प्रो. लालबहादुर वर्मा का असमय जाना बहुतों की तरह मेरे लिए भी वैयक्तिक क्षति है क्योंकि मेरे लिए भी वे मेन्टर व गाइड की तरह रहे, हालांकि मैं उनसे उतना संपर्क- संवाद में नहीं था। उनके साथ मेरी कुकुछीना की स्मृतियाँ अहम रही हैं, जहाँ मैं ने उन्हें कई रंगतों में देखा। वहाँ वे हरेक से व्यक्तिगत आत्मीय बातचीत कर रहे थे। सबसे हंसी- मजाक करते बोल- बतिया रहे थे तो कोरस में गा रहे थे और मधुर धुनों पर समूह- नृत्य में भी भागीदारी कर रहे थे। वे जितनी चिन्ता से प्रबंधन की छोटी- छोटी जिम्मेदारियां संभाल रहे थे तो उतनी ही गंभीरता से विभिन्न सत्रों का संयोजन देख रहे थे। उनके उद्बोधन तो सदा अनुप्राणित करने वाले होते ही थे।
उत्तराखण्ड की दूनागिरि पर्वतमाला में यह सुरम्य स्थान वर्मा जी ने ही खोजा था। कभी यूं ही भ्रमण करते वे इधर आ निकले थे और यह जगह उन्हें इतनी भायी कि अगले वर्ष से यहां मित्रों का एक समागम करने का तय किया जो तीन बार आयोजित किया गया। इसे मूर्त रूप देने में कुकुछीना के नेत्र वल्लभ जोशी का विशेष योगदान रहा। कुकुछीना को दो तरफ से घेरे दूनागिरि पर्वत के एक सिरे पर महावतार बाबाजी की गुफा है जिसे परमहंस योगानन्द ने अपनी ओटोबायोग्राफी आफ ए योगी के जरिए देश- विदेश में विख्यात कर दिया है। जोशी जी के घर से यह पहाड करीब एक किलोमीटर दूर है जहां से इतनी ही चढ़ाई पर गुफा स्थित है। गुफा की चाबी जोशी के ही पास रहती थी, उनके छोटे भाई गुफा की देखभाल और दैनिक दीप- प्रज्वलन की जिम्मेदारी निभाते थे। विदेश से एक शोधार्थी उन दिनों आयी हुई थीं जो जोशी जी के यहां ही ठहरी थीं। जोशी जी ने उनका परिचय वर्मा जी से कराया। उन्हे वर्मा जी का यह विचार इतना अच्छा लगा कि उन्होने भी उन्ही दिनों भारत आना तय किया। जोशी जी अपने घर के ऊपर एक स्कूल चलाते थे जो गर्मियों की छुट्टियों में खाली रहता था। तो यहां प्रति वर्ष यह समागम आयोजित हो रहा था।
मुझे तीसरे समागम ( मई- २००५) का आमंत्रण जबलपुर से रवीन्द्र शुक्ला ने दिया। इस समागम में कुछ नया सोचने करने वाले लोगों को बुलाया जाता था। अगली बार कुछ पिछले छूट जाते थे तो नये जुड जाते थे। शिक्षा- संस्कृति के क्षेत्र से मुझे नोटिस किया गया था। अन्यथा तब तक मैं वर्मा जी और रवीन्द्र शुक्ला को सीधे नहीं जानता था। बहरहाल, वर्मा जी बड़ी गर्मजोशी से मिले। रवीन्द्र की पत्नी भारती शिक्षा में अध्ययन- लेखन करती थीं, वे भी वहाँ थी। इतिहास के अध्येता हितेन्द्र पटेल, कवि- गीतकार अंशु मालवीय और वाणी शरद भागीदार थे। जे. कृष्णमूर्ति फाउन्डेशन के एक युवा और बनारस से एक दृष्टिहीन गायक- संगीतकार अपने युवा शिष्य के साथ आये थे। ग्वालियर से एक आयुर्वेदाचार्य थे। ऐसे विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय दर्जन भर से अधिक लोग समागम में एकत्रित हुए। मैं अपने मित्र कपिलेश भोज को बुलाना चाहता था। जोशी जी से पूछा तो पता चला कि उन्हें बुलाया भी गया था। मैं ने उन्हें आग्रह किया, वे एक अन्य साथी के साथ अगले दिन सोमेश्वर से आ गये।
प्रत्येक सुबह चर्चा का एक सत्र होता था जिसमें किसी एक विषय पर दो- तीन लोग अपनी बात रखते थे, फिर उस पर खुली चर्चा होती थी। हर सत्र में उत्तराखण्ड के लोगों की भी सक्रिय हिस्सेदारी रहती थी। उन्हें नेत्रवल्लभ जोशी ने आमंत्रित किया था। उनमें भी कई अपने क्षेत्र के गहरे जानकार और एक्टिविस्ट थे। असल में जोशी का वहां बहुत सम्मान था। एक दिन पहाड के संपादक शेखर पाठक आये। सत्र के बाद मैं ने अनौपचारिक बातचीत में कहा कि आप तो उत्तराखण्ड के इनसाइक्लोपीडिया हैं। उन्होंने विनम्रता से कहा, मैं कहां और वहाँ के तीन- चार लोगों के बारे में बताया जो वनस्पतियों, वन- औषधियों और जीव- जन्तुओं के बारे में विशद् जानकारियां रखते थे। सत्र के बाद अपनी इच्छानुसार आपस में बात करने, गीत- संगीत के आयोजन, रचना- पाठ अथवा भ्रमण के लिए छूट रहती थी। वर्मा जी का यही कहना था कि हमें सब कुछ नया सोचना और नयी तरह करना होगा। युवाओं से उन्हें ज्यादा अपेक्षाएं थीं। आगे इतिहास- बोध भी उन्होंने युवा- केन्द्रित किया। विदेशी अध्येता सत्र की बातें बडे ध्यान से सुनतीं, जिनसे प्रभावित होतीं उनसे व्यक्तिगत संवाद करतीं। बाकी वह गुफा में ध्यान और अपने शोध के सिलसिले में व्यस्त रहतीं।
यह कार्यक्रम वैसे तो एक सप्ताह के लिए था लेकिन कोई चाहता तो निजी तौर पर और रह सकता था। हम लोग जोशी के स्कूल के कमरों में ठहरे थे। उनकी दो बेटियां जो यह स्कूल चलाती थीं, वही सारी व्यवस्थाएं भी संभालती थीं। वर्मा जी और विदेशी युवती उन्हें मशविरा देती रहती थीं। हम लोग पास के गाँव भी जाकर आये। जोशी जी के घर के पास सड़क थोडी मुड गयी थी। द्वाराहाट से आने वाली बस वहीं मुडकर खड़ी हो जाती थी। यहीं जोशी के घर के बाहर की तरफ एक किराने की दुकान थी जिसे उनके वही पुजारी भाई चलाते थे। बगल में चाय की थडी थी। हम लोगों को वहाँ बैठना बहुत भाता था। शाम को दुकान बंद करके जोशी जी के भाई बाबाजी की गुफा में दीया- बत्ती करने जाते। लौटने पर अपना हारमोनियम लेकर दुकान के बाहर वाले चबूतरे पर बैठ जाते। वहीं उनके कुछ और साथी आ जाते और भजन- गायन होता। मुझे दिलचस्प यह लगता कि वे ब्रजभाषा के कई भजन भी गाते थे। कपिलेश के साथ आये साथी भी बहुत अच्छा गाते थे।
एक दिन हम पहाड पर पाण्डव- खोली गये। यह पहाड के शिखर पर स्थित एक प्राकृतिक स्थान है जहां चट्टानें मिलकर एक सुरक्षित स्पेस बनाती हैं। कहते हैं कि वहाँ पाण्डव अपने अज्ञात -वास के दौरान कुछ समय रहे थे। वहाँ कुटिया में एक साधु मिले। कपिलेश के साथी जल्दी ही साधु से घुलमिल गये। उन्होंने हमें चाय पिलायी और अनेक बातें बतायीं। लौटते में एक खतरनाक पगडंडी से उतरकर आये जो आगे बाबाजी की गुफा के रास्ते में मिल जाती है। महावतार बाबा को लेकर क्षेत्र में अनेक किंवदंतियां प्रचलित हैं। उनके शिष्य स्वामी श्री युक्तेश्वर गुरु थे जिनसे परमहंस योगानंद ने दीक्षा ली। अब उनके अनेक शिष्य और शोधार्थी इस सम्प्रदाय को आगे बढा रहे हैं।
मैं एक सप्ताह रहकर ही लौट आया। किन्हीं कारणों के चलते यही समागम कुकुछीना में आखिरी था। फिर सुनने में आया कि जोशी जी नहीं रहे। बाबाजी की गुफा का संरक्षण क्रिया- योग मिशन फाउन्डेशन कर रहा है। पता नहीं इस फाउन्डेशन में उस विदेशी शोधार्थी युवती की कोई भूमिका है अथवा नहीं। अब बहुत लोग वहाँ आने लगे हैं। जोशी का वह स्कूल अब जोशी गेस्ट हाउस में बदल गया है। पाण्डव- खोली में भी कुछ निर्माण चल रहा है। जो भी, इसके बाद एक बार वर्मा जी जयपुर आये हुए थे। वे उस समय दैनिक भास्कर की पत्रिका अहा जिन्दगी के संपादक आलोक श्रीवास्तव के यहां रुके थे। उन्ही दिनों हमारे मित्र डॉ॰ आर. डी. सैनी राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी में पुस्तक पर्व का वृहद आयोजन करने वाले थे। मेरे सुझाव पर डॉ॰ सैनी ने वर्मा जी को एक सत्र के लिए आमंत्रित कर लिया। हमारे आग्रह पर उन्होंने अपनी वापसी के कार्यक्रम को थोडा आगे बढाकर उस सत्र को संबोधित किया। सत्र क्या उनकी एक क्लास ही थी क्योंकि वहां स्टूडेंट्स व युवा ही अधिक थे, उसे आलोक जी व मैं ने भी अटैंड किया। पिछले साल कविता कृष्णपल्लवी ने जब देहरादून में उत्तरराग का आयोजन किया तो उम्मीद थी कि वर्मा जी के सान्निध्य का अवसर मिलेगा लेकिन तब वह कहीं दक्षिण में थे।
उनकी मूल्यवान और प्रेरक स्मृतियाँ तो रहेंगी ही।
कुकुछीना की ये स्मृतियाँ बहुत रोचक और पठनीय हैं |लालबहादुर वर्मा जी से पुस्तक पर्व के समय एक छोटी-सी मुलाकात याद है | राजाराम भादू ने बहुत आत्मीयता से उन्हें स्मरण किया हैं |स्मृति नमन वर्मा जी को 🙏
जवाब देंहटाएं