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कवि व्यक्तित्व-तारा प्रकाश जोशी

स्मृति-शेष
हिंदी के विलक्षण कवि, प्रगतिशील विचारों के संवाहक, गहन अध्येता एवं विचारक तारा प्रकाश जोशी का जाना इस भयावह समय में साहित्य एवं समाज में एक गहरी  रिक्तता छोड़ गया है । एक गहरी आत्मीय ऊर्जा से सबका स्वागत करने वाले तारा प्रकाश जोशी पारंपरिक सांस्कृतिक विरासत एवं आधुनिकता दोनों के प्रति सहृदय थे । उनसे जुड़ी स्मृतियाँ एवं यादें साझा कर रहे हैं -हेतु भारद्वाज ,लोकेश कुमार सिंह साहिल , कृष्ण कल्पित एवं ईशमधु तलवार ।

कवि व्यक्तित्व-तारा प्रकाश जोशी 
                                         हेतु भारद्वाज 
स्व० तारा प्रकाश जोशी के महाप्रयाण का समाचार सोशल मीडिया पर मिला। मन कुछ अजीब सा हो गया। यही समाचार देने के लिए अजमेर से डॉ हरप्रकाश गौड़ का फोन आया। डॉ बीना शर्मा ने भी बात की- पर दोनों से वार्तालाप अत्यंत संक्षिप्त  रहा। दूसरे दिन डॉ गौड़ का फिर फोन आया तो उन्होंने कहा, कल आपका स्वर बड़ा अटपटा सा लगा। हम लोग समझ गए कि जोशी जी के जाने के समाचार से आप कुछ असहज है, इसलिए ज्यादा बातें नहीं की। पोते-पोती ने भी पूछा 'बावा परेशान क्यों हैं?' मैं उन्हें क्या उत्तर देता। 

उनसे मेरा परिचय 1960 में मित्र नवल किशोर ने कराया था- तब वे युवा थे और देश के प्रसिद्ध गीतकारों में उनकी पहचान होने लगी थी। वह मंच पर बहुत मधुरता के साथ गीत गाते थे। तब से उनसे आत्मीयता बढ़ती गई। उनके घर जाकर उनके साथ साहित्य पर बातें करने का  सुख अनिर्वच होता था। वे बहुत पढ़ाकू तथा ज्ञान का समृद्ध भंडार थे। अध्यापक नहीं बन सके, ये अफसोस उन्हें हमेशा सताता रहा। वे प्रशासनिक अधिकारी थे पहले आरएएस वे फिर आईएएस। राजस्थान सरकार ने बड़े-बड़े पदों पर रहे। किंतु उनके व्यवहार में अफसरी आभिजात्य कभी नहीं आ पाया। सादा पोशाक में रहना और सबसे अपनापे के साथ मिलना, खूब बातें करना। अगर कोई उनके पास कोई मदद मांगने आता तो वह बिना हिचक उसकी मदद करते। मुझे नहीं लगता कि वह कभी नौकरशाहों की संगत में प्रसन्न रहे हों। वे शुद्ध कवि थे-अपने आचरण में। किसी तरह का अहंकार नहीं, दिखावटीपन नहीं सामने वाले को प्रभावित करने के लिए कोई कसदन कोशिश नहीं। 1960 में उनका पहला काव्य-संग्रह छपा था 'वेदना के स्वर'। इसकी समीक्षा मैंने जयपुर से प्रकाशित होने वाले 'ज्वाला' साप्ताहिक में की थी। नवल जी से उन्होंने इतनाभर कहा था, 'हेतु को साहित्य की समझ तो है।'

 मैं उनसे मिलने 2019 में गया था। उनकी दशा देखकर बड़ी पीड़ा हुई।  मैंने उनके प्रिय साथी श्रीकृष्ण शर्मा से कहा, 'अब उन्हें देखना बड़ा कष्टप्रद है।' वे ना कुछ कह पाते हैं, ना किसी को सुन पाते हैं। उनके पास आने का मतलब है उन्हें तथा अपने को यातना देना। सदा चहकते रहने वाला कवि बिस्तर पर निढाल शरीर में तब्दील हो गया था। उनके मित्रों का दायरा बहुत बड़ा था। उनसे मुलाकात करने का मतलब एक साहित्यिक गोष्ठी में हिस्सा लेना होता था।
 उनके साथ बहुत लंबा संपर्क रहा- भरपूर स्नेह मिला। बहुत सारे प्रसंग हैं जिनकी याद सदा बनी रहेगी। यहां एक प्रसंग का जिक्र कर रहा हूं- उन दिनों राजस्थान विश्वविद्यालय में परीक्षा के बाद उत्तर पुस्तिकाओं का मूल्यांकन विवि परिसर में ही कराया जाता था। राजस्थान भर के शिक्षकों का विराट मेला लगता था। उस समय तारा प्रकाश जोशी राजस्थान वेयरहाउस कॉरपोरेशन में निदेशक पद पर कार्यरत थे। उनका कार्यालय संतोकबा दुर्लभजी अस्पताल के बराबर था- विश्वविद्यालय के काफी निकट। 
 एक रोज हम लोग मूल्यांकन कार्य से मुक्त हुए तो अजमेर के डॉ हरीश मुझसे बोले, 'चलो हेतु, जोशी जी से मिलने चलते हैं।' हम चार-पांच लोग जोशी जी के कार्यालय में जा धमके। डॉ हरीश स्वयं अच्छे गीतकार थे तथा वे  भी सस्वर काव्य पाठ करते थे। 
 जोशी जी ने हम लोगों का स्वागत किया, पर वे विनम्रता से बोले,' आप लोग बैठो, चाय-वाय पियो, मैं लगभग पौने घंटे में सचिवालय जाकर आता हूं। कोई जरूरी मीटिंग में मेरी उपस्थिति जरूरी है।' पर डॉ हरीश में जैसे उनकी खुदी को धिक्कारा, 'क्या जोशी जी?' आपसे मिलने इतने बड़े बड़े साहित्यकार आए हैं और आप खिसक रहे हैं? मैंने हरीश जी से कहा, 'जाने दो इन्हें, हम कल आ जाएंगे।' पर डॉ हरीश तो जैसे अड़ गए, 'क्या मीटिंग हम लोगों से बड़ी है?' जोशी जी ने चुपचाप फोन उठाकर लगाया और हमारे सामने  कहा मेरी तबीयत थोड़ी खराब है। मैं मीटिंग में नहीं आऊंगा। फोन काट कर उन्होंने चपरासी को चाय समोसा लाने का आदेश दे दिया। 
 बैठक जम गई गीतों का आदान प्रदान हुआ दो बार चाय हुई। यह था तारा प्रकाश जोशी का कवि व्यक्तित्व। उनकी स्मृति को बार-बार नमन।
  
यशकाया-डॉ. ताराप्रकाश जोशी
                             लोकेश कुमार सिंह 'साहिल'

बात इस फोटो से ही शुरू करते हैं । पिछली दीपावली पर जोशी जी से मिलने गया था । हर बार की तरह ख़ूब बातें हो रही थीं । बात से बात निकालते हुए मैंने कहा "दादा ! आप ऐसा क्यों करते हैं ? आपने एक ऐसे व्यक्ति को साहित्य का चौकीदार बना दिया जिसे न साहित्य की समझ है और न ही भाषा की । अब वो साहित्य-भूषण पन्सारी बना ऐंठता है ।" 
जोशी जी ने एक लम्बी चुप्पी तोड़ते हुए कहा " जाने दो कुँअर साहब ! , मेरा क्या गया ? , चलो कोई और बात करो , और बताओ बहुरानी कैसी हैं ?" 
मैं समझ गया कि जोशी जी को मेरी बात अच्छी नहीं लगी । लेकिन जयपुर में दो ही घर तो ऐसे रहे जहाँ मैं अपने मन की बात बिना किसी संकोच के कह देता हूँ , एक जस्टिस विनोद शंकर दवे का और दूसरा ताराप्रकाश जी का ।  इन दोनों ही घरों में मैं जब चाहे जा सकता हूँ , माँग कर खा सकता हूँ और ज़रूरत पड़ने पर पैसे भी उधार ले सकता हूँ । तो जो मैं सोचता था , जोशी जी से कह दिया । 
ख़ैर ! बात जोशी जी की है तो मुझ पर निस्सीम नेह लुटाने वाले जोशी जी की कुछ बातें साझा कर रहा हूँ । 

उन दिनों मैं हमारे लोक-विकास संस्थान के बैनर तले कला , साहित्य , पत्रकारिता और समाजसेवा के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करने वाले विशिष्ट व्यक्तियों का सम्मान किया करता था , उस दौर में सम्मान-राशि 5100/- थी और सम्मान या तो पूर्व प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर प्रदान करते थे या पूर्व उपराष्ट्रपति भैरोंसिंह जी । 
पहला सम्मान समारोह होना तय हुआ । साहित्य के लिये मेरे पास एक ही नाम था , डॉ. ताराप्रकाश जोशी । मैं और मास्टर रामशरण अंत्यानुप्रासी जोशी जी के घर गये , उन्हें पूरी बात बताई । सुनकर जोशी जी बोले "यह सम्मान लेना मेरे लिये सम्भव नहीं है" । मैं हक्का-बक्का था , बोला "दादा ! आप मेरी बात नहीं मानोगे ?" जोशी जी बोले "अभी तो मेरे गुरु बैठे हैं , उनसे पहले मेरा सम्मान कैसे हो सकता है ?" अब बारी मेरे चौंकने की थी , मैं बोला "आपके गुरु ? वे कौन हैं ? मैं तो उन्हें जानता ही नहीं" । जोशी जी बोले "इन्दुशेखर जी , मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा है , उनके गीत सुनो" । और जोशी जी ने गाना शुरू कर दिया "गये हज़ार वर्ष बीत , चाँद का कलंक तो नहीं धुला , नहीं धुला" । पूरा गीत शानदार था , सुनकर मैं बोला "चलो दादा ! आपके गुरु से मिलने चलते हैं , अब तो पहला सम्मान उन्ही का करेंगे" । 
हम इन्दुशेखर जी के घर गये । लाजवाब शख़्सियत थे । ज्ञान का भण्डार अपने पूरे सहज हास्य-बोध के साथ हमारे सामने था । जोशी जी ने उन्हें सम्मान हेतु तैयार कर लिया , हालांकि उनको भी ज़ोर बहुत लगाना पड़ा , डोकरा ज़िद्दी था लेकिन जोशी जी कौन से कम ज़िद्दी थे , मनवा कर ही छोड़ा । 
समारोह बिड़ला सभागार में आयोजित हुआ । वह बिड़ला सभागार का पहला निजी कार्यक्रम था । उससे पहले वहाँ सरकारी आयोजन ही होते थे । वो अनुमति भी के के बाबू (कृष्ण कुमार बिड़ला) को फ़ोन कराने पर मिली थी । पूर्व प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे , अध्यक्षता धर्मयुग के सम्पादक गणेश मंत्री की थी और विशिष्ट अतिथि बिहार वाले दिग्विजय सिंह(जिनकी बेटी श्रेयसी सिंह , जो शूटर बहुत अच्छी है  , आजकल बिहार विधानसभा के चुनाव के कारण ख़बरों में है , और मेरे रिश्तेदार एमपी वाले दिग्विजय सिंह को सफ़ाई देनी पड़ रही है कि श्रेयसी उनकी बेटी नहीं है) थे । 
डॉ. ओंकार सक्सेना , प्रो.इक़बाल नारायण आदि  का सम्मान तो मंच पर हुआ लेकिन इन्दुशेखर जी(वे व्हील चेयर पर थे) का सम्मान करने के लिये चन्द्रशेखर जी मंच से नीचे उतर आये । सामने बैठे जोशी जी खड़े हुए , इन्दुशेखर जी ने अपनी पूरी ताकत लगाई और जोशी जी का सहारा लेकर अपनी व्हील चेयर पर खड़े हुए । चन्द्रशेखर जी ने इन्दुशेखर जी से हाथ मिलाया । अचानक जोशी जी के मुख से निकला "अगर आप चन्द्रशेखर हो तो ये भी इन्दुशेखर हैं" । पूरा सभागार तालियों से गूँज उठा ।
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बात 9 या 10 दिसम्बर 1992 की है । रामलला के सर से छत हटे 3-4 दिन ही हुए थे । शह्र के माहौल में एक अजीब सी दहशत थी । राजस्थान के मशहूर शाइर आफ़ताब-ए-नज़्म मुहतरम नफ़ासत अली 'राही शहाबी' साहब (राही साहब की ग़ज़लें और उनका तरन्नुम भी लाजवाब था लेकिन वे मुशायरों में ग़ज़ल पढ़ने से बचते थे , अपनी पाबन्द नज़्में ही पढ़ा करते थे और इतनी घन-गरज से पढ़ते थे कि मुर्दा भी दाद दे उठता था ) मेरे ऑफ़िस आये । वे उन दिनों गाँधी नगर सरकारी क्वार्टर में रह रहे थे । चाय पीते-पीते बोले "जोशी जी से कुछ बात करनी है , चल सकते हैं ?" । जोशी जी से मिलना मेरे लिये सदा ही एक ट्रीट जैसा रहा । मैं तुरन्त तैयार हो और ड्राइवर को गाड़ी निकालने के लिये कह दिया । 
मालवीय नगर से बापू नगर पहुँचने के रास्ते भर राही साहब थोड़े गुमसुम , अनमने से दिखे । हम सी-121 , मंगल मार्ग(इस सड़क का नाम कब का नन्द किशोर पारीक मार्ग हो चुका है लेकिन मेरी ज़ुबान पर आज तक मंगल मार्ग ही है) पहुँचे ।
तब जोशी जी के घर का वर्तमान स्वरूप नहीं था , सिंगल स्टोरी बड़ी कोठी ही थी । ये सिंगल स्टोरी बड़ी कोठी कैसे मल्टीस्टोरी भवन में तब्दील हुई , कैसे इसमें अपार्टमेंट्स बने , राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री शिवचरण माथुर के भतीजे रवि की कम्पनी से कैसे एग्रीमेंट हुआ , शुरू में जोशी जी बिल्कुल भी तैयार नहीं थे , कैसे सुबह-सुबह मेरे घर आये कि भैया (जोशी जी का एक मात्र पुत्र स्वर्गीय आलोक जोशी जिसे हम सब गुड्डू कहते थे और जोशी जी भैया) को समझाओ , वो इस घर को तुड़वा कर मल्टीस्टोरी बनाना चाह रहा है , फिर अंत में जोशी जी कैसे तैयार हुए , ये कहानी फिर कभी । 

मोटर से उतरने पर हमने देखा कि जोशी जी लूँगी बाँधे बाहर ही मूढ़े पर बैठे हुए कुछ पढ़ रहे थे । हमें देखते ही एकदम भड़भड़ा कर खड़े हुए , गेट के बाहर तक आ गये और राही साहब से बोले "राही अपने सैंडिल (राही साहब ने कभी भी पैंट-शर्ट अलग-अलग रंग के नहीं पहने , सफ़ारी जैसा ही कुछ पहनते थे और अक्सर सफ़ारी के साथ सैंडिल ही हुआ करते थे) उतारो और हमारे सिर पर गिन कर दस बार मारो , आज हमें तुमसे आँख मिलाकर बात करने में शर्म आ रही है" । 
मैं भौंचक्का था और राही साहब रुआँसे । राही साहब तो भूल ही गये कि किस काम से आये थे ।
यह था राजस्थान में प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापक डॉ. ताराप्रकाश जोशी जी पर 6 दिसम्बर 1992 का असर ।  
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राजस्थान के एक बढ़िया गीत-कवि थे जगदीश चतुर्वेदी । डीपीआर में अच्छे पद पर थे । नेहरू जी के ख़िलाफ़ कविता लिख बैठे , राजस्थान की तत्कालीन कांग्रेस सरकार नाराज़ हो गयी , नौकरी चली गयी । मुक़द्दमे लड़ते रहे लेकिन बहाल नहीं हो पाये और विकराल आर्थिक संकट के शिकार हो गये । 
उनकी बेटी की शादी तय हो गयी , पैसे घर में थे नहीं । राजस्थानी के अप्रतिम गीतकार कल्याण सिंह राजावत और मित्र-परिषद के कुछ अन्य मित्र मेरे पास आये । दहेज़ के सामान का ज़िम्मा मुझे दिया गया । अब प्रश्न था विवाह के भोजन व अन्य व्यवस्थाओं का । मैंने कहा "चलो जोशी जी के पास चलते हैं" । मैं और कल्याण सिंह जी जोशी जी के पास पहुँचे । 

कल्याण सिंह जी को देखते ही जोशी जी खिल उठे । कल्याण सिंह राजावत को जोशी जी "किल जी" कहते थे । उनके राजस्थानी गीतों के दीवाने थे । "बेलड़ी" गीत की एक उपमा "काया ताता दूध सी उफनबा लागी" पर तो फ़िदा थे । कहते थे कि दुनिया के किसी भी भाषा के साहित्य में ऐसी मौलिक , ऐसी अछूती और ऐसी अद्भुत उपमा नहीं मिलेगी । कल्याण सिंह जी के गीत "मालण" को टैगोर(जिन्हें जोशी जी हमेशा ठाकुर ही कह कर सम्बोधित करते थे) के टक्कर की रचना कहते थे और उस पूरे गीत पर गीतांजलि की ही तरह एक बैले तैयार कराने का मन था उनका ।
एक बार मैं जोशी जी के घर पर था । हम बाहर ही बैठे थे । तेज़ हवा चल रही थी । अचानक कहीं से शराब की गन्ध का झौंका आया और तत्काल जोशी जी के मुख से निकला "किल जी एमआई रोड तक आ गये" । हम दोनों ठहाका लगा कर हँस पड़े । 
कल्याण सिंह जी तब शिल्प कॉलोनी , झोटवाड़ा में रहा करते थे । आजकल तो उससे भी आगे अपनी बड़े दामाद देवेन्द्र सिंह राठौड़ और बेटी कामना के पास सुशान्त सिटी में रह रहे हैं । पिछले कई सालों से लकवाग्रस्त हैं , बोली चली गयी है लेकिन राजस्थानी गीतों के राजकुमार की ठसक और मुस्कुराहट आज भी पहले जैसी ही है । देवेन्द्र जी बहुत ही बढ़िया , नेकदिल और समझदार इन्सान हैं । कल्याण सिंह जी का बेटे की ही तरह पूरा ध्यान रखते हैं । उनके दोनों बेटे चन्दन और हनी भी अपने नानो-सा पर जान छिड़कते हैं ।
तो हमारे पहुँचते ही जोशी जी ने कल्याण सिंह जी को गले लगाते हुए कहा "ओ गजबण गली-गली में रास रचनो चोखो कोणी ऐ" । चाय-पानी के बाद कल्याण सिंह जी ने हमारे आने का मक़सद जोशी जी को बताया तो जोशी जी उदास हो गये । कहने लगे "जगदीश ने कुल्हाड़ी पर पैर मारा , मैंने कितना कहा था कि माफ़ी माँग लो , नहीं माँगी , अब देखो कितना दुखी है" । (जोशी जी नेहरू के शैदाई थे और कहते थे कि नेहरू जी यदि राजनीति में नहीं होते तो नोबेल विजेता साहित्यकार होते)
फिर बोले "कोई बात नहीं , जो बन पड़ेगा करेंगे" । ख़ुद भी मदद की और तत्काल कर्पूर चन्द 'कुलिश' जी को भी फ़ोन किया ।
कुलिश जी और जोशी जी दोनों ही गुरु कमलाकर 'कमल' के साहित्य-सदाव्रत के साथी थे और एक-दूसरे का भरपूर सम्मान करते थे । पूरी बात सुनकर कुलिश जी ने जोशी जी को पूरे सहयोग का वचन दिया और उसे पूरी तरह निभाया भी । 
जगदीश जी की पुत्री का विवाह ख़ूब बढ़िया ढंग से सम्पन्न हुआ ।
किसी को जताये बिना उसकी मदद करने और फिर उस बात को हमेशा के लिये भूल जाने में जोशी जी जैसा भावुक-हृदय , मददगार कवि मैंने आज तक कोई दूसरा नहीं देखा ।

साँझ हुई चल पंख समेटें !

                                               कृष्ण कल्पित

ताराप्रकाश जोशी (८७) जब भी यह गीत सुनाते थे हम उदास हो जाते थे । नाराज़ हो जाते थे । 

मुझ अकिंचन को 1977 में जयपुर आने पर जिन लोगों ने हृदय से गले लगाया उनमें जोशीजी प्रमुख हैं । मुझ पर उनका अत्यधिक प्रेम और अत्यधिक अहसान हैं । वे पिछले लगभग एक दशक से बीमार थे लेकिन उनका आशीर्वाद हम पर छतरी की तरह हमेशा तना रहा।
कविता और छन्द को लेकर उनकी बहस अज्ञेय और नामवर सिंह से भी रही । वे बड़े अफ़सर ही नहीं बड़े कवि ही नहीं बड़े विद्वान भी थे और अद्भुत वक्ता भी । वे राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापक रहे ।

मेरा वेतन ऐसे रानी 
जैसे गर्म तवे पर पानी !

जब भी वे गीत सुनाते लोग उनसे इस गीत को सुनने की फ़रमाइश करते । वे सुनाते । यह गीत उनका सिग्नेचर गीत था लेकिन अद्भुत बात यह कि इस नितांत भौतिक और अभावों के गीत का अंत इन स्वप्निल पंक्तियों से होता  है :

जिस दिन नया सूर्य जनमेगा
तेरे जूड़े कली लगानी !
कवि ताराप्रकाश जोशी अब नहीं हैं । पवन पवन में मिल चुकी है और राख ख़ाक में । सोचता रहा कि जाने से पहले मैं जोशीजी से उनका प्रिय गीत सुनाने को कहता तो वे क्या सुनाते ? यह गीत वे मंचों पर नहीं सुनाते थे । ये उनके अकेले के गुनगुनाने का गीत था । जोशीजी ने एकाकी जीवन जिया । यह कविता उनके अकेले जीवन का आर्तनाद है । कविता क्या है जैसे ठुमरी के बोल हों । कविता के कितने प्रकारों/शिल्पों/अदाओं को हमने ठुकरा दिया है । और यह अकेलापन मारखेज़ और काफ़्का के एकांत से अलग है । यदि आप काव्य-रसिक-मर्मज्ञ हैं तो ताराप्रकाश जोशी की इस दुर्लभ कविता-ठुमरी का रसपान कर सकते हैं और यदि कोई सुरीला-गायक इसे गाये तो अमर हो सकता है । जोशीजी के इस काव्य में निराला की कसक और वेदना है ! 
~ ~ ~
सूनापन जाये तो सोऊँ !

(१)
यह बैठा है कैसे बोलूँ
अपना बिस्तर कैसे खोलूँ

यह उलझन जाये तो सोऊँ !

(२)
यह जब से आया गुमसुम है
इसका मौन बड़ा निर्मम है

दुखता दिन जाये तो सोऊँ !

(3)
यह मुझसे मिलता जुलता है
छाया-सा हिलता डुलता है

अपनापन आये तो सोऊँ !

गीतों का चमकता तारा अस्त!
                                        ईशमधु तलवार

राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापक, पुरोधा कवि, गीतकार ताराप्रकाश जोशी का ऐसे दौर में जाना भीतर तक आहत कर गया। राजस्थान में वे हमारे समय के शीर्ष गीतकार थे, जिनकी ध्वनियां अब जेहन में गूंजती रहेंगी।
राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ का जब हमने 12 नवंबर,2017 को कार्यभार संभाला तो हमें सबसे पहले उनका ही ख़याल आया। कोई बीस दिन बाद ही 3 दिसंबर को हमने अपना पहला कार्यक्रम उनके सम्मान का किया- "प्रसंग: ताराप्रकाश जोशी।" इसके लिए वे बहुत मुश्किल से राजी हुए। सम्मान के लिए तो वे तैयार ही नहीं थे। हमने जब कहा कि सम्मान नहीं, चर्चा करेंगे, तब उन्होंने अपनी सहमति दी। वह बात अलग है कि इस चर्चा के बहाने हम उनका औपचारिक सम्मान भी कर पाए।
वे कहते थे-"जिस दिन 'सेंस ऑफ पोएट्री' (कविता का बोध) खत्म हो जाएगा, उस दिन यह समाज नष्ट हो जाएगा।" उनका एक ज़माने में यह गीत बहुत लोकप्रिय हुआ था -"मेरा वेतन ऐसा रानी, जैसे गर्म तवे पर पानी।"

एक बार मैं, फ़ारूक़ आफ़रीदी, कृष्ण कल्पित और लोकेश कुमार सिंह 'साहिल' उनसे मिलने गए। जब हम उनके पास से आने के लिए उठने लगे, तो वे बोले- "ऐसे दिल तोड़ कर जाओगे।" तब वहाँ लंबे समय तक बैठना पड़ा, लेकिन आनंद आया।
उन्होंने अनेक संस्मरण सुनाए।
ताराप्रकाश जोशी जी से खूब स्नेह मिला और उनके साथ बहुत सारी यादें जुड़ी हैं। वे फिर कभी। फिलहाल इस खराब समय में उनका इस तरह जाना अंदर तक हिला गया है। उन्हें सादर नमन और विनम्र श्रद्धांजलि।










टिप्पणियाँ

  1. ये स्मृति आलेख आदरणीय श्री ताराप्रकाश जोशी जी के अंतरंग को समझने का निस्पृह प्रयास है।बहुत अच्छी यादें। और अब ईशमधु जी भी चल दिए। हे भगवान।

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  2. Mere papa.....You have written a beautiful article on my papa...I am his proud princess....

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शोध कथौडी एक ऐसी जनजाति है जो अन्य जनजातियों से तुलनात्मक रूप से पिछड़ी और उपेक्षित है। यह अल्पसंख्यक जनजाति महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान के कुछ अंचलों में छितरायी हुई है। दक्षिण राजस्थान में इनके हालात प्रस्तुत कर रही हैं अध्येता सुचेता सिंह। दक्षिण राजस्थान के आदिवासी क्षेत्र में कथौड़ी जनजाति है जो वहां रहने वाली जनजातियों में सबसे कम संख्या में है। एक शोध रिपोर्ट के अनुसार इस जनजाति समुदाय की वृद्धि दर दशक वार घट रही है। 'ये लोग कैथ के पेड़ से कत्था निकालने का काम करते थे जो पान में लगाया जाता है इसलिए इनका नाम कथौड़ी पड़ा।' वैसे ये लोग कत्था बनाने के साथ-साथ बहुत से वन सम्बन्धी कार्य करते हैं, जैसे-बांस कटाई एवं दुलाई, वृक्ष कटाई, वन उपज संग्रहण, वन्य जीव आखेट, हाथ औजार निर्माण तथा वन औषध उपचार आदि। राजस्थान में इन लोगों का इतिहास कोई अधिक पुराना नहीं है। इन्हे महाराष्ट्र से इस क्षेत्र में कत्था उत्पादन और वन कटाई के लिए लाया गया। ऐसा अनुमान है कि जंगल के ठेकेदार इन्हे कोंकण महाराष्ट्र से यहां लेकर आये। ऐसा लगता है कि पूर्व में भी ये घुमक्कड़ जीवन जीते थे। इनकी बसाहटें म...

समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान-1

रंगमंच  समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान -1                                         राघवेन्द्र रावत  समकालीन हिंदी रंगमंच के बारे में बात बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध से भी की जा सकती थी लेकिन मुझे लगता है कि उससे पूर्व के भारतीय रंगमंच के परिवर्तन की प्रक्रिया पर दृष्टिपात कर लेना ठीक होगा | उसी तरह राजस्थान के समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करने से पहले भारतीय हिंदी रंगमंच पर चर्चा करना जरूरी है, और उससे भी पहले यह जानना भी आवश्यक है कि वस्तुतः रंगमंच क्या है ?और रंगमंच के बाद हिंदी रंगमंच और उसके बाद समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करना एक उचित क्रम होगा भले ही यह मेरे अध्ययन की गरज ही लगे | राजस्थान के रंगमंच पर बात करना इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि इस पर हिंदी साहित्य की तरह चर्चा नहीं हुई चाहे वह आलोचना की दृष्टि से देखें या इसके इतिहास की नज़र से देखें | दो वर्ष पहले ‘जयरंगम’ नाट्य समारोह के एक सेशन में बोलते हुए वरिष्ठ रंग एवं फिल्म समीक्षक अजित राय ने कहा था-“ पता नहीं कौन सा नाटक...

भूलन कांदा : न्याय की स्थगित तत्व- मीमांसा

वंचना के विमर्शों में कई आयाम होते हैं, जैसे- राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक इत्यादि। इनमें हर ज्ञान- अनुशासन अपने पक्ष को समृद्ध करता रहता है। साहित्य और कलाओं का संबंध विमर्श के सांस्कृतिक पक्ष से है जिसमें सूक्ष्म स्तर के नैतिक और संवेदनशील प्रश्न उठाये जाते हैं। इसके मायने हैं कि वंचना से संबंद्ध कृति पर बात की जाये तो उसे विमर्श के व्यापक परिप्रेक्ष्य से जोडकर देखने की जरूरत है। भूलन कांदा  को एक लंबी कहानी के रूप में एक अर्सा पहले बया के किसी अंक में पढा था। बाद में यह उपन्यास की शक्ल में अंतिका प्रकाशन से सामने आया। लंबी कहानी  की भी काफी सराहना हुई थी। इसे कुछ विस्तार देकर लिखे उपन्यास पर भी एक- दो सकारात्मक समीक्षाएं मेरे देखने में आयीं। ऐसी ही प्रतिक्रिया रणेन्द्र के उपन्यास ग्लोबल गाँव के देवता को भी मिल चुकी थी। किन्तु आदिवासी विमर्श के संदर्भ में ये दोनों कृतियाँ जो बड़े मुद्दे उठाती हैं, उन्हें आगे नहीं बढाया गया। ये सिर्फ गाँव बनाम शहर और आदिवासी बनाम आधुनिकता का मामला नहीं है। बल्कि इनमें क्रमशः आन्तरिक उपनिवेशन बनाम स्वायत्तता, स्वतंत्र इयत्ता और सत्त...

'ब्लड ऑफ़ दी कॉनडोर' [ Blood of the Condor]

सिने -संवाद                                                                            ' ब्लड ऑफ़ दी कॉनडोर'  [ Blood of the Condor]                                          मनीष आजाद 1960 का दशक भारी उथल पुथल का दौर था। पूरे विश्व में समाज के लगभग सभी शोषित तबके व वर्ग अपनी पहचान व अधिकार हासिल करने के लिए शोषणकारी व्यवस्था से सीधे टकराने लगे थे। साहित्य, कला, संगीत इससे मूलभूत तौर पर प्रभावित हो रहा था और पलटकर इस संघर्ष में अपनी भूमिका भी निभा रहा था। अपेक्षाकृत नई कला विधा सिनेमा भी इससे अछूता न था। इसी दशक में यूरोपियन सिनेमा में ‘नवयथार्थवाद’ की धारा आयी जिसने फिल्म की विषयवस्तु के साथ साथ फिल्म मेकिंग को भी मूलभूत तौर पर बदल डाला और यथार्थ के साथ सिनेमा का एक नया रिश्ता बना।  लेकिन...

चौकन्नी स्त्रियाँ - रजनी मोरवाल

कहानी-कहानीकार महिला संघर्षों का कोलाज - रजनी मोरवाल का कथा संसार                               चरण सिंह पथिक राजस्थान ही नहीं वरन समूची हिंदी पट्टी में पिछले एक दशक में जिस तेजी से अपनी कहानियों के वैशिष्ट्य के कारण कथा जगत में जो-जो नाम प्रमुखता से लिए जाते हैं , उनमें रजनी मोरवाल का नाम प्रमुख है । रजनी मोरवाल ने अपने पहले कहानी-संग्रह 'कुछ तो बाकी है' से कथा जगत के इस जटिल प्रदेश में अपनी कहानियों के बलबूते अपनी अलग पहचान कायम की है । किसी भी रचनाकार के लिए अपने लेखन को शुरुआती जुनून के जैसा बरकरार रखना , एक चुनौती होता है ।  ऐसे में अगर आप महिला हैं तो और भी कठिनाइयां आपके सामने होती हैं । जिनसें कदम-कदम पर आपको जूझना होता है । रजनी मोरवाल ने इन चुनौतियों की परवाह ना करते हुए अपना लेखन निरंतर जारी रखा । 'नमकसार' संग्रह की कहानियाँ तथा उसके बाद का उपन्यास 'गली हसनपुरा' रजनी के रचना वैशिष्ट्य की गवाही देता है । 'नमकसार' कहानी पर एक सफल नाटक का मंचन भी हो चुका है । दरअसल रजनी मोरवाल के यहां किरदारों और विष...