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सबाल्टर्न स्टडीज - दिलीप सीमियन

दिलीप सीमियन श्रम-इतिहास पर काम करते रहे हैं। इनकी पुस्तक ‘दि पॉलिटिक्स ऑफ लेबर अंडर लेट कॉलोनियलिज्म’ महत्वपूर्ण मानी जाती है। इन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन किया है और सूरत के सेन्टर फोर सोशल स्टडीज एवं नेहरू मेमोरियल लाइब्रेरी में फैलो रहे हैं। दिलीप सीमियन ने अपने कई लेखों में हिंसा की मानसिकता को विश्लेषित करते हुए शांति का पक्ष-पोषण किया है। वे अमन ट्रस्ट के संस्थापकों में हैं। हाल इनकी पुस्तक ‘रिवोल्यूशन हाइवे’ प्रकाशित हुई है।

भारत में समकालीन इतिहास लेखन में एक धारा ऐसी है जिसकी प्रेरणाएं 1970 के माओवादी मार्क्सवादी आन्दोलन और इतिहास लेखन में भारतीय राष्ट्रवादी विमर्श में अन्तर्निहित पूर्वाग्रहों की आलोचना पर आधारित हैं। 1983 में सबाल्टर्न अध्ययन का पहला संकलन आने के बाद से अब तब इसके संकलित आलेखों के दस खण्ड आ चुके हैं जिनमें इस धारा का महत्वपूर्ण काम शामिल है। छठे खंड से इसमें संपादकीय भी आने लगा। इस समूह के इतिहासकारों की जो पाठ्यवस्तु इन संकलनों में शामिल है उन्हें ‘सबाल्टर्न’ दृष्टि के उदाहरणों के रुप में देखा जा सकता है।
इस इतिहास लेखन धारा की शुरुआत बंगाल के मार्क्सवादी बुद्धिजीवी रणजीत गुहा द्वारा की गयी थी। रणजीत गुहा एक समय भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से जुडे थे। वे चीन की सांस्कृतिक क्रान्ति के क्रांतिकारी विचार से बहुत प्रभावित थे। 1960 के बाद उन्होंने अपने को भारत के माओवादियों से जोड लिया जो स्वतंत्रा भारत को एक अर्द्ध-सामंती और अर्द्ध-औपनिवेशिक राज्य मानते थे। सबाल्टर्न धारा की परियोजना इस प्रस्ताव को सत्य ठहराने के प्रयास से व्युत्पन्न और प्रेरित थी कि ‘औपनिवेशिक सत्ता की संरचना को वर्चस्व रहित प्रभुत्व मानने की अंधदृष्टि की कीमत हमें एक ऐसी समग्र अन्तर्दृष्टि की चाहत के रुप में चुकानी पड रही है जो औपनिवेशिक सत्ता की जगह लेने वाली शक्ति को भी वर्चस्व रहित प्रभुत्व मानती हो।’ (गुहा, सबाल्टर्न स्टडीज-6, 1989, पृष्ठ 307) हालांकि, उसके बाद से अब तक सबाल्टर्न अध्ययनों में बहुत बदलाव आया है। सबाल्टर्न समूह द्वारा रणजीत गुहा को मुख्य बौद्धिक सूत्राधार माना गया है और उन्होंने ही आरंभिक छह खंडों का संपादन किया है। वे ‘औपनिवेशिक भारत में कृषक असंतोष के बुनियादी पहलू’ पुस्तक के लेखक हैं जिसे भारतीय क्रान्तिकारी इतिहास लेखन की पीढ़ी का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण काम माना जाता है।
सबाल्टर्न अध्ययनों की शुरुआत भारत के संदर्भ में ‘निम्नजनों के इतिहास’ की अवधारणा को अपनाने के प्रयासों से शुरु हुई। ‘सबाल्टर्न’ पद इतावली मार्क्सवादी अन्तोनियो ग्राम्शी के चिंतन से लिया गया है। इस पद का प्रयोग समाज के ऐसे निशक्त समूहों को संकेतित करने के लिए किया गया है जहां वर्ग-विभेदीकरण, शहरीकरण और औद्योगिकरण की प्रक्रियाएं बहुत धीमे घटित हो रही हैं। सबाल्टर्न लेखकों के लिये इतिहास लेखन में ‘संस्कृति’ और ‘खंड’ (fragment) पदों के अर्थ-स्त्रोत भी ग्राम्शी हैं। सबाल्टर्न अध्ययन अंग्रेज इतिहासकार ई.पी.थाम्पसन के विवेचनात्मक मार्क्सवाद (critical marxism) से भी प्रभावित हैं जिन्होंने वर्ग हितों को अर्थशास्त्रीय परिभाषाओं और साथ ही सत्ता व ज्ञान प्रणालियों की फूकोवादी आलोचनाओं से परे जाने का प्रयास किया है। इनके (शुरुआती) माओवादी रुझान और तार्किक सरोकार भारतीय औपनिवेशिक आभिजात्य वर्गीय राष्ट्रवाद के बरक्स औपनिवेशिक सत्ता के अधीनस्थ किसान विद्रोहियों की पडताल करने और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस तथा गांधीवादी राष्ट्रवाद के समानान्तर किसानों के अक्खड़पन की विवेचना पर केन्द्रित थे।
अपनी शुरुआत से ही खुली राजनीतिक मुद्रा के चलते, सबाल्टर्न अध्ययन युवा भारतीय इतिहासकारों और विदेशों में आधुनिक भारतीय इतिहास के अध्येताओं के बीच भारी लोकप्रिय हुए जिन्हें भारतीय स्वतंत्राता के एक गैर आलोचनात्मक अकादमिक उत्सव का क्रान्तिकारी विकल्प मिल गया था। इनमें भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन को एक असफल वार्चस्विक परियोजना (hagemonic project) के रुप में देखा गया था (सेन, सबाल्टर्न स्टडीज 5, 1986 ; गुहा, वही 6 व 7 ; 1989 एवं 1993)। रणजीत गुहा द्वारा शुरु किये गये विद्रोही किसान चेतना के आरंभिक रुपों के अनुसंधान को आगे बढ़ाते हुए सबाल्टर्न धारा भारतीय मार्क्सवादी संस्थापन के ‘आदर्शवादी’ होने से विद्वेष की ओर आकर्षित हुई (देखें, चक्रवर्ती, सबाल्टर्न स्टडीज 4, 1985) जो इसका संकेत था कि यह आर्थिक न्यूनीकरण (economic reductionism) से प्रस्थान कर चुकी है। एक ऐसे समाज में, जहां रोजमर्रा जिन्दगी के साथ-साथ राजनीतिक गतिशीलता में सांस्कृतिक प्रतीक बहुत अहम् भूमिका निभाते हैं,यह एक सार्थक प्रस्थान था। यह करिश्माई नेतृत्व और साम्प्रदायिक द्वन्द्व जैसी परिघटनाओं को समझने के लिए भी जरुरी था। तब से इसका विस्तार (उदाहरण के लिए देखें, सबाल्टर्न स्टडीज 2, 1983 और इसी के खंड 3, 1984 में अमीन, पाण्डे और हार्डीमेन के लेख) ‘इतिहास के अनुशासन से परे’ ‘कई समसामयिक समस्याओं और सैद्धान्तिक अवधारणों’ से जुडने में हुआ है (देखें, सबाल्टर्न स्टडीज 9, 1998, भूमिका)। इनमें अस्मिता की राजनीति और साहित्यिक विखण्डन भी शामिल हैं। 1990 के दशक में सबाल्टर्न धारा के इस परिवर्तन से परियोजना की ओर एडवर्ड सईद और गायत्री चक्रवर्ती स्पीवाक जैसे साहित्यिक विद्वानों और आलोचकों का ध्यान आकर्षित हुआ। तब से विमर्श का विश्लेषण सबाल्टर्न अनुसंधान का एक जरुरी कार्यभार हो गया है।
सबाल्टर्न अध्ययनों के वर्षों में फैले काम को दृष्टि (vision) की एकरुपता में प्रस्तुत करना सही नहीं होगा। यह स्पष्ट है कि ‘निम्नजनों के इतिहास’ के गैर रूढ़िवादी मार्क्सवादी रुझान की जगह समुदाय, ग्रामीण निश्छलता और सांस्कृतिक प्रमाणिकता के अध्ययन की वर्तमान प्रवृति ने ले ली है। क्रान्तिकारी चेतना की ‘उच्चता’ के वाहक के रुप में ‘बाहरी’ (outsider) का अनुमोदन (चौधरी, सबाल्टर्न स्टडीज 5, 1987) इतिहास लेखन में आभिजात्य और यथास्थितिवादी की अक्सर होने वाली आलोचना के हल के किये जा सके तनाव के साथ उपस्थित है (पाण्डे, सबाल्टर्न स्टडीज 8, 1994)। सार्वजनिक समुदाय के सांस्कृतिक चिन्तन रुपों की सर्वव्याप्ति में विश्वास (पार्थ चटर्जी, सबाल्टर्न स्टडीज 6, 1989) भी ऐसी ही तत्वमीमांसीय समस्या है। हालांकि सबाल्टर्न अध्ययनों में विषयवस्तु के दो विरोधी क्षेत्र (domain) अभी भी बरकरार है, इनमें एक है आभिजात्य (elite) जिसके मायने हैं-औपनिवेशिक राज्य और इसकी सहयोगी शक्तियां तथा इनकी राजनीति, ज्ञान और सत्ता के रुप जिसका विरोध दूसरे निम्न जन समूह (subaltern) से है। सबाल्टर्न की व्याख्या कृषक, समुदाय, स्थानीय और पारंपरिक घरेलू समुदायों आदि कई रूपों में औपनिवेशिक सत्ता से इनके प्रतिरोध की पहचान के साथ की जाती रही है। इसकी मुश्किल ‘खण्डों’ (निम्न जन समुदायों) से अक्खडपन के मूल्य स्थापन से जुडी वृहद जटिलता की समस्या से पैदा होती है।
सबाल्टर्न दृष्टिकोण ने दक्षिण एशिया के इतिहास में दमित तत्वों को अभिव्यक्ति प्रदान करने की दिशा में मूल्यवान अनुसंधान किये हैं। इसके एक प्रमुख प्रमाण के तौर पर 1922 के चौरा चौरी के (कु) ख्यात दंगे के दीर्घकालिक परिणामों में शाहिद अमीन के सतर्क और विचारोत्तेजक शोध को लिया जा सकता है। इस घटना में 22 पुलिस वालों की मौत हुई थी। इसके बाद प्रथम असहयोग आन्दोलन को स्थगित कर दिया गया था। इस घटना के लिए जिम्मेदार मानकर 19 बलवाइयों को फांसी दे दी गयी थी (सबाल्टर्न स्टडीज 5, 1987 और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1995)। ‘एक घटना जिसे सभी भारतीय, जब राष्ट्र का कीर्तिगान करते हैं, केवल भूलने के लिए याद करने पर विवश होते हैं-’ ये शोध इस घटना को एक उलझी हुई गुत्थी के रुप में सैद्धान्तिक प्रतिनिधित्व के लिए राष्ट्रीय रुपक और अस्तित्ववादी यथार्थ के द्वन्द्व में प्रस्तुत करता है। सबाल्टर्न उपलब्धि में इस शोध का महत्व बना रहेगा।
पाण्डेय ने पूर्वी भारत में 19वीं शताब्दी के आखिर में चले गौ-रक्षा आन्दोलन की जटिलता का विश्लेषण प्रस्तुत किया है जिसमें प्रतीकवाद,वर्ग हित और सार्वजनिक क्षेत्रा परस्पर गुंथे हुए हैं। साम्प्रदायिक राजनीति के पूर्व इतिहास में इस सर्वथा भिन्न निबंध (सबाल्टर्न स्टडीज 2, 1983) ने औपनिवेशिक भारत में साम्प्रदायिकता की निर्मिति (construction) पर लिखे अन्य लेखों के साथ (सबाल्टर्न स्टडीज 6, 1989, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1990) एक ऐतिहासिक बहस को तीखा करने में उल्लेखनीय योगदान किया। खुद गुहा ने अपने शोध ‘चन्द्रा की मौत’ (सबाल्टर्न स्टडीज 1, 1987) में मध्य 19वीं शताब्दी के बंगाल से एक कानूनी वृत्तान्त को कुशलतापूर्वक उपयोग करते हुए पितृसत्तात्मक संस्कृति और स्थानीय न्याय की प्रक्रिया का एक ‘निम्न जाति’की स्त्री की अस्तित्वगत दुर्दशा के संदर्भ में अत्यंत संवेदनशीलता से विश्लेषण किया है। एक उत्कृष्ट अंश में, गुहा पारंपरिक आश्रम प्रणाली का बयान इस प्रकार करते हैं, ‘यह अन्य वर्चस्व ब्राह्यणवादी हिन्दुत्व की विचारधारा अथवा इसके द्वारा व्याव्यायित जाति व्यवस्था में यकीन नहीं रखता। यह जानता है कि वैष्णवी वैचारिकी की अपेक्षाकृत उदारता और इसके ढीले संस्थागत ढ़ांचे को अपने निहित स्वार्थों के लिए कैसे मोडा जा सकता है, और इस तरह दिखाते हुए कि ‘पीडित की आह को सम्बोधित करने वाला धर्म का प्रत्येक तत्व दूसरे को क्षरित करने का काम भी करता है’ (सबाल्टर्न स्टडीज 5, पृष्ठ 159)। सैद्धान्तिक वर्चस्व के मुद्दों से जुडे सबाल्टर्न अध्ययनों के सरोकार इस विचारधारा के अपने सैद्धान्तिक तनावों को भी प्रश्नित करते हैं। भव्य बनाम निम्नवर्गीय इतिहास;या पाश्चात्य सार्वजनीनता से प्रेरित निरंकुश यात्रा के बरक्स निम्न जनसमूहों का शौर्यपूर्ण प्रतिरोध-अवरोधन की साथ-साथ प्रस्तुति समाज के दो पृथक सामाजिक धु्रर्वो में बंटवारे के विचार की अभिव्यक्ति है जो इन ‘क्षेत्रों’ के बीच परापसरण (osmosis) के लिहाज से एक सहवर्ती चूक है। इस विचार में समकालीन इतिहास पूंजी और समुदाय के मध्य वृत्तान्तों के महासंघर्ष की गाथा है। इसमें समुदाय आधुनिक समाज में एक वास्तविक उच्छेदक तत्व है-‘समुदाय, जिसे पूंजी के राज्य से सिद्धान्ततः निर्वासित हो जाना था, अभी भी अन्तर्मूत (subterranean) का नेतृत्व कर रहा है,इसके भीतर एक उच्छेदक जिन्दगी संभावित है क्योंकि यह विलोपन से इंकार करती है’ (पार्थ चटर्जी, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1997, पृष्ठ 236)। इससे सवाल उठता है कि ‘वर्ग’ को निम्नता (subalternnity) की अवस्था से क्यों पदावनत कर दिया गया है जबकि इसने भी विलुप्त होने से इंकार कर दिया है। एक ऐसे समय में जब समुदाय का उभार किसान विद्रोह के क्षेत्रा से बहु-उत्पादक पहचान में तेजी से संकुचित हो रहा है, तब क्या किसी अन्य में असमावेशनीय (unassimilable) के बजाय ‘समुदाय’ को वास्तव में पूंजी के अनिवार्य अधिभौतिक के रुप में कार्य नहीं करना चाहिए ?
सैद्धान्तिकी से भी आगे ये तनाव असंगत चयन और मौन तक जाते हैं। उदाहरण के लिए पाकिस्तान के लिए चले आन्दोलन की राजनीतिक सफलता, इस मामले में जो ‘साम्प्रदायिकता’ का ‘राष्ट्रवाद’ में रुपान्तरण है, पर शोध नहीं किया गया जबकि इस ओर गुहा ने संकेत किया था (सबाल्टर्न स्टडीज 6, 1992, पृष्ठ 304 और सबाल्टर्न स्टडीज 7, 1994, पृष्ठ 99-100)। ऐसी ही फौरी जरुरत भारतीय कम्यूनिस्टों के अस्थायित्व पर चिंतन की है जिन्होंने 1940 में दो-राष्ट्र सिद्धान्त और विभाजन का उल्लेखनीय समर्थन किया था। बाद के पाकिस्तान और उसमें से बंगला देश के अभ्युदय की परिघटना को भी सम्बोधित नहीं किया गया जिसमें दक्षिण एशिया में राष्ट्रीयता और अस्मिता को लेकर मापदण्ड़ों (paradigms) में आये आमूल परिवर्तन को समझने में बहुतों की दिलचस्पी हो सकती थी। क्या 1947 के खंडित अवशेषों को लेकर सबाल्टर्न सोच में वैचारिक स्पष्टता आ पायी है? इसी तरह, कलकत्ता के जूट मिल मजदूरों पर चक्रवर्ती के प्रकाशन (सबाल्टर्न स्टडीज 2, 1983; सबाल्टर्न स्टडीज 3, 1984 और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1989) के बाद इस धारा के मुख्य कामों में श्रमिक श्रेणी और श्रमिक वर्गों का इतिहास अनुपस्थित है। इन अध्ययनों में क्षणिक रुप से वर्णित श्रमिक प्रसंगों में ये भी नहीं दिखाया गया कि राष्ट्रीय आन्दोलन या राष्ट्रवाद का इन पर क्या असर पड़ा। गांधीवादी चिंतन पर पार्थ चटर्जी की अन्तर्दृष्टि सम्पन्न टिप्पणियों (सबाल्टर्न स्टडीज 3, 1984 और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1986) और चौरा-चौरी पर अमीन के काम के अलावा गांधी और अहिंसा के व्यापक लोकप्रिय प्रभाव का भी पर्याप्त विश्लेषण नहीं हुआ है। जो अध्येता नकारात्मकता से थके हैं और करिश्माई भूमिका के उत्तर तलाश रहे हैं वे डेनिस डॉल्टन के निबंध ‘विभाजन के दौरान गांधी’ (सी. एच. फिलिप्स एण्ड एम. डी. वेनराइट, संपादक, भारत का विभाजन, ऐलन और अनविन 1970) से भावात्मक तुष्टि के साथ वैचारिक खुराक पा सकते हैं। जबकि डॉल्टन न तो इतिहासकार हैं और न ही सबाल्टर्न लेखक।
यह दोष भारत में या अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर साम्यवादी आन्दोलन के इतिहास के संदर्भ में अरुचि के रुप में मौजूद है। ये इस धारा के संस्थापक द्वारा देशज बुर्जुआजी के सार्वजनीनवादी दावों की ‘सिद्धान्तवादी और समग्र (विभिन्न दर्शनग्राही और खण्डीय के विरोध के रुप में) आलोचना पैदा करने में क्रान्तिकारी इतिहास लेखन की असफलता में स्थायी रुचि से प्रदत्त है’ (गुहा, सबाल्टर्न स्टडीज 6, 1989, पृष्ठ 307)। यह उनके द्वारा आन्दोलन के इतिहास और इतिहास लेखन से जुडे व्यवहार को सम्बोधित करते समय बौद्धिक रुप से अपनायी जाती रही है जिसके वे सैद्धान्तिक रुप से ऋणी हैं। गांधीवादी कांग्रेस के प्रतिनिधि दावे के रुप में क्या लिया जा रहा है इसे लेकर सबाल्टर्न धारा में विद्वेष भाव है। बुर्जुआ आकांक्षा को राष्ट्रवादी सार्वभौमिकता में बदल देने की आदत की इनकी संकीर्णता (डिसिप्लिन एण्ड सबाल्टर्न स्टडीज 7, 1993) मजदूरों और किसानों के ‘सच्चे प्रतिनिधित्व’ के राजनीतिक व्यवहार के बारे में भी एक शंका को जाहिर करती है। गुहा को विवादों से परहेज करने वाला मानना मुश्किल है-और इस कारण भारतीय वामपंथ के पर्याप्त उल्लेखनीय अन उद्घाटित पक्षों और त्रासद विचलनों पर सबाल्टर्न लेखकों के ‘सैद्धान्तिक और समग्र’ शोध का बचाव होता रहा है। गुहा के अपने राजनीतिक प्रक्षेपण (trajectory) के अवलोकन (बायोग्राफिकल स्केच, सबाल्टर्न स्टडीज 8, 1994), जिनमें 1956 में हंगरी पर सोवियत संघ के आक्रमण के बाद उन्होंने वामपंथ से अपने मोहभंग का उल्लेख किया है, और 1970-71 में दिल्ली विश्वविद्यालय में माओवादी छात्रों से उनके जुडाव का जिक्र है, उनके वैचारिक रुपान्तरण की प्रकृति और अन्तर्वस्तु पर कोई रोशनी नहीं डालते हैं। यह केवल जीवनीपरक विवरण का मामला नहीं है। ये मुद्दे बोल्शेविक आन्दोलन से जुडे गंभीर ऐतिहासिक सवालों से जुडे हैं और इनका असर भारत ही नहीं, बीसवीं सदी के तमाम साम्राज्यवाद विरोधी संघर्षों पर पड़ा है। तथ्य यह है कि सबाल्टर्न अध्ययनों में गैर-भारतीय समाजों पर प्रासंगिक लेखन होना चाहिए जिसमें इस परियोजना की संगति में आभिजात्य पूर्वग्रह और सैद्धान्तिक छद्मावरणों को उद्घाटित किया जा सके और जो राष्ट्रों के बीच (कम से कम अवधारणाओं के स्तर पर) नयी बहस शुरु कर सकें। अभी तक इसने लेनिनवाद के 17 वर्षों को सैद्धान्तिक खेद-प्रकाश (apolosy) की शक्ल में सम्बोधित किया है जिसमें सोवियत संघ में राजनीतिक वर्चस्व और निम्नजन समूहों की अधीनस्थता से जुड़े मसलों को नहीं उठाया गया। अन्तर्राष्ट्रीय वामपंथी आन्दोलन पर रूसी क्रान्ति अथवा स्टालिनवाद के असर को ‘नीचे से’ (from below) से विवेचित करने की पहल होनी चाहिए।
एक असम्बद्ध क्षेत्रा के रुप में सबाल्टर्न अध्ययनों ने औपनिवेशिक और उसके बाद के भारत, बल्कि हाल के विकासों को समेटते हुए, इतिहास पर विचारोत्तेजक शोध प्रस्तुत किये हैं। विभिन्न मुद्दों पर यह नवोन्मेषी शोध का ऐसा मंच रहा है जिसकी परिधि ‘निम्न’ जाति और ‘आदिवासी’ किसान विद्रोह से मध्यवर्गीय विचारणाओं में राष्ट्रवाद, कैदी जीवन, औपनिवेशिक अनुशासिक ढांचे, मादक द्रव्यों की राजनीति, मिथकों के महत्त्व और ‘बन्धुआ’ (दासता) की व्याख्याओं तक विस्तारित है। इन्होंने राष्ट्रवाद, औपनिवेशिक विज्ञान, जाति, जेन्डर और अस्मिता के सवालों पर सैद्धान्तिक चिंतन में भी महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। इसमें बहुसंख्यकों के राष्ट्रवाद अथवा हिन्दुत्व के पूर्ववर्ती इतिहास लेखन का मूल्यांकन (पार्थ चटर्जी, सबाल्टर्न स्टडीज 8, 1994), औपनिवेशिक दण्ड-विधान की आलोचना (एर्नोल्ड, सबाल्टर्न स्टडीज 8, 1994) भारतीय स्त्रीवाद में ताजा विकासों पर टिप्पणियों (थारु और निरंजना, सबाल्टर्न स्टडीज 9, 1996) रखैलों और महिला घरेलू दासत्व पर शोध (इन्द्राणी चटर्जी, सबाल्टर्न स्टडीज 10, 1999) और औपनिवेशिक नृतत्वशास्त्र के तत्वमीमांसीय विश्लेषण (के. घोष, सबाल्टर्न स्टडीज 10, 1999) को भी शामिल किया जा सकता है। इस समूह के मेधावी लेखक द्वारा लिखी स्कूल की आलोचना को भी जिज्ञासु अध्येता महत्त्वपूर्ण पायेगें। ‘सबाल्टर्न अध्ययनों में सबाल्टर्न (निम्न जन समूहों) के पतन’ (ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस 1998) लेख में सरकार ने चुनौती देते हुए लिखा है कि वे स्थानीय का मूल्य स्थिर करते समय क्या सोचते हैं, कैसे उन्होंने भावुकता को प्रतिष्ठापित किया है और कैसे पूंजीवाद और औपनिवेशिक शोषण से अपने शास्त्राीय लक्ष्य को ज्ञानोदय की विवेकशीलता पर स्थानान्तरित कर लिया है। किसी व्यक्ति अथवा एजेन्सी द्वारा उसके पसंदीदा विषय अथवा रुचि के क्षेत्र पर अभिव्यक्ति के ‘प्रतिनिधित्व’ की विद्वता के दावे की किसी स्थिति पर विचार की व्यवस्था रहनी चाहिए।
इतिहास का अनुशासन कभी भी पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं रह सकता लेकिन निश्चय ही, इसे सम्पूर्ण सत्य और शास्त्रीय के संतुलन के प्रति प्रतिबद्ध होना चाहिए। बहरहाल, सबाल्टर्न अध्ययनों ने भारतीय इतिहास लेखन में विमर्श के स्तर का उन्नयन किया है, इसकी उपलब्धियों की आलोचना भले ही की जाये लेकिन इन्हें नकारा नहीं जा सकता।
इसने इतिहास के अनुशासन के भीतर और बाहर तथा भारत में और इसकी सीमाओं के परे अनेक अध्येताओं के अभिमुखीकररण को प्रभावित किया है। क्या यह धारा इसके खुद के व्यवहारों से उपजे सवालों,विशेषकर उत्तर सोवियत वैश्विक व्यवस्था में तेजी से आ रहे सामाजिक और राजनीतिक परिवेशगत परिवर्तनों के परिदृश्य में,को सम्बोधित करने में अपनी मूल क्रान्तिकारी प्रेरणाओं को कायम रख सकेगी-यह एक वृहद चुनौती है।

संदर्भ:

1. सबाल्टर्न स्टडीज (दस खंड) 1983 से 1999 तक प्रकाशित
2. रणजीत गुहा, एलीमेन्ट्री आस्पेक्टस ऑफ पिजेन्टस (ऑक्सफोड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1983) इनसर्जेन्सी इन कॉलोनियल इंडिया, डेविड हार्डीमैन, दि कमिंग ऑफ दि देवीःआदिवासी असर्सन इन वेस्टर्न इंडिया (ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1987)
3. दीपेश चक्रवर्ती, रिथिंकिंग वर्किंग क्लास हिस्ट्री: बंगाल, 1890-1940 (ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1989)
4. ज्ञानेन्द्र पाण्डे, दि कंस्ट्रक्शन ऑफ कम्यूनलिज्म इन कॉलांेनियल नॉर्थ इंडिया (आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1990)
5. ज्ञान प्रकाश, जीनियोलॉजीज ऑफ लेबर सर्विट्यूड इन कॉलोनियल इंडिया (केब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस, 1990)
6. शाहिद अमीन, इवेन्ट, मेटाफर, मेमौरी, चौरा-चौरी, 1922-1992 (ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1995)
7. पार्थ चटर्जी, नेशनलिस्ट थॉट एण्ड दि कॉलोनियल वर्ल्ड- ए डेरिवेटिव डिस्कॉर्स (जेड/ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1986) और द नेशन एण्ड इट्स प्रोगमैटस; कॉलोनियल एण्ड पोस्ट कॉलोनियल हिस्ट्रीज, (ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस 1997)
8. सुमित सरकार, राइटिंग सोशल हिस्ट्री (ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1998)

टिप्पणियाँ

  1. महोदय, कृपया मुझे इस ईमेल में सबाल्टर्न थ्योरी के रंजीत गुहा के भाग भेजें Shiksha.sandesh100@gmail.com

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दस कहानियाँ-१ : अज्ञेय

दस कहानियाँ १ : अज्ञेय- हीली- बोन् की बत्तखें                                                     राजाराम भादू                      1. अज्ञेय जी ने साहित्य की कई विधाओं में विपुल लेखन किया है। ऐसा भी सुनने में आया कि वे एक से अधिक बार साहित्य के नोवेल के लिए भी नामांकित हुए। वे हिन्दी साहित्य में दशकों तक चर्चा में रहे हालांकि उन्हें लेकर होने वाली ज्यादातर चर्चाएँ गैर- रचनात्मक होती थीं। उनकी मुख्य छवि एक कवि की रही है। उसके बाद उपन्यास और उनके विचार, लेकिन उनकी कहानियाँ पता नहीं कब नेपथ्य में चली गयीं। वर्षों पहले उनकी संपूर्ण कहानियाँ दो खंडों में आयीं थीं। अब तो ये उनकी रचनावली का हिस्सा होंगी। कहना यह है कि इतनी कहानियाँ लिखने के बावजूद उनके कथाकार पक्ष पर बहुत गंभीर विमर्श नहीं मिलता । अज्ञेय की कहानियों में भी ज्यादा बात रोज पर ही होती है जिसे पहले ग्रेंग्रीन के शीर्षक से भी जाना गया है। इसके अला...

कथौड़ी समुदाय- सुचेता सिंह

शोध कथौडी एक ऐसी जनजाति है जो अन्य जनजातियों से तुलनात्मक रूप से पिछड़ी और उपेक्षित है। यह अल्पसंख्यक जनजाति महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान के कुछ अंचलों में छितरायी हुई है। दक्षिण राजस्थान में इनके हालात प्रस्तुत कर रही हैं अध्येता सुचेता सिंह। दक्षिण राजस्थान के आदिवासी क्षेत्र में कथौड़ी जनजाति है जो वहां रहने वाली जनजातियों में सबसे कम संख्या में है। एक शोध रिपोर्ट के अनुसार इस जनजाति समुदाय की वृद्धि दर दशक वार घट रही है। 'ये लोग कैथ के पेड़ से कत्था निकालने का काम करते थे जो पान में लगाया जाता है इसलिए इनका नाम कथौड़ी पड़ा।' वैसे ये लोग कत्था बनाने के साथ-साथ बहुत से वन सम्बन्धी कार्य करते हैं, जैसे-बांस कटाई एवं दुलाई, वृक्ष कटाई, वन उपज संग्रहण, वन्य जीव आखेट, हाथ औजार निर्माण तथा वन औषध उपचार आदि। राजस्थान में इन लोगों का इतिहास कोई अधिक पुराना नहीं है। इन्हे महाराष्ट्र से इस क्षेत्र में कत्था उत्पादन और वन कटाई के लिए लाया गया। ऐसा अनुमान है कि जंगल के ठेकेदार इन्हे कोंकण महाराष्ट्र से यहां लेकर आये। ऐसा लगता है कि पूर्व में भी ये घुमक्कड़ जीवन जीते थे। इनकी बसाहटें म...

समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान-1

रंगमंच  समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान -1                                         राघवेन्द्र रावत  समकालीन हिंदी रंगमंच के बारे में बात बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध से भी की जा सकती थी लेकिन मुझे लगता है कि उससे पूर्व के भारतीय रंगमंच के परिवर्तन की प्रक्रिया पर दृष्टिपात कर लेना ठीक होगा | उसी तरह राजस्थान के समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करने से पहले भारतीय हिंदी रंगमंच पर चर्चा करना जरूरी है, और उससे भी पहले यह जानना भी आवश्यक है कि वस्तुतः रंगमंच क्या है ?और रंगमंच के बाद हिंदी रंगमंच और उसके बाद समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करना एक उचित क्रम होगा भले ही यह मेरे अध्ययन की गरज ही लगे | राजस्थान के रंगमंच पर बात करना इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि इस पर हिंदी साहित्य की तरह चर्चा नहीं हुई चाहे वह आलोचना की दृष्टि से देखें या इसके इतिहास की नज़र से देखें | दो वर्ष पहले ‘जयरंगम’ नाट्य समारोह के एक सेशन में बोलते हुए वरिष्ठ रंग एवं फिल्म समीक्षक अजित राय ने कहा था-“ पता नहीं कौन सा नाटक...

भूलन कांदा : न्याय की स्थगित तत्व- मीमांसा

वंचना के विमर्शों में कई आयाम होते हैं, जैसे- राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक इत्यादि। इनमें हर ज्ञान- अनुशासन अपने पक्ष को समृद्ध करता रहता है। साहित्य और कलाओं का संबंध विमर्श के सांस्कृतिक पक्ष से है जिसमें सूक्ष्म स्तर के नैतिक और संवेदनशील प्रश्न उठाये जाते हैं। इसके मायने हैं कि वंचना से संबंद्ध कृति पर बात की जाये तो उसे विमर्श के व्यापक परिप्रेक्ष्य से जोडकर देखने की जरूरत है। भूलन कांदा  को एक लंबी कहानी के रूप में एक अर्सा पहले बया के किसी अंक में पढा था। बाद में यह उपन्यास की शक्ल में अंतिका प्रकाशन से सामने आया। लंबी कहानी  की भी काफी सराहना हुई थी। इसे कुछ विस्तार देकर लिखे उपन्यास पर भी एक- दो सकारात्मक समीक्षाएं मेरे देखने में आयीं। ऐसी ही प्रतिक्रिया रणेन्द्र के उपन्यास ग्लोबल गाँव के देवता को भी मिल चुकी थी। किन्तु आदिवासी विमर्श के संदर्भ में ये दोनों कृतियाँ जो बड़े मुद्दे उठाती हैं, उन्हें आगे नहीं बढाया गया। ये सिर्फ गाँव बनाम शहर और आदिवासी बनाम आधुनिकता का मामला नहीं है। बल्कि इनमें क्रमशः आन्तरिक उपनिवेशन बनाम स्वायत्तता, स्वतंत्र इयत्ता और सत्त...

'ब्लड ऑफ़ दी कॉनडोर' [ Blood of the Condor]

सिने -संवाद                                                                            ' ब्लड ऑफ़ दी कॉनडोर'  [ Blood of the Condor]                                          मनीष आजाद 1960 का दशक भारी उथल पुथल का दौर था। पूरे विश्व में समाज के लगभग सभी शोषित तबके व वर्ग अपनी पहचान व अधिकार हासिल करने के लिए शोषणकारी व्यवस्था से सीधे टकराने लगे थे। साहित्य, कला, संगीत इससे मूलभूत तौर पर प्रभावित हो रहा था और पलटकर इस संघर्ष में अपनी भूमिका भी निभा रहा था। अपेक्षाकृत नई कला विधा सिनेमा भी इससे अछूता न था। इसी दशक में यूरोपियन सिनेमा में ‘नवयथार्थवाद’ की धारा आयी जिसने फिल्म की विषयवस्तु के साथ साथ फिल्म मेकिंग को भी मूलभूत तौर पर बदल डाला और यथार्थ के साथ सिनेमा का एक नया रिश्ता बना।  लेकिन...

चौकन्नी स्त्रियाँ - रजनी मोरवाल

कहानी-कहानीकार महिला संघर्षों का कोलाज - रजनी मोरवाल का कथा संसार                               चरण सिंह पथिक राजस्थान ही नहीं वरन समूची हिंदी पट्टी में पिछले एक दशक में जिस तेजी से अपनी कहानियों के वैशिष्ट्य के कारण कथा जगत में जो-जो नाम प्रमुखता से लिए जाते हैं , उनमें रजनी मोरवाल का नाम प्रमुख है । रजनी मोरवाल ने अपने पहले कहानी-संग्रह 'कुछ तो बाकी है' से कथा जगत के इस जटिल प्रदेश में अपनी कहानियों के बलबूते अपनी अलग पहचान कायम की है । किसी भी रचनाकार के लिए अपने लेखन को शुरुआती जुनून के जैसा बरकरार रखना , एक चुनौती होता है ।  ऐसे में अगर आप महिला हैं तो और भी कठिनाइयां आपके सामने होती हैं । जिनसें कदम-कदम पर आपको जूझना होता है । रजनी मोरवाल ने इन चुनौतियों की परवाह ना करते हुए अपना लेखन निरंतर जारी रखा । 'नमकसार' संग्रह की कहानियाँ तथा उसके बाद का उपन्यास 'गली हसनपुरा' रजनी के रचना वैशिष्ट्य की गवाही देता है । 'नमकसार' कहानी पर एक सफल नाटक का मंचन भी हो चुका है । दरअसल रजनी मोरवाल के यहां किरदारों और विष...