एक चिथडा सुख पर मेघा मित्तल ने अपनी सहज जिज्ञासाएं, स्वाभाविक प्रश्न और मासूम विभ्रम दर्ज किये हैं। इनके साथ कृति के मूल भाव से किसी हद तक तादात्म्य स्थापित कर पाने की प्रतीति भी है। मेरे जैसे अनुभवी से वे कृति और कृतिकार को और साफ समझना चाहती हैं।
मुझे इसे पढकर साहित्य में अपने आरंभिक दिन याद आ गये, जब किसी किताब को शुरू करने पर लगता था जैसे अंधेरे कमरे में टटोलते हुए आगे बढ रहे हैं। निर्मल वर्मा को मुझसे भी बेहतर समझने वाले लोग है। हम इस पाठकीय टिप्पणी को इस उम्मीद से प्रस्तुत कर रहे हैं कि एक स्नातक पाठक के रूप में पूरी ईमानदारी से मेघा ने जो हमारे सामने रखा है, उसे आधार बनाते हुए आगे चर्चा करें। शायद इससे कुछ और लोगों को भी मदद मिले जो उतने मुखर नहीं हैं लेकिन इसे समझने के लिए वैसे ही जूझ रहे हैं। -राजाराम भादू
नमस्कार सर..
मैंने हाल ही में निर्मल वर्मा जी की ‘एक चिथड़ा सुख’ किताब पढ़ी। मैंने उसे पढ़ तो लिया है लेकिन मुझे लग रहा है कि मैं समझ ही नहीं पाई हूँ कि इस किताब में वो कहना क्या चाह रहे हैं? मुझे लगा कि मुझे ज़रूरत है कि कोई और व्यक्ति जो मुझसे ज़्यादा अनुभवी और समझदार हो, वो मुझे बता पाएँगे। इसलिए मैं आपको यह लिख रही हूँ।
मुझे सारे के सारे पन्ने पलट लेने के बाद भी समझ नहीं आया है कि आख़िर क्या है एक चिथड़ा सुख। दरअसल, पूरी किताब में बहुत कम ही बार सुख का ज़िक्र हुआ है। ज़्यादातर उदासी, गुमनामी और बेचैनी सी है। मुझे क़तई समझ नहीं आया जब बिट्टी कहती है कि वो बोना आदमी सुख में था या वो सुख था। कैसे? क्यों? मैं आपसे बात करना चाह रही हूँ कि क्या यह सिर्फ़ मेरे साथ हुआ है कि मुझे समझ ही नहीं आई ये किताब, जिसे सब हिंदी साहित्य की महत्त्वपूर्ण किताब कहते हैं या किन्ही और के साथ भी ऐसा हुआ है?
मुझे लगता है कि इस किताब का ज़्यादातर हिस्सा मेरे लिए बिलकुल साफ़ नहीं था लेकिन मैं फिर भी बार-बार इस किताब को पढ़ना चाह रही थी। हर एक चैप्टर के बाद रूक रही थी लेकिन फिर किसी दिन दोबारा अगला चैप्टर पढ़ना शुरु कर दे रही थी। मानो मुझे बिट्टी की बरसाती में जाकर चैन सा मिल रहा हो। जैसे वहाँ पर हर कोई वो हो सकता है जो वो होना चाहता है। बिट्टी की बरसाती एक ऐसी जगह हो जहां पर सब चुप-चाप आकर कुछ भी सोच सकते हैं और फिर जा सकते हैं। हर बार सोच रही थी कि शायद पूरी किताब होने पर मुझे कुछ समझ आएगा लेकिन किताब ख़त्म होने के बाद भी ऐसा ही जैसे मैं कमरे में हूँ और मेरे कमरे की दीवार पर भारी औंस जमा है और मुझे बाहर कुछ साफ़ नहीं दिखाई दे रहा।
ये ज़रुर है कि हर बार इसे पढ़कर मैं थोड़ा सा शांत थी। क्यों? मालूम नहीं। मुझे मुन्नू की आधी से ज़्यादा बातें समझ नहीं आई और फिर भी मैं चाहती कि मैं उसे पढ़ूँ। ऐसा लगता कि मुन्नू की तरह इनविसिबल होकर बिट्टी की ज़िंदगी को देखने में सुख है। लेकिन ये कैसे हो सकता है? बिट्टी ख़ुद हर जगह सुख की तलाश में है और वो जानती है कि सुख यूँही कहीं नहीं है, दिल्ली आ जाने में कुछ सुख नहीं है, डैरी के साथ होने या न होने में कोई सुख नहीं है, प्ले करने में शायद सुख हो…लेकिन जब वो बोने को सुख बोलती है तो इसका क्या मतलब है? वो बौना सुख कैसे है? क्या सुख ख़ुद को ख़त्म कर लेना है? क्या सुख वही बौना होना है? बिट्टी को बौना क्यों बनना था? बिट्टी आम नायिका नहीं है जो नायक के लिए सुख की किरण होती, जो नायक की उलझीं ज़िंदगी में आतीं है और उसे जीना सिखाती है, जो हर वक़्त हंसती है और किसी छोटी सी बात पर भी खुश होकर खिलखिला जाती है और फिर नायक उसकी ख़ुशी बरकरार करने की कोशिश करता है और उससे जीवन में खुश होना सीखता है…छोटी-छोटी बातों में चैन सीखता है…और चूँकि नायिका उसे ये सिखाती है तो उसे लगता है कि नायिका के साथ होना सुख है, प्रेम है। बिट्टी ऐसी क़तई नहीं है। बिट्टी तो शायद ही कभी मुस्कुराती है और वो किसी नायक को जीना भी नहीं सीखा रही। बरसाती, थिएटर और दिल्ली के रोड़ों के बीच में ख़ुद जीने का तरीक़ा ढूँढ रही है। हाँ, बिट्टी कुछ ढूँढ रही है…कुछ है जिसकी तलाश में वो दिल्ली आई है, जिसकी तलाश में जगह जगह पहुँच जाती है…जैसे उस बौने के पास…और जब उसे लगता है कि उसे कुछ नहीं मिल रहा तो वो रोड के साईनबोर्ड पर सिर लगाकर रोने लगती है या फिर बरसाती की रसोई में अकेले पीने लगती है। बिट्टी क्या सोचती है? ये मुन्नू भी नहीं जान पाया और मैं भी नहीं जान पा रही। लेकिन अक्सर लगता है कि बिट्टी के पास असीम दुख है, लेकिन ये कैसे हुआ? एक युवा लड़की के पास इतना दुख कहां से आया? एक युवा लड़की तो हमेशा आशा और उम्मीद से भरी होती है तो बिट्टी…..?
अक्सर, दुख जो है वो सच्चा लगता है और सुख झूठा…दुख में अपनापन भी लगता है, जैसे वो सच में है…ये छलावा नहीं है कि कल सुबह उठूँगी और यह नहीं होगा…यहीं होगा मेरे सिरहाने पर ही…लगता है मानो दुख साथ निभाता हो…सुख नहीं निभाता…सुख हर वक़्त मेरे पास में नहीं होता…सुख किसी के पास होने में होता है…किसी ख़ास घटना के होने पर होता है…किसी ख़ास जगह पर जाने से होता है…कुछ ख़ास मिलने पर होता है….शायद इसलिए सुख इतना कम है।
दुख, दुख किसी चीज़ के न होने में होता है…किसी चीज का न होना सच्चा है और इसलिए उससे उपजी भावना भी सच्ची है। कोई चीज तुम्हारे पास नहीं है तो कोई उसे तुमसे छीन नहीं सकता..और शायद इसलिए दुख का अस्तित्व सुख से ज़्यादा बड़ा है।
दुख में एक अपनापन है, एक यक़ीन है कि अब इससे बुरा कुछ नहीं हो सकता। सुख में हमेशा डर रहता है कि कल को ये नहीं होगा। सुख होकर भी सदा आने वाले दुख से डरता रहता है। क्या सबसे बुरा हो जाना सुख है? कि इसके बाद कुछ बुरा नहीं होगा? लेकिन जो बुरा हो रहा है उससे कैसे मुक्ति मिलेगी? क्या दुख को अपना लेना सुख है?
इसके बाद मुझे अपने आस-पास सबके चेहरे पर दुख ही दिखाई देता है। कितना आसान है दुख को पहचानना और ये निश्चितता से कहना कि ये दुख है…सुख के साथ ऐसा नहीं है, अगर कहीं किसी का मुस्कुराता चेहरा हम देख भी लें तो भी मन में सवाल उठता है कि क्या ये सच में सुख में है या फिर बस किसी बड़े दुख को छिपा रहा है। ऐसा क्यों हैं? हम सुख को लेकर इतने विस्मय में क्यों हैं? दुख सबके पास है, सुख न जाने किसके पास है? दुख भावहीनता में भी होता है लेकिन सुख, सुख शायद केवल मुस्कान में होता है जो कुछ क्षणों की होती है। क्या ये सच है? क्या सुख क्षणिक है? पता नहीं। बहुत सारे सवाल हैं लेकिन मुझे इनका जवाब इस किताब में नहीं मिला…शायद ये सवाल मिले हैं…शायद ये मुझमें पहले से थे।
क्या मुझे इस किताब में जवाब मिलने चाहिए थे?
मेघा मित्तल
हरियाणा के रोहतक में रहने वाली मेघा मित्तल ने दिल्ली विश्वविद्यालय के दिल्ली कालेज आफ आर्ट्स एंड कामर्स से पत्रकारिता की पढाई की है। छात्र- युवा संघर्षों में सक्रियता के साथ उन्वान सांस्कृतिक समूह बनाया जिसने फेसबुक पर अपने लाइव कार्यक्रमों की श्रृंखला से अलहदा पहचान कायम की है। इसी के साथ मेघा आकाशवाणी और दूरदर्शन के लिए कापी-राइटिंग व एंकरिंग करती रही हैं। वे हिन्दी के साथ अंग्रेजी में भी कविताएँ लिखती हैं।
संपर्क : (M) 8221870341
Email : meghamittal666@gmail.com
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जवाब देंहटाएंमैं मनहर जी की टिप्पणी से सहमति जताती हूं। बधाई मेघा, आपको इस पटल पर उत्तर मिल जाएंगे।
जवाब देंहटाएंयह भाषा की दार्शनिकतापूर्ण गूढ़ता है जो आकर्षक और रोचक तो लगती है किन्तु पाठक को किसी निष्कर्ष तक पहुँचने में बहुत उलझाती है |सिर्फ़ "एक चिथड़ा सुख" में ही नहीं "कौअे और काला पानी, लाल टीन की छत" और निर्मल वर्मा की अन्य कृतियों में भी भाषा की यह दार्शनिकतापूर्ण गूढ़ता प्राय: काव्यात्मक भी प्रतीत होती हैं | ऐसी भाषा पाठक को दुरूह भी लग सकती है और उबाऊ भी किन्तु बावज़ूद इसके पाठक उसके जादू में बंधता जाता है |
जवाब देंहटाएंजैसे प्यार में विरह का दुख भी सुख-सा प्रतीत होता है वैसे ही जीवन संघर्ष के दुख भी सुख की तरह ही लगते हैं | दुखों को सहेज कर रखने का सुख भी कम मूल्यवान नहीं है |
"दुख को बहुत सहेज कर रखना पड़ा हमें
सुख तो किसी कपूर की टिकिया-सा उड़ गया"
(दुष्यंत कुमार)
यही "एक चिथड़ा सुख" का प्राप्य मुझे लगता है |
इसी दार्शनिकतापूर्ण भाषा के बरतने का अभ्यस्त होने के कारण निर्मल वर्मा अाध्यात्मिक-से भी होने लगे थे और राम मंदिर आँदोलन के समर्थन में होने के कारण उन पर दक्षिणपंथी होने के आरोप भी लगे |
बहुत पहले पढ़ा था यह उपन्यास,सो बहुत विस्तार में नहीं जा सकता लेकिन मेघा ने वास्तव में अपनी सही जिज्ञासा सही मंच पर प्रस्तुत की है इतना कह सकता हूँ |
राजाराम के उत्तर ज़रूर पढ़ना चाहूँगा |