रंगमंच
समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान -1
राघवेन्द्र रावत
समकालीन हिंदी रंगमंच के बारे में बात बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध से भी की जा सकती थी लेकिन मुझे लगता है कि उससे पूर्व के भारतीय रंगमंच के परिवर्तन की प्रक्रिया पर दृष्टिपात कर लेना ठीक होगा | उसी तरह राजस्थान के समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करने से पहले भारतीय हिंदी रंगमंच पर चर्चा करना जरूरी है, और उससे भी पहले यह जानना भी आवश्यक है कि वस्तुतः रंगमंच क्या है ?और रंगमंच के बाद हिंदी रंगमंच और उसके बाद समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करना एक उचित क्रम होगा भले ही यह मेरे अध्ययन की गरज ही लगे | राजस्थान के रंगमंच पर बात करना इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि इस पर हिंदी साहित्य की तरह चर्चा नहीं हुई चाहे वह आलोचना की दृष्टि से देखें या इसके इतिहास की नज़र से देखें | दो वर्ष पहले ‘जयरंगम’ नाट्य समारोह के एक सेशन में बोलते हुए वरिष्ठ रंग एवं फिल्म समीक्षक अजित राय ने कहा था-“ पता नहीं कौन सा नाटक जयपुर में हो रहा है ,जबकि दुनिया में नाटक कहीं से कहीं पहुँच चुका है |” उनकी चिंता वाजिब थी क्योंकि राजस्थान के आधुनिक हिंदी नाटक का कोई चरित्र अभी तक उभर कर आया हो ,ऐसा नहीं जान पड़ता | यहीं से मेरी चिंता का सूत्र निकला है और उत्प्रेरक का काम राजाराम भादू ने किया ।
राजस्थान राजे- रजवाड़ों का भू भाग स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले था | जब भारतीय रंगमंच राजाश्रय और देवालयों पर निर्भर था तब राजस्थान में भी कमोबेश यही परिदृश्य था | लेकिन रंगमंच की चुनौतियों और विकास का कोई सरलीकृत सम्बन्ध इस तरह ढूँढने की बजाय पारंपरिक शास्त्रीय नाट्य, पारसी थिएटर लोक नाट्य और फिर आधुनिक नाट्य की भारतीय रंगमंच के बरक्स कैसी यात्रा रही इसका विश्लेषण करना ही उचित होगा |
अब हमें देखना होगा कि समकालीनता से क्या तात्पर्य है |
समकालीनता का मतलब समसामयिकता तो नहीं कही जा सकती | इस बारे में डॉ सुखबीर सिंह के अनुसार “समकालीनता एक व्यापक ,एक बहु आयामी शब्द है और आधुनिकता का आधार तत्व है | जो समकालीन है वह आधुनिक भी हो यह जरूरी नहीं है किन्तु जो आधुनिक चेतना से संवर्धित द्रष्टि है, वह निश्चित रूप से समकालीन भी होती है “| अर्थात समकालीनता में वर्तमान बोध के साथ ही अतीत और भविष्य का विवेक सम्मत बोध होता है | यह विशिष्ट वर्तमान बोध ही समकालीनता की अभिव्यक्ति देता है | डॉ. कपिला वात्सायन ने अपनी पुस्तक ‘पारम्परिक भारतीय रंगमंच’ के प्रथम अध्याय में कहा है कि “ समकालीन प्रतीत होने वाली कला रूप में विभिन्न काल खण्डों की छाप पहचानी जा सकती है | प्रदर्शनकारी कलाओं की परम्पराओं का विकास जिस सांस्कृतिक ढाँचे में हुआ उसकी यह विशेषता एक अत्यधिक अमूर्त कार्य विधि का परिचय देती है -ऐसी अमूर्त कार्य विधि का, जो एक ओर इन कला रूपों की आत्मा का दिशा निर्देश करती है और उन्हें एक मूल भूत एकता या अविच्छिन्नता तथा शाश्वतता के सूत्र में बांधती है तो दूसरी ओर परिवर्तन और निरंतर प्रवाह के लिए आवश्यक उनकी अनेकता, मूर्तता और वैभिन्य तथा समसामाजिकता की भी सामान शक्ति से रक्षा करती है | “
समकालीनता का मतलब समसामयिकता तो नहीं कही जा सकती | इस बारे में डॉ सुखबीर सिंह के अनुसार “समकालीनता एक व्यापक ,एक बहु आयामी शब्द है और आधुनिकता का आधार तत्व है | जो समकालीन है वह आधुनिक भी हो यह जरूरी नहीं है किन्तु जो आधुनिक चेतना से संवर्धित द्रष्टि है, वह निश्चित रूप से समकालीन भी होती है “| अर्थात समकालीनता में वर्तमान बोध के साथ ही अतीत और भविष्य का विवेक सम्मत बोध होता है | यह विशिष्ट वर्तमान बोध ही समकालीनता की अभिव्यक्ति देता है | डॉ. कपिला वात्सायन ने अपनी पुस्तक ‘पारम्परिक भारतीय रंगमंच’ के प्रथम अध्याय में कहा है कि “ समकालीन प्रतीत होने वाली कला रूप में विभिन्न काल खण्डों की छाप पहचानी जा सकती है | प्रदर्शनकारी कलाओं की परम्पराओं का विकास जिस सांस्कृतिक ढाँचे में हुआ उसकी यह विशेषता एक अत्यधिक अमूर्त कार्य विधि का परिचय देती है -ऐसी अमूर्त कार्य विधि का, जो एक ओर इन कला रूपों की आत्मा का दिशा निर्देश करती है और उन्हें एक मूल भूत एकता या अविच्छिन्नता तथा शाश्वतता के सूत्र में बांधती है तो दूसरी ओर परिवर्तन और निरंतर प्रवाह के लिए आवश्यक उनकी अनेकता, मूर्तता और वैभिन्य तथा समसामाजिकता की भी सामान शक्ति से रक्षा करती है | “
रंगमंच की शुरुआत मनुष्य के आदिम कालखंड से ही मानी गयी है क्योंकि जब वह आखेट करता था ,और शिकार करके लाता था तो शिकार के बाद उसके मन में जो ख़ुशी पैदा होती थी उन मनोभावों को वह अपने आंगिक अभिनय से प्रदर्शित करता था ,जिसमें प्रकृति प्रदत्त आवाजें संगीत देती थी | नेमिचंद्र जैन के अनुसार ,” कलात्मक अभिव्यक्ति द्वारा समाज का सर्वाधिक वांछनीय और संस्कृत अनुरंजन होता है जो जनमानस का परिष्कार भी करता है और संस्कृति के मूल्यों की स्थापना भी करता है | रंगमंच भी ऐसी ही कलात्मक अभिव्यक्ति है जो जीवन के विविध अनुभवों को रूपायित करते हुए सामाजिक मनोरंजन के साथ -साथ उद्बोधन भी करती है |” रंगमंच का तात्पर्य केवल नाट्य प्रस्तुति का स्थान या नाट्य लेख तक ही सीमित नहीं है | इसके व्यापक स्वरूप के अंतर्गत ‘नाटककार ,निर्देशक ,अभिनेता ,रंग शिल्पी, दर्शक ,व्यवस्था जैसे सभी तत्व आते हैं जो नाट्य प्रस्तुति को अमूर्त से मूर्त बनाने में सहायक होते हैं | इन तत्वों में से अगर कोई तत्व बदलता है तो रंगमंच का स्वरूप भी बदलता है | मसलन अगर स्थान बदलता है, कथ्य बदलता है ,अभिनेता बदलता है, या दर्शक बदलते हैं या निर्देशक बदलता है तो निश्चित रूप से रंगमंच भी बदलता है |
भारतीय रंगमंच भरत के ‘ नाट्य शास्त्र ‘ के मूल सिद्धांतों का अनुसरण करके ही आगे बढ़ा है | यहाँ नाट्य शास्त्र कब, कैसे और किसने लिखा उस पर विचार कर लेना भी समीचीन होगा | ब्रजबल्लभ त्रिपाठी के अनुसार- “वेद भारत के प्राचीनतम एवं महत्वपूर्ण ग्रन्थ होते हुए भी भारत में भावात्मक एकता स्थापित नहीं कर सके | वेद द्वीजातीय थे, अतः उन्होंने सवर्णों और अवर्णों के बीच दीवार खींच दी | वर्ण व्यवस्था के कठोर काल में भरतों ने शूद्रों के अधिकारों के लिए ‘पंचम वेद‘ की सृष्टि की | भरतों के ‘नाट्य शास्त्र’ ने सारे देश को काव्य ,गायन ,वादन, नृतन, शिल्प के मध्यम से भावात्मक एकता के सूत्र में जोड़ा |
नाट्य शास्त्र के प्रथम अध्याय के श्लोक 17 में इसका उल्लेख किया गया है |
इस दृष्टि से ‘नाट्य शास्त्र‘ का महत्व सर्वोपरि है | उसने वर्ण और वर्ग की दीवारों को तोड़ कर ,शिक्षित और अशिक्षितों का फासला मिटा कर , एक ऐसी लोक रंजन कला को जन्म दिया जिसका सम्बन्ध राजा से लेकर प्रजा तक था, आचार्य से लेकर शिष्य तक था, अभिजात्य से लेकर सामान्य वर्ग तक था |
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय सोसाइटी के पूर्व कार्यवाहक अध्यक्ष एवं नाट्य लेखक अर्जुन देव चारण के अनुसार-“ नाट्य शास्त्र ,शास्त्र और लोक दोनों का समावेश है ,शास्त्र वह जो आज्ञा दे और लोक से अभिप्राय है समस्त प्राणी जगत जिसमें मनुष्य ,पशु ,पक्षी ,देव, असुर और किन्नर शामिल हैं “|
इसकी विस्तृत व्याख्या करते हुए वे कहते हैं कि पाँचवें वेद की रचना इसलिए की गई जिसे सब सुन सकें और समझ सकें | हम कह सकते हैं कि यह एक बड़ी सामाजिक क्रांति थी जिसमें देवता मनुष्यों की चिंता कर रहे थे | एक तरह से यह हमारी भारतीय चिंतन परम्परा को उद्घाटित करता हुआ शास्त्र है |” नाट्य शास्त्र के बारे में अर्जुनदेव चारण के विश्लेषण से सहमती या असहमति हो सकती है क्योंकि उसके विश्लेषण का आधार ब्राह्मण ग्रंथ रहे, लेकिन राजस्थानी भाषाई रंगमंच के विकास में उनके अवदान को कम नहीं आँका जा सकता जिस पर आगे चल कर हम चर्चा करेंगे | भरत लोगों को प्राचीन काल में शूद्र- वर्ग माना जाता था | महर्षि पाणिनि का काल ईसा से पूर्व छठी सातवीं शताब्दी माना गया है और पाणिनि ने माना है कि उसके समय में नटों के सूत्र प्रचलित थे |
मनु ने भी ‘ मनु स्मृति ‘ में नटों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में लिखा है कि क्षत्रिय पुरुष और ब्राह्मण स्त्री से उत्पन्न संतान को नट कहा जाता है | भरत उस समय शूद्र– वर्ग के लोग थे | इन सन्दर्भों से स्पष्ट है कि नाट्य शास्त्र लगभग ढाई हजार वर्ष पहले का ग्रन्थ है और यह निरंतरता में लिखा गया है, किसी एक समय में नहीं लिखा गया | नाट्य शास्त्र की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि वह शास्त्र होते हुए भी आगत समय के मनुष्य की अस्मिता के संकट का पूर्वानुमान करता है |
‘ नाट्य शास्त्र ‘ यदपि संस्कृत भाषा का ग्रन्थ है जिसके 37 अध्यायों में संकलित है जिसका सन 1950 में| मनमोहन घोष ने सर्वप्रथम ‘नाट्य शास्त्र’ का अंग्रेजी अनुवाद किया |
नाटक चाहे वेद या अध्यात्म से उत्पन्न हो, वह कितने ही सुन्दर शब्दों और छंदों में रचा गया हो, वह तभी सफल माना जाता है जब लोक उसे स्वीकार कर ले|
नेमिचंद्र जैन के अनुसार चौथी शताब्दी से पहले हिंदी रंगमंच नहीं था | इससे पहले संस्कृत नाटक ही भारतीय नाट्य शास्त्रीय अवधारणाओं पर आधारित होते आ रहे थे | अगर भारतीय रंगमंच के विकास की क्रोनोलोजी को देखें तो संस्कृत नाटक ,एलिज़बेथियन थिएटर, विक्टोरियन थिएटर ,पारसी थिएटर ,लोक नाट्य , आधुनिक नाटक; असंगत नाटक (एब्सर्ड नाटक ),एकांकी , नुक्कड़ नाटक और उत्तर आधुनिक नाटक के क्रम में देखा जा सकता है |
हम देखते हैं कि मुगलों के आगमन से पहले और उसके बाद प्रदर्शनकारी कलाओं की स्थिति भिन्न होती चली जाती है | सन 980 ई. में जहाँ से मुग़ल काल माना जाता है वहां आते- आते भारतीय शास्त्रीय रंगमंच परम्परा एवं लोकाश्रित पारंपरिक रंगमंच की परंपरा, विभिन्न प्रादेशिक रूपों में बंट कर शक्तिहीन और लुप्त प्रायः सी हो गई | संस्कृत नाटक मंचित होना लगभग बंद हो चुका था | मध्य काल के शासकों की सांस्कृतिक अभिरुचि स्थापत्यकला ,नृत्य कला ,चित्र कला, संगीत और शाइरी के प्रति लेकिन नाट्य गतिविधियों में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी ऐसे में नाटक लोक की ओर मुड़ जाता है | अर्थात उन राजे रजवाड़ों और मंदिरों की ओर नाट्य कला चली जाती है जहाँ इसे संरक्षण मिलता है, आर्थिक मदद मिलती है और इसकी कद्र की जाती है | वहां से शास्त्रीय और लोक नाट्य के सम्मिश्रण परम्परागत नाट्य की शुरुआत होती है जिसे शील नाटक कहा गया | इस दौर के नाटकों में नायक राजा महाराजा और देवी देवता ही हुआ करते थे | यह नाटक चौपालों, दरबारों और मंदिर परिसरों में मंचित किये जा रहे थे | इनमें मंच के तीन ओर या चारों ओर दर्शक बैठते थे |
भारतीय रंगमंच का विश्लेषण करते हुए इसके साथ साथ यूरोपीय थिएटर का शनै: शनै: पड़ने वाले प्रभावों को भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता |
ब्रिटेन में रानी विक्टोरिया के शासन काल (1837-1901) के दौरान पुनः नाट्य मंचन होने लगे थे | कई नाट्य स्कूल नए खुले तथा कई नए नाट्य प्रेक्षाग्रह निर्मित हुए | पुराने प्रेक्षाग्रहों के पुनर्निर्माण का काम भी इसी अवधि में हुआ | इन प्रेक्षाग्रहों में ‘प्रोसीनियम’ का उपयोग प्रारंभ हुआ जो एलिज़बेथियन थिएटर में नहीं था | नाटकों के कथानकों में बुनियादी अंतर यह आया कि अब सामाजिक समस्याओं पर आधारित नाटक लिखे और मंचित किये जाने लगे |
इधर भारत में रहने वाले अंग्रेज अपनी सांस्कृतिक विरासत के बीच रहना चाहते थे अतः अपनी कला अभिरुचियों की संतुष्टि के लिए शेकस्पिरियन कंपनियों को भारत बुलाया गया | इन कंपनियां ने यहाँ एलिज़बेथियन काल में चर्चित हुए शेक्सपीयर के नाटक जुलियस सीज़र (1599 ),हेमलेट (1602) तथा ओथेलो (16 05 ) मंचित किये | अंग्रेजी नाटकों के बांग्ला अनुवाद भी प्रस्तुत कर रहे थे | बकौल भारतरत्न भार्गव वे नाटक बांग्ला भाषियों में इतने लोकप्रिय हुए कि सभ्य सुसंस्कृत जनों के बीच नाटक देखना सहज जीवन का अंग हो गया | अंग्रेजों द्वारा देश पर शासन करने के लिए कलकत्ता के अतिरिक्त बॉम्बे , मद्रास, लाहौर में स्थापित रेजीमेंट में भी अंग्रेजों द्वारा समर्थित नाट्य – पद्धति ने अपने पैर इतने गहरे जमा लिए , जिन्हें उखाड़ने के प्रयत्नों में सौ से अधिक वर्ष लग गए |(भारतीय नाट्य परम्परा और आधुनिकता )
सन 1740 में सूरत में अंग्रेजी नाटक होने लगे थे | सबसे पहले जिस कंपनी ने विक्टोरियन शैली के नाटक भारत में करने प्रारंभ किये वह कंपनी एक पारसी शख्स पेस्तनजी फरामजी की थी अतः भारत में वह पारसी थिएटर कहलाया | लोग टिकट खरीद कर नाटक देख रहे थे ,अर्थात व्यावसायिक नाटक की नींव पारसी थिएटर के साथ पड़ी | पारसी थिएटर के साथ- साथ लोक नाट्य भी अपनी निरंतर उपस्थिति रामलीला , रासलीला , अंकिया ,तमाशा, कुडिआटटम, ख्याल, माच ,नौटंकी आदि के रूप में लोक में प्रदर्शन कला के रूप में दर्ज कराता रहा | तब तक पारसी थिएटर ऐतिहासिक , धार्मिक एवं पौराणिक मिथकों के कथानकों पर ही केन्द्रित था |
यहाँ यह भी देखना होगा कि भारतीय रंगमंच का विकास और हिंदी रंगमंच का विकास एक ही परिघटना नहीं है | भारत में सन1753 में ‘प्ले हाउस ‘ नाट्य गृह कलकत्ता में बना ,उसके बाद प्ले हाउस बोम्बे (1976),बंगाली थिएटर (1795) तथा ग्रांट रोड थिएटर बोम्बे (1853) बने जहाँ प्रोसीनियम थिएटर की प्रस्तुतियां की जाने लगी | इसमें ट्रैप डोर, विंग्स ,ड्राप और ऑर्केस्ट्रा पिट शामिल हुआ | ‘ड्राप’ सामने लगे परदे को कहा जाता था, बाद में यही ‘ड्राप’ शब्द पारसी थिएटर में अंक (एक्ट ) के लिए प्रयुक्त होने लगा |
18 वीं शताब्दी के अंत को भारतीय कलाओं का पुनर्जागरण काल कहा जा सकता है | यहाँ मैं भारत रत्न भार्गव की पुस्तक “ भारतीय परम्परा और नाट्य शास्त्र “ के आमुख में कमलेश दत्त त्रिपाठी की यह पंक्तियाँ उल्लेखित करना चाहूँगा जो ब्रितानी औपनिवेशिक काल में भारतीय समाज में सामाजिक सांस्कृतिक मनोदशा को व्यक्त करती हैं – “ औपनिवेशिक दबाव के विरुद्ध सांस्कृतिक निजता (identity ) या इसकी निकटवर्ती अवधारणा का भी आविर्भाव हो चुका था, जो स्वातंत्र्योतर भारत में भारतीय पारस्परिक रंगमंच के आन्दोलन में मुखर हुआ |”
भारत में पहली बार रूसी नाटककार हैरासिम लेबड़ेफ़ और गोलक दास ने मिल कर दो अंग्रेजी हास्य नाटक “ डिस्गाइज़ “ तथा “ लव इज द बेस्ट डॉक्टर “ का अनुवाद बांग्ला भाषा में किया जो कलकत्ता में मंचित हुए | इन दोनों नाटकों के प्रदर्शन टिकट बिक्री के जरिये हुए | एक और ख़ास बात यह थी कि इन नाटकों को समाज के सभी वर्गों के दर्शक देख सकते थे | जबकि इससे पहले अंग्रेजी नाटकों के शो में भारतीय दर्शक प्रतिबंधित थे | लेकिन भारतीय आधुनिक रंगमंच की शुरुआत माइकल मधुसूदन दत्त के नाटक “ समिष्ठा “ से मानी जाती है |
माइकल मधुसूदन दत्त ‘समिष्ठा’ नाटक के माध्यम से समाज में व्याप्त पाखण्ड और रूढ़िवादिता पर प्रहार करते हैं जिसकी एक सामाजिक अर्थवत्ता बनती है | दूसरा नाटक “ न्यू फेदर ओन एन ओल्ड बर्ड्स नैक “लिखते हैं ,उसमें भी वे समाज में बढ़ती रूढ़िवादिता और दिखावे को निशाना बनाते हैं |
माइकल मधुसूदन दत्त ‘समिष्ठा’ नाटक के माध्यम से समाज में व्याप्त पाखण्ड और रूढ़िवादिता पर प्रहार करते हैं जिसकी एक सामाजिक अर्थवत्ता बनती है | दूसरा नाटक “ न्यू फेदर ओन एन ओल्ड बर्ड्स नैक “लिखते हैं ,उसमें भी वे समाज में बढ़ती रूढ़िवादिता और दिखावे को निशाना बनाते हैं |
सन1860 में दीन बन्धु मित्र ने एक नाटक “ नील दर्पण “ लिखा | यह नाटक भारतीय किसानों द्वारा नील के उत्पादन और उससे कथानक को केंद्र में रख तैयार किया था | इस नाटक में एक प्रसंग है जिसमें एक किसान की गर्भवती पत्नी से ज्यादती करने का प्रयास करता है जिसका विरोध किसान करता है और अंग्रेज अफसर के थप्पड़ मार देता है | यह प्रसंग अपने आप में ऐसी घटना को प्रस्तुत कर रहा था जो अंग्रेजी शासन के विरुद्ध थी | इस नाटक को पहला प्रतिरोध का नाटक और यहीं से राजनीतिक रंगमंच का प्रस्थान बिन्दु माना जाता है |
1876 तक इस नाटक की प्रस्तुतियां देश के विभिन्न भागों में होती रही लेकिन अंग्रेजी हुकूमत ने कोई कदम नहीं उठाया लेकिन 1876 में लखनऊ में इस नाटक के प्रदर्शन को कुछ अंग्रेज अफसर भी देख रहे थे | अंग्रेज अफसर को थप्पड़ मारने वाले प्रसंग को देख कर उनको वह नागवार गुज़रा | उन्होंने चलते हुए नाटक की प्रस्तुति बीच में ही रुकवा दी |आधुनिक भारतीय रंगमंच के इतिहास में पहली बार ऐसा होता है कि चलते हुए नाटक को रोका गया | इसे “नील फेनोमेनन “(neel phenomenon ) के नाम से भी जाना जाता है | नील की खेती का उत्पादन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक आन्दोलन को जन्म देती है |अंग्रेजों ने उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में नील कृषि अधिनियम लागू कर दिया जिसके तहत प्रत्येक किसान को अपनी भूमि के पंद्रह प्रतिशत भू भाग पर नील की खेती करना अनिवार्य कर दिया | नील की खेती जिस भूमि पर की जाती है वह अन्य फ़सल करने योग्य नहीं रहती इससे किसानों की पैदावार कम हो गई और वे आर्थिक तंगी से जूझने लगे | सन1859 के फ़रवरी मार्च में नदिया जिले के किसानों ने नील की खेती करने से मना करके अंग्रेजों के नील अधिनियम के विरुद्ध अहिंसक आन्दोलन खडा किया |
भारतीय रंगमंच के इतिहास में एक ओर महत्वपूर्ण घटना का जिक्र करना मुझे जरूरी लगता है क्योंकि इसके बाद भारतीय रंगमंच पुनः ऐतिहासिक और धार्मिक कथानकों की ओर मुड़ गया | यहाँ आकर गिरीश चंद्र घोष, डी.एल. राय और शिशिर भादुड़ी जैसे नाटककार उभरते हैं | घोष ने सिराजुद्दोला ,मीर कासिम ,महाराणा प्रताप आदि नाटक लिखे ,जो संगीत प्रधान नाटक थे और बंगाल की जात्रा लोक शैली का प्रयोग इनमें किया गया था |इन नाटकों में भव्यता और बहादुरी का प्रदर्शन होता था | शिशिर भादुड़ी अपने नाटक में बहुत सी नई तकनीक का इस्तेमाल करते हैं |वे नाटक के अभिनय, वस्त्र विन्यास, प्रकाश संयोजन पर बहुत ध्यान देते हैं | उनके प्रकाश संयोजन में किये गए प्रयोगों से लाइट्स का प्रभाव ही पूर्णतया बदल जाता है और एक गहराई का अहसास(sens of depth ) पैदा होता है | यहाँ तक कि अपने कलाकारों का मंच पर प्रवेश दर्शकों के बीच करवा कर प्रोसीनियम थिएटर की “चौथी दीवार (fourth wall) ” की अवधारणा को भी तोड़ते हैं | इतना सब कुछ होने के बाद भी शिशिर भादुड़ी का नाटक दर्शकों को ज्यादा प्रभावित नहीं कर पाया |
सांगली महाराज पटवर्धन के दरबार में एक प्रतिभाशाली शख्स थे विष्णुदास भावे, जो कन्नड़ भाषा ,तमाशा नाट्य कला ,गायन, नृत्य और मूर्तिकला आदि में जन्हें महारथ हासिल थी, और सांगली दरबार का उन्हें संरक्षण प्राप्त था | सन 1843 में सांगली के दरबार में कर्नाटक की नाट्य मंडली यक्षगान की प्रस्तुति करती है जिसमें गायन प्रमुख था | महाराजा पटवर्धन उस प्रस्तुति से बहुत प्रभावित होते हैं और विष्णुदास भावे को कुछ इसी तरह की प्रस्तुति तैयार करने के लिए कहते हैं | भावे कालिदास के नाटक ‘शाकुंतल’ पर “ सीता स्वयंवर” नाम से आख्यान लिखते हैं |वहां नाट्य कलाकार उपलब्ध नहीं थे अतः वे कोंकणी से कलाकार लाते हैं| क्योंकि उन दिनों कोंकणी में दशावतार की नाट्य परम्परा थी अतः भावे राम के चरित्र पर आधारित दस आख्यान लिखते हैं और उन्हें महाराजा के सामने खेलते हैं | उन्हें इस कार्य के लिए वज़ीफ़ा मिलता है | इन नाटकों की संरचना ख़ास प्रकार की होती थी | ये नाटक संगीत प्रधान थे, इनमें संवाद बहुत कम थे | नरसिम्हा और हरिशचन्द्र जैसे नाटक उस इलाके के राजे रजवाड़ों में खेले जाते रहे | इन नाटकों में करुणा और संवेदना को बहुत उभारा जाता था |
महाराजा की मृत्यु के बाद उनके उत्तराधिकारी भावे को संरक्षण देना बंद कर देते हैं ,ऐसे में भावे बम्बई आते हैं और इन नाटकों के बम्बई में ग्रांट रोड थिएटर में पांच शो करते हैं | यहीं से घुमंतू नाटक (touring theatre ) की परपरा की शुरुआत होती है | इन नाटकों की सफलता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि उस ज़माने में 1800 रुपये के टिकट बिके | बम्बई के कुलीन परिवार भी इनको देखने आते थे | विष्णुदास भावे के नाट्य प्रदर्शनों का प्रभाव ही था कि किर्लोस्कर नाटक कंपनी संगीत प्रधान नाटकों की शुरुआत करती है जिनमें देवल ,बाल गंदर्भ और खान्दिलकर जैसे नाम उभर कर आते हैं |1901 में भावे की से प्लेग मृत्यु हो जाती है |
महाराजा की मृत्यु के बाद उनके उत्तराधिकारी भावे को संरक्षण देना बंद कर देते हैं ,ऐसे में भावे बम्बई आते हैं और इन नाटकों के बम्बई में ग्रांट रोड थिएटर में पांच शो करते हैं | यहीं से घुमंतू नाटक (touring theatre ) की परपरा की शुरुआत होती है | इन नाटकों की सफलता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि उस ज़माने में 1800 रुपये के टिकट बिके | बम्बई के कुलीन परिवार भी इनको देखने आते थे | विष्णुदास भावे के नाट्य प्रदर्शनों का प्रभाव ही था कि किर्लोस्कर नाटक कंपनी संगीत प्रधान नाटकों की शुरुआत करती है जिनमें देवल ,बाल गंदर्भ और खान्दिलकर जैसे नाम उभर कर आते हैं |1901 में भावे की से प्लेग मृत्यु हो जाती है |
यहाँ गौर करने की बात यह कि बंगला नाटक प्रोसीनियम से बंधा था ,और पाश्चात्य नाट्य शैली से प्रभावित था जबकि मराठी नाटक परम्परागत शैली और कथानकों से सम्बद्ध था | विष्णु दास भावे के नाटक में सामूहिकता का भाव था | एक बिन्दू और यहाँ उभर कर आता है कि जहाँ व्यापारिक केंद्र विकसित हुए वहां नाटक का आधारभूत ढांचा भी खड़ा हुआ | नाटक को दर्शक मिले ,आर्थिक संबल भी मिला | हिंदी भाषी क्षेत्रों को अंग्रेज राजनीतिक रूप से अशांत क्षेत्र मानते थे अतः यहाँ नाटक के लिए न तो आधारभूत ढांचा खड़ा हुआ न ही हिंदी रंगमंच का विकास हुआ | पारसी थिएटर और लोक नाट्य लोक तत्वों की प्राणवायु ,भाषा की संप्रेषणीयता और भारतीय परिवेश जैसी खूबियों से फला फूला और जीवंत रहा |
जारी
राघवेन्द्र रावत
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