कविताएँ
मीमांसा में गरिमा की उपन्यासिका ने सुधी पाठकों का ध्यान आकृष्ट किया था। अब उनकी कविताएँ प्रस्तुत कर रहे हैं। इनमें अदृश्य शक्ति संरचनाओं की शिनाख्त की गयी है तो अभिव्यक्ति के अन्तसंघर्ष का भी बयान है। इन कविताओं मे सामाजिक संबंधों के क्षरण से उपजा विषाद है। साथ ही, बहुत कुछ ऐसा कहा गया है, जो स्रियों के संदर्भ में प्रायः अनकहा रह जाता है।
तृप्ति की खोज में
अतृप्तियों के दग्ध हृदय में
हूक सी उठती है तृप्ति की
एक लंबा कश खींचती हैं इच्छाएं
धुआं धुआं होते जाते हैं नियम उसूल
मर्यादाओं की पतली लकड़ियां
पकड़ लेती हैं चिंगारी
और धीरे धीरे रेंगते हुए खाक कर देती एक पूरा गांव
जो बच जाता है उस पर पड़े फफोले रिसते रहते हैं ताउम्र
खोजते एक सुकून की मलहम अनवरत।
लिख तो दूं मगर…
मैं लिख तो दूं मगर
पढ़ेगा कौन उसे?
क्या वही जो पहले से ही
वाकिफ है उससे
बस पिरो नहीं पाया शब्दों में
या पिरो पाया था किसी और ढब से
वो बांटेगा वाहवाही
और मुझे अपना कद थोड़ा और
ऊंचा लगने लगेगा
नीचे खून पसीने में लथपथ कुचले दबे अनभिज्ञ
लोट रहे होंगे वही जिन की आवाज़ बनने का दावा कर मैंने किला फतह किया
और उनकी जीवित मृतप्राय लाशों पे नंगा नाच कर रहे अपनी कुटिल मुस्कान का कंबल ओढ़े अत्याचारी बलशाली
के हाथ हो रहा होगा मेरा सम्मानमेरे जैसे हजारों को उंगली के इशारे से वह उठा गिरा सकता है हर रोज
खरीद फरोख्त कर सकता है सरे बाज़ार
क्या लिखूं?
मैं लिख तो दूं मगर….
अवसाद
वह एक शहर बनता जा रहा
वहां जाते जा रहे लोग
संभ्रांत, सुविज्ञ
जैसे गांव से पलायन कर
जाते रहे हैं पहले भी
होड़ की दौड़ में
फिर शहर तो शहर है
वहां अपनापा कहां, नीम की ठंडी छांव कहां, कोयल की कूक कहां, पड़ोस की हंसमुख काकी कहां
वहां तो शोर की उदास नीरवता है, अबोला है, पड़ोसी नहीं जानता पड़ोसी को
बस हर शाम एक जाम अकेले ही अकेले पीना है।
शहर नहीं, महानगर होता जा रहा
जहरीली धुंध में लिपटा
अवसाद का महानगर
जहां हर रोज़ जाते जा रहे ।
यक्ष प्रश्न
जिनकी विस्फारित आंखेंकितनी झक सफ़ेद लगती थीं
उनके बुझे बुझे स्याह चेहरों पर
और वैसी ही दन्तावली भी।
जिन्हें कैमरे में कैद
कर लिया मैंने
उनकी पतली टांगों
और मोटे खाली पेटों के साथ।
कई अलौलिक,अनुपम शब्दों
से गूढित कीलित
रेखाचित्र उकेरे कलम थाम के।
वाहवाही बटोरी, पुरुस्कार समेटे
भोज खाए, उचाईयां छुईं।
उन्हीं की दो सफेद आंखें
दप्प सी बुझी कहीं
और जड़ गईं जाकर आकाश में
फिर विस्फारित हो
करती हैं प्रश्न
कलम क्यों?
उन मरखन्ने हाथों की
कोई उंगली
क्यों ना थामी तुमने
बोलो ना क्यूं।
क्या बोलूं
मैं कमज़ोर हूं, बहुत कमज़ोर
और अब तो मेरी
कलम भी सूख गई है।
वर्जनाएँ
दिल तो अभी भी
फैल जाना चाहता है
सड़क पर ज़िद में कभी कभी
छपाक छपाक के
उड़ाना चाहता है कीचड़।
तंबई हो जाना चाहता है
धूलिधूसरित हो।
पर वो बुढ़ऊ दिमाग है ना
सिर पर सवार हमेशा
अनुशासन की बेंत थामे।
दुबकना पड़ता है
दिल को कोने में
जिंदगी की किताब में
मुंह छिपाए, बेमन से।
क्या करें!
अब सिर पर बुजुर्गों का
साया भी तो ज़रूरी है।
अब भूत नहीं होते
अब भूत नहीं होते
भूतकाल हो गया है
भूतों का होना।
आत्माएं भटकती थीं तब
स्थिरता थी जब जीवन में।
वे सरलता के ठहरे हुए
जल से तृप्त होने को
भटकती थीं।
अब नहीं भटकती आत्माएं।
भटकाव का आसव
सशरीर पी आई हैं वे
पहले ही।
अब प्रपंचों से दूर
बेसुध हो पड़ी रहती हैं
दुबक के
इधर उधर, यहां वहां
इसलिए तुम डरना मत
क्यूंकि अब नहीं भटकती आत्माएं,
अब भूत नहीं होते
भूतकाल हो गया है
भूतों का होना।
आशा और उलाहने
मैंने कब नदियों में
पैर डुबोए हैं?
मैं तो पहाड़ से लुढ़क
ना जाने
कब रेत में आ धंसी।
मिराजों के पीछे भागी हूं।
ना!
मैंने कभी बर्फ़ के पुतले
नहीं बनाए।
फिसलती रेत से
कभी न बनने वाले
महल बनाए हैं।
मेरी चूनर कभी
किसी फूलों की क्यारी
में नहीं जा उड़ी।
वह तो अक्सर कंटीली
किसी झाड़ी में फंस
चिर गई है।
मैंने कभी सागर से
सीपियां भी नहीं बटोरी।
कभी पैरों तले लहरों को
आते जाते महसूस
नहीं किया
रेत की वात्सल्य भरी
गोद में
धंसी रहती थी।
हाथ पहाड़ों को छू
नहीं पाते थे।
कद छोटा था ना
पैर सागर का तल
नहीं छूते थे।
अब कद बढ़ गया है
देखो!
अब उम्र का उलाहना मत देना।
पेंटिंग : यंग शन शुन
गरिमा जोशी पंत
अध्ययन के बाद अध्यापन
फिलहाल गृहिणी के दायित्व निर्वहन के साथ लेखन
सोशल मीडिया और प्रिन्ट में रचनाएँ प्रकाशित, दो पुस्तकों के अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद
संपर्क- 9826416847
राजाराम भादू सर , सरिता अरोड़ा जी एवं टीम मीमांसा का बहुत बहुत धन्यवाद।
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