सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

जाति गणना के निहितार्थ - राजाराम भादू

इस दशक (2010) की जनगणना में दो ऐतिहासिक चीजें होने जा रही हैं। इनमें एक है जातिवार जनगणना और दूसरी है हर व्यक्ति का विशिष्ट परिचय पत्र (यूनिक आइडेन्टिटी कार्ड)। हम पहली परिघटना पर विमर्श में शामिल होना चाहते हैं।
जाति आधारित जनगणना कहते हैं कि आखिरी बार 1930 में हुई थी, उसके बाद इसे बंद कर दिया गया। भारतीय संविधान में सकारात्मक सक्रियता (अफर्मेटिव एक्शन) के चलते आरक्षण का प्रावधान करते समय जातियों को आधार न बनाकर इनकी अनुसूचित श्रेणियों को आधार बनाया गया था। संविधान निर्माताओं की संकल्पना थी कि देश से जल्दी ही जातियां तिरोहित हो जायेंगी। हम देखते हैं कि संविधान लागू होने के छह दशक बाद भी भारतीय समाज में जाति व्यवस्था और मजबूत हुई है। इसके कारणों का गंभीर विश्लेषण भले ही न हुआ हो लेकिन जन्नत की हकीकत हम सभी जानते हैं।
इन दशकों में जातियों की गणना की मांग भी उठती रही है। विशेषकर आरक्षण के संदर्भ में अक्सर जातियों की सही संख्या पता करने की बात की जाती है। मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद से पिछड़ों की जनसंख्या को लेकर न्यायालय ने भी जाति आधारित जनगणना पर अपनी राय का इजहार किया था। अभी तक जातियों को लेकर 1930 की गणना के आधार पर ही कयास (प्रोजेक्शन) लगाये जाते थे। विगत कुछ वर्षों से कहा जा रहा था कि जनगणना में जातियों के आधार को भी शामिल किया जाये।
जब 2010की जनगणना प्रक्रिया शुरू हुई तो यह मांग बलवती होकर उभरी। आरंभिक अन्यमनस्कता के बाद कांग्रेस नीत प्रगतिशील गठबंधन सरकार अंततः जातियों के आधार पर जनगणना के लिए राजी हो गयी। यह दिलचस्प है कि संसद में इस मुद्दे को लेकर कोई विशेष वैचारिक बहस नहीं हुई। भाजपा सहित किसी विपक्षी राजनैतिक दल ने भी इसका कडा प्रतिवाद नहीं किया। चंद संसदीय और मंत्रिमण्डलीय समितियों में सलाह-मशविरे के बाद जाति गणना को लेकर लगभग राजनीतिक सर्वसहमति बन गयी। अर्थात् संविधान लागू होने के छह दशक बाद भारतीय समाज में जाति के अस्तित्व को राजनीतिक मान्यता मिल गयी।
जाति के आधार पर जनगणना का कोई सशक्त राजनीतिक प्रतिवाद सामने नहीं आया। बुद्धिजीवियों, पत्रकारों और जन संगठनों के कुछ नुमाइंदों ने मिलकर जरुर इसका कडा विरोध किया पर देश के विराट फलक पर यह विरोध करीबन प्रतीकात्मक से ज्यादा दर्जा नहीं पा सका। इन लोगों का तर्क था कि जाति आधारित जनगणना समाज के लिए विघटनकारी है। यह संविधान की मूल भावना के विरुद्ध है। इससे भारतीय समाज खंड-खंड हो जायेगा। इसमें सूक्ष्म फासीवादी प्रवृत्तियों के उभार के खतरे हैं। कुल मिलाकर यह एक प्रतिगामी प्रक्रिया है जो समाज को सामंती युग की ओर वापस ले जायेगी। निसंदेह प्रतिवादियों के ये तर्क निराधार नहीं हैं।
हम जरा जाति गणना के इतर निहितार्थों पर भी विचार करना चाहते है। इस प्रसंग मंे प्रबल कारक वस्तुगत यथार्थ है जो बताता है कि जाति भारतीय समाज की एक ठोस परिघटना है। यह व्यक्ति की जन्मजात पहचान से जुड़ी है। आधुनिकता की हवा भी इसे क्षरित करने में असफल रही है। भारतीय राजनीति में जैसे-जैसे वैचारिक हृास होता रहा है,उसमें साम्प्रदायिक कारकों के समानान्तर जाति का कारक प्रभावी भूमिका ग्रहण करता गया है। सामाजिक अभियांत्रिकी (सोशल इंजीनियरिंग) के नाम पर वर्तमान राजनीति में जातीय गठबंधनों ने जो स्वीकृति पायी,उसकी तार्किक परिणति हम जाति-गणना के रुप में देखते हैं। जब इसके तिरोहित होने की क्षीण-सी संभावना भी नजर नहीं आती, इसकी उत्तरोत्तर अहम होती भूमिका दिखायी दे रही है तो फिर क्यों नहीं इसे गतिशील वास्तविकता के रुप में स्वीकार कर लिया जाये।
जाति गणना के तात्कालिक नतीजे तो जातियों के पुनः एकीकरण,धु्रवीकरण और राजनीतिक गोलबंदी के रुप में दिखायी देंगे। आरक्षण को जातियों के अनुपात मंे विभाजित करने की अनेकानेक आवाजें उठेंगी। इसके बाद जाति विशेष पर वर्चस्व कायम करने की राजनीतिक-सामाजिक प्रतिस्पर्धाएं छिडेंगी। ये सभी चीजें अभी भी स्वतः स्फूर्त अवस्था में मौजूद हैं। इन्हें एक ठोस जन-सांख्यिकीय आधार मिल जायेगा।
जाति का प्रश्न एक सांस्कृतिक प्रश्न भी है। जैसाकि हमने पूर्व में उल्लेख किया, संविधान ने जातियों को अनुसूचित श्रेणियों के आधार पर आरक्षित किया था। तदन्तर सामाजिक न्याय के मुद्दे पर ये श्रेणियां दलित और आदिवासी के रुप में गोलबंद हुई। पिछडों की एकता की बात भी मंडल आयोग के बाद उठती रही। जल्दी ही इन सामाजिक श्रेणियों को सांस्कृतिक अस्मिता के रुप मंे स्थापित करने की कोशिशें शुरु हुईं। यदि सामाजिक गतिशीलता की इस प्रक्रिया में उभरे नये वर्चस्व का विश्लेषण किया जाये तो पता चलता है कि इन श्रेणियों में कुछ नेतृत्वकारी जाति समुदाय ही लाभान्वित हुए। श्रेणी समुच्चय में शेष बहुसंख्यक जाति समुदायों की वंचना बरकरार रही।
जाति गणना छोटे और विश्रृंखलित जाति समुदायों को सामाजिक गतिशीलता में मददगार हो सकती है। इसके चलते दलित, आदिवासी और पिछडों की स्थापित श्रेणियां विखंडित होंगी और अभी तक उपेक्षित और हाशियाकृत समुदायों की स्वतंत्र इयत्ता स्थापित होगी। असल में दलित और आदिवासी अन्तर्भेद के मुद्दे अभी तक अस्मिता विमर्श में स्थगित किये जाते रहे हैं। जबकि अनेकानेक जाति और जनजाति समुदायों की अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक अस्मिता है। इसे अब राजनीतिक मान्यता मिलने की संभावना बढ़ जाती है क्योंकि एक छोटा ही सही किन्तु दबाव रखने वाला मतदाता समूह किसी भी तरह नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
हमें नहीं मालूम की मुस्लिम और ईसाई तबकों में जाति आधारित गणना होगी या नहीं। समाजशास्त्रीय और नृतत्वशास्त्रीय अध्ययन यह प्रमाणित कर चुके हैं कि इन तबकों में भी भिन्न-भिन्न जाति-समुदायों का अस्तित्व है, इनके बीच सोपान क्रमिक संबंध और अन्तर्भेद हैं। हमारा मानना है कि इन तबकों पर भी जाति आधारित गणना को लागू किया जाना चाहिए। वर्चस्वशाली शक्तियों द्वारा निजी हितों के लिए सामुदायिक राजनीति यहां और भी भयावह रुप में विद्यमान है। बिहार मंे पसमांदा महाज जैसे प्रतिरोधों में हम इसे देख चुके हैं।
सच्चर समिति और जस्टिस रंगनाथ आयोग की मुस्लिम समुदाय पर आयी रिपोर्टो के तथ्यों को हम अन्तर्सामुदायिक भेद व क्षेत्रीय आधार पर विश्लेषित कर सकते हैं। मुस्लिम समुदाय के पिछडे तबकों के आरक्षण की लडाई भी इस समुदाय में जाति गणना से सफलता की ओर बढ़ सकती है। भारत बहुधार्मिक, उप राष्ट्रीयताओं और सांस्कृतिक बहुलता वाला देश है। इसमें जाति बहुलता के तथ्य को भी हमें स्वीकार कर लेना चाहिए। विभिन्न जाति समुदायों के बीच सहमेल की कल्पना तब तक नहीं की जा सकती जब तक हम राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक रुप से उन्हें न्याय और गरिमा प्रदान नहीं की जाती। जाति गणना को हम इस अनिवार्य कार्यभार के लिए आधार भूमि के रुप में लें तो सही मायने में यह एक ऐतिहासिक चरण की शुरुआत हो सकती है।
एक छोटी-सी टिप्पणी विशिष्ट पहचान पत्र (यू.आई.डी.) पर भी। इस प्रक्रिया में कार्पोरेट तकनीकी घरानों के दखल ने कई तरह की आशंकाएं पैदा की हैं। दूसरी ओर, इसे अगर तकनीकी के वर्चस्व के लिहाज से देखें तो व्यक्ति अस्मिता के एक अमूर्त अंक में बदल जाने का खतरा है। भारतीय विषमतामूलक समुदायों में इस सुविधा से किसको लाभ मिलेगा और कौन आंकडों के जटिल संजाल में उलझकर रह जायेगा, ये एक बडा यक्ष-प्रश्न है। इसके चलते व्यक्ति की बहुआयामी पहचान को कैसे सुनिश्चित किया जायेगा, उसे विकास की प्रक्रियाओं से कैसे सम्बद्ध किया जायेगा और ये सब विकेन्द्रीकृत प्रशासन और राष्ट्रीय सुरक्षा की संगति में होगा, यह अभी साफ नहीं है।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

जाति का उच्छेद : एक पुनर्पाठ

परिप्रेक्ष्य जाति का उच्छेद : एक पुनर्पाठ                                                               ■  राजाराम भादू जाति का उच्छेद ( Annihilation of Caste )  डॉ॰ भीमराव अम्बेडकर की ऐसी पुस्तक है जिसमें भारतीय जाति- व्यवस्था की प्रकृति और संरचना को पहली बार ठोस रूप में विश्लेषित किया गया है। डॉ॰ अम्बेडकर जाति- व्यवस्था के उन्मूलन को मोक्ष पाने के सदृश मुश्किल मानते हैं। बहुसंख्यक लोगों की अधीनस्थता बनाये रखने के लिए इसे श्रेणी- भेद की तरह देखते हुए वे हिन्दू समाज की पुनर्रचना की आवश्यकता अनुभव करते हैं। पार्थक्य से पहचान मानने वाले इस समाज ने आदिवासियों को भी अलगाया हुआ है। वंचितों के सम्बलन और सकारात्मक कार्रवाहियों को प्रस्तावित करते हुए भी डॉ॰ अम्बेडकर जाति के विच्छेद को लेकर ज्यादा आश्वस्त नहीं है। डॉ॰ अम्बेडकर मानते हैं कि जाति- उन्मूलन एक वैचारिक संघर्ष भी है, इसी संदर्भ में इस प्रसिद्ध लेख का पुनर्पाठ कर रहे हैं- र...

उत्तर-आधुनिकता और जाक देरिदा

उत्तर-आधुनिकता और जाक देरिदा जाक देरिदा को एक तरह से उत्तर- आधुनिकता का सूत्रधार चिंतक माना जाता है। उत्तर- आधुनिकता कही जाने वाली विचार- सरणी को देरिदा ने अपने चिंतन और युगान्तरकारी उद्बोधनों से एक निश्चित पहचान और विशिष्टता प्रदान की थी। आधुनिकता के उत्तर- काल की समस्यामूलक विशेषताएं तो ठोस और मूर्त्त थीं, जैसे- भूमंडलीकरण और खुली अर्थव्यवस्था, उच्च तकनीकी और मीडिया का अभूतपूर्व प्रसार। लेकिन चिंतन और संस्कृति पर उन व्यापक परिवर्तनों के छाया- प्रभावों का संधान तथा विश्लेषण इतना आसान नहीं था, यद्यपि कई. चिंतक और अध्येता इस प्रक्रिया में सन्नद्ध थे। जाक देरिदा ने इस उपक्रम को एक तार्किक परिणति तक पहुंचाया जिसे विचार की दुनिया में उत्तर- आधुनिकता के नाम से परिभाषित किया गया। आज उत्तर- आधुनिकता के पद से ही अभिभूत हो जाने वाले बुद्धिजीवी और रचनाकारों की लंबी कतार है तो इस विचारणा को ही खारिज करने वालों और उत्तर- आधुनिकता के नाम पर दी जाने वाली स्थापनाओं पर प्रत्याक्रमण करने वालों की भी कमी नहीं है। बेशक, उत्तर- आधुनिकता के नाम पर काफी कूडा- कचरा भी है किन्तु इस विचार- सरणी से गुजरना हरेक ...

कवि व्यक्तित्व-तारा प्रकाश जोशी

स्मृति-शेष हिंदी के विलक्षण कवि, प्रगतिशील विचारों के संवाहक, गहन अध्येता एवं विचारक तारा प्रकाश जोशी का जाना इस भयावह समय में साहित्य एवं समाज में एक गहरी  रिक्तता छोड़ गया है । एक गहरी आत्मीय ऊर्जा से सबका स्वागत करने वाले तारा प्रकाश जोशी पारंपरिक सांस्कृतिक विरासत एवं आधुनिकता दोनों के प्रति सहृदय थे । उनसे जुड़ी स्मृतियाँ एवं यादें साझा कर रहे हैं -हेतु भारद्वाज ,लोकेश कुमार सिंह साहिल , कृष्ण कल्पित एवं ईशमधु तलवार । कवि व्यक्तित्व-तारा प्रकाश जोशी                                           हेतु भारद्वाज   स्व० तारा प्रकाश जोशी के महाप्रयाण का समाचार सोशल मीडिया पर मिला। मन कुछ अजीब सा हो गया। यही समाचार देने के लिए अजमेर से डॉ हरप्रकाश गौड़ का फोन आया। डॉ बीना शर्मा ने भी बात की- पर दोनों से वार्तालाप अत्यंत संक्षिप्त  रहा। दूसरे दिन डॉ गौड़ का फिर फोन आया तो उन्होंने कहा, कल आपका स्वर बड़ा अटपटा सा लगा। हम लोग समझ गए कि जोशी जी के जाने के समाचार से आप कुछ अस...

दस कहानियाँ-१ : अज्ञेय

दस कहानियाँ १ : अज्ञेय- हीली- बोन् की बत्तखें                                                     राजाराम भादू                      1. अज्ञेय जी ने साहित्य की कई विधाओं में विपुल लेखन किया है। ऐसा भी सुनने में आया कि वे एक से अधिक बार साहित्य के नोवेल के लिए भी नामांकित हुए। वे हिन्दी साहित्य में दशकों तक चर्चा में रहे हालांकि उन्हें लेकर होने वाली ज्यादातर चर्चाएँ गैर- रचनात्मक होती थीं। उनकी मुख्य छवि एक कवि की रही है। उसके बाद उपन्यास और उनके विचार, लेकिन उनकी कहानियाँ पता नहीं कब नेपथ्य में चली गयीं। वर्षों पहले उनकी संपूर्ण कहानियाँ दो खंडों में आयीं थीं। अब तो ये उनकी रचनावली का हिस्सा होंगी। कहना यह है कि इतनी कहानियाँ लिखने के बावजूद उनके कथाकार पक्ष पर बहुत गंभीर विमर्श नहीं मिलता । अज्ञेय की कहानियों में भी ज्यादा बात रोज पर ही होती है जिसे पहले ग्रेंग्रीन के शीर्षक से भी जाना गया है। इसके अला...

सबाल्टर्न स्टडीज - दिलीप सीमियन

दिलीप सीमियन श्रम-इतिहास पर काम करते रहे हैं। इनकी पुस्तक ‘दि पॉलिटिक्स ऑफ लेबर अंडर लेट कॉलोनियलिज्म’ महत्वपूर्ण मानी जाती है। इन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन किया है और सूरत के सेन्टर फोर सोशल स्टडीज एवं नेहरू मेमोरियल लाइब्रेरी में फैलो रहे हैं। दिलीप सीमियन ने अपने कई लेखों में हिंसा की मानसिकता को विश्लेषित करते हुए शांति का पक्ष-पोषण किया है। वे अमन ट्रस्ट के संस्थापकों में हैं। हाल इनकी पुस्तक ‘रिवोल्यूशन हाइवे’ प्रकाशित हुई है। भारत में समकालीन इतिहास लेखन में एक धारा ऐसी है जिसकी प्रेरणाएं 1970 के माओवादी मार्क्सवादी आन्दोलन और इतिहास लेखन में भारतीय राष्ट्रवादी विमर्श में अन्तर्निहित पूर्वाग्रहों की आलोचना पर आधारित हैं। 1983 में सबाल्टर्न अध्ययन का पहला संकलन आने के बाद से अब तब इसके संकलित आलेखों के दस खण्ड आ चुके हैं जिनमें इस धारा का महत्वपूर्ण काम शामिल है। छठे खंड से इसमें संपादकीय भी आने लगा। इस समूह के इतिहासकारों की जो पाठ्यवस्तु इन संकलनों में शामिल है उन्हें ‘सबाल्टर्न’ दृष्टि के उदाहरणों के रुप में देखा जा सकता है। इस इतिहास लेखन धारा की शुरुआत बंगाल के...

कथौड़ी समुदाय- सुचेता सिंह

शोध कथौडी एक ऐसी जनजाति है जो अन्य जनजातियों से तुलनात्मक रूप से पिछड़ी और उपेक्षित है। यह अल्पसंख्यक जनजाति महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान के कुछ अंचलों में छितरायी हुई है। दक्षिण राजस्थान में इनके हालात प्रस्तुत कर रही हैं अध्येता सुचेता सिंह। दक्षिण राजस्थान के आदिवासी क्षेत्र में कथौड़ी जनजाति है जो वहां रहने वाली जनजातियों में सबसे कम संख्या में है। एक शोध रिपोर्ट के अनुसार इस जनजाति समुदाय की वृद्धि दर दशक वार घट रही है। 'ये लोग कैथ के पेड़ से कत्था निकालने का काम करते थे जो पान में लगाया जाता है इसलिए इनका नाम कथौड़ी पड़ा।' वैसे ये लोग कत्था बनाने के साथ-साथ बहुत से वन सम्बन्धी कार्य करते हैं, जैसे-बांस कटाई एवं दुलाई, वृक्ष कटाई, वन उपज संग्रहण, वन्य जीव आखेट, हाथ औजार निर्माण तथा वन औषध उपचार आदि। राजस्थान में इन लोगों का इतिहास कोई अधिक पुराना नहीं है। इन्हे महाराष्ट्र से इस क्षेत्र में कत्था उत्पादन और वन कटाई के लिए लाया गया। ऐसा अनुमान है कि जंगल के ठेकेदार इन्हे कोंकण महाराष्ट्र से यहां लेकर आये। ऐसा लगता है कि पूर्व में भी ये घुमक्कड़ जीवन जीते थे। इनकी बसाहटें म...

समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान-1

रंगमंच  समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान -1                                         राघवेन्द्र रावत  समकालीन हिंदी रंगमंच के बारे में बात बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध से भी की जा सकती थी लेकिन मुझे लगता है कि उससे पूर्व के भारतीय रंगमंच के परिवर्तन की प्रक्रिया पर दृष्टिपात कर लेना ठीक होगा | उसी तरह राजस्थान के समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करने से पहले भारतीय हिंदी रंगमंच पर चर्चा करना जरूरी है, और उससे भी पहले यह जानना भी आवश्यक है कि वस्तुतः रंगमंच क्या है ?और रंगमंच के बाद हिंदी रंगमंच और उसके बाद समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करना एक उचित क्रम होगा भले ही यह मेरे अध्ययन की गरज ही लगे | राजस्थान के रंगमंच पर बात करना इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि इस पर हिंदी साहित्य की तरह चर्चा नहीं हुई चाहे वह आलोचना की दृष्टि से देखें या इसके इतिहास की नज़र से देखें | दो वर्ष पहले ‘जयरंगम’ नाट्य समारोह के एक सेशन में बोलते हुए वरिष्ठ रंग एवं फिल्म समीक्षक अजित राय ने कहा था-“ पता नहीं कौन सा नाटक...

भूलन कांदा : न्याय की स्थगित तत्व- मीमांसा

वंचना के विमर्शों में कई आयाम होते हैं, जैसे- राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक इत्यादि। इनमें हर ज्ञान- अनुशासन अपने पक्ष को समृद्ध करता रहता है। साहित्य और कलाओं का संबंध विमर्श के सांस्कृतिक पक्ष से है जिसमें सूक्ष्म स्तर के नैतिक और संवेदनशील प्रश्न उठाये जाते हैं। इसके मायने हैं कि वंचना से संबंद्ध कृति पर बात की जाये तो उसे विमर्श के व्यापक परिप्रेक्ष्य से जोडकर देखने की जरूरत है। भूलन कांदा  को एक लंबी कहानी के रूप में एक अर्सा पहले बया के किसी अंक में पढा था। बाद में यह उपन्यास की शक्ल में अंतिका प्रकाशन से सामने आया। लंबी कहानी  की भी काफी सराहना हुई थी। इसे कुछ विस्तार देकर लिखे उपन्यास पर भी एक- दो सकारात्मक समीक्षाएं मेरे देखने में आयीं। ऐसी ही प्रतिक्रिया रणेन्द्र के उपन्यास ग्लोबल गाँव के देवता को भी मिल चुकी थी। किन्तु आदिवासी विमर्श के संदर्भ में ये दोनों कृतियाँ जो बड़े मुद्दे उठाती हैं, उन्हें आगे नहीं बढाया गया। ये सिर्फ गाँव बनाम शहर और आदिवासी बनाम आधुनिकता का मामला नहीं है। बल्कि इनमें क्रमशः आन्तरिक उपनिवेशन बनाम स्वायत्तता, स्वतंत्र इयत्ता और सत्त...

'ब्लड ऑफ़ दी कॉनडोर' [ Blood of the Condor]

सिने -संवाद                                                                            ' ब्लड ऑफ़ दी कॉनडोर'  [ Blood of the Condor]                                          मनीष आजाद 1960 का दशक भारी उथल पुथल का दौर था। पूरे विश्व में समाज के लगभग सभी शोषित तबके व वर्ग अपनी पहचान व अधिकार हासिल करने के लिए शोषणकारी व्यवस्था से सीधे टकराने लगे थे। साहित्य, कला, संगीत इससे मूलभूत तौर पर प्रभावित हो रहा था और पलटकर इस संघर्ष में अपनी भूमिका भी निभा रहा था। अपेक्षाकृत नई कला विधा सिनेमा भी इससे अछूता न था। इसी दशक में यूरोपियन सिनेमा में ‘नवयथार्थवाद’ की धारा आयी जिसने फिल्म की विषयवस्तु के साथ साथ फिल्म मेकिंग को भी मूलभूत तौर पर बदल डाला और यथार्थ के साथ सिनेमा का एक नया रिश्ता बना।  लेकिन...

लेखक जी तुम क्या लिखते हो

संस्मरण   हिंदी में अपने तरह के अनोखे लेखक कृष्ण कल्पित का जन्मदिन है । मीमांसा के लिए लेखिका सोनू चौधरी उन्हें याद कर रही हैं , अपनी कैशौर्य स्मृति के साथ । एक युवा लेखक जब अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी के उस लेखक को याद करता है , जिसने उसका अनुराग आरंभिक अवस्था में साहित्य से स्थापित किया हो , तब दरअसल उस लेखक के साथ-साथ अतीत के टुकड़े से लिपटा समय और समाज भी वापस से जीवंत हो उठता है ।      लेखक जी तुम क्या लिखते हो                                             सोनू चौधरी   हर बरस लिली का फूल अपना अलिखित निर्णय सुना देता है, अप्रेल में ही आऊंगा। बारिश के बाद गीली मिट्टी पर तीखी धूप भी अपना कच्चा मन रख देती है।  मानुष की रचनात्मकता भी अपने निश्चित समय पर प्रस्फुटित होती है । कला का हर रूप साधना के जल से सिंचित होता है। संगीत की ढेर सारी लोकप्रिय सिम्फनी सुनने के बाद नव्य गढ़ने का विचार आता है । नये चित्रकार की प्रेरणा स्त्रोत प्रकृति के साथ ही पूर्ववर्त...