना हुई थी। इसे कुछ विस्तार देकर लिखे उपन्यास पर भी एक- दो सकारात्मक समीक्षाएं मेरे देखने में आयीं। ऐसी ही प्रतिक्रिया रणेन्द्र के उपन्यास ग्लोबल गाँव के देवता को भी मिल चुकी थी। किन्तु आदिवासी विमर्श के संदर्भ में ये दोनों कृतियाँ जो बड़े मुद्दे उठाती हैं, उन्हें आगे नहीं बढाया गया। ये सिर्फ गाँव बनाम शहर और आदिवासी बनाम आधुनिकता का मामला नहीं है। बल्कि इनमें क्रमशः आन्तरिक उपनिवेशन बनाम स्वायत्तता, स्वतंत्र इयत्ता और सत्त...

'ब्लड ऑफ़ दी कॉनडोर' [ Blood of the Condor]

सिने -संवाद                                                                            ' ब्लड ऑफ़ दी कॉनडोर'  [ Blood of the Condor]                                          मनीष आजाद 1960 का दशक भारी उथल पुथल का दौर था। पूरे विश्व में समाज के लगभग सभी शोषित तबके व वर्ग अपनी पहचान व अधिकार हासिल करने के लिए शोषणकारी व्यवस्था से सीधे टकराने लगे थे। साहित्य, कला, संगीत इससे मूलभूत तौर पर प्रभावित हो रहा था और पलटकर इस संघर्ष में अपनी भूमिका भी निभा रहा था। अपेक्षाकृत नई कला विधा सिनेमा भी इससे अछूता न था। इसी दशक में यूरोपियन सिनेमा में ‘नवयथार्थवाद’ की धारा आयी जिसने फिल्म की विषयवस्तु के साथ साथ फिल्म मेकिंग को भी मूलभूत तौर पर बदल डाला और यथार्थ के साथ सिनेमा का एक नया रिश्ता बना।  लेकिन...

लेखक जी तुम क्या लिखते हो

संस्मरण   हिंदी में अपने तरह के अनोखे लेखक कृष्ण कल्पित का जन्मदिन है । मीमांसा के लिए लेखिका सोनू चौधरी उन्हें याद कर रही हैं , अपनी कैशौर्य स्मृति के साथ । एक युवा लेखक जब अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी के उस लेखक को याद करता है , जिसने उसका अनुराग आरंभिक अवस्था में साहित्य से स्थापित किया हो , तब दरअसल उस लेखक के साथ-साथ अतीत के टुकड़े से लिपटा समय और समाज भी वापस से जीवंत हो उठता है ।      लेखक जी तुम क्या लिखते हो                                             सोनू चौधरी   हर बरस लिली का फूल अपना अलिखित निर्णय सुना देता है, अप्रेल में ही आऊंगा। बारिश के बाद गीली मिट्टी पर तीखी धूप भी अपना कच्चा मन रख देती है।  मानुष की रचनात्मकता भी अपने निश्चित समय पर प्रस्फुटित होती है । कला का हर रूप साधना के जल से सिंचित होता है। संगीत की ढेर सारी लोकप्रिय सिम्फनी सुनने के बाद नव्य गढ़ने का विचार आता है । नये चित्रकार की प्रेरणा स्त्रोत प्रकृति के साथ ही पूर्ववर्त...