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उत्तर- आधुनिकता के अन्तर्विरोध



उत्तर- आधुनिकता को लेकर भारत में और विशेष रूप से हिन्दी- क्षेत्र में बहुत भ्रम और आकर्षण है। सामान्यतः हमारे पास इसको लेकर बहुत आधी- अधूरी सूचनाएं हैं। ज्यादातर तो उत्तर- आधुनिकता की चर्चा बतौर फैशन की जाती है, उसे लेकर कोई गंभीर चिंतन और चिंता हमारे यहां लगभग अनुपस्थित है। इस संदर्भ में हम इस खतरनाक भ्रम पर कुछ विचार करना चाहेंगे।




वास्तव में, उत्तर- आधुनिकता कोई एक विशिष्ट चिंतन- सरणि या विचारणा नहीं है, यह उत्तर- आधुनिक पाश्चात्य समाजों की विभिन्न चिंतन- सरणियों के एक समग्र दौर का नाम है। यह समय- विभाजन को, उसमें आए समस्त परिवर्तनकारी कारकों के परिप्रेक्ष्य को ठीक से समझने के लिए दी गयी एक संज्ञा है। पिछले दशकों में यूरोप में चिंतन, संस्कृति और सृजनात्मकता के क्षेत्र में ढेर सारी प्रवृत्तियाँ उभरीं। इन प्रवृत्तियों को उत्तर आधुनिकता की संज्ञा से अभिहित किया गया।


उत्तर- आधुनिकता यदि एक विशिष्ट जीवन- दृष्टि है तो इस अर्थ में कि इसमें उत्तर- औद्योगिक दौर की उन्नत सभ्यताओं की प्रमुख लाक्षणिकताएं- उच्च तकनीक, वैश्विक बाजार, नव- उपनिवेशवाद और आर्थिक उदारीकरण तथा विश्व स्तर पर संस्कृतियों के द्वंद्व और संक्रमण केन्द्रीय सरोकार हैं।


उत्तर- आधुनिकता यदि ज्ञान की अवस्था के बदल जाने की आत्म- स्वीकृति है तो यह भी कहा गया है कि उसकी एक निश्चित व्याख्या और संरचनावादी ढंग का ऐतिहासिक सूत्रीकरण असंभव है। सामान्यतः इसे विचारधाराओं की उत्तर- आधुनिक रणभूमि माना गया है। मिशेल फूको ने सार्वभौमिकता और समग्रता का विरोध किया और विशिष्टता, फर्क, क्रमहीनता, इतिहास का अंत और वि- निरंतरता आदि की अवधारणाएं दीं।


सरलीकृत रूप से देखें तो उत्तर- आधुनिकता के चिंतन और संस्कृति के क्षेत्र में दो रूप हैं- निषेध और रचनात्मकता। मैक्स वेबर ने उत्तर- आधुनिक विचारों की समीक्षा के लिए बौद्धीकरण के सिद्धांत पर जोर दिया। दूसरी ओर अनेक संरचनावादी विचारक इस सारे उपक्रम को भाषाओं का खेल ही मानते रहे। उनके अनुसार संक्षेप में संस्कृति और उसके गूढार्थ को संप्रेषित करती हुई भाषा, यह दोनों ही आन्तरिक वैधता पर आधारित हैं। अतः जितनी संस्कृतियाँ, उतनी ही प्रकार की परंपराएं हैं। हर परंपरा का अपना स्व है। लेकिन इसी की प्रतिक्रिया में यह विखंडनवादी विचार है कि वह परंपरा जीवित है या मृत। वह परंपरा है या महज रूढि अथवा मिथ।


उत्तर- आधुनिक चिंतन की विभिन्न सरणियों को देखने पर शायद इस बात से सहमत हुआ जा सके कि उत्तर- आधुनिकता विसंगतियों का रेखांकन भी है और एक प्रकार से उन विसंगतियों का विस्तार भी। लेकिन ( अभी तक) यह किसी प्रकार का समाधान नहीं है। उत्तर- आधुनिकता ने एक केन्द्र- विहीनता की स्थिति उत्पन्न की है। समाधान जीवन- शैली और विचारों की अराजकता में नहीं है।


यह तो तय है कि अब तक हमारी प्रतिश्रुति का क्षेत्र यूरोप था, अब समूचा भूमंडल है जिसमें हम शामिल हैं- इसे उत्तर- आधुनिकता का ताजा परिदृश्य स्वीकार किया जा सकता है। लेकिन समस्या पश्चिमी सांस्कृतिक प्रभुत्व को लेकर है- नव- उपनिवेशवाद जिसका अनुकरण करता है। एजाज अहमद इस स्थिति का दुधुर्ष प्रतिवाद करते रहे हैं। उनका कहना है कि तृतीय विश्व के समाज तथा पश्चिम भी एक बहुत ही अनाकार चीज हैं। हमें सौंदर्यपरक उत्तर- आधुनिकतावाद को अपने वैश्वीकरण के समय की एक उत्तर- अमेरिकी पद्धति मानकर व्यवहार करना होगा। एजाज अहमद गेटे और मार्क्स जैसे महान चिंतकों की कृतियों के वैश्वीकरण को जरूरी मानते हैं। उन्हें शायद विटगेन्सटाइन जैसे विचारकों के प्रसार से भी एतराज न हो जो भाषा के माध्यम से बौद्धिक मायावाद के विरुद्ध एक लड़ाई लडते हैं और जिसे ओक्टोवियो पाज ने रेखांकित किया है। एजाज अहमद वैश्वीकरण से डरे हुए भी नहीं हैं क्योंकि उन्हें भरोसा है कि मनुष्य इस सभ्यता की बर्बरताओं के प्रति होश में आने एवं एक बेहतर सार्विकता का निर्माण करने में पूरी तरह सक्षम है। लेकिन साथ ही वे राष्ट्रीय पर भी उतना ही जोर देते हैं। एजाज अहमद के अनुसार, आप इससे कतरा कर नहीं जा सकते, आपको इसमें से होकर गुजरना होगा, इसमें से गुजरकर ही अपना रास्ता बनाना होगा।    




एक और गंभीर भ्रम हमारे यहां इस बात को लेकर है कि उत्तर- आधुनिकता एक वैचारिक संघर्ष है या विमर्श। हमारे यहां उत्तर- आधुनिकता को प्रसन्नतापूर्वक विमर्श मानने वालों की तादाद अच्छी खासी है। ये वे लोग हैं जो या तो वैचारिक संघर्ष से कतराते रहे हैं अथवा उससे आजिज आ गये हैं। विमर्श यानी ऐसा द्वंद्व- रहित और सौहार्दपूर्ण संवाद जिससे कुछ विकसित हो सकता हो। इसीलिए शायद इन्हें विमर्श और उत्तर- आधुनिकता बहुत आकर्षित करते हैं। लेकिन क्या सच में उत्तर- आधुनिकता एक वैचारिक संघर्ष न होकर सिर्फ विमर्श है? इसके लिए हम यहां केवल तीन चर्चित कृतियों के शीर्षक देना चाहते हैं जिनसे उत्तर-आधुनिकता का वैचारिक संघर्ष होना ध्वनित होता है : रिपीटीशंस- पोस्ट माडर्न अ क्वेश्चन इन लिटरेचर एंड कल्चर- विलियम वी. स्पेनोस, नाइटींथ सेंचुरी आइडियलिज्म एंड ट्वेन्टींथ सेन्चुरी टैक्स्टुअलिज्म- रिचर्ड रोर्टी, शिलर टू देरिदा- आइडियलिज्म इन ऐस्थेटिक्स- जूलियट सिचरावा। ये कृतियाँ उत्तर-आधुनिकता की क्रमशः पुनरावृत्ति मात्र होने, पुरानेपन और भाववादी होने की सीमाएँ मानकर की गयी गंभीर आलोचनाएँ हैं। यहां हम यह और उल्लेख करना चाहेंगे कि ये तीनों लेखक गैर- मार्क्सवादी हैं। उत्तर- आधुनिकता को लेकर मार्क्सवादी समझ की संक्षिप्त चर्चा हम आगे करेंगे।


इसी भांति एक प्रश्न यह है कि उत्तर- आधुनिकता परिप्रेक्ष्य है या एक स्थिर परिदृश्य। इस पर यही कहना पर्याप्त होगा कि जैसे- जैसे परिदृश्य का कुहासा साफ होता जा रहा है, यह समझ मजबूत होती जा रही है कि उत्तर- आधुनिकता परिप्रेक्ष्य और परिदृश्य दोनों एक साथ है, विशेष रूप से चिंतन का परिप्रेक्ष्य और संस्कृति का परिदृश्य- सतत् गतिशील अवस्था में।


उत्तर- आधुनिकतावादी चिंतन की विज्ञान की अधुनातन धारणाओं से भी पारस्परिक संगति नहीं है। विज्ञान के दार्शनिक साहित्य में इसे इनकमेन्सुरेबिलिटी आफ थियरीज कहते हैं। ( खुद विज्ञान में जो सैद्धांतिक असंगतियां हैं।) लियोतार्द का यह मत है कि अब विज्ञान का लक्ष्य शक्ति का संग्रह है और यह संग्रह व्यावहारिक प्रक्रियाओं की कुशलता पर आधारित है और इसको गति प्रदान कर रही है पूंजीवाद की अधुनातन स्थिति। इसी तरह उत्तर- आधुनिकता ने आर्थिक वृद्धि और विकास के भेद को स्पष्ट किया है। विकास की अवधारणा विकसित और विकासशील देशों के लिए परस्पर बिल्कुल उलट है। आर्थिक समृद्धि में अबाध वृद्धि मानव- विकास का पर्याय नहीं है। यह बात पहले से ज्यादा साफ हुई है। शायद इसीलिए लगभग चार दशक पहले लिखी शूमाखर की किताब- स्माल इज ब्यूटीफुल- एकाएक महत्वपूर्ण हो उठी है।


अब हम अपेक्षाकृत विवादास्पद विषय पर आते हैं अर्थात उत्तर-आधुनिकता और मार्क्सवाद। पूर्वी यूरोप और सोवियत संघ की समाजवादी व्यवस्थाओं के पतन के बाद मार्क्सवाद को लेकर जडता और संशय की स्थिति इधर क्रमशः व्यापक स्तर पर और तेजी से टूटती गयी है।


जेम्सन एक मार्क्सवादी चिंतक हैं। यहाँ हम उत्तर- आधुनिकता के दौर के उनके शुरूआती चिंतन से कुछ टिप्पणियां उद्धृत करना चाहेंगे। उन्होंने अर्नेस्ट मेण्डेल की व्याख्या का अनुसरण करते हुए पूंजीवादी समाज की तीन अवस्थाओं का उल्लेख किया है। उनके अनुसार पूंजीवादी व्यवस्था का प्रारंभिक चरण है- बाजार का पूंजीवाद, दूसरा चरण है- एक छत्राधिकार पर आधारित पूंजीवाद और तीसरा चरण है- बहुराष्ट्रीय पूंजीवाद। इन्हीं आर्थिक अवस्थाओं के समानांतर जेम्सन मानते हैं कि संस्कृति के विकास की तीसरी अवस्था है- उत्तर- आधुनिकतावाद, जिसके अन्तर्गत व्यवसाय का सांस्कृतिकीकरण या संस्कृति का व्यवसायीकरण होता है। जेम्सन सांस्कृतिकीकरण की प्रक्रिया को कुछ इस तरह देखते हैं,... पहला- विभिन्न जीवन शैलियों का प्रचार- प्रसार, दूसरा- इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और विज्ञापन संस्कृति का अटूट सम्बन्ध और तज्जनित सार्वभौम मानकीकरण। जेम्सन कहते हैं कि सार्वभौमिकरण की अवस्था में प्रच्छन्न रूप में यूरो- सेन्ट्रिसिटी अथवा यूरोप- केन्द्रित व्यामोह व्याप्त है। उनके अनुसार नव- उपनिवेशवाद उस मानसिक दारिद्रय को रेखांकित करता है जो सार्वभौमिकरण के आवरण में छुपा है। जेम्सन ने पूंजीवादी समाज के अन्तर्विरोधों का ही विस्तार नव- उपनिवेशवाद में देखा है। इससे यह लगता है उत्तर- आधुनिकता वर्तमान चुनौतियों और समस्याओं का समाधान नहीं है।


जेम्सन के बाद उत्तर- आधुनिकतावादी विचार- सरणियों को चुनौती मानते हुए मार्क्सवादी चिंतकों ने इस सिलसिले को लगातार आगे बढाया है। इस दौरान मार्क्सवाद के अन्तर्विरोधों की भी गहन समीक्षा की गयी है और उसे मुकम्मिल तथा ऊर्जावान बनाने की कोशिशें जारी हैं। रेमंड विलियम्स और डेविड मैक्नेली अपनी अगेन्स्ट दि मार्केट: पालिटिकल इकोनामी, मार्केट सोशलिज्म एंड मार्क्सिस्ट क्रिटिक(1993) में संरचनावादियों के भाषा के खेल का प्रत्युत्तर देते हुए भाषा के वर्गीय निहितार्थों और सांस्कृतिक चरित्र का विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं। यही नहीं, ग्राम्शी और  नोम चोम्स्की जैसे लगभग बिसराये हुए मार्क्सवादी चिंतक एकाएक आम तौर पर प्रासंगिक हो उठे हैं। उत्तर- आधुनिकता ने पाश्चात्य समाजों की अत्याधुनिक छिछली जीवन शैली पर प्रहार किया है ।  




भारतीय समाज कई संस्तरों पर एक साथ जी रहा है। अपने यहां बहुत कुछ पूर्व- आधुनिक स्थितियां मौजूद हैं, जैसा कि विकासशील देशों के संबंध में हैबरमास कहते हैं- आधुनिकता की परियोजना ( यहां) पूरी नहीं हो पायी, अधूरी पडी है। तो एक ओर तो यह स्थिति है, दूसरी तरफ सांस्कृतिक स्तर पर गहरे अन्तर्विरोध हैं। यहाँ एक साथ प्राचीनता के लिए विरह है तो यूरो- अमेरिकन जीवन शैली ( अपसंस्कृत रूप में) के प्रति तीव्र आकर्षण है।


आधुनिकता का वाहक था पुराना उत्थानशील मध्यमवर्ग, जबकि उत्तर- आधुनिकता का वाहक है गलत तरीकों से फलते- फूलते नव- धनाड्यों का उपभोक्ता समाज। इस उत्तर- आधुनिक समाज का क्रमशः उच्च और निम्न मध्यवर्ग अनुकरण करते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि पूर्व में मध्यवर्ग ने आधुनिकता को एक सौंदर्यबोधात्मक और मूल्यपरक अवधारणा के रूप में ग्रहण नहीं किया बल्कि फैशन- डिजाइन की तरह सिर्फ एक जीवन शैली के रूप में अपनाया। नव- धनाड्य वर्ग भी उत्तर- आधुनिकता के चिंतन से विछिन्न जीवन शैली तक सीमित है- एक अनुकरण- धर्मा एकांगी सांस्कृतिक उपक्रम के रूप में।


इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो भारतीय संदर्भ में उत्तर- आधुनिक चिंतन एक दोहरा और चुनौतीपूर्ण कार्यभार है जिसमें उसके दोनों पहलुओं- निषेध और रचनात्मकता - की ऐतिहासिक भूमिका है। पहला कार्यभार है ; पूर्व- आधुनिक रूपों ( जिसमें सामंती अवशेष शामिल हैं।) का ध्वंस ( डिकंस्ट्रक्शन) और आधुनिकता ( एक सौंदर्यबोधात्मक और मूल्यपरक अवधारणा के रूप में) का अग्रगामी विकास ( रिकंस्ट्रक्शन)। दूसरा कार्यभार है; उत्तर- आधुनिक चिंतन में हमारी शिरकत हमारी अपनी जमीन ( दार्शनिक पृष्ठभूमि) पर खड़े हुए बगैर नहीं हो सकती। इस प्रसंग में शंभुनाथ ठीक कहते हैं, आधुनिकता एक सार्वभौम मामला होने के साथ, यूरोपीय विकासों से प्रभावित मामला होने के बावजूद, स्थानीय खोज भी है।


यही शायद उत्तर- आधुनिकता की हमारे लिए प्रासंगिकता का आधार है जिसमें गुजरकर हम उतने डरे हुए नहीं रहते जितना कि एक कनाडावासी रहता है, यह सोचकर यदि विकासशील देशों में अपनी जगह बना पाने में उसके देश की बहुराष्ट्रीय कंपनियां पिछड गयीं तो क्या होगा क्योंकि वह तो सारा कुछ खरीद चुका, वह केवल और अधिक उत्पादन कर सकता है और उसकी आमदनी उन उत्पादों के खरीदने और बेचे जाने पर निर्भर है जिनका बाजार सिर्फ और सिर्फ विकासशील देश हैं। विकासशील देशों का भविष्य का उपभोक्ता बाजार उनके भविष्य की संभावना है- इसलिए वह यहां प्रतिरोध की हर आवाज से भयभीत हो उठता है और असंतोष को दबाने के हर सामाजिक प्रयास को अनुदान देने का प्रयत्न करता है। क्या यही वजह नहीं है कि उत्तर- आधुनिकतावाद पर्यावरण- रक्षा, स्वाधीनता, नस्लभेद विरोधी संघर्ष और कुछ दूसरे तीखे संघर्षों से तटस्थ नहीं रह पाया है।  


हो सकता है उत्तर- आधुनिकतावादी चिंतन से गुजरते हुए आपको शूमांखरं की पुस्तक स्माल इज ब्यूटीफुल ज्यादा महत्वपूर्ण न लगे और गांधी याद आयें लेकिन, निष्कर्षत: , एजाज अहमद को हम यहां दोहराना चाहेंगे ; इसमें से कुछ का आप अपने प्रयोजनों के लिए उपयोग कर सकते हैं या नहीं भी कर सकते, पर पहले आपको इसकी प्रकृति को ठीक- ठीक समझना होगा।











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