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मुझे चांद चाहिए - राजाराम भादू


पिछले दिनों एक प्रसंग तो मुझे चांद चाहिए के लेखक सुरेन्द्र वर्मा को लेकर सोशल मीडिया पर चली बहस थी जिसमें उन्होंने कथित रूप में किसी शोधार्थी से साक्षात्कार के लिए पैसे मांग लिए थे। इस पर पक्ष- विपक्ष में बहस से ज्यादा मुझे ममता कालिया का अभिमत ज्यादा मौजू लगता है कि ऐसा शायद उन्होंने उस शोधार्थी से पीछा छुडाने के लिए किया हो। लेकिन मेरा सरोकार एक दूसरे प्रसंग से है। कुछ समय पहले अभिनेत्री सविता बजाज की टाइम्स ऑफ़ इंडिया में एक खबर आयी थी जिसमें वे बहुत व्यथित होकर कह रही थीं कि पहले कोरोना और फिर उसके प्रभाव से हुई बीमारी के उपचार में उनकी पूरी बचत
समाप्त हो गयी है। बहरहाल, इस खबर का असर हुआ और फिल्म राइटर्स एसोसिएशन तथा सिन्टा सहित कई लोग उनकी मदद के लिए आगे आये। अभी सिन्टा की ओर से अभिनेत्री नूपुर अलंकार उनकी बहुत अच्छे से देखभाल कर रही हैं। वे अपनेकिराये का फ्लैट छोडकर नूपुर की बहिन के घर रह रही हैं।

मुझे चांद चाहिए के कथानक की पृष्ठभूमि दिल्ली का नेशनल स्कूल आफ ड्रामा, रंगमंच और मुम्बई का फिल्म - जगत है। यह भी कहा गया था कि यह एनएसडी की ही एक अभिनेत्री की सच्ची कहानी पर आधारित है। इसे अभिनेत्री नीना गुप्ता की जिन्दगी से प्रेरित बताने की कोशिशें भी हुई थीं। सविता बजाज, सुरेखा सीकरी और उत्तरा बावकर के साथ एनएसडी के एक ही बैच में थीं। इनमें से सुरेखा सीकरी अब इस दुनिया में नहीं हैं। नीना गुप्ता बाद के बैच से हैं, सीमा विश्वास और बाद की एनएसडी से और अभिनेत्रियां भी फिल्म व टेलीविजन में सक्रिय हैं, लेकिन प्रतिनिधिक तौर पर इन पांच के उदाहरण ही काफी हैं। मुझे चांद चाहिए की नायिका वर्षा वशिष्ठ का इनमें किसी से मेल नहीं है। इनमें से किसी को,बल्कि एनएसडी से निकली किसी अभिनेत्री को मुम्बई की फिल्मी दुनिया में सितारा हैसियत हासिल नहीं हुई। यद्यपि अभिनय के क्षेत्र में इन्होंने ऊंचे कीर्तिमान स्थापित किये। मुझे चांद चाहिए की वर्षा वशिष्ठ की तुलना में इनकी जिन्दगी कहीं अधिक जटिल, संघर्षमय और उदात्त रही है। तथापि इनका संघर्ष वहां बने रहने और बेहतर करते रहने से शायद ही आगे जा पाया है।
मुझे चांद चाहिए नायिका केन्द्रित कथा है। उसका नायक ( अगर उसे नायक कहा जा सके) तो त्रासद अंत को प्राप्त होता है। हालांकि इस त्रासदी के लिए उसका सोच, अपनी तरह करने और जीने की जिद और समझौता न करने जैसे कारण रहे हैं। एक दर्शन भी उसके साथ चलता है लेकिन उसे लेखक का समर्थन हासिल नहीं है। जबकि नायिका की यात्रा ऐसे किसी दर्शन के धरातल पर नहीं चलती । जी हां, स्त्रीवाद भी नहीं । मुम्बई के सिने समाज की सभ्यता के कुछ संकेत उपन्यास में हैं लेकिन उन पर कोई मूल्य- निर्णय नहीं है। इधर मुम्बई फिल्म बिरादरी की शक्ति और सडन काफी उजागर हुई है। इसी प्रसंग में मुझे चांद चाहिए का मेरा पाठ मुझे फिर से प्रासंगिक लगा, जिसे यहां सिलसिलेवार प्रस्तुत कर रहा हूँ।
मुझे चांद चाहिए उपन्यास के लिए सुरेन्द्र वर्मा को साहित्य
अकादमी मिला है। लेकिन अकादमी पुरस्कार क्या इस
उपन्यास की उत्कृष्टता प्रतिपादित कर सकता है? यह पुरस्कार किसी कृति विशेष को प्रतिष्ठित करने के वनिस्पत कई बार कृतिकार की रचना- यात्रा और उसके सज्जक व्यक्तित्व को सम्मानित करने के लिए भी दिया जाता है। वैसे भी अब पुरस्कार सम्मानों की गरिमा और आलोक- वृत्त बहुत दिपदिपाते नहीं रह गये हैं। प्रकाशन के लगभग तुरंक बाद से मुझे चांद चाहिए काफी चर्चा में रहा और जब हिन्दी में पाठकों की कमी और पुस्तकों की बिक्री न होने का रोना- धोना चल रहा था, इस उपन्यास के पेपरबैक सहित कई संस्करण निकाल चुके थे। तदनन्तर इस पर एक टीवी धारावाहिक प्रसारित हुआ। यानी उपन्यास ने लोकप्रियता के उन्नत शिखर छुए।
पुरस्कार सुरेन्द्र वर्मा प्रतिष्ठित नाटककार रहे हैं और उनके कई नाटक समकालीन रंगमंच में महत्वपूर्ण स्थान बना चुके हैं। उनकी अपनी एक खास शैली और कला को लेकर भिन्न सोच रही है। रंगमंच को एक माध्यम के रूप में लेकर भी उनके गंभीर सरोकार रहे हैं। ऐसे में सुरेन्द्र वर्मा का गद्य- विधा और वह भी उपन्यास ( और उपन्यास भी ५७० पृष्ठ का) की ओर आना कुछ इंगितकरता था। जबकि तब तक उपन्यास की कथित वापसी की चर्चाएं भर थीं, वह हुई नहीं धी; शब्द- माध्यम के भविष्य को लेकर चिन्ताएं थीं और दृश्य- माध्यम लगातार ताकतवर हो रहे थे। क्या यह उपन्यास की जरूरत और इसकी शक्ति का संकेत था? स्पेस में संवाद और अभिनय ही वस्तुस्थिति के सम्प्रेषण के
लिए पर्याप्त नहीं- वृत्तांत के बिना काम नहीं चलेगा- क्या सुरेन्द्र वर्मा पर ऐसा कोई दबाव रहा होगा ? बहरहाल, इस उपन्यास ने वृत्तांत की क्षमता और उसके भविष्य के प्रति आशान्वित किया था।
हालांकि, उससे पहले के दशक में कुछ महत्वपूर्ण उपन्यास आ चुके थे- पाहीघर, डूब, झीनी- झीनी बीनी चदरिया और गगन घटा घहरानी जैसे नाम अभी याद आ रहे हैं। इन सभी में नये संरचनात्मक प्रयोगों के साथ यथार्थ के अन- उद्धाटित पक्ष अभिव्यक्त हुए। सदियों से मौन की संस्कृति में रहे दलित- समाज ने भी अपनी अभिव्यक्ति ( भले ही यह उतनी सुगढ नहीं थी) के लिए यह विधा चुनी। मुझे चांद चाहिए हिन्दी उपन्यास की इस विकास- यात्रा (शिवप्रसाद सिंह के नीला चांद सहित ) का अगला पडाव है- एक अभिनव आख्यायिका भी। उपन्यास का बड़ा गुण इसकी बांध लेने वाली पठनीयता है।
मुझे चांद चाहिए की संरचना सुगठित और प्रवाहपूर्ण है।
उपन्यास के संवाद बिल्कुल रोजमर्रा के हैं और इन्ही के गिर्द गहरी भावनाएं गूंथी गयी हैं। संवादों के आसपास तिर्यक वर्णन से उन्हें दीप्तमान किया गया है। इस वर्णन के साथ व्यंजना और सूचनाओं का समावेश है। संस्कृत क्लासिकों से अनेक उद्धरणों की प्रासंगिक और संदर्भित प्रयुक्ति स्थिति- मनः स्थिति को और व्यंजक बना देती है। दूसरी ओर सूचनाएं हैं, जैसे- नाट्य- कृतियों, नाटककारों- अभिनेताओं के वक्तव्य- विचार, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय और रिपर्टरी के बारे में, देशी- विदेशी सिनेमा के बारे में ढेर सारे विवरण। इन सबसे मुझे चांद चाहिए के वृत्तांत का ताना- बाना बुना गया है और यही तो इस माध्यम की शक्ति भी है।
इस संक्षिष्त परिपार्श्व के बाद हम मुझे चांद चाहिए के पक्ष में दी गयी दलीलों के विश्लेषण पर आते हैं। राजेन्द्र यादव ने इसे एक निम्न- मध्यवर्गीय लड़की की महत्वाकांक्षी संघर्ष यात्रा का वृत्तांत कहा था, जो उचित ही है। हालांकि स्त्रीवादी शायद इससे सहमत न रहे हों। यदि निम्न- मध्यमवर्ग से उच्च वर्ग बल्कि कहना चाहिए कि इलीट क्लास में प्रतिष्ठित हो जाना (क्या येन- केन प्रकार्णेन चलेगा) ही समस्या का उपचार है तब तो यह निश्चय ही एक सक्सैस स्टोरी है। फिर प्रेरक तो होगी ही। लेकिन
क्या यह सिर्फ यही है ?
बेशक, मुझे चांद चाहिए एक उत्तर- आधुनिक कृति है यदि हम इसकी अन्तर्वस्तु से इसकी प्रकृति तय करें । उत्तर- आधुनिकता की प्रमुख अभिलाक्षणिकताएं हैं- उन्नत तकनीक ( उच्च कला को उत्तर- आधुनिक समाज में अलग से कोई स्थान नहीं है।), व्यापक जनसंचार माध्यम और संस्कृति का उपभोक्तावादी संचरण। क्या ये तीनों अभिलाक्षणिकताएं मुझे चांद चाहिए में मौजूद नहीं हैं ?
उपन्यास में मेरे जीवन के तीसरे पृष्ठ तक यशोदा उर्फ सिलबिल के वर्षों वशिष्ठ के रूप में बदलने की कहानी है और दिल्ली के इलीट क्लास तक अभिशप्त सौम्यमुद्रा के वर्गारोहण की दास्तान है। इस दौरान वर्षा वशिष्ठ इलीट क्लास के तौर- तरीके और काबिलियत अख्तियार करती है। शाहजहाँपुर की मुमताज़ से वह राजधानी की आधुनिका ही नहीं बनती बल्कि सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री भी बन जाती है।
ठीक यहीं से आधुनिक का उत्तर- आधुनिक में संक्रमण शुरू होता है। बंबई ( तब वही था।) में अवांगा्द सिनेमा अपनी आखिरी सांसें ले रहा है। पुरस्कृत फिल्म कंपन का नायक काम के लिए मारा- मारा फिर रहा है। वर्षा वशिष्ठ कला फिल्म से मुख्यधारा सिनेमा में पदार्पण करती है। अपनी अभिनय- प्रतिभा, व्यवहार- कौशल और संयोगों के सहारे वह मुख्यधारा सिनेमा की स्टार बन जाती है। सच में, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, सिनेमा और टीवी के लिए सीढी बनकर रह गया है।
उत्तर- आधुनिक संस्कृति में बाजार के नियमों का समावेश होता है। यहाँ संस्कृति ( कला भी) उत्पादन और पुनरुत्पादन है जो मांग और पूर्ति के नियम पर आधारित है। सिनेमा भी ग्लोबल मार्केट का हिस्सा बन गया है। वर्षा वशिष्ठ निरन्तर चित्रनगरी की इकोलोजी से और समायोजन करती चलती है और हालीबुड तक पहुँच जाती है। किसी जमाने में दिल्ली के सांस्कृतिक पर्यावरण को परिष्कृत करने का दावा करने वाले तमाम रंगकर्मियों की जमात बालीबुड के सिनेमा और मंडी हाउस के दूरदर्शन धारावाहिकों में अपने लिए जगह बनाती नज़र आती है। यहाँ तक कि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के निदेशक  त्यागपत्र देकर इंग्लैंड चले जाते हैं और रिपर्टरी के सर्वसर्वा धारावाहिकों में काम करने लगते हैं। कला- फिल्मों के लिए अपने को प्रतिबद्ध मानने वाले सिद्धार्थ बीच का रास्ता अपनाते है।
इस नजरिये से देखेंगे तो पायेंगे कि बाजार- व्यवस्था के अंधड ने सिनेमा और रंगमंच में कला की उत्कृष्टता के परखच्चे उडा दिए हैं। इस अंधड के समक्ष समर्पण के सिवाय कोई रास्ता नहीं अन्यथा कुत्ते की मौत मारे जाओगे। अंधड से स्ट्रगल करता हुआ हर्ष ऐसी ही मौत तो मरा, " सुबह एक कुत्ता उसके पैरों के पास बैठा पाया गया था और दूसरा उसका मुंह चाटते हुए... वह चौपाटी के धूल सने फर्श पर सूखी विष्टा के बीच पड़ा था।" यदि इस सार को देखते हुए मुझे चांद चाहिए को हम उत्तर- आधुनिकता की एक केस- स्टडी मानें तो सुरेन्द्र वर्मा हमें देरिदा के बजाय फुकोयामा के साथ खडे मिलते हैं। सुरेन्द्र वर्मा के
सुसमाचार की प्रासंगिक व्याख्या यही है कि वर्षा वशिष्ठ से प्रेरणा लो अन्यथा भयानक जोखिम है और इस तरह सात बड़ों (बिग सेवन) की ग्लोबल कल्चर ( वर्चस्व की संस्कृति) के प्रसार का मार्ग प्रशस्त हो जाता है।
किन्तु दोस्तो, नहीं! यह निर्णय देने की जल्दबाजी हो सकती है।जरा देखें कि मुझे चांद चाहिए की कलात्मक चिन्ता के केन्द्र में क्या है ?
अचानक मुझमें असंभव के लिए आकांक्षा जागी। अपना यह संसार काफी असहनीय है, इसलिए मुझे चन्द्रमा, या खुशी चाहिए - कुछ ऐसा, जो वस्तुत पागलपन- सा जान पड़े। मैं असंभव का संधान कर रहा हूं... देखो, तर्क कहां ले जाता है- शक्ति अपनी सर्वोच्च सीमा तक, इच्छा- शक्ति अपने अनन्त छोर तक।" यह मुझे चांद चाहिए के प्रारंभ में सूक्ति के रूप में दिए गये " कालिगुला* के वक्तव्य का पूर्वांश है लेकिन उपन्यास में यह सूत्रोक्ति वर्षा द्वारा नहीं बल्कि हर्ष द्वारा चरितार्थ की जाती है। हर्ष को बम्बई के उन अजगरों से गहरी वितृष्णा है- वह बीसवीं शताब्दी के सर्वाधिक सशक्त कलात्मक माध्यम सिनेमा की मुक्ति " (एक कला फिल्म) के लिए लगातार जद्दोजहद कर रहा है। हर्ष ही उपन्यास में कालिगुला के बाकी संवाद भी बोलता है। मुक्ति " के लिए अपने स्ट्रगल की तार्किकता के लिए वह कहता है, " तर्क कालिगुला! देखो, तर्क कहां ले जाता है? शक्ति अपनी सर्वोच्च सीमा तक, इच्छा- शक्ति अपने अनन्त छोर तक। आह इस धरती पर मैं ही हूं जिसे यह रहस्य मालूम है... शक्ति तब तक सम्पूर्ण नहीं होती, जब तक अपनी काली नियति के सामने आत्म समर्थक न कर दिया जाये। नहीं अब वापसी नहीं हो सकती। मुझे आगे बढते ही जाना है, जब तक कि समापन न हो जाये।"

लेकिन हर्ष अकेला ही रह जाता है जो कला की उत्कृष्टता का रहस्य " जानता है और उसकी " मुक्ति " का पवित्र " स्ट्रगल" करता है। " प्रेम " और " सफलता " नहीं, " मुक्ति " ही उसकी पहली शर्त है। उसके साथ ऊंचे कलात्मक मूल्य, जिद और स्वाभिमान हैं। वह " कालिगुला" का संवाद बोलता है," हेलीकोन, मैं सिर्फ चांद चाहता हूं।" लेकिन चित्रनगरी के बाजार की मारक और अपनों की ही उपेक्षा, अपमान और उपहास की ठंडी क्रूरता नजरें और ताने उसका क्षरण करने लगते हैं। वह सम्पूर्ण शक्ति से अपनी लड़ाई लडता है और अन्ततः पराजित होकर " काली
नियति" ( मृत्यु ) के सामने आत्म- समर्पण कर देता है। "
कालिगुला दो कुत्तों के बीच, कुत्ते की मौत मरा था।
कलात्मक अनुभव की सार्वभौमिकता के नियम" से तो इस
त्रासदी का नायक हर्ष है।
सुरेन्द्र वर्मा का " कलात्मक अनुभव की सार्वभौमिकता का
नियम" क्या है, कि जीवन की तुलना में कलागत चरित्रों की
परिणति तार्किक और विश्वसनीय होती है। अब जरा इस नियम के अनुसार सिलबिल उर्फ वर्षा वशिष्ठ के चरित्रगत विकास का विश्लेषण करें। असल में वर्षा का चरित्र उत्तर- आधुनिकता के अन्तर्विरोधों का पुंज है। चूंकि लेखक की सहानुभूति और पक्षधरता वर्षा के साथ है- इसलिए लेखकीय अन्तर्विरोध भी वर्षा के माध्यम से ही उजागर होते हैं। एक तरह से वर्षा लेखक का माउथपीस है, जिस तरह वह हर्ष को खारिज करती है आत्मघात की बिना पर, वह लेखकीय मदद के बिना संभव नहीं। जैसा कि हमने पहले कहा, अपने " जीवन के तीसरे पृष्ठ " तक सिलबिल के कलागत चरित्र की परिणति तार्किक है और विश्वसनीय भी।

सिलबिल के लिए "सुख की परिभाषा" अलग है। वह सिर्फ मादा नहीं है। वह जीवन की तुलना में कला का वरण करती है। वर्षा वशिष्ठ के चरित्र की परिणति के पीछे तर्क"तीसरे पृष्ठ " से पूरी तरह लुप्त हो जाते हैं। अब सिर्फ संयोग हैं... संयोगों की एक अनवरत् श्रृंखला। "वह एक लकी लडकी है।" यह कथाक्रम आगे बढता है (ठीक मुख्यधारा सिनेमा की कहानी की तरह)। जब कभी वर्षा को किसी की जरूरत पडी, कोई न कोई उसकी मदद के लिए आ पहुंचा। वह इन लोगों के सहारे सीढी- दर- सीढी आगे बढती जाती है और आखिर इतनी ऊंचाई पर पहुँच जाती है, जहां सिर्फ निर्जन बियावान है और कोई नहीं- उसे अपनी आवाज ही अजनबी लगती है" - जैसा कुछ कवि केदारनाथ सिंह ने अपनी एक कविता में कहा है। उसका मार्ग निरापद है क्योंकि वह टकराती नहीं, स्थितियों के अनुसार अनुकूलित होती जाती है।

सिनेमा के मांग और पूर्ति के नियम में वर्षा भी विमल
मुख्यधारा की तरह "माथे की लकीरों" के सहारे स्टार बन गयी, वह भी सब्सटेंशियल मनी कमाने लगती है। " मैं लोकप्रिय सिनेमा में बेवकूफ बनी रहूंगी पर साथ ही लो बजट फिल्में भी करूंगी।" वह क्लासेज व मासेज की दोनों नावों की सवारी करती है।
आज की जिन्दगी की यांत्रिकता और भाव- क्षय को पकडना उतना ही मुश्किल है जितना रजिया सुल्तान या जान आफ आर्क के जीवनगत झंझावात को प्रकट करना आसान। समकालीन झीनी विषयवस्तु में से यथोचित कला- आकार निर्मित करना भी हमारा बुनियादी सरोकार होना चाहिए। सुरेन्द्र वर्मा ने एक जगह वर्षा से यह बात कहलवायी है। इसे कृति के प्रयोजन के साथ जोडें तो भी वर्षा का चरित्र बहुत अन्तर्विरोधग्रस्त होगा- जबकि हर्ष का हताशाजनक। और इस हताशा की अनुगूंजों से यह सवाल उठैगा कि फिर "उत्कृष्ट कला का भविष्य क्या है?"

वर्षा का रुख अब बदल रहा है। वह जो पहले हर्ष की मौत के पीछे खलनायक की भूमिका निभाने के लिए उसके उत्कृष्ट कला- मूल्यों और समझौता- विरोधी कार्य- शैली को जिम्मेदार मानती थी, अब सोचती है, " विषाद भी टिकाऊ नहीं हो सकता। विषाद भी दंभ है। "- कालिगुला का ही एक वाक्य।

कोई इच्छा अधूरी रह जाये तो जिन्दगी में आस्था बनी रहती है । यह वर्षा की प्रिय धारणा है। उसका बच्चा ( हर्ष जिसका पिता है।) एक अधूरी इच्छा हो सकता है अभी जो गर्भ में पल रहा है। सीगल की नीना की मान्यता उसे याद आती है," जिस चीज का हमारे पेशे में महत्व है, वह यश नहीं बल्कि सहने की क्षमता है। अपना दायित्व निभाओ और विश्वास रखो।" वर्षा यहां भी खरी नहीं उतरेगी। इस सूत्रोक्ति पर भी खरी उतरती है तो वह है- दिव्या, जो मौत के इतने करीब होते हुए भी आल्हादित है ( जो वर्षा के इस रूप की जन्मदात्री है।)। हर्ष और दिव्या की मानें तो मुझे चांद चाहिए का चांद "क्षत- विक्षत" है और वर्षा की कहानी
मानें तो "चांद का मुंह टेढा है" ( मुक्तिबोध)। असल में पझपंखुरी की धार से शर्मी का पेड़ काटा नही जा सकता।

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वंचना के विमर्शों में कई आयाम होते हैं, जैसे- राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक इत्यादि। इनमें हर ज्ञान- अनुशासन अपने पक्ष को समृद्ध करता रहता है। साहित्य और कलाओं का संबंध विमर्श के सांस्कृतिक पक्ष से है जिसमें सूक्ष्म स्तर के नैतिक और संवेदनशील प्रश्न उठाये जाते हैं। इसके मायने हैं कि वंचना से संबंद्ध कृति पर बात की जाये तो उसे विमर्श के व्यापक परिप्रेक्ष्य से जोडकर देखने की जरूरत है। भूलन कांदा  को एक लंबी कहानी के रूप में एक अर्सा पहले बया के किसी अंक में पढा था। बाद में यह उपन्यास की शक्ल में अंतिका प्रकाशन से सामने आया। लंबी कहानी  की भी काफी सराहना हुई थी। इसे कुछ विस्तार देकर लिखे उपन्यास पर भी एक- दो सकारात्मक समीक्षाएं मेरे देखने में आयीं। ऐसी ही प्रतिक्रिया रणेन्द्र के उपन्यास ग्लोबल गाँव के देवता को भी मिल चुकी थी। किन्तु आदिवासी विमर्श के संदर्भ में ये दोनों कृतियाँ जो बड़े मुद्दे उठाती हैं, उन्हें आगे नहीं बढाया गया। ये सिर्फ गाँव बनाम शहर और आदिवासी बनाम आधुनिकता का मामला नहीं है। बल्कि इनमें क्रमशः आन्तरिक उपनिवेशन बनाम स्वायत्तता, स्वतंत्र इयत्ता और सत्त...

'ब्लड ऑफ़ दी कॉनडोर' [ Blood of the Condor]

सिने -संवाद                                                                            ' ब्लड ऑफ़ दी कॉनडोर'  [ Blood of the Condor]                                          मनीष आजाद 1960 का दशक भारी उथल पुथल का दौर था। पूरे विश्व में समाज के लगभग सभी शोषित तबके व वर्ग अपनी पहचान व अधिकार हासिल करने के लिए शोषणकारी व्यवस्था से सीधे टकराने लगे थे। साहित्य, कला, संगीत इससे मूलभूत तौर पर प्रभावित हो रहा था और पलटकर इस संघर्ष में अपनी भूमिका भी निभा रहा था। अपेक्षाकृत नई कला विधा सिनेमा भी इससे अछूता न था। इसी दशक में यूरोपियन सिनेमा में ‘नवयथार्थवाद’ की धारा आयी जिसने फिल्म की विषयवस्तु के साथ साथ फिल्म मेकिंग को भी मूलभूत तौर पर बदल डाला और यथार्थ के साथ सिनेमा का एक नया रिश्ता बना।  लेकिन...

लेखक जी तुम क्या लिखते हो

संस्मरण   हिंदी में अपने तरह के अनोखे लेखक कृष्ण कल्पित का जन्मदिन है । मीमांसा के लिए लेखिका सोनू चौधरी उन्हें याद कर रही हैं , अपनी कैशौर्य स्मृति के साथ । एक युवा लेखक जब अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी के उस लेखक को याद करता है , जिसने उसका अनुराग आरंभिक अवस्था में साहित्य से स्थापित किया हो , तब दरअसल उस लेखक के साथ-साथ अतीत के टुकड़े से लिपटा समय और समाज भी वापस से जीवंत हो उठता है ।      लेखक जी तुम क्या लिखते हो                                             सोनू चौधरी   हर बरस लिली का फूल अपना अलिखित निर्णय सुना देता है, अप्रेल में ही आऊंगा। बारिश के बाद गीली मिट्टी पर तीखी धूप भी अपना कच्चा मन रख देती है।  मानुष की रचनात्मकता भी अपने निश्चित समय पर प्रस्फुटित होती है । कला का हर रूप साधना के जल से सिंचित होता है। संगीत की ढेर सारी लोकप्रिय सिम्फनी सुनने के बाद नव्य गढ़ने का विचार आता है । नये चित्रकार की प्रेरणा स्त्रोत प्रकृति के साथ ही पूर्ववर्त...