शोध
कथौडी एक ऐसी जनजाति है जो अन्य जनजातियों से तुलनात्मक रूप से पिछड़ी और उपेक्षित है। यह अल्पसंख्यक जनजाति महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान के कुछ अंचलों में छितरायी हुई है। दक्षिण राजस्थान में इनके हालात प्रस्तुत कर रही हैं अध्येता सुचेता सिंह।
दक्षिण राजस्थान के आदिवासी क्षेत्र में कथौड़ी जनजाति है जो वहां रहने वाली जनजातियों में सबसे कम संख्या में है। एक शोध रिपोर्ट के अनुसार इस जनजाति समुदाय की वृद्धि दर दशक वार घट रही है। 'ये लोग कैथ के पेड़ से कत्था निकालने का काम करते थे जो पान में लगाया जाता है इसलिए इनका नाम कथौड़ी पड़ा।' वैसे ये लोग कत्था बनाने के साथ-साथ बहुत से वन सम्बन्धी कार्य करते हैं, जैसे-बांस कटाई एवं दुलाई, वृक्ष कटाई, वन उपज संग्रहण, वन्य जीव आखेट, हाथ औजार निर्माण तथा वन औषध उपचार आदि।
राजस्थान में इन लोगों का इतिहास कोई अधिक पुराना नहीं है। इन्हे महाराष्ट्र से इस क्षेत्र में कत्था उत्पादन और वन कटाई के लिए लाया गया। ऐसा अनुमान है कि जंगल के ठेकेदार इन्हे कोंकण महाराष्ट्र से यहां लेकर आये। ऐसा लगता है कि पूर्व में भी ये घुमक्कड़ जीवन जीते थे। इनकी बसाहटें महाराष्ट्र और गुजरात में हैं। उदयपुर के सीमांत पर अरावली पहाड़ियों में स्थित फुलवारी की नाल के सभी आठ वन क्षेत्रों में कथौड़ी परिवार बस गये। इनका परिवार पूरी तरह वनों पर आश्रित हो गया। 1983 में फुलवारी की नाल को 'अभयारण्य' घोषित कर दिया गया। ये लोग अपने जीवन निर्वाह हेतु वन उपज, शिकार, जड़ी बूटी आदि इसी जंगल से प्राप्त करते थे। औरतें वनों की लकड़ियां लाकर ईंधन के रूप में आसपास के गांव में बेचती थीं। फुलवारी की नाल के वन्य जीव अभयारण्य घोषित होने के बाद ये सभी चीजें गैर कानूनी हो गयी।
इस स्थिति ने इन्हे फिर से घुमक्कड़ जीवन जीने पर मजबूर कर दिया। अभी ये लोग अर्ध-धूमंतू जीवन बसर करते हैं वर्षा के तीन माह और महुए की फसल के दौरान करीब एक माह ये अपने गांव में रहते हैं। शेष आठ माह ये लोग रोजगार की तलाश में राजसमंद जिले के बेलवा मार्बल खनन क्षेत्र, उदयपुर के बाबरमल खनन एरिया और उत्तरी गुजरात के कृषि फार्मों की ओर पलायन कर जाते हैं नतीजतन ये भी ऐसे और मजदूरों की तरह मालिकों से अग्रिम राशि या कर्ज लेकर शोषण के चक्र में फंसे हैं।
कथौड़़ी समूह में रहते हैं और अक्सर समूहों में ही मजदूरी करने वन क्षेत्र के मध्य या उसके निकट छोटी-छोटी घास-फुंस की झोंपड़ियों बनाकर रहते हैं। अक्सर ये झोंपड़िया बांस की होती हैं और इतनी छोटी व नीची होती हैं कि इनमें झुककर घुसना पड़ता है। आठ-गुणा छह आकार और छह-सात फीट ऊंचाई की इन झोंपडियों के एक खण्ड को डागला कहते हैं जो सोने का स्थान होता है। इधर कुछ परिवार पत्थर-मिट्टी और खपरैल के बने मकानों में रहते हैं।सरकारी योजनाओं में कुछ आवास सूने पड़े देखे जा सकते हैं। इनके परिवार में पांच से दस तक सदस्य होते हैं। सामान के नाम पर इनके झोंपडों में एक दो गूदड़े तथा कुछ फटे-पुराने कपड़े व चन्द मिट्टी व एल्युम्युनियम बर्तन नजर आते हैं।
कथौड़ी प्रायः अपने सभी हाथ उपकरण लकड़ी तथा पत्थर से स्वयं ही बनाते हैं जिनमें रसोई में या अन्य कामों में आने वाले उपकरण भी शामिल हैं। ये हेतरी नामक वृक्ष के सूखे पत्ते से बीडी बनाकर पीते हैं। उसके लिए तम्बाकू अपने साथ रखते हैं। ये लोग मांसाहारी हैं तथा मृत पशु का मांस खाने के साथ-साथ उसे सुखाकर संग्रहित भी कर लेते हैं जो कि बाद में काम आता है। जंगली जानवरों में खरगोश, सफेद चूहे, गिलहरी व बंदर का मांस खाते हैं। ये मछली के भी शौकीन हैं। वैसे अन्य विषहीन तथा हानि रहित जीव-जन्तु व पशु पक्षियों का भी ये लोग शिकार करते हैं। मांस के अलावा ये लोग वही रूखा-सूखा भोजन कर पाते हैं। जो गरीब समुदायों का खाद्य हैं, जैसे- मक्का की रोटी, मिरची, मक्का का दलिया, छाछ इत्यादि ।
कथौडी आपस में कोई ऊंच-नीच या भेद नहीं करते तथा अक्सर सामुदायिक रूप से मिल बांटकर खाते पीते तथा जीवन व्यतीत करते हैं। वैसे इनके वोक्या और डुकर नाम से दो कबीले हैं लेकिन इनमें ज्यादा अंतर नहीं हैं। इनके अपने लोक देवता हैं जिनकी नवरात्रि, होली और दीवाली जैसे पर्वो पर पूजा होती है। अन्य आदिवासी समुदायों से विपरीत इनमें कोई भगत या गुरू नहीं होता।
कथौड़ी संगीत और नृत्य के भी शौकीन होते हैं तथा विभिन्न त्यौहारों एवं विवाह के अवसर पर खूब खाते-पीते व नाचते हैं। इनके अपने स्वयं निर्मित वादय यंत्र होते हैं जिन्हें पावड़ी (जो बांस का बना होता है) तथा तारपी (तुम्बे की बनी) कहते हैं। ये लोग अब ढोल का भी प्रयोग करने लगे हैं। इनका गीत - संगीत अलग ही होता है जो अभी तक क्षेत्रीय प्रभाव से मुक्त है। इनका पहनावा सादा है। पुरूष धोती को लंगोटी की तरह पहनते हैं। युवक पैंट- शर्ट पहनने लगे हैं।आभूषण के नाम पर ये लोग कुदरती पत्थर तथा कांच के मोती को धारण कर लेते हैं। नयी पीढ़ी हाट-बाजार के सस्ते आभूषण प्रयोग करने लगी है।कथौडियों की विवाह-प्रणाली सीधी-सादी है। इनकी बारात जब चलती है तो बाराती शराब पीते नाचते-गाते चलते हैं। विवाह बडे-बुजुर्गो की राय से तय किये जाते हैं। विवाह में वर पक्ष को कन्या की एवज में कुछ राशि देनी पड़ती है जिसे दापा कहते हैं। कन्या और वर पक्ष के बीच वर-वधू के वस्त्रों का आदान-प्रदान होता है। विवाह के बाद लड़का अपनी ससुराल में रहता है तथा बच्चे हो जाने पर अलग रहने लगता हैं। इनमें एक पुरूष एक से अधिक पत्नियां रख सकता है तथा पति-पत्नी में से कोई भी अपनी इच्छा से एक-दूसरे का त्याग कर सकता है। इस समुदाय की महिलाएं और भी पिछड़ी हैं। इनमें से सिर्फ एक महिला पंच (चुनी हुई जन प्रतिनिधि) थी ।
कथौड़ी समुदाय में अंतिम संस्कार मृतक को दफना कर किया जाता है। पहले मृतक की जमा-पूंजी भी उसके साथ गाढ़ दी जाती थी। लेकिन अब सम्पति का कोई प्रतीक उसके साथ गाढ़ते हैं। मृत्यु भोज जैसी प्रथा इनमें नहीं है लेकिन सामूहिक शोक मनाने का चलन है । उदयपुर के कोटड़ा, झाडौल और सराडा विकास खण्डों में कथौडियों के करीबन एक हजार परिवार हैं जिनकी जनसंख्या चार हजार से कम ही हैं। ये परिवार झाडौल के डैया, अम्बासा और अभ्वादी तथा कोटडा के समीजा और मादड जैसी आबादियों में बसे हैं। केंद्र और राज्य सरकार ने इन्हें कुछ योजनाओं और कार्यक्रमों से जोड़ने का प्रयास किया है लेकिन इसके लिए अपेक्षित दक्षताओं और कौशलों का विकास इन लोगों में नहीं किया गया। इसके चलते इन्हे मिले ऋण या अनुदान कोई फायदा नहीं मिला। इनके पास थोड़ी भूमि भी है किन्तु उस पर आधुनिक तरीके से खेती करने में ये सक्षम नहीं हैं। इन समुदायों को मुख्य धारा में लाने के विशेष प्रयासों की जरूरत है। जाहिर है कि जो समुदाय आर्थिक-सामाजिक रूप से जितना पिछड़ा है, वह शैक्षिक रूप से भी उतना ही पीछे होगा। कथौड़ी समुदाय का अन्य समुदायों से, जिनमें आदिवासी समुदाय भी शामिल हैं, सम्बन्ध जीवंत और अन्तक्रियात्मक नहीं रहा है। अभी हाल तक इनकी स्थिति अछूतों जैसी रही है। इस परिदृश्य में इनमें अपने प्रति हीनता की भावना स्वाभाविक है। यही भावना इनके बच्चों में ही आ गयी है। कथौड़ी बच्चे स्कूलों में अलगाव और अपेक्षा अनुभव करते हैं। राज्य सरकार द्वारा संचालित एक छात्रावास से कथौड़ी बच्चे अक्सर घर भाग जाते हैं। अरावली वालंटियर सोसायटी कथौड़ी बालिकाओं के लिए एक आवासीय छात्रावास संचालित कर रही है। अभी भी ऐसे कथौड़ी बच्चों की एक बड़ी संख्या है जो स्कूल से बाहर हैं।
सुचेता सिंह ( 1976 ) ने एम फिल (2009) और पीएचडी ( 2016) समाजशास्त्र में पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ से की। वे जयपुर के विकास अध्ययन संस्थान में भी काम कर चुकी हैं। उन्होंने देश- विदेश के अकादमिक संस्थानों में पत्र प्रस्तुत किये हैं तथा कई लेख प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। वर्तमान में पंजाब विश्वविद्यालय के सोशल एक्सक्लूजन एंड इंक्ल्युजन स्टडी सेन्टर में कार्यरत।
संपर्क : 9855554010
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