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लंबी कहानी -जिंदगी और कुछ भी नहीं...

 लंबी कहानी
प्रणव प्रियदर्शी की लंबी कहानी "जिंदगी और कुछ भी नहीं..." भले ही पहली नजर में शुद्ध रोमांटिक कहानी लगे , लेकिन यह कहानी समकालीनता में धंसे कई प्रश्नों से मुठभेड़ करती है । आधुनिक मुहावरों एवं शिल्प की ताजगी के साथ , रिश्तो के सूक्ष्म धागों की अनुभूति का रेशा-रेशा यह पाठक के आगे खोलती है । चरित्रों के मानसिक जगत में गहरी पैठ के साथ समय की बदलती धारा को खूबसूरती से रेखांकित करना लेखक के आभ्यंतर के साथ-साथ बाह्य जगत के प्रति सजगता एवं संवेदनशीलता को दर्शाता है । इस कहानी से गुजरना , तेजी से बदलते युगबोध के बीच साझा लोकतांत्रिक मूल्यों के साथ , स्थायित्व तलाशते बेहद खूबसूरत रिश्ते से साक्षात्कार सरीखा है ।

जिंदगी और कुछ भी नहीं...

                                                  ■   प्रणव प्रियदर्शी
"ड्राइंग रूम में टीवी तो ऑन था, पर आवाज म्यूट पर डाली हुई थी। इसलिए वहां बैठे लोगों की बातचीत में न्यूज डिबेट का शोर कोई बाधा नहीं बन रहा था। टीवी स्क्रीन पर आ रहे ब्रेकिंग न्यूज ने जरूर निखिल का ध्यान खींचा- लव जिहाद के मामलों की जांच कराएगी गुजरात पुलिस। थोड़े खीझे स्वर में बोला, ‘यार ये लोग चैन से नहीं रहने देंगे किसी को। बताओ लव में भी जिहाद ढूंढ रहे हैं।’ ‘भाई उन्हें लव से ही सबसे ज्यादा दिक्कत है। नफरत की तो वे खुद खेती करते हैं। ऐसा माहौल बना दिया है कि बंदा हाय हेलो करने से भी पहले जाति-धर्म पूछने लग जाए।’ यह मुकुंद था। ‘लेकिन प्यार का परचम लहराने वालों के लिए तो यह बड़ी बुरी स्थिति है क्यों मोहित?’ दीपाली के स्वर में गंभीरता और मजाक का मिला-जुला पुट था। अब तक अखबार में मुंह घुसाए बैठा मोहित सिर निकाल कर बोला, ‘मुझे नहीं लगता प्यार का परचम लहराने वालों के लिए यह बुरी स्थिति है। जाति-धर्म और समाज-परिवार की चिंता तो ये लोग पहले ही छोड़ चुके होते हैं। ऐसे रिश्तों में सबसे कड़ा इम्तहान अपना मन ही लेता है। सो जो कमजोर मन के लोग हैं वे लव जिहाद जैसी बातें सुनकर इस राह चलने का इरादा पहले ही छोड़ देंगे। आगे वही बढ़ेंगे जो हर परीक्षा को पार करेंगे। तो यह तो अच्छी ही बात हुई ना।’

‘सीधी बात को भी टेढ़ा न बना दे तो मोहित क्या। पर तुम किन परीक्षाओं की बात कर रहे हो? तुम दोनों ने कौन सी परीक्षा दी है बे? मुंबई में पैदा हुए और पले-बढे हो तुम दोनों...’  इससे पहले कि निखिल अपनी बात पूरी करता, प्रणति ने मुस्कुराते हुए उसे टोका, ‘अच्छा तो तुम ये सोचते हो कि हमारा रिश्ता ऐसा गया-गुजरा है कि हम किसी परीक्षा से नहीं गुजर सकते? हमने भी कड़े इम्तहान दिए हैं हुजूर और पास भी हुए हैं डिस्टिंक्शन के साथ।’ वाक्य के आखिरी हिस्से तक आते-आते प्रणति और मोहित की नजरें मिलीं और सभी एक साथ हंस पड़े।"

बोझ

हर आदमी जैसे एक समंदर है। उसके किनारे बैठ थोड़ी देर उसकी लहरों को देखकर, उनसे खेल कर हम मान लेते हैं कि उस व्यक्ति से मुलाकात हो गई। उसे हमने जान लिया। अब उसके बारे में और क्या जानना? बार-बार आना, वही लहरें, वही पानी देखना... इनमें रखा क्या है? स्वाभाविक रूप से कुछ समय बाद हम उससे बोर होने लगते हैं। इस सच को स्वीकार करना और न खुद को, न समंदर को इस बोरियत के लिए मजबूर करना... कोई आसान काम नहीं। और जो कठिन हो उसे ही तो जीवन का मूल्य बनाना चाहिए, उसी का तो संकल्प करना चाहिए।
सो, यह उसका संकल्प भी बना। और इसी संकल्प के वशीभूत हो शादी के लिए ‘भावनात्मक दबाव’ बनाते प्रतीत हो रहे अपने पिता से, मां के सामने ही उसने कह दिया था, ‘अगर कोई आदमी तीस साल से एक ही औरत के साथ है और कहता है कि वह खुश है तो इसका मतलब वह हिप्पोक्रैट है।’ मां तो चकित रह गई थी, पिता ने पवित्र गुस्से से भरा उसका चेहरा देखा तो उस मुस्कान को होठों पर आने से पहले ही रोक लिया जो लगभग आ चुकी थी। धीरे से इतना ही बोल कर काम चला लिया, ‘हां, हिप्पोक्रैसी तो हर हाल में गलत है। आदमी को हिप्पोक्रैट नहीं होना चाहिए।’ बाद में मां पिता में क्या बात हुई यह तो पता नहीं, लेकिन फिर न कभी मां ने उससे शादी की बात छेड़ी और न पिता ने। अपनी अघोषित जीत के रूप में यह प्रकरण उसने उन कुछ करीबी मित्रों से शेयर किया जो उसके उस संकल्प के साथी भी थे कि न किसी से बोर होना है और न किसी को ऐसी बोरियत के लिए मजबूर करना है। ये मित्र प्रभावित भी हुए उसकी हिम्मत से, खासकर इसलिए क्योंकि इनमें से बहुतों को अंदाजा नहीं था कि अगर अपने वृद्ध होते माता-पिता से ऐसी भावनात्मक मुठभेड़ की नौबत आई तो वे क्या करेंगे। भरोसा नहीं था कि ऐसा करारा जवाब वे खुद भी दे पाएंगे।

ज्यादा वक्त नहीं लगा, अगले दो-तीन सालों में ही यह स्पष्ट होता गया कि अपने संकल्प को निभाते हुए इतना आगे बढ़ने का माद्दा अन्य मित्रों में नहीं था। एक-एक कर उनके विकेट गिरने लगे। किसी ने मां-बाप के भावनात्मक कर्ज का वास्ता दिया तो किसी ने गर्लफ्रेंड पर पड़ते दबावों का। एक-एक कर वे शादी के बंधन में बंधते गए। हालांकि इन सबसे उसे फर्क नहीं पड़ा।
फर्क तब पड़ा जब प्रणति ने उससे बातचीत किए बगैर बेंगलुरु की पोस्टिंग स्वीकार कर ली। उसे सिर्फ इत्तिला दी कि अगले महीने चार तारीख को बेंगलुरु ऑफिस जॉइन करना है। उसके ऊपर बम की तरह गिरी थी यह सूचना, सब कुछ एक झटके में तहस-नहस हो गया था। ठीक है, दोस्ती को लिव-इन में बदले ढाई साल ही हुए थे, पर वह इस रिश्ते में चैन-सुकून ही नहीं, जीवन की सार्थकता भी ढूंढने लगा था। प्रणति के बेंगलुरु पोस्टिंग स्वीकारने का सीधा मतलब इस रिश्ते के खात्मे का एलान ही था। पर इतने बड़े एलान को यूं ही कैसे स्वीकार किया जा सकता था। उसने प्रणति से बात करने की कोशिश की, शायद कुछ बात बन जाए।
‘यार ऐसा क्यों कर रही हो? क्या मुझसे कोई गलती हुई है? क्या मुंबई में रहते हुए करियर नहीं बन सकता?’
प्रणति ने धीमे, स्थिर आवाज में कहा, ‘मोहित यू नो ना, हेडक्ववार्टर की बात ही अलग होती है। साउथ जोन कंपनी के लिए खासा इंपॉर्टेंट है। वहां जो एक्सपोजर मिलना है, वह कभी मुंबई में हो ही नहीं सकता। फिर यह पोस्टिंग मुझे मेरे हार्ड वर्क के रिवॉर्ड के तौर पर मिल रही है जिसे मैं ठुकरा नहीं सकती। तीन साल तक घिसते रहने के बाद मुझे ये चांस मिल रहा है। लेकिन...’ कहते-कहते वह कुछ सेकंड के लिए ठहरी। कुछ सेकंड का यह गैप भी मोहित झेल नहीं सका, ‘लेकिन क्या?’
‘लेकिन बात इतनी ही नहीं है। सच पूछो तो तुम्हारे साथ इस रिश्ते में भी मैं बंधने लगी थी। इतना कम्फर्टेबल फील करने लगी थी तुम्हारे साथ कि यह ख्याल भी डराने लगा था कि अगर तुमसे अलग होना पड़ा कभी तो क्या होगा? इस डर को समय रहते खत्म करना मेरे लिए जरूरी होता जा रहा था। बेंगलोर जैसा शहर मेरे लिए नया होगा, काम का एटमॉसफेयर चैलेंजिंग होगा... उस सब के बीच बिजी रहूंगी तो तुम्हारी आदत से छुटकारा पाना भी कुछ आसान होगा।’
‘पर बेबी, ये बातें हम डिस्कस नहीं कर सकते थे क्या?’
‘डिस्कस करके क्या होता मोहित? तुम्हीं बताओ क्या तुम इसके लिए तैयार हो जाते? मुझे भी ऐसा करना अच्छा कहां लग रहा है? तो जब दिल पर पत्थर रखकर ही फैसला करना था तो कर लिया। डिस्कस करके अपने और तुम्हारे लिए सिचुएशन टफ क्यों करना?’
( सभी फोटो एवं लेखक परिचय - मनमोहन भारती )
रैशनली तो वह बिल्कुल ठीक कह रही थी। उसकी बात पर क्या कह सकता था मोहित। सिचुएशन टफ करने की कोई भी सलाह बचकानी होती। खुद को टफ करना ही एकमात्र विकल्प रह गया था। सो चुप हो गया। पर चुप तो केवल जबान थी। मन पर कोई बंधन कहां लगता है इतनी आसानी से। उसके साथ रैशनल रहने की मजबूरी भी नहीं होती। सो मन उसके इस सवाल पर चुप नहीं हुआ। बोलता ही चला गया, ‘सिचुएशन टफ क्यों करना... वह भी अपने और तुम्हारे लिए? डिस्कस किए बगैर फैसला करके तो तुम मेरी सिचुएशन ब़ड़ा आसान बना रही हो ना? और अपने लिए ही कौन सा बेहतर विकल्प चुन रही हो? क्या इतना आसान होगा मुझसे अलग, अकेले रहना? अजनबी शहर, चैलेंजिंग जॉब... सब कहने की बात है। ये सब तो और बढ़ाएंगे मेरी जरूरत। पर तुम्हें तो मेरी यह आदत ही भारी पड़ रही है। इसी से छुटकारा चाहिए... क्यों भला? हमने तय तो किया था कि इस रिश्ते को बोझ नहीं बनने देंगे। कभी ऐसी नौबत नहीं आने देंगे जब दोनों में से किसी को यह रिश्ता ढोना पड़ जाए। यह रिश्ता तभी तक रहेगा जब तक कि दोनों इस पर सवार जीवन का सफर तय करते रहेंगे। यात्रा का लुत्फ उठाते रहेंगे। तो क्या यह रिश्ता तुम्हारे लिए बोझ बनने लगा था?’ इस सवाल तक आते-आते मन भी अटक गया। बोझिल  होने लगा। बादल आंखों में घुमड़ने की तैयारी करने लगे, पर इससे पहले कि इमोशन चेहरे पर आए और यह पाक रिश्ता इमोशनल ब्लैकमेलिंग का इल्जाम लगाने को मजबूर हो, वह सख्त चेहरे के साथ ही ‘ओके’ कहकर वहां से उठ गया।
सिगरेट बड़े काम की चीज है। अंदर सब कुछ पिघलता जा रहा हो, तब भी यह खुद जलकर धुएं में तब्दील होते हुए भी आपको बाहर से ठोस नजर आने लायक बनाए रखती है। बालकनी में खड़ा लंबे कश ले रहा मोहित बाहर से वैसा ही ठोस नजर आ रहा था। अपनी जिंदगी होम करके उस एक सिगरेट ने उसके अंदर चल रहे तूफान को उस समय तो शांत कर ही दिया। उसे समझा दिया कि प्रणति से शिकायत की कोई वजह नहीं है। उसने तो दोनों को बोरियत से बचा लिया। आखिर कभी न कभी तो दोनों बोर होने ही लगते एक दूसरे से। बोरियत झेलने के बाद अलग होते तो रिश्ता कड़वे स्वाद के साथ टूटता। अब दोनों के पास अच्छी यादें होंगी इस रिश्ते की।
टाइमिंग बड़ी अच्छी थी। इधर सिगरेट खत्म हुई, विचार श्रृंखला यादों की मिठास तक पहुंची और उधर प्रणति दो कप चाय के साथ बालकनी में हाजिर थी। अरे यार क्या अंडरस्टैंडिंग है इसकी। सही समय पर ले आई चाय। और मन एक बार फिर जैसे कसक उठा।
बिना कुछ बोले प्रणति ने चाय का कप बढाया, सिगरेट के बचे हुए हिस्से को ऐश ट्रे में कुचलते हुए मोहित ने कप लिया। दोनों वहीं, बिल्कुल पास खड़े होकर चाय की चुस्कियां लेने लगे। प्याली खाली होने के बाद भी दोनों वहीं खड़े रहे, वैसे ही। बस हुआ इतना कि प्रणति ने अपना सिर मोहित के कंधे पर टिका दिया और मोहित ने पीछे से अपनी बांह उसके कंधे पर लाते हुए उसका एक हाथ थाम लिया।

चुभन

‘फिर सपनों का राजकुमार आया और अपने सफेद घोड़े पर बैठा कर उसे दूर देश लिए चला गया...’। दादी के किस्सों में सुनते-सुनते कब ये बात उसके व्यक्तित्व का हिस्सा बन गई उसे खुद भी पता नहीं चला। कहती किसी से नहीं थी, पर मन में ये बात बनी रहती थी कि जब मैं बड़ी हो जाऊंगी तो एक दिन मेरा सपनों का राजकुमार आएगा। जिंदगी किसी की भी हो फूलों के साथ कांटे होते ही हैं आसपास। उसकी जिंदगी में भी उग आते थे समय-समय पर कुछ कांटे। दिलचस्प बात ये कि उसके जीवन में फूल और कांटे अलग-अलग नहीं थे। वह पाती कि एक समय जो शख्स उसके मन मिजाज को खुशबू से भर देता है, वही किसी और समय कांटों सा चुभने लगता है। चाहे वे स्कूल में साथ पढ़ने और सोसाइटी के पार्क में खेलने वाले दोस्त हों, अलग-अलग सब्जेक्ट्स के टीचर हों या माता-पिता, मौसी और बुआ। बस दादी उसके जीवन में एक ऐसा फूल थी जिसने कभी चुभन नहीं दी। हमेशा उसका साथ देती। जब वह सही होती तब भी और जब कभी गलत हो तब भी। गलत होने पर वह उसे सही नहीं कहती, पर उसके साथ खड़ी रहती थी तब भी। ‘खबरदार जो मेरी पन्नू को कुछ कहा। क्या हुआ जो गलती हो गई उससे, क्या लोगों से गलती नहीं होती, क्या तुझसे कभी गलती नहीं हुई?’ ऐसी ही होतीं उसकी दलीलें। बाद में जब दादी-पोती एकांत में होतीं तो आपस में बात कर-करके सारी कसर पूरी कर लेतीं। दादी से बातें करना पन्नू के लिए ऐसा था जैसे खुद से बातें करना। बड़े से बडा कनफेशन भी बिना किसी दिक्कत के सामने आ जाता। अपनी गलती पहचानना, उसे स्वीकारना और आगे न दोहराने का निश्चय करना दादी के साथ रहते हुए जितना आसान था, उतना फिर कभी नहीं हुआ।

जब तक दादी रही, किसी भी कांटे की चुभन उसे खास तकलीफ नहीं दे पाई। दादी की मौजूदगी का मरहम कब उस टीस को छूमंतर कर देता वह समझ भी न पाती। इसीलिए दादी का जाना उसके लिए इतनी बड़ी घटना हो गई। अपने जीवन को वह आज भी दो हिस्सों में बांट कर देखती है- एक दादी के होने तक और दो दादी के न होने पर। हालांकि तब वह सिर्फ 12 साल की थी, लेकिन इतनी बड़ी तो थी ही कि दादी के जाने से पड़ने वाले फर्क को महसूस और दर्ज कर पाती।

दादी के जाने के बाद जैसे उसका कवच उतर गया और कांटों से उसका सीधा साबका पड़ने लगा। पर किसे फूल माने और किसे कांटा यह कन्फ्यूजन उसे आगे भी कभी नहीं हुआ। इसे दादी के जीवन अनुभव का सार ही कहिए, पर यह समझ बहुत अच्छे से बैठ गई थी पन्नू यानी प्रणति के अंदर कि जीवन में फूल और कांटे कोई अलग-अलग चीज नहीं होते। इसलिए फूल की सुंदरता और उसकी खुशबू पर रीझते हुए यह ध्यान रहे कि कभी उसमें कांटे उग सकते हैं और कांटों से गुजरते समय भी याद रहे कि इनसे कभी फूलों सी खुशबू आ सकती है। यह सीख आगे उसके ज्यादा काम आई, तब तो कांटों की चुभन ही बड़ी चुनौती थी। इन तीखे अनुभवों को झेलने में मदद की ‘सपनों के राजकुमार’ ने। यूं भी दादी के न रहने पर इस घर-परिवार वाली दुनिया में उसके मन को बांधे रखने वाली कोई बड़ी चीज नहीं रह गई थी। सो, सबसे आसान था, इन कांटों को तवज्जो ही न दी जाए। जाने अनजाने यही तरीका उसने अपना लिया था। कौन सा मुझे हमेशा रहना है यहां। जब सपनों का राजकुमार आएगा तो उसके साथ चली ही जाऊंगी सब छोड़ कर। उसके बाद इन कांटों को याद करने की किसे फुरसत होगी!

इस बीच एकाध ऐसे राजकुमार आए जिंदगी में जिन्हें लगता था कि ये वही राजकुमारी है जिसे उन्हें अपने साथ ले जाना है। पर वे राजकुमार कम और लफंगे ज्यादा लगते थे। सो उनके साथ जाना तो क्या उनकी तरफ ठीक से देखना भी उसे अपनी तौहीन लगती थी। नतीजा यह कि एक-एक कर वे सब मुंह लटकाकर लौट गए। इनकी एग्जिट के कुछ समय बाद बारी-बारी से दो ऐसे राजकुमार आए जिन्हें देख वह सोच में पड़ गई। लगा कि हो न हो यही है सपनों वाला वह बंदा जिसका उसे हमेशा से इंतजार था। पहली बार में दिल की धुकधुकी ऐसी थी कि पहचान में ही नहीं आ रहा था ये वही दिल है जो बचपन से धड़क रहा है सीने में। बारहवीं में मेडिकल की कोचिंग के दौरान उससे मुलाकात हुई थी। वे छह-आठ महीने भी क्या गुजरे थे। फिर वैसे दिन और वैसी रातें आई नहीं कभी जिंदगी में। पर मेडिकल में इसका हुआ नहीं, उसका हो गया। उसके बाद ज्यादा वक्त नहीं लगा भ्रम टूटने में। राजकुमार को उधर अपने बैच में पढ़ रही दूसरी राजकुमारी मिल गई जिसे बचाना ज्यादा जरूरी था।

बुरा तो बहुत लगा प्रणति को, पर एक नई सीख भी मिली। यह कि फूल में कांटे निकल आएं जरूरी नहीं, उसका सिर्फ झड़ जाना भी सौ कांटों के बराबर चुभन दे सकता है। पर किसी अच्छे फूल पर नजर पड़ना कोई अपने हाथ में तो होता नहीं और नजर पड़ जाने के बाद यह भी आपके वश में नहीं होता कि उसकी खूबसूरती और खुशबू आपको मतवाला नहीं कर देगी। इस दूसरी मदहोशी के समय वह ग्रेजुएशन के पहले साल में थी। गिरीश उससे एक साल सीनियर था, उसी कॉलेज में इंगलिश ऑनर्स कर रहा था। मुलाकात तो उनकी बहुत बाद में हुई, चर्चा दोनों की एक-दूसरे तक पहले पहुंच चुकी थी। कॉलेज में प्रणति के क्लोज ग्रुप में एक लड़की थी दीपा। गिरीश उसके कजन का दोस्त था। वही कड़ी थी अनजाने ही दोनों के मन में एक-दूसरे के प्रति जिज्ञासा जगाने वाली। मिले भी दोनों पहली बार दीपा के ही घर, उसके जन्मदिन के मौके पर। पार्टियां प्रणति को पसंद नहीं थीं, लेकिन उस पार्टी ने पार्टियों के प्रति उसका नजरिया बदल दिया था। उसे पता चला कि पार्टी भीड़भाड़ वाली ही नहीं, पर्सनल स्पेस देने वाली जगह भी होती है। उस बर्थडे पार्टी ने इतना कर दिया कि जब दो महीने बाद न्यू ईयर पार्टी का प्लान बन रहा था तो उसका उत्साहपूर्ण स्वागत करने वालों में प्रणति भी थी। इन दो पार्टियों ने दोनों को इतना करीब ला दिया कि उन्हें मिलने के लिए किसी पार्टी की जरूरत नहीं रही। तीसरी बार दोनों सायन के वृंदावन कैफे में चाय पीने मिले और यह अंडरस्टैंडिंग बनते देर नहीं लगी कि प्रणति को विद्याविहार के सोमैया कॉलेज जाने के लिए रोज बस या ऑटो लेने की जरूरत नहीं है। वड़ाला से आते हुए गिरीश उसे पिकअप कर सकता है। लौटते हुए छोड़ भी सकता है। गिरीश की बाइक उसे बिठाकर धन्य होने के लिए बेकरार थी और उसे धन्य करने में प्रणति को जरा भी हिचक नहीं थी।

इस तरह शुरू हुआ एक ऐसा सिलसिला जिसमें राजकुमार के साथ उसके घोड़े पर बैठने के बाद भी राजकुमारी दूर देश नहीं जा रही थी। उसे अहसास हो गया था कि बात किसी और लोक की नहीं, रहना तो इसी दुनिया में होता है। यह अलग बात है कि इस दुनिया का रंग पूरी तरह बदल जाता है। वही कॉलेज, वही कैंटीन, वही टीचर्स, वही दोस्त... पर कुछ भी पहले जैसा नहीं रह गया था। कैंटीन ज्यादा खुशगवार हो गया था, कॉलेज कैंपस की एक-एक चीज में जैसे नूर आ गया था। यहां तक कि खड़ूस टीचर भी अब मन में गुस्सा नहीं, हंसी पैदा करते थे। घर में भी मां-पिता के बेतुके निर्देश हों या बुआ मौसी और अन्य रिश्तेदारों की अटपटी बातें, जिन पर पहले कई बार वह खीझ उठती थी, अब हौले से मुस्कुरा कर काम चलाने लगी थी।

‘तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे लगा है
कि हम असमर्थताओं से नहीं
सम्भावनाओं से घिरे हैं,..’

गिरीश ने जब ये कविता उसे सुनाई तो उसकी ये पंक्तियां उसके अंदर ठहर गईं। लगा जैसे ये पंक्तियां उसी के लिए लिखी गई हों। हालांकि हंसकर तब उसने इतना ही कहा, ‘तुम पढ़ रहे हो इंग्लिश लिटरेचर और कविता हिंदी में लिखते हो?’

‘मैडम लिटरेचर तो लिटरेचर है। यहां पढ़ने की नहीं एंजॉय करने की बात होती है। और हां मैंने नहीं लिखी, सर्वेश्ररदयाल सक्सेना की कविता है ये। पर तुम रहने दो, केमिस्ट्री में लिटरेचर घोलकर पता नहीं क्या केमिकल लोचा कर दोगी।’

‘देखो, लिटरेचर की तारीफ तक ठीक है, पर साइंस का मजाक उड़ाना अलाउड नहीं है’, हल्के बनावटी गुस्से से उसने कहा और दोनों हंस पड़े।

गिरीश के साथ ने उसके कॉन्फिडेंस को नए लेवल पर पहुंचा दिया था। वह इस दौर को ऐसे जी रही थी, जैसे यह कभी खत्म होने वाला नहीं है। दोस्ती दिनो-दिन गहरी होती जा रही थी, पर इसके आगे क्या? गिरीश का पता नहीं, प्रणति को कोई जल्दी नहीं थी इस रिश्ते को परिभाषित करने की। गड़बड़ यह हुई कि उस दिन मौसी, बुआ और मां की आपसी बातचीत का कुछ हिस्सा अनायास उसके कान में आ गया और तब उसे पता चला कि कोई रिश्ता आया है उसके लिए, ‘यूके में डॉक्टर है, बड़े खानदानी लोग हैं,’ कलेजा धक्क से रह गया उसका, पर मां के इस वाक्य के अगले हिस्से ने थोड़ी राहत भी दी, ‘मैं तो कल के बदले आज हां कर दूं, पर इन्हें कौन समझाए, कहते हैं अभी उसकी उमर नहीं हुई है शादी के झंझटों में पड़ने की।’
चैन मिला कि चलो कम से कम पापा हैं जो उसकी तरफ से सोच रहे हैं। मगर इस सूचना ने उसे अपने और गिरीश के रिश्ते पर गौर करने को मजबूर कर दिया। उसके ध्यान में आया कि रिश्ता आने की बात सुनकर तो उसे खुश होना चाहिए था। बचपन से उसके मन में ये बात बैठी हुई है कि यहां रहना नहीं है, सपनों का राजकुमार आएगा, तो उसके साथ दूर देश चले जाना है। लड़का डॉक्टर है, इंग्लैंड में रहता है, अच्छे खानदानी लोग हैं.. ये सब तो ऐसी बातें हैं जिसका उसे न जाने कब से इंतजार था। फिर वह इस खबर से इतनी चिंतित क्यों हुई? इस सवाल ने प्रणति को उस फर्क के रू-ब-रू कर दिया जो गिरीश के उसकी जिंदगी में आने से आया था। किसी और देश की बात उसके दिलो-दिमाग से निकल चुकी थी। उसे अब यहीं रहना था। तो क्या गिरीश के ही साथ वह बाकी जिंदगी गुजारना चाहती है? क्यों नहीं। इतना अच्छा साथ है उसका, जिंदगी भर मिला रहे तो जिंदगी कितनी हसीन बन जाएगी। इस ख्याल भर ने उसे अंदर से पुलकित कर दिया और गिरीश से शादी के बारे में सोचकर अकेले में ही उसके गाल गुलाबी हो गए।

अब उसे इंतजार था कि कभी गिरीश ये बात छेड़े। पर गिरीश था कि हंसी-मजाक से ही कभी फुरसत नहीं मिलती उसे। जब ग्रुप में सबके साथ हो तब भी और अगर कभी दोनों अकेले हुए तब भी। कुछ दिनों बाद प्रणति ने भी इस बारे में सोचना छोड़ दिया। जिंदगी अच्छी भली चल रही है, आगे के बारे में सोच कर इसे जटिल क्यों बनाना? जब मौका आएगा, देखा जाएगा। अभी तो नहीं होने जा रही किसी की शादी।

पर एल्लो, उस संडे पापा ने ही छेड़ दी बात, ‘बेटा, मैं तो खुद इसके पक्ष में नहीं था, लेकिन तुम्हारी ममी ही नहीं, सब लोग कह रहे हैं और यह बात सही भी है कि अच्छा रिश्ता रोज-रोज नहीं आता। मैंने ये कोशिश भी की कि वे लोग कुछ साल ठहर जाएं, लेकिन उन्हें जल्दी है। उस फैमिली को हमलोग जानते हैं, लड़के का करियर ग्राफ बहुत अच्छा है, नेचर भी लोग अच्छा बता रहे हैं। तुम एक बार लड़के से मिल लो, वह भी तुम्हें देख लेगा। तुम दोनों की ओर से ओके हो जाए तो बाकी बातें हम देख लेंगे।’

वह सन्न रह गई। ये क्या? जिस मुसीबत को टला समझ रही थी, वह तो गले ही पड़ गई। बड़ी मुश्किल से कहा, पापा अभी ग्रेजुएशन भी कंप्लीट नहीं हुआ है,,,

‘तो वह होगा ना कंप्लीट। तुम्हारी पढ़ाई नहीं छूटेगी। आती जाती रहोगी यहां। एक बार ग्रेजुएशन पूरा हो जाए तो फिर उसके बाद क्या करना है तुम और तुम्हारी ससुराल वाले तय करते रहेंगे।’

‘यानी आप लोग फैसला कर चुके हो?’

‘नहीं कुछ तय नहीं हुआ है। सब कुछ तुम्हारे फैसले पर टिका है। हमारा कहना बस ये है कि एक बार उस लड़के से मिल लो। फिर तुम जैसा कहोगी वैसा होगा।

‘पापा, आप उन लोगों को मना कर दो।’

अरे ऐसा नहीं होता है बेटा। मैं अपनी तरफ से पॉजिटिव सिगनल दे चुका हूं। मना करूंगा तो ऑड लगेगा। और फिर क्या ठिकाना मिलने के बाद तुम्हारा फैसला बदल जाए।

यही तो बात है। मुझे अभी करनी ही नहीं शादी और मैं ये चाहती ही नहीं कि मेरा मन बदले। तो फिर खामखा एक इंसान को रिजेक्शन झेलने के लिए इनवाइट क्यों करना?

‘रिजेक्शन इज पार्ट ऑफ लाइफ बेटा। और मत भूलो कि सिर्फ तुम उसे नहीं, वह भी तुम्हें रिजेक्ट कर सकता है...’

फिर तो डबल रीजन हो गई ना।आप मना कर दीजिए।

अब तक ममी भी आ चुकी थी, ‘आखिर तुम्हें एक बार मिल लेने में क्या दिक्कत है?’

अभी जब मैं शादी के लिए तैयार ही नहीं हूं, किसी को प्रॉपरली कन्सिडर ही नहीं कर सकती तो उसके साथ ये सब नौटंकी क्यों करूं? इट्स नॉट फेयर, सिंपल।

पिता कुछ बोलते बोलते रह गए, पर मां नहीं रुकी, ‘कुछ ज्यादा ही समझदार हो गई है तू। क्या फेयर है और क्या नहीं, ये तू बताएगी हम लोगों को? और कुछ नहीं तो पापा की इज्जत की सोच कर उन लोगों से मिल ले, फिर मना कर देंगे।’

इस एकतरफा आदेश ने उसके चेहरे पर बेबसी ला दी, ‘क्यों आप लोग जबर्दस्ती कर रहे हो? पापा प्लीज ममी को समझाइए, मुझे नहीं मिलना किसी से। खासकर शादी के कंटेक्स्ट में तो बिल्कुल नहीं। ऐसे ही वे आपके दोस्त होते, उनका परिवार आया होता तो मैं मिल लेती, पर किसी लड़के से शादी के सिलसिले में इस तरह मिलना मुझे मंजूर नहीं।’ जो वाक्य बेचारगी से शुरू हुआ था, उसका अंत होते-होते तक उसके चेहरे पर ऐसी दृढ़ता आ चुकी थी कि बात वहीं खत्म हो गई। पापा ये कहते हुए उठ गए कि ‘छोड़ दो, इससे बात करके कोई फायदा नहीं है।’

वह बात वहीं खत्म हो गई, पर हमेशा के लिए एक गहरा निशान छोड़ गई, पापा-ममी के साथ उसके रिश्तों पर। हालांकि तब उसने ज्यादा परवाह नहीं की उस बात की।

जीवन पहले की तरह चलता रहा। गिरीश से ये बातें कहने की जरूरत नहीं समझी उसने। वैसे भी उसका फाइनल ईयर था, और परीक्षाएं नजदीक आ गई थीं। सो मिलना-जुलना भी थोड़ा कम हो गया था। इतना जरूर था कि उसने मन बना लिया था, फाइनल परीक्षाओं के बाद उससे बात करेगी।

परीक्षाएं समाप्त हुईं और फिर दोनों के मिलने का दिन भी आया। प्रोग्राम वैसे उस दिन भी पूरे ग्रुप का था। चर्चगेट के सामने स्थित इरॉस टॉकीज में फिल्म देखना था सबके साथ। फिल्म के बाद धीरे-धीरे सब निकल गए अपने-अपने घर को, प्रणति और गिरीश ने तय किया थोड़ी देर मरीन ड्राइव पर बैठा जाए। वहीं समंदर किनारे अस्त होते सूरज, मस्त बहती ठंडी हवा और हिलोंरे लेती लहरों के बीच प्रणति ने बात छेड़ी। कोई और तरीका नहीं सूझा तो उसी रिश्ते के सहारे बात शुरू की, ‘घर वालों की तरफ से प्रेशर बढ़ रहा है। एक रिश्ता आया भी है, पर मैंने मना कर दिया...’

‘घर वाले क्यों इतने सीरियस हैं? अभी तो तुम्हारा ग्रेजुएशन भी कंप्लीट नहीं हुआ है?’

‘उनका कहना है, अच्छा रिश्ता बार-बार नहीं आता।’

‘ये बात तो सही है। तुमने मना क्यों कर दिया?’

‘क्या मतलब? तुम चाहते थे मैं हां कर देती?’

अब गिरीश का चेहरा गंभीर हो गया, ‘देखो प्रणति, मैं इस बीच कई बार ये कहने को हुआ, पर हर बार हिम्मत जवाब दे गई। तुम्हारे बारे में तो मुझे नहीं पता, लेकिन इतना तय है कि मेरे घर वाले हम दोनों का रिश्ता कबूल नहीं करेंगे। और अभी तो खैर शादी का वैसे भी सवाल नहीं उठता, लेकिन मेरी यह स्थिति नहीं है कि मैं अपने घर वालों का मन तोड़ कर कोई फैसला करने की सोच सकूं।’

‘मतलब क्या है, जरा साफ-साफ बताओगे?’

‘देखो परीक्षाएं खत्म हो गई हैं, रिजल्ट आने के बाद एमए में एडमिशन तो लेना ही है, लेकिन ऐकडेमिक करियर पर्स्यू करने जितना धैर्य और वक्त नहीं है मेरे पास। अगले हफ्ते से एक डिप्लोमा कोर्स जॉइन कर रहा हूं जर्नलिज्म का। नौ महीने का कोर्स है। शाम का कोर्स है तो एमएम के साथ-साथ हो जाएगा। एक बार कोर्स हो गया तो किसी न किसी अखबार में काम मिल जाएगा। अखबार का काम जेनरली शाम का होता है, तो एमए में दिक्कत नहीं आएगी।’

‘करियर प्लानिंग तो हो गई, अब कुछ मेरे बारे में भी बताओ। मैं हूं भी या नहीं तुम्हारी लाइफ में कहीं?’

‘यार तुम तो सबसे अच्छा गिफ्ट हो जो लाइफ ने मुझे दिया है।’

‘इसीलिए तुम उसे खोने को तैयार बैठे हो?’

‘ऐसे क्यों कह रही हो?’

‘तो और कैसे कहूं? तुम्हारे घर वाले मेरा तुम्हारा रिश्ता कबूल नहीं कर सकते और तुम उनका मन नहीं तोड़ सकते। तो तुम्हीं बता दो इस बात को अच्छे से अच्छे ढंग से कैसे कहा जाएगा तुम्हारे लिटरेचर में?’

‘लिटरेचर को छोड़ो, मैं तुमसे घुमा-फिराकर बात नहीं कर सकता। सीधी बात ये समझो कि पिता मेरे हैं नहीं, मां ने जैसे-तैसे पाला है। एक छोटा भाई और दो बहने हैं छोटी। उनकी पढ़ाई से लेकर शादी तक की जिम्मेदारी है मुझ पर और मां की ट्रेडिशनल सोच का बोझ अलग। मैं तो बगावत भी अफोर्ड नहीं कर सकता। मेरी शादी मेरी बिरादरी में और उनकी मर्जी से होगी। यह बात तय है।’

हम्म... प्रणति ने लंबी सांस ली।

‘मैं बहुत पहले से तुम्हें ये बताना चाहता था, लेकिन मन में एक हल्की सी आशा थी कि शायद मेरी रीडिंग गलत हो और तुम मुझे सिर्फ एक अच्छे दोस्त के रूप में देख रही होओ। पर यह उम्मीद भी गलत निकली। अब तुम भी उसी आग में जलोगी जिसमें मैं जल रहा हूं।’

प्रणति ने उसका हाथ पकड़कर उसे अपने थोड़ा और पास खींच लिया, बोली, ‘रास्ते अलग हो रहे हैं तो क्या, हम जितने कदम भी साथ चले प्यार से चले। ध्यान रखना उस प्यार की बेइज्जती न हो कभी।’ गिरीश के मुंह से कोई शब्द न निकला, बस प्रणति के हाथ के पर उसकी उंगलियां थोड़ी कस गईं।

थोड़ी देर यूं ही बैठे रहने के बाद दोनों उठे। गिरीश बाइक की ओर बढा, यह सोचकर कि प्रणति भी साथ ही आ रही है, पर प्रणति कुछ कदम चल कर ठिठक गई। उसे थमता देख गिरीश पलटा, ‘क्या बात है?’ प्रणति बोली, ‘तुम जाओ गिरीश, मैं अभी थोड़ी देर बैठूंगी यहीं।’ ‘तुम ठीक तो हो ना?’ ‘हां, बिल्कुल।’ ‘क्या मैं भी रुक जाऊं थोड़ी देर?’ ‘नहीं, नहीं तुम जाओ, मैं चली जाऊंगी।’ ‘ठीsssक है’, गिरीश के स्वर की मायूसी छिप नहीं सकी। प्रणति ने बांहें फैला दीं और दोनों ने एक दूसरे को टाइट हग दिया। एक से डेढ़ मिनट बाद वे अलग हुए और प्रणति ने प्यार भरे स्वर में कहा, ‘टेक केयर।’

गिरीश के जाने के बाद प्रणति हताश सी वहीं मरीन ड्राइव की दीवार पर बैठ गई। अब उसकी आंखों से आंसू गिर रहे थे, पर वह समंदर की ओर मुंह करके बैठी थी, सो अंधेरे में वे किसी को नजर नहीं आ रहे थे। सिर्फ समंदर उन आंसुओं की कीमत समझ रहा था। वह चुपचाप उन्हें अपनी लहरों के बीच सहेजे जा रहा था।

आधे घंटे बाद प्रणति उठी तो खुद को संयत महसूस कर रही थी। वहीं से उसने बस ले लिया। पर जब सायन हॉस्पिटल के स्टॉप पर उतरी तो बदन बुखार से तप रहा था। जैसे-तैसे घर पहुंची और अगले पूरे हफ्ते अंदर बाहर तपती रही। डॉक्टर और दवाइयां अपना काम करते रहे, लेकिन न डॉक्टर को कुछ पता चला न ही घर वालों को कि इस बीच प्रणति के दिलो-दिमाग में क्या कुछ चलता रहा।

बुखार और कमजोरी से उबर कर जब वह निकली तो जैसे दूसरी ही प्रणति थी। देखने वालों को वह पहले से कुछ कमजोर दिखती थी, लेकिन खुद अपने अंदर पहले से काफी मजबूत महसूस कर रही थी। दादी से बचपन में ही मिली सीख ताजा अनुभव के बाद नए रूप में उसके सामने थी, फूल और कांटे अलग-अलग हों जरूरी नहीं। फूल ही कब कांटों से हजार गुना ज्यादा चुभन दे दे पता नहीं चलता। गिरीश को वह कभी कांटों की श्रेणी में नहीं रख सकती। पर चुभन तो उसे मिली। एक और बड़ी बात यह हुई कि उसने तय कर लिया था, अब इस घर में नहीं रहना ज्यादा दिन। आज नहीं कल कोई और रिश्ता आएगा, फिर उस पर झिक-झिक। उसे ये सब झंझट नहीं चाहिए और किसी को बताना भी नहीं कि क्यों नहीं चाहिए। तो अपनी प्राइवेसी, अपना स्पेस हासिल करने का एक ही तरीका था, अपने पैरों पर खड़े होना और रहने का अलग इंतजाम करना।

यह नया मोड़ था उसकी जिंदगी में। सपनों के राजकुमार के साथ दूर देस जाने का सपना देखती रही लड़की, अब एक वर्किंग गर्ल बनने का निश्चय कर चुकी थी। पता था, ये इतना आसान नहीं होगा, पर बगैर किसी को कुछ बताए वह अपने मिशन में लग गई। दो मोर्चे थे इस मिशन के। एक तो फाइनल एग्जाम में अच्छे नंबर लाना और दूसरा जल्द से जल्द ऐसा काम ढूंढना जिससे न केवल अलग रहने के सारे खर्च निकल सकें बल्कि ममी-पापा और रिश्तेदारों की नजर में घर से अलग रहना भी जस्टिफाइड हो। दोनों मोर्चो पर लगातार सक्रियता का नतीजा था कि उसके ग्रैजुएशन रिजल्ट ने घर में सबको खुश कर दिया। यूनिवर्सिटी में तीसरा और कॉलेज में पहला नंबर था उसका केमिस्ट्री ऑनर्स में। और परीक्षा के बाद जो तीन-चार इंटरव्यू दिए थे, उनमें से एक का नतीजा यूनिवर्सिटी रिजल्ट घोषित होने के पंद्रहवें दिन पहुंच गया उसके पास। जर्मनी की एक केमिकल मैन्युफैक्चरिंग कंपनी में क्वालिटी कंट्रोल एनालिस्ट का काम था। सैलरी 30000 रु. महीने। खुशी से उछल पड़ी वह। इसलिए नहीं कि ज्यादा थी। उसे मालूम था कि इस सैलरी पर तो सभी नाक-भौंह ही सिकोड़ेंगे। खुशी की बात यह थी कि इस सैलरी से उसका अकेले का खर्च चल जाएगा और हां अपनी मेहनत की कमाई का वास्ता देते हुए वह सबको इसके लिए राजी भी करवा लेगी। उसके आगे का कदम था घर में सबको इस बात के लिए मनाना कि उसे घर से अलग अकेले रहने की इजाजत दें। मुश्किल था, पर प्रणति को मालूम था कि वह इसमें सफल होगी।

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ऐसा ही हुआ भी। छह महीने होते-होते प्रणति अंधेरी के एक वर्किंग गर्ल्स हॉस्टल में शिफ्ट हो चुकी थी। वीकेंड में घर जाया करती थी, फिर वह भी कम होने लगा। फॉर ऑल प्रैक्टिकल परपसेज, अब वह मुंबई में रह रही एक सिंगल वर्किंग गर्ल थी। मगर उसे फुरसत नहीं थी। दफ्तर में काम उसके सिर पर बोझ बने ऐसी नौबत कभी आती नहीं थी, वह काम के सिर पर सवार नजर आती थी हमेशा और काम के जैसे प्राण कांपते थे उसे देखकर। हर काम उसके सामने कम पड़ता था। फिर भी समय बच जाता था। इस बचे हुए समय का इस्तेमाल करते हुए उसने एमबीए का एक कोर्स जॉइन कर लिया। देखते-देखते वह कोर्स भी पूरा हो गया। सीनियर्स के बीच उसके काम की धमक पहले से गूंज रही थी। इधर उसे डिग्री मिली, उधर उसका पद क्यूसी एनालिस्ट से बदल कर प्रॉडक्ट मैनेजर हो गया और सैलरी डबल हो गई। पेंच बस ये था कि यह ऑफर उसे पुराने सीनियर ने नई कंपनी में दिया था। कुछ अर्सा पहले उन्होंने वह कंपनी जॉइन की थी

जिंदगी के इन तोहफों से प्रणति खुश थी, बहुत खुश। पर जो खालीपन बना था गिरीश के जाने से वह बना ही हुआ था। ऐसा नहीं कि उसके बाद दोनों मिले नहीं, पर औपचारिकताओं से आगे बढ़ने की कोई कोशिश दोनों में से किसी ने नहीं की। दोस्त इस बीच कई बने, पर सिर्फ दोस्त। उसे पता था कि फूल चाहे जितना आकर्षक हो, भरोसे के काबिल नहीं होता। उसकी सुगंध भी लेनी हो तो सुरक्षित दूरी बनाए रखते हुए लेनी चाहिए। और कितनी भी अच्छी सुगंध हो, ज्यादा देर तक उसके पास टिकना नहीं चाहिए। पता नहीं कब उसमें कांटे उग आएं।

लब्बोलुआब यह कि प्रणति खालीपन तो महसूस करती थी, लेकिन उसे भरने से बेहतर यही समझती थी कि खालीपन के साथ ही जिया जाए। ऐसा तब तक लगता रहा जब तक कि वह मोहित से नहीं मिली। और वह मिलना भी क्या मिलना था। रोमांटिक फीलिंग, निगाहें अटक जाना सब भूल जाइए। उस मुलाकात को आप किसी भी ऐंगल से संभावित प्रेमी-प्रेमिका का मिलना नहीं कह सकते, संभावित लिव इन पार्टनर तो दूर की बात।वह पुराने ऑफिस में आखिरी दिन था प्रणति का। ऑफिस के लोगों ने फेयरवेल पार्टी संडे को तय की थी, मंडे से नया ऑफिस जॉइन करना था, प्रणति कम से कम तीन दिन का ब्रेक चाहती थी अपने लिए। सो बुधवार को उसने अपने काम का आखिरी दिन तय किया था। उस दिन सबको फॉरमली बाय कहके वह ऑफिस से निकली ही थी कि दीपाली का फोन आ गया। दीपाली वर्किंग गर्ल्स हॉस्टल में उसकी रूममेट तो नहीं थी, लेकिन रूममेट से बढ़कर थी। इन तीन वर्षों में उस हॉस्टल में रहते हुए वही एक थी जो प्रणति की दोस्त बन पाई थी। दोनों की लाइन बिल्कुल अलग थी। नागपुर की दीपाली पुणे से एनिमेशन का कोर्स करने के बाद यहां फिल्म लाइन में जगह बनाने को स्ट्रगल कर रही थी। उसे पता था कि प्रणति के इस ऑफिस का आज आखिरी दिन है और अगले तीन दिन उसके रिलैक्स्ड रहने वाले हैं तो उसे सरप्राइज देने की सोची। प्रणति ने फोन उठाया, ‘बोल दीपू’। ‘तू फ्री हो गई क्या ऑफिस से?’ ‘जस्ट निकली हूं। क्यों?’ ‘ऐसा कर, ऑटो लेके तक्षशिला आ जा। महाकाली केव्स के पास है ये सोसाइयी अंधेरी ईस्ट में। ऐड्रेस मैं मैसेज करती हूं।’ ‘क्या बात है?’ ‘कुछ नहीं एक दोस्त का घर है, जहां कुछ लोग जुटे हैं। तू भी आजा, थोड़ी देर रह के हम लोग साथ ही निकल चलेंगे।’ ‘लेकिन...’ प्रणति अभी कोई बहाना सोच ही रही थी कि दीपाली उधर से बोल पड़ी, ‘पन्ती, क्यों इतना सोच रही है? मैं बोलती हूं न, आजा यार अच्छा लगेगा तुझे और यहां भी सबको अच्छा लगेगा तुमसे मिल कर।’ ‘ओके’ कह कर प्रणति ने फोन काट दिया।

पुराने ऑफिस की जिम्मेदारियों से मुक्ति का अहसास कहिए या नए जॉब के रूप में मिल रही तरक्की से उपजी खुशी का असर, फोन काटकर ऑटो में बैठने के बाद से ही एक अजीब सी पॉजिटिविटी वह अपने अंदर महसूस कर रही थी। करीब बीस मिनट में ऑटो ने तक्षशिला सोसायटी में एंटर किया। तब वह क्या जानती थी कि छह महीने होते-होते ये सोसाइटी उसके जीवन का एक अहम हिस्सा बन जाएगी।

 उस दिन जब वह बिल्डिंग नंबर 4-बी के थर्ड फ्लोर स्थित फ्लैट पर पहुंची तो सब कुछ इतना सामान्य था, इतना सहज कि उसे लगा ही नहीं वह किसी नई जगह पर नए लोगों से मिल रही है। दरवाजा दीपाली ने खोला। अंदर निर्मल, मुकुंद, मोहित और इरा बैठे थे। दीपा ने सबका नाम भर बोलते हुए परिचय कराया। एक मीठी मुस्कान से सबने स्वागत किया और प्रणति जाकर उन सबके साथ बैठ गई। कहीं कोई हलचल नहीं हुई। सब जैसे बैठे थे, वैसे ही बैठे बातचीत करते रहे। प्रणति ने गौर किया, घर में फर्नीचर वगैरह कुछ नहीं। बस हॉल के एक कोने में आलमारी है और दूसरी तरफ रैक बनी है लकड़ी की। दोनों में किताबें रखी हैं। बाकी गद्दे हैं, कपड़े इधर-उधर बिखरे हैं एक टीवी है, लेकिन देख कर लगता नहीं कि वह चलता होगा। घर को अच्छा या व्यवस्थित तो किसी ऐंगल से नहीं कह सकते, लेकिन माहौल में सादगी के साथ एक तरह की विशिष्टता का भी अहसास होता है। और अपनापन तो जैसे यहां की हवा में है। इस बीच दीपाली ने किचेन से लाकर पानी का एक बॉट्ल उसे पकड़ा दिया था। उसी ने पूछा, ‘तो बोल दिया पुराने ऑफिस को बाय-बाय?’ प्रणति ने मुस्कुराते हुए हां में सिर हिलाया। ‘मतलब? जॉब चेंज?’ निर्मल ने पूछा। प्रणति ने सिर्फ हां कहा, दीपाली ने उसे पूरा किया, ‘सिंपली जॉब चेंज नहीं, मेजर जंप कहो। क्यूसी एनालिस्ट से सीधे प्रोडक्ट मैनेजर बनी है।’ ‘वाव’ सबने कहा। प्रणति सफाई सी देते हुए बोली, ‘अरे नहीं, एक सीनियर थे मेरे, उन्होंने नई कंपनी जॉइन की थी। सो उन्होंने ही ऑफर दिया।’

‘तो नया ऑफिस कहां है?’ यह इरा थी।

‘वह भी अंधेरी में ही है।’ ‘लकी यू। ट्रैवल नहीं करना पड़े मुंबई में, इससे बड़ी बात क्या होगी!’

‘तुम्हारा ऑफिस कहां है?’ ‘फोर्ट में है यार, टाउन जाना पड़ता है रोज लोकल में।’ इस बीच किसी ने कहा, ‘चाय हो जाए एक राउंड?’ सबने एक साथ कहा, ‘जरूर’। मोहित उठ गया, मैं बनाता हूं।

बातों बातों में पता चला यह निर्मल, मुकुंद और इरा का साझा घर था। तीनों रहते थे यहां। तीनों युनिवर्सिटी के दिनों के साथी हैं। मोहित भी उसी ग्रुप का है। लेकिन वह माता-पिता के साथ रहता है। वह स्क्रिप्ट राइटिंग का काम करता है। दीपाली से काम के दौरान ही उसकी मुलाकात और दोस्ती हुई। आजकल दोनों एक ही प्रोजेक्ट में हैं। दीपाली उसी के जरिए इस ग्रुप से जुड़ी और ऐसी घुल-मिल गई कि लगता ही नहीं वह इनमें से एक नहीं है।

करीब दो घंटे वहां गुजारने के बाद जब दीपाली और मोहित के साथ प्रणति लौट रही थी, तो अंदर ही अंदर जैसे इस ग्रुप की हो चुकी थी। एक घर में दो लड़कों और एक लड़की का साथ रहना प्रणति को चकित कर रहा था। तीनों का आपस में ही नहीं मोहित और दीपाली के साथ भी रिश्तों का समीकरण कुछ ऐसा था जो उसने आज तक नहीं देखा था। तक्षशिला सोसायटी के गेट की ओर बढ़ते हुए दीपाली ने कहा, ‘कितनी मस्त है ना ये सोसायटी?’ प्रणति के मुंह से निकला, ‘सच यार, यहां रहने को मिल जाए तो मजा ही आ जाए लाइफ में।’ तीनों हंस पड़े। गेट से दीपाली और प्रणति ने गर्ल्स हॉस्टल के लिए ऑटो लिया और मोहित ने कांदिवली स्थित अपने घर का रुख किया।
तीन वर्षों की अपनी प्रफेशनल लाइफ में प्रणति के लिए यह पहला मौका था जब इतना सारा वक्त पड़ा हो और करने को कुछ न हो। मुंबई में तो आदमी पागल हो जाए ऐसे में। पर यहां भी दीपाली काम आई। उसका काम ढीला-ढाला होता था। कभी दिन-रात काम तो कभी फुरसत के रात-दिन। ज्यादा से ज्यादा समय दे रही थी वह प्रणति को। काम के लिए निकलने लगी तो बताया, डायरेक्टर के साथ मीटिंग है, आज ज्यादा कुछ होना नहीं है। फ्री होने पर मैं फोन करती हूं। साढ़े चार बजे उसका फोन आ गया, ‘दस से पंद्रह मिनट और लगेंगे मुझे, बांद्रा में हूं। तुम आ जाओ लकी (रेस्ट्रॉन्ट) में मिलते हैं।’ प्रणति पहुंची तो दीपाली के साथ मोहित भी था। दोनों ने प्रणति का स्वागत किया। चाय पीते-पीते दीपाली ने तीन टिकट टेबल पर रख दिए, ‘इवनिंग शो है, लाइफ इन ए मेट्रो। आते हुए ही मैंने ले लिया था।’ अब ज्यादा कुछ कहने सुनने को नहीं बचा था। टिकट लिए जा चुके थे।  बीस मिनट थे अभी। तीनों वॉक करते हुए गैलेक्सी तक पहुंचे।

फिल्म अच्छी थी। रिश्तों के अलग-अलग बहुत सारे शेड्स आए थे इसमें। लेकिन इतना भी सीरियस होने की जरूरत नहीं थी जितना मोहित हॉल से निकलने के बाद हो गया था। कैब ले लिया तीनों ने। तय हुआ कि मोहित दोनों को ड्रॉप करते हुए अपने घर जाएगा। इधर कैब ने स्पीड पकड़ी और उधर फिल्म पर डिस्कशन शुरू हुआ। शुरुआत दीपाली ने ही की, ‘इतनी प्यारी फिल्म है यार, तुम क्यों ऐसे सीरियस-सीरियस हो रहे हो?’ ‘मैं परेशान फिल्म से नहीं यह सोचकर हूं कि लोग खुद ही अपनी लाइफ का कबाड़ा कर लेते हैं। सबकी जड़ में है कमिटमेंट। यही रिश्तों को सड़ा देता है, जिंदगी बर्बाद कर देता है।’

‘क्यों?’ प्रणति ने पूछा।

‘खुद देखो ना। इसी फिल्म के मेन कैरेक्टर्स को लो। हसबैंड ऑफिस की लड़की को सेट किए हुए है, वाइफ किसी और लड़के के साथ खुशी ढूंढ रही है। दोनों एक-दूसरे से छुपाए हुए हैं। ये सब क्या है? रिलेशनशिप में इस तरह की चोरी-चकारी... क्यों ये सब कमिटमेंट का नाटक... सीधी बात है कोई भी दो लोग साथ रहेंगे तो कुछ समय बाद एक-दूसरे से बोर हो जाएंगे। इस एक फैक्ट को ऐक्सेप्ट करने में इतनी दिक्कत क्यों? जनम-जनम की जबर्दस्ती का क्या मतलब है आखिर? साथ रहेंगे और सड़ते रहेंगे, सड़ाते रहेंगे... इससे अच्छा है सही समय पर इज्जत से अलग हो जाओ, पर नहीं साहब हमारा तो सात जनमों का कोटा है।’

मोहित के कहने की स्टाइल पर दोनों को हंसी आ गई। दीपाली के लिए ये नई बातें नहीं थीं। उसने कहा, ‘तुम्हारा ये फंडा किसी के पल्ले नहीं पड़ने वाला मोहित। इन्स्टैंट प्लेजर चाहिए तो उसके हजार रास्ते हैं, लेकिन वह रिश्ता नहीं होता।’ पर प्रणति सोच में पड़ गई थी। पहली बार वह किसी लड़के से ऐसी बातें सुन रही थी। कहीं न कहीं ये उसे अपनी सोच से मिलती-जुलती सी लग रही थी, हालांकि खुद उसके ख्याल अभी पूरी तरह स्पष्ट नहीं थे। उसे इतना समझ आ रहा था कि फूल ज्यादा समय तक करीब रह जाए तो उसमें कांटे निकल आते हैं। मगर अभी तो वह मोहित की दलीलों को अच्छे से समझना चाहती थी। सो दीपाली से सहमति जताते हुए बोली, ‘बात तो सही है बिना कमिटमेंट के कोई रिश्ता कैसे हो सकता है?’

‘क्यों नहीं हो सकता? निर्मल, मुकुंद और इरा क्या साथ नहीं रह रहे? मेरा क्या उन लोगों से या बाकी दोस्तों से रिश्ता नहीं है? अगर करीबी दोस्ती में पजेसिवनेस नहीं बढ़ती, इंटिमेसी को कमिटमेंट नहीं चाहिए होता है तो फिर मैन वुमन रिलेशनशिप में ही इसकी डिमांड क्यों होती है? दोस्ती में भरोसा काफी होता है तो उस रिश्ते में भरोसा क्यों काफी नहीं होना चाहिए?’

पल भर के लिए मोहित रुका, प्रणति को अपनी बातें ध्यान से सुनते पाकर थोड़े और कॉन्फिडेंस से बोला, ‘तुम्हीं बताओ, कोई भी दो लोग साथ क्यों रहते हैं? इसलिए क्योंकि उनकी लाइफ में क्वॉलिटी आती है, क्योंकि उन्हें लगता है वे साथ-साथ लाइफ को बेहतर ढंग से एक्सप्लोर कर सकते हैं। तो फिर मकसद तो लाइफ को एक्सप्लोर करना हुआ ना। मैं जिससे प्यार करता हूं वह अगर अपनी लाइफ को किसी और तरीके से, किसी और के साथ ज्यादा अच्छे से एक्सप्लोर कर सकती है या कर सकता है तो मुझे तो इसमें खुश होना चाहिए। उसे फ्री कर देना चाहिए कि जाओ, जैसे उड़ना है उड़ो, मैं हूं। मगर नहीं, मैं ये बात बर्दाश्त ही नहीं कर पाता कि वह मुझे छोड़े। उसे रोके रखता हूं, तरह-तरह से इमोशनल प्रेशर डालता हूं। झूठी कसमें खाता हूं, सात जनमों का वास्ता देता हूं, उसकी लाइफ की संभावनाओं को खत्म कर देता हूं और दावा यह कि मैं उससे प्यार करता हूं। दोनों उसी रिश्ते में पड़े रहते हैं, एक-दूसरे से झूठ बोलते हैं, चीट करते हैं, लेकिन रिश्ते में कम्मिटेड रहते हैं।’
अंधेरी आ चुका था। मोहित का ध्यान उस तरफ था। उसने ड्राइवर से लेफ्ट लेने को कहा। हॉस्टल आने पर प्रणति का हाथ मनी पर्स की ओर गया, लेकिन दीपाली दरवाजा खोल कर उतर गई तो वह भी उतरी। इससे पहले कि प्रणति कुछ बोलती दीपाली ने बाय किया और मोहित के दोनों को बाय करते-करते कैब आगे बढ़ गई। प्रणति बोली, ‘अरे हमने तो दिया नहीं भाड़ा, शेयर करना था ना। चलो तुम रख लो, उसे दे देना।’ दीपाली हंसते हुए बोली, ‘अरे तुम जानती नहीं, इसलिए ऐसा कर रही हो। ये पूरा ग्रुप ही एकदम अलग है। कोई आपस में पैसों का हिसाब नहीं करता। जिसके पास होता है दे देता है। अगर मोहित के पास नहीं होते पैसे तो मुझसे बोल देता, मैं दे देती। तुम टेंशन मत लो।’

‘हम्म... ग्रुप तो सचमुच गजब है।’

.....................

अगले तीन महीने प्रणति के पिछले तीन साल पर भारी पड़े। जॉब के साथ काम से जुड़े बदलाव तो आने ही थे, पर उसकी पूरी दुनिया बदल चुकी थी। तक्षशिला ग्रुप के साथ जैसे-जैसे करीबी बढ़ती गई, उसका पर्सनल स्पेस जैसे जिंदा होता गया। पिछले तीन वर्षों में ऑफिस, काम और करियर के अलावा शायद ही उसने कुछ सोचा हो। पर अब घूमना-फिरना, फिल्म-थिएटर देखना उसकी प्राथमिकताओं में शामिल हो चुका था। सबसे बड़ी बात यह थी कि इन करीबी दोस्तों संग यूं ही बैठे रहना, पूरा-पूरा दिन तक्षशिला के उस फ्लैट में पुराने फिल्मी गीत सुनते हुए बिता देना भी ऐसी संतुष्टि देता था, जो ऑफिस में बड़े से बड़ा टारगेट हासिल करके नहीं मिलती थी।

और चौथे महीने लाइफ ने फिर सरप्राइज दिया। मोहित के पिता को औरंगाबाद से एक जॉब ऑफर हुई थी। मुंबई के एक मराठी दैनिक में न्यूज एडिटर थे वह। उन्हें उसी अखबार का औरंगाबाद एडिशन संभालना था बतौर रेजिडेंट एडिटर। ऑफर अच्छा था। मुंबई का किराये का घर छोड़ने में कोई समस्या नहीं थी। मोहित भी अपना ख्याल रख सकता था। अब मोहित के सामने नया घर लेने की चुनौती थी। वैसे तो तक्षशिला के इस फ्लैट में वह जब तक चाहे रह ही सकता था पर यह परमानेंट सॉल्यूशन नहीं था। सो उसने इरादा जता दिया सबके सामने कि एक रूम का ही सही, पर आसपास ही कोई घर मिले जो मैं अफोर्ड कर सकूं तो देखो सब लोग। घर लेने की जरूरत तो प्रणति भी महसूस कर रही थी। उसके पैरंट्स को पहले दिन से यह बात नागवार गुजर रही थी कि उनकी बेटी वर्किंग गर्ल्स हॉस्टल में रहे। वे उसे बढिया फ्लैट लेने का सुझाव कब से दे रहे थे, उसके लिए अपनी तरफ से हेल्प करने को भी तैयार थे। पर प्रणति अपनी कमाई के हिसाब से जीना चाहती थी। अब नई नौकरी में सैलरी बढ़ जाने के बाद वह घर लेने की स्थिति में थी। मोहित की बात पर वह तत्काल बोल पड़ी, ‘भई घर तो एक मुझे भी चाहिए। और इस सोसाइटी में मिल जाए तो कहना ही क्या।’ सब हंस पड़े।

संयोग ही कहिए अगले हफ्ते मुकुंद के पास ऐसी सूचना थी जिससे सब उछल पड़े। इसी तक्षशिला सोसाइटी में चार बिल्डिंग बाद वाले रो में एक फ्लैट खाली था सेकंड फ्लोर पर। वन बीएचके, किराया तीस हजार रुपये महीना। जाहिर है वह मोहित के लिए भारी पड़ने वाला था। एक और पेंच यह कि मकान मालिक बैचलर्स को नहीं देना चाहता था। मोहित ने सुनकर मुंह बिचकाया। तक्षशिला में न सही, आसपास किसी सस्ती सोसाइटी में भी चलेगा और वन रूम फ्लैट भी चलेगा, हॉल नहीं चाहिए पर भाड़ा कम हो। बीस तक मैं दे दूंगा। लेकिन जब प्रणति को इस घर के बारे में पता चला तो उसका मन डोल गया। ये घर छोड़ना नहीं चाहिए। अगले सैटरडे सब फिर जुटे तो यही फेवरिट टॉपिक था। दीपाली ने कहा, ‘दोनों मिलकर ले लो।’ आइडिया सबको पसंद आया। मोहित को जरूर कुछ हिचक थी प्रणति की सोच कर। प्रणति को फिक्र थी कि पता नहीं मोहित को ये आइडिया पसंद आया या नहीं। उस समय दोनों ने हंसी-हंसी में हामी भर दी और बात बदल गई। अगले दिन दोनों अलग से बैठे बालकनी में। दोनों को अलग बैठे देख कोई भी उस तरफ नहीं आया। मोहित ने कहा, ‘देखो प्रणति तुम से इतनी अच्छी दोस्ती हो गई है, मुझे कोई प्रॉब्लम नहीं है। तुम अपनी बताओ।’ प्रणति बोली, ‘तुम पर मुझे पूरा भरोसा है। पर एक बात पहले साफ होनी चाहिए, हमारे खर्च अलग-अलग होंगे। मकान किराया हम आधा-आधा शेयर करेंगे 15 हजार तुम दोगे 15 हजार मैं दूंगी।’ मोहित बोला, ‘पूरा अकेले देना तो मेरे लिए भी मुश्किल होगा। लेकिन आधा-आधा करना जरूरी नहीं है। हम ऐसा कर सकते हैं कि एक महीना मैं दूं दूसरे महीने तुम। डिपॉजिट की रकम हम आधी-आधी शेयर करेंगे। बाकी छोटे-छोटे खर्चों का छोड़ो वह कोई ईशू नहीं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि मकानमालिक साला बैचलर्स को घर न देने पर अड़ा है। तो क्या डॉक्युमेंट फोर्ज करना होगा?’ डॉक्युमेंट फोर्ज करने का मतलब था नकली मैरिज सर्टिफिकेट बनवाना। इस पर प्रणति भी सकपका गई। ये तो उसने सोचा ही नहीं था। दो-चार मिनट की चुप्पी के बाद मोहित ने कहा, चलो पहले घर तो देख लेते हैं कैसा है? मान लो घर ही लेने लायक नहीं हुआ तो फिर क्यों सिर खपाना। लेकिन घर इतना शानदार था कि पसंद न आने का सवाल ही नहीं था। दीपाली चहक रही थी खुशी से, ‘ये तो बी4 से भी अच्छा है यार, गार्डेन फेसिंग।’

मोहित और प्रणति ने सोचा ब्रोकर से मिलकर देखा जाए वह क्या कहता है। वह मोहित को चेहरे से पहचानता था, ‘अरे तुम तो आता रहता इदर।’ उसे मोहित ने साफ-साफ बता दिया कि प्रणति और वे मिलकर घर लेंगे। दोनों अच्छे दोस्त हैं, लेकिन शादी नहीं हुई है और न शादी का इरादा है। वह हंसने लगा, ‘ओनर ने सबकुछ मेरे पर छोड़ा है। मैं गारंटी ले लेगा तो सब ठीक हो जाएगा। बस एक बार ओनर से मिलना पड़ेंगा। अगर उसने पूछा तो बोलने का कि कपल है। बाकी सर्टिफिकेट का कोई जरूरत नहीं है।’

पर मोहित तो मोहित है। जब ओनर से मिला तो उसने कहा, ‘देखिए हमने शुरू में ब्रोकर को गलत बताया था। पर मैं आपको अंधेरे में नहीं रखना चाहता। हम दोनों अच्छे दोस्त हैं। लेकिन हम कपल नहीं हैं। वैसे आपका घर हम अच्छे से रखेंगे। अगर आप भरोसा कर सकते हैं तो हमें घर दीजिए, नहीं दे सकते तो कोई ईशू नहीं है।’

ओनर बोला, ‘सोचा तो था कि बैचलर को नहीं देना है। पर आप जैसे लोगों से कोई प्रॉब्लम नहीं है। आप लोग रहिए, बस ये ख्याल रखिएगा कि सोसाइटी से कोई शिकायत न आए। अगर ऐसा होता है तो आपकी मुसीबत बढ़ेगी और कुछ नहीं।’

‘जी हम लोग पूरा ख्याल रखेंगे।’

प्रणति इस दौरान चुप ही रही, लेकिन जिस तरह से मोहित ने पूरे मामले को हैंडल किया, वह अंदर ही अंदर चकित हो रही थी उसकी साफगोई, उसकी ईमानदारी पर। कुछ कुछ अभिमान सा हुआ उसे कि वह ऐसे आदमी के साथ घर शेयर करने जा रही है। पेमेंट और बाकी औपचारिकताएं पूरी कर उन्हें ब्रोकर ने चाबी दे दी। हालांकि महीना शुरू होने में अभी पांच दिन बाकी थे, लेकिन ओनर का कहना था कि दो-चार दिन की कोई बात नहीं। आप जब मर्जी शिफ्ट हो सकते हैं।

चाबी लेने के बाद दोनों सबसे पहले उस घर में गए। मोहित ने सब कुछ जैसे पहले से सोचा हुआ था। उसने कहा, ‘देखो अंदर वाला कमरा तुम्हारा रहेगा और मैं हॉल में बिस्तर लगाऊंगा। बालकनी दोनों की रहेगी। वैसे भी वह हॉल और रूम दोनों से अटैच है। बाथरूम और किचेन तो दोनों का रहेगा ही।’ बातें सब ठीक थीं, लेकिन प्रणति ने सोचा, इतना अलग-अलग करने की अभी से क्या जरूरत है । पर जब वह कर ही रहा है तो उसे थोड़ा और उलझाया जाए। वह बोली, ‘ठीक है, लेकिन दोस्त-वोस्त आ जाएं तो उनसे क्या कहेंगे उसकी तरफ रहो, हमारी तरफ रहो?’

पर मोहित के मन में कोई उलझन नहीं थी। सहजता से बोला, ‘अरे बाबा ये तो हमारे तुम्हारे बीच की बातें हैं। हमारे बीच कोई कन्फ्यूजन नहीं होना चाहिए। दोस्त लोग आएंगे तो ये पूरा घर ही उनका होगा। उनके साथ क्या दिक्कत है, जहां चाहेंगे बैठेंगे, सोएंगे।’

इस तरह बना मुंबई में प्रणति का पहला अपना घर। पैरंट्स भी खुश थे, लड़की कम से कम गर्ल्स हॉस्टल से तो निकली। ज्यादा डीटेल उसने बताया नहीं था उन्हें, लेकिन इतने दिनों में वे अब समझ चुके थे कि उस पर कोई प्रेशर चलने वाला नहीं है। वह वही करेगी जो करना चाहेगी। बस वे इतना चाहते थे कि जिससे करना हो उसी से करे, पर कर ले शादी। उमर होती जा रही है। 25 की हो गई है।

लेकिन प्रणति को कहां फुरसत थी बरस गिनने की। ऑफिस की जिम्मेदारियां अलग बढती जा रही थीं, पर मोहित और दोस्तों का साथ उन जिम्मेदारियों को बोझ नहीं बनने देता था। दिन जैसे पंख लगाकर उड़ते जा रहे थे। रोज सुबह शाम के साथ ने मोहित और उसे इतना करीब ला दिया कि कब कमरा और हॉल एक हो गए उन्हें पता ही नहीं चला। अब पूरा घर ही दोनों का था। दोनों एक-दूसरे की प्राइवेसी का खुद ही ख्याल रखते थे। सो यह कभी मुद्दा नहीं बना। यह जरूर हुआ कि अपने शरीर की प्राइवेसी पर मोहित को हक देने की पहल प्रणति को ही करनी पड़ी। बंदा था भी इतना प्यारा कोई कब तक उसे खुद से अलग रहने दे सकता था। सो घर शेयर करते-करते दोनों जिंदगी भी शेयर करने लगे। पर यह जरूर था कि दोनों में से किसी ने एक-दूसरे से किसी तरह का कमिटमेंट नहीं मांगा था।

कमिटमेंट की भी रिश्तों में भूमिका होती है, इसका अहसास दोनों को आसपास के लोगों की जिंदगी में घटित हो रही घटनाओं से होता था। ऐसी पहली घटना थी दीपाली की शादी। निखिल से उसकी करीबी दोस्ती अफेयर में बदल चुकी है यह सबको पता था। लेकिन शादी? पर दीपाली के मन में कोई दुविधा नहीं थी। मोहित व्यक्ति और दोस्त के रूप में उसे बेइंतहा पसंद था, लेकिन कमिटमेंट पर उसके स्टैंड से वह रत्ती भर सहमत नहीं थी। उसने प्रणति से भी कहा, ‘तुम लोग जैसे रह रहे हो वह बहुत अच्छा है, फॉर द टाइम बीइंग। पर जिंदगी ऐसे नहीं कटती। स्टैबिलिटी तो चाहिए, ठहराव चाहिए। परिवार चाहिए, बच्चे चाहिए। ये सब बिना कमिटमेंट के.... कैसे हो सकता है? टेक योर टाइम, लेकिन कभी न कभी एक पॉइंट आता है जब सोचना पड़ता है, बस हो गया, मुझे इससे अच्छा नहीं, यही साथी चाहिए। उस दिन के बाद तलाश बंद। यही तो कमिटमेंट है।’

प्रणति ने सुन ली उसकी बात। फिर बोली, ‘तुम्हारा फंडा तो पहले दिन से साफ था। आई एम सो हैप्पी फॉर यू।’

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बिखराव बी-4 में भी दिखने लगा था। जैसा कि करीबी दोस्तों को पहले से पता था। उस तिकड़ी में तीनों एक दूसरे से जुड़े थे और नहीं भी जुड़े थे। मुकुंद इरा के प्यार में था, पर इरा निर्मल को दिल दिए बैठी थी। उधर निर्मल का दिल कॉलेज में ही कोई और लड़की पहले ही तोड़ चुकी थी। सो यह टूटे दिल वालों की जोड़ी थी जो दोस्ती के धागे में बंधे इतने साल से साथ रह रहे थे। प्राइवेसी का सम्मान इस कदर था कि तीनों एक-दूसरे से कभी ये नहीं पूछते कि जब बाकी दो साथ में थे तो क्या और कैसी बातें हुईं। नई बात इस बीच यह हुई कि मुकुंद के परिवार से शादी का दबाव बढ़ने लगा और इस बार उसे लगा कि अब घर वालों को लटकाने का मतलब नहीं है। सो उसने हामी भर दी। सबके अंदर थोड़ा-थोड़ा कुछ दरका, लेकिन यह इतना ज्यादा नहीं था कि रिश्तों पर आंच आए। फर्क यह जरूर आया कि घर वालों को हां बोलने के बाद से ही न केवल मुकुंद बल्कि निर्मल और इरा भी उसकी संभावित पत्नी के एंगल से अपनी और उसकी जिंदगी को देखने लगे थे। सो बिना किसी विवाद के मुकुंद का यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया कि उसे एक अलग घर ले लेना चाहिए। चूंकि अब उसे अपनी सैलरी और संभावित परिवार के हिसाब से सोचना था, सो तय था कि वह अंधेरी जैसे महंगे इलाके में सुविधाजनक घर नहीं ले सकता। नई मुंबई के सानपाड़ा में एक दोस्त की मदद से उसने एक वन बीएचके फ्लैट देखा। इरा, निर्मल और मोहित ने साथ जाकर वह घर देखा और सबके हां कहने पर ओनर से मिल मुकुंद ने डील ओके किया। घर की साफ-सफाई से लेकर जरूरी चीजों की खरीदारी तक सभी दोस्तों की भागीदारी बनी रही, खासकर इरा की।

प्रणति की अपनी व्यस्तता थी। सो वह ज्यादा समय नहीं दे पा रही थी, लेकिन इनडायरेक्टली पूरे प्रॉसेस में वह भी इनवॉल्व थी। उसे यह प्रक्रिया दूसरे स्तर पर भी प्रभावित कर रही थी। दीपाली की बातें उसके अंदर ठहर सी गई थीं। ये बातें उसके अपने अनुभव और दादी की सीख से निकले निचोड़ से टकरा रही थीं।

इसी सबके बीच एक संडे मुकुंद के सानपाड़ा वाले नए घर में सभी दोस्त जुटे। इस ग्रुप की पार्टी ऐसी ही होती थी। म्यूजिक चाय, सिगरेट और बातचीत...। कभी-कभार जब कोई अतिरिक्त वजह हो, इसमें बियर को जगह मिलती, लेकिन मुख्य नशा तब भी बातचीत का ही होता। बहरहाल उस दिन ऐसी कोई अतिरिक्त वजह नहीं थी। सो दोस्त आते गए और महफिल जमती गई। मुकुंद का नया घर... यही चीज सबको खुशी भी दे रही थी और अंदर कहीं कसक भी। पर इन कसकों का मजा ने ले लें तो दोस्त कैसे। सो किसी ने टोका, ‘हमारे बीच से एक और विकेट गिर रहा है। आज नहीं कल अब तो मुकुंद की भी शादी होगी। क्यों मोहित?’ मोहित समझ रहा था कि उसे क्यों टोका जा रहा है। टालते हुए बोला, ‘कोई बात नहीं यार, मुकुंद भाऊ ने अच्छी पारी खेली। विकेट गिरा भी तो क्या। अब नई पारी के लिए उसे शुभकामनाएं।’

‘देखो हम लोग कोई लड़ाई नहीं लड़ रहे, किसी को कुछ साबित नहीं करना है। हम अपने ढंग से जिंदगी जी रहे हैं बस’ यह इरा थी।

पर मोहित इस सरेंडर के लिए तैयार नहीं था, ‘जी तो रहे हैं हम अपनी जिंदगी ही, लेकिन यह एक लड़ाई भी है और इसमें पॉइंट भी है ही। जिंदगी तो पूरी सोसाइटी जी रही है, वे भी जी रहे हैं जो अपने पार्टनर को चीट करते हैं, जो शादी के नाम पर रोज रेप झेलती हैं वे लड़कियां भी जी रही हैं। पर हम अलग ढंग से जी रहे हैं तो यह बता रहे हैं कि ऐसे भी जिया जा सकता है। सो हम चाहें या न चाहें यह एक लड़ाई भी है और हां इससे बहुत कुछ साबित भी होता है।’

‘फिर तो मानना पड़ेगा कि मुकुंद की शादी के फैसले से तुम्हारी लड़ाई कमजोर हुई है?’ निखिल ने कहा।

‘लड़ाई कमजोर तब होती जब मुकुंद शादी के लिए दिलो-दिमाग से तैयार होने के बाद भी उस बात को छुपाए रखता या निर्मल और इरा उस पर इमोशनल प्रेशर डालते इसके लिए। तीनों जब तक साथ रहे, पूरी ईमानदारी से रहे और फिर जब अलग होने का वक्त आया तो पूरी डिग्निटी से अलग हुए।’

प्रणति बातें सुन रही थी, लेकिन वह किचेन में थी। मोहित की बात खत्म होते होते तक वह हॉल में आई तो सबकी नजरें उसकी तरफ थीं। निर्मल जो अब तक चुप था, उसने छेड़ा प्रणति को, ‘एक्सपर्ट कमेंट प्लीज’।

प्रणति बोली, ‘मैं यही कहूंगी कि हर रिश्ता एक फूल है और उसे फूल ही बने रहना चाहिए। जब उसमें कांटे चुभने लगें तो मतलब रिश्ता पहले ही मर चुका है। और लाश कोई भी हो उसके साथ जीना कोई अच्छी बात नहीं होती।’

तालियां बज उठीं कमरे में, ‘वाह क्या डायलॉग है।’

प्रणति के डायलॉग ने मोहित को खासा प्रभावित किया था। तीन दिन बाद जब वे तक्षशिला के अपने फ्लैट की बालकनी में बैठे सुहानी शाम का मजा ले रहे थे, मोहित ने कहा, ‘एक बात माननी पड़ेगी। रिश्तों को तुम उसी रूप में जीने लगी हो जैसा मैं हमेशा से चाहता था। जब भी मैं सोचता हूं मुझे एक तरह से गर्व का अहसास होता है कि मैं तुम्हें डिजर्व करता हूं। तुम जैसी पार्टनर पाना मेरी जिंदगी की सबसे अच्छी बात है।’

प्रणति ने पुलकित होकर उसकी हथेलियां पकड़ीं उसमें अपना चेहरा छुपा लिया। फिर उसने कहा, ‘कितना अच्छा हो ना अपना यह रिश्ता कभी खत्म न हो।’

‘हां, पर सबसे अच्छी बात यह है कि हम दोनों ही इस बात के लिए पूरी तरह तैयार हैं कि कभी रिश्ते को बोझ नहीं बनने देंगे। जब तक ये रहेगा हमें ऐसी ही शांति ऐसा ही सुकून देता रहेगा। जब कभी ये थकने लगेगा हम इसे जबरन आगे चलने को मजबूर नहीं करेंगे। न मैं इस रिश्ते पर निर्भर हूं और न तुम। हम दोनों साथ हैं तो इसलिए नहीं कि हमारी कोई मजबूरी है। इसलिए कि हमें एक-दूसरे का साथ दुनिया की किसी भी दूसरी चीज से ज्यादा पसंद है।

प्रणति थोड़ा आगे की ओर खिसक कर अधलेटी सी हो गई और उसने अपना सिर मोहित की छाती से टिकाकर आंखें बंद कर लीं। वह जैसे इस पल को अपने अंदर पूरी तरह समेट लेना चाहती थी।

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अपना ही मन कितना अजीब है। उसे समझना कभी-कभी तो नामुमकिन लगने लगता है। जो पल उस शाम प्रणति के लिए दुनिया भर का सुकून दे गया था, उसी पल की स्मृतियां कुछ दिनों बाद उसे बेचैन करने लगीं। मोहित के साथ अपने रिश्ते की कसौटियों को लेकर वह थोड़ी ज्यादा सजग हो गई थी। इसी सजगता से कुछ आशंकाएं पैदा होने लगीं। अब ऐसा होता कि जब कभी मोहित पर बहुत ज्यादा प्यार आता, मन का एक हिस्सा उससे सवाल करने लगता कि कहीं तुम इस रिश्ते पर जरूरत से ज्यादा डिपेंड तो नहीं करने लगी हो। मान लो कल को यह रिश्ता खत्म हो जाए, मान लो मोहित की जिंदगी में कोई और आ जाए... क्या तुम उस स्थिति के लिए तैयार हो? क्या तुम पर असर नहीं होगा उन बातों का? उसी सहजता से तुम उसे छोड़ सकोगी जिस सहजता से इरा ने मुकुंद को छोड़ा?

इन सवालों के जवाब हां में देना मुश्किल था और यही मुश्किल उसकी मुश्किलों को बढ़ाती चली गई। कभी ख्याल आता, मैंने अपनी राह छोड़ दी। मुझे सोचना चाहिए था कि फूल में कांटे कभी भी निकल सकते हैं। अगर इस फूल में कांटे निकल आएं तो मैं कैसे बचूंगी चुभन से?

इन ख्यालों से खुद को निकाल भी लेती तो आशंकाओं के तूफान दूसरी तरफ से उठते दिखने लगते। रिश्ता आज तो बहुत अच्छा चल रहा है। यह लिव-इन भी तो करीब-करीब शादी ही है। लेकिन आज नहीं कल इसे सोशल बनाना ही पड़ेगा। घर-परिवार को कभी तो इसमें शामिल करना होगा। कभी तो उन्हें बताना होगा। फैमिली भी आज नहीं कल प्लान तो करनी होगी। तो क्या बगैर कमिटमेंट के ये सब हो जाएगा? बच्चों से जो हमारा रिश्ता होगा क्या वह भी बगैर कमिटमेंट के निभ जाएगा?

तो क्या मोहित से बात करनी चाहिए इन मसलों पर? पता नहीं वह क्या सोचता होगा? पर इस सवाल ने मन को अंदर तक झिंझोड़ दिया। क्या-क्या सोचने लगी है वह भी। क्यों कमजोर पड़ती जा रही है। मोहित का तो अभिमान है ये रिश्ता। इस रिश्ते को कमिटमेंट से बांधकर इसे खत्म करने की बात करे? इस रिश्ते को कलंकित तो नहीं करना है। ये जब तक है तब तक उतना ही सच्चा रहेगा, उतना ही खरा। और जब तीन साल में हम लोग कभी कमजोर नहीं पड़े तो फिर अब क्यों कमजोर पड़ना। मुझे मन को मजबूत बनाए रखना होगा।

आखिर वह इस ऊहापोह से उबरी। काफी राहत महसूस कर रही थी। मैं भी कैसी स्टुपिड हूं। जिंदगी इतनी अनप्रेडिक्टेबल है, अगले पल क्या होना है यह तो तय होता नहीं और मैं रिश्तों के भविष्य को लेकर कमिटमेंट खोजने चली हूं। उसे खुद पर हंसी आई।

पर जिंदगी भी जैसे आंखमिचौली खेलने पर तुल गई थी। इसकी अनप्रेडिक्टेबिलिटी पिछले हफ्ते उसका सहारा बनी थी, पर आज मीटिंग में मेहता सर ने सबके सामने अपना पुराना प्रस्ताव फिर दोहरा दिया, ‘करियर को हमें लाइटली नहीं लेना चाहिए। सुनहरे मौके बार-बार नहीं आते।‘ फिर उसकी तरफ देखते हुए बोले, ‘कोई ये बात हमारी प्रणति को भी समझाए। डेढ़ साल पहले भी मौका था, पर तब उसने फ्लैटली रिफ्यूज कर दिया था। इस बार मैनेजमेंट ज्यादा सीरियस है। उसे लग रहा है प्रणति का टैलंट यहां वेस्ट जा रहा है। प्लान उसे हेडक्वार्टर (बेंगलुरु) बुलाने का है, साउथ जोन देखना है। विद प्रमोशन भेजूंगा भई। अब तुम ना मत कह देना। कम से कम बिना सोचे मत कहो।’

सोचना ही तो नहीं है सर, सोचूंगी तो फंस जाऊंगी, मन ही मन बुदबुदाते हुए वह चेहरे पर मुस्कान लाकर बोली, ‘सर ऐसी भी स्टुपिड नहीं हूं कि इस ऑफर का मतलब न समझूं। कुछ ईशूज हैं, पर मैं हैंडल कर लूंगी।’

गुड तो मैं मेल भेजता हूं। ओके कर दो। मैं आज ही फॉरवर्ड कर दूंगा। वहां तो तुम्हारा इंतजार ही हो रहा है।

मीटिंग खत्म होते-होते सब प्रणति को बधाई देने लग गए। वह ऊपर से हंसते हुए सबकी बधाइयां स्वीकार कर रही थी, अंदर तूफान उठना शुरू हो गया था। ये क्या कर दिया उसने? इसका मतलब क्या? क्या यह मोहित से रिश्ते के खात्मे का एलान नहीं होगा? सवालों के उन बवंडर को टालना मुश्किल था। सबको जैसे-तैसे टालकर वह अपने केबिन पहुंची। दरवाजा रिमोट से लॉक कर लिया। खुद को शांत करने की कोशिश की, अब जो होना है वह तो हो चुका है। डेस्कटॉप ऑन किया तो मेहता सर के थ्रू एचआर का मेल आ चुका था। ऐक्सेप्टेंस का फॉर्मल रिप्लाई टाइप किया, सेंड पर क्लिक किया और निढाल हो कुर्सी पर पीठ टिका ली। 

डूब के जाना है

पिछले तीन दिन से दोनों साथ तो रह रहे थे, लेकिन इस तरह जैसे साथ न रह रहे हों। फैसला दोनों को मालूम हो चुका था, दोनों ने इसे एक स्तर पर स्वीकार भी लिया था, लेकिन जैसे पचा नहीं पाए थे। इसे पचाने की कोशिश जारी थी। दोनों इसका वक्त दे रहे थे खुद को भी और दूसरे को भी। उससे पहले बात कर के क्या फायदा। ऐसा नहीं कि अबोला हो। रूटीन की सारी बातें हो रही थीं, पर किस तरफ नहीं जाना है यह दोनों को पता था और दोनों इस बात का पूरा ख्याल रख रहे थे कि बात गलती से भी उस तरफ न चली जाए।
चौथे दिन वह ऑफिस के लिए निकलने की तैयारियों में थी जब मोहित ने पूछा, ‘टिकट किस दिन का है तुम्हारा?’ ‘दो तारीख का। तीन को बैंगलोर पहुंचूंगी, चार को जॉइन करना है।’
‘ठहरने का क्या?’
ऑफिस का गेस्ट हाउस है। गेस्ट हाउस मतलब वन बीएचके फ्लैट है एक। तो शुरू में कुछ दिन तो वहीं रहना है। फिर देखूंगी।
‘ओsssके’। मोहित की आवाज में संतुष्टि का भाव था या असंतुष्टि का यह स्पष्ट नहीं हो रहा था। प्रणति ने घूमकर उसकी ओर देखा, चेहरे पर कुछ असमंजस का भाव था, जैसे सोच रहा हो बोले या अभी रहने दे।
‘क्या?’
‘इस फ्लैट का क्या करेंगे? मुझ अकेले के लिए इतने बड़े फ्लैट की जरूरत नहीं...’
‘अरे फ्लैट रहने दो। ऐसी भी क्या जल्दी है? मैं अपने हिस्से का किराया देती रहूंगी...’ अनायास ही बोल गई प्रणति और फिर अपने स्वर की सहजता पर जैसे खुद ही सकपका कर चुप हो गई। ऐसे बोल गई जैसे कुछ हुआ ही न हो। जैसे बैंगलुरु की पोस्टिंग एक यूं ही आ गई सी चीज हो, उस पोस्टिंग का ऑफर स्वीकारना तीन साल से चले आ रहे इस लिव इन रिश्ते को तोड़ने की नीयत से लिया गया फैसला न हो।
उसके स्वर की सहजता से लेकर सकपकाहट तक मोहित की नजरों ने सब दर्ज किया, लेकिन चेहरे पर भाव वही असमंजस वाला रहा। कुछ सेकंड की चुप्पी के बाद बोला, ‘बात सिर्फ पैसे की नहीं है। यह घर मैं वैसे भी नहीं रख पाऊंगा...’। वाक्य मोहित ने अधूरा छोड़ दिया था, लेकिन उस अधूरे रह गए हिस्से को समझने में प्रणति को कोई दिक्कत नहीं हुई, ‘… तुम्हारे जाने के बाद।’
प्रणति ने बैग उठा लिया और ऑफिस जाने की सारी हड़बड़ी चेहरे पर लाते हुए बोली, ‘ओके बाय, अभी मैं निकलती हूं ऑफिस, देर हो जाएगी।’
मोहित थोड़ी देर वैसे ही खड़ा रहा। फिर आहिस्ते से कुर्सी पर बैठ गया। शांत लहरों के बीच इतमीनान से तैरती उन दोनों के जीवन की नाव अचानक किस तूफान में फंस गई है। पिछले करीब तीन साल उसके जीवन के सबसे ज्यादा संतुष्टि, सबसे ज्यादा सुकून देने वाले साल रहे। प्रणति के साथ ने उसके जीवन का खालीपन दूर कर दिया था। और अब अचानक बिना कुछ कहे-सुने प्रणति ने मुंबई छोड़ने का इतना बड़ा फैसला कर लिया, वह भी इसलिए क्योंकि उसे इस रिश्ते से डर लगने लगा था। आखिर क्या गलती हुई? कहां चूक रह गई? कुछ न कुछ हुआ जरूर है, वरना प्रणति ऐसा फैसला इस तरह से तो नहीं कर सकती। जरूर मेरी किसी बात से उसे जबर्दस्त चोट पहुंची है। लेकिन किस बात से?
इस ख्याल ने उसे एकबारगी बेचैन कर दिया। लेकिन मन ने ही टोक दिया, तुम कुछ ज्यादा ही इमोशनल नहीं हो रहे? रिश्ता टूटने की तड़प में तुम उसका स्पेस क्यों छीन लेना चाहते हो? वह एडल्ट है, मैच्योर है। उसका फैसला है रिश्ता तोड़ने का, तो उस फैसले का सम्मान तुम्हें करना चाहिए या नहीं? वह ठीक समझती तो तुम्हें इसकी वजह बताती, पर उसने वजह बताना जरूरी नहीं समझा तो तुम खामखा हीरो बनना चाहते हो कि तुम्हारी ही किसी बात से उसे चोट लगी और इसीलिए वह रिश्ता तोड़ रही है। क्यों भई, वह इतनी कमजोर है, इतनी लाचार इतनी मजबूर है कि तुम्हारी किसी बात से चोट लगने पर तुम्हें बता नहीं सकती? रिश्ता तोड़ते समय भी यह नहीं कहती कि तुम्हारी फलां-फलां बातों के चलते मैं यह रिश्ता तोड़ रही हूं, कि इन बातों के बाद अब हमारा साथ रहना बेमानी हो गया है? और क्या रिश्ता टूटने की वजह सिर्फ चोट ही होती है? क्या कोई और सीधी-सादी वजह नहीं हो सकती? कोई बोर नहीं हो सकता साथ रहते-रहते? क्या ऐसा नहीं हो सकता कि प्रणति को तुमसे अच्छा कोई मिल गया हो? और अगर ऐसा है तो तुम्हें क्यों जबरन उसके पर्सनल स्पेस में घुसना चाहिए? वह जब ठीक समझेगी तुम्हें बताएगी और नहीं समझेगी तो नहीं बताएगी।
अपने ही मन ने मोहित को निरुत्तर कर दिया था। बात तो सही है। वह ठीक समझेगी तो बताएगी, नहीं समझेगी तो नहीं बताएगी। सब कुछ अब उसके समझने पर ही निर्भर करता है। मायूसी की एक लहर सी उसके मन में आई और वह उसमें डूबता चला गया। बैठे-बैठे ही कब आंख लग गई, उसे पता भी नहीं चला।
..............
घर से निकल तो आई प्रणति हड़बड़ी दिखाते हुए, लेकिन सच यह था कि वह तय समय से 10 मिनट पहले ही चल पड़ी थी। मोहित के इस वाक्य ने उसे बेचैन कर दिया था, ‘बात सिर्फ पैसों की नहीं, यह घर मैं वैसे भी नहीं रख पाऊंगा...’। उसे ध्यान आया कि दोनों ने किन हालात और किस मनःस्थिति में साथ में यह फ्लैट लिया था। तब तो दोनों एक-दूसरे को जानते भी नहीं थे बहुत अच्छे से। ग्रुप में बनी दोस्ती थी, पर एक विश्वास जरूर बन गया था उस पर। भरोसा था कि यह आदमी कुछ गड़बड़ नहीं करेगा, धोखा नहीं देगा। और मोहित ने उस विश्वास को तोड़ना तो दूर, कभी जरा से संदेह की भी कोई गुंजाइश नहीं बनने दी। हमेशा सम्मान दिया, स्पेस दिया... प्यार भी कम नहीं दिया।
प्रणति ने तय किया था कि हर खर्च शेयर करेंगे दोनों, डिपॉजिट अमाउंट दोनों ने आधा आधा उठाया, किराया बारी-बारी से देते हैं एक-एक  महीने, लेकिन उसके अलावा घर में और कोई चीज बंटी हुई नहीं रही कभी और इसका श्रेय पूरी तरह से मोहित को ही जाता है। कहा जरूर था उसने कि इस वन बीएचके फ्लैट का बेडरूम प्रणति का होगा और हॉल मोहित का, लेकिन पहली जो बड़ी चीज उसने खरीदी वह थी ड्रेसिंग टेबल। हमेशा घर के बारे में ऐसे सोचता जैसे ये पूरा घर उसकी जिम्मेदारी हो। फिर प्रणति भी ऐसे ही सोचने लगी और किराये पर लिया गया ये साझा फ्लैट धीरे-धीरे उनका घर बन गया। अब उस घर को फिर से एक फ्लैट का रूप देकर उसमें रहना मोहित के लिए कैसे मुमकिन हो सकता है? खुद उसके लिए भी ये नामुमकिन ही होता। पल भर के लिए उसने सोचा कि मोहित अपनी तरफ से रिश्ता तोड़ने का एलान करते हुए घर छोड़ देता और उस अकेले को यह घर रखना पड़ता तो क्या वह इसमें रह सकती थी?


अचानक वह खुद की ही नजरों में दोषी दिखने लगी। उसने किस हाल में ला पटका मोहित को। रिश्ता दोनों की मर्जी से शुरू हुआ था। मोहित ने हर संभव तरीके से उसे सहज महसूस कराया, पर कभी अपनी करीबी लादने की कोशिश नहीं की। ऐसा भी नहीं कि कभी प्रणति को यह महसूस हुआ हो कि उसका पास जाना मोहित को बुरा लग रहा हो। वह एक-एक कदम मोहित की ओर बढ़ती गई और मोहित जैसे निहाल होता गया। आज तक तो उसने कभी यह नहीं जताया कि वह इस रिश्ते से नाखुश है या वह बोर हो रहा है या रिश्ते को खत्म करना चाहता है। ये तो वही थी जिसने रिश्ता खत्म करने का फैसला कर लिया। क्यों? आखिर क्या तकलीफ थी उसे इस रिश्ते में? दूसरों को तो छोड़ो खुद को भी वह कोई एक ठोस कारण बता सकती है रिश्ता तोड़ने का?
क्यों नहीं बता सकती? मन ने ही जैसे रूप बदला, अब वह उसकी तरफ से बोल रहा था, रिश्ता बनाने से भी पहले से मोहित की चिंता रिश्ता टूटने को लेकर थी। जैसे रिश्ता न बना रहा हो गाड़ी चलाना सीख रहा हो और स्टार्ट करके उसे आगे बढ़ाने से पहले यह जानने में दिलचस्पी हो कि ब्रेक कैसे लगाते हैं। कोई कमिटमेंट नहीं होना चाहिए रिश्ते में। बताओ भला, बिना कमिटमेंट के भी कोई रिश्ता हो सकता है क्या? हमारा ही रिश्ता तीन साल चल गया तो क्या बिना किसी कमिटमेंट के चला? हम बोलते नहीं थे, एक-दूसरे को जताते नहीं थे, पर कमिटमेंट तो हमारा दिखता ही था हर छोटी-बड़ी चीज में। खुद मोहित के व्यवहार में भी दिखता था। चाहे घर लौटने में देरी का सवाल हो या अपने हिस्से का किराया समय से देने का या उसके ऑफिस में वर्कलोड बढ़ने पर घर जल्दी पहुंचकर खाना बनाने जैसे काम को अंजाम देने का- मोहित ने कभी शिकायत का मौका नहीं दिया। उसे पता था कि अगर मोहित के लिए संभव होगा तो उसे राहत देने के लिए वह कुछ भी उठा नहीं रखेगा। यह विश्वास तो उसका आज भी बना हुआ है, रिश्ता तोड़ने की उसकी घोषणा के बाद भी। यानी ना ना करते हुए भी कमिटमेंट में वह पीछे नहीं हटा कभी।
प्रणति इस बार झुंझला उठी। मन रूप बदलकर भी मोहित की ही साइड ले रहा है। फिर उसे हंसी आई, आखिर वह क्यों चाहती है कि मन मोहित की साइड न ले? कुछ गलत तो कह नहीं रहा। ये क्वॉलिटी तो मोहित ने हमेशा दिखाई है। मुद्दा बस एक ही है जिसे जाने अनजाने बार-बार दोहराता रहा है मोहित, अलग-अलग तरीकों से। वह ये कि रिश्ते में कोई कमिटमेंट नहीं होना चाहिए, कि जब भी दोनों में से कोई भी एक चाहे तो बिना किसी दिक्कत के रिश्ता तोड़ दे, दूसरे को इससे कोई समस्या नहीं होनी चाहिए। अब बताओ, ये कोई डिमांड हुई? दूसरे को कोई समस्या नहीं होनी चाहिए, कोई तकलीफ नहीं होनी चाहिए। कैसे नहीं होगी तकलीफ? अगर कोई अच्छा रिश्ता टूटेगा तो तकलीफ नहीं होगी? उसे याद आया, गिरीश से रिश्ता तो ढंग से बना भी नहीं था, सिर्फ कॉलेज वाली अच्छी दोस्ती थी और फीलिंग थी दोनों तरफ प्यार वाली, लेकिन जब पता चला कि बात आगे नहीं बढ़ सकती तो कैसे बुरी तरह टूट गई थी वह। क्या वही हाल अब मोहित का हो जाएगा? या खुद उसका?
नहीं, नहीं। किसी का कुछ नहीं होगा। मोहित तो उतना कमजोर है ही नहीं, वह खुद भी अब बच्ची थोड़े ही रही। और जहां तक टूटने की बात है तो यह रिश्ता जितना लंबा चलने के बाद टूटेगा, उतनी ज्यादा तकलीफ देगा दोनों को। अच्छा ही है कि यह जल्दी टूट रहा है, दोनों के लिए उबरना आसान होगा।
झटके के साथ ऑटो रुका। ऑफिस आ गया था।
.....................
मोहित की नींद तो खुल गई थी, लेकिन कुछ करने का मन नहीं हो रहा था। यूं ही कुछ देर बैठा रहा। फिर ख्याल आया कि दीपाली के साथ एक चैनल के क्रिएटिव हेड से मिलने की बात तय हुई थी। आई होप कि उसने टाइम न फिक्स कर लिया हो। कुर्सी पर बैठे-बैठे ही हाथ बढ़ाकर उसने टेबल पर से मोबाइल लिया और दीपाली के लिए मैसेज टाइप करने लगा कि तभी मोबाइल बज उठा, स्क्रीन पर उभरा- प्रणति कॉलिंग। तुरंत रिसीव किया कॉल, ‘हां, प्रणति।’ ‘मोहित कहां हो? ‘घर में, क्यों?’ ‘सांताक्रूज वेस्ट के सूचक नर्सिंग होम पहुंचो। दीपाली का एक्सीडेंट हो गया है।’ ‘अरे कैसे कब? हाल क्या है उसका?’ 
‘डीटेल में नहीं पता ज्यादा कुछ, लेकिन ऑटो में थी वह। पीछे से किसी कार ने टक्कर मार दी तो ऑटो पलट गया। लेकिन मेरा ख्याल है ज्यादा चिंता की बात नहीं है। खुद उसी ने फोन किया था अभी, तो होश में थी, बात कर रही थी। निखिल आउट ऑफ स्टेशन है। इसलिए उसे अभी बताया नहीं है उसने। मैंने भी किसी और को नहीं बताया है अभी। वहां पहुंचो फिर देखते हैं।’  
‘आता हूं’ कहते हुए मोहित ने फोन बंद किया और फुर्ती से उठकर तैयार होने लगा। अभी छह महीने पहले तो शादी हुई है दोनों की। ससुराल और काम के बीच बैलेंस बनाने की कोशिश कर रही थी और इसी में यह झंझट। वह नर्सिंग होम पहुंचा तो प्रणति पहले से मौजूद थी। वह दीपाली से बात कर रही थी। मोहित ने राहत महसूस की, दीपाली के सिर पर पट्टी जरूर बंधी है लेकिन वह बहुत तकलीफ में नहीं लग रही है। उसे देख दीपाली मुस्कुराई, मोहित बोला, ‘भई मैं तो वैसे भी आज तुमसे मिलने वाला था, इतना सब कुछ करने की क्या जरूरत थी? सिर्फ प्रणति के लिए? उसके लिए तो एक फोन कॉल काफी था।’
मोहित के इस वाक्य ने दोनों के चेहरे खिला दिए और वहां का माहौल बदल गया। पता चला डॉक्टर दीपाली को खतरे से बाहर बता रहे हैं, लेकिन इंटर्नल इंज्योरी को लेकर कुछ टेस्ट हुए हैं जिनकी रिपोर्ट कल आएगी। आज उसे नर्सिंग होम में ही रहना होगा। निखिल पुणे से चल चुका है, शाम तक पहुंचेगा। दस मिनट में ही दीपाली की ननद और सास आ गईं और उन लोगों ने सारा मोर्चा संभाल लिया। अब वहां ज्यादा लोगों का रहना वैसे भी अटपटा लग रहा था, सो प्रणति और मोहित वहां से बाहर आ गए। अब क्या करें। सामने एक रेस्ट्रॉन्ट दिखा और दोनों उसी तरफ बढ़ गए। मोहित ने चाय का ऑर्डर दिया, प्रणति ने कॉफी का। घूंट भरते हुए प्रणति ने पूछा, ‘क्या प्रोग्राम है इसके बाद?’ ‘कुछ नहीं मेरा तो। तुमको ऑफिस जाना होगा ना!’ 
‘नहीं ऑफिस में बोलकर निकली थी कि पता नहीं कितना टाइम लगे।’
‘हम्म’
‘देखो मोहित ज्यादा वक्त तो अब वैसे भी नहीं है। तो हम ऐसे एक-दूसरे से बचते हुए क्यों रहें? अच्छे से बिताते हैं ये समय साथ में। खुल कर बात करेंगे।’
‘हां, बात करना तो जरूरी है।’ मोहित के स्वर में किसी तरह का उत्साह तो नहीं, लेकिन हलकी सी राहत का आभास जरूर हो रहा था।
अपना-अपना कप खाली करके दोनों उठे और रेस्ट्रॉन्ट से निकले तो मोहित ने उसकी तरफ सवालिया निगाहों से देखा। प्रणति बोली, ‘चलो जुहू चलते हैं। थोड़ी देर बैठेंगे।’ मोहित ने सामने से आ रहे ऑटो को रुकने का इशारा किया।
कुछ दूर चलकर ऑटो सिगनल पर रुका तो वहां किन्नरों की टोली घूम रही थी। उनमें से एक इनके ऑटो के पास आया, ‘जोड़ी बनी रहे, सलामत रहे...’ ‘जोड़ी टूट रही है हमारी, क्या सलामत रहे?’ मोहित के स्वर की मायूसी प्रणति ही नहीं, उस किन्नर तक भी पहुंच गई, ‘नहीं टूटेगी, हमारी दुआ लगती है तो जोड़ी नहीं टूटती है, तुम्हारी भी नहीं टूटेगी।’ मोहित ने दस का नोट उसकी तरफ बढ़ा दिया, ‘तुम जाओ यार, तुम खुश रहो, हमारा कुछ भी हो।’ नोट लेकर किन्नर दुआएं बरसाता आगे बढ़ गया, ग्रीन सिगनल पाकर ऑटो भी आगे बढ़ चला, पर मोहित के स्वर की मायूसी ने प्रणति को हिला दिया था। आंखों में उतरने को आतुर आंसुओं को बड़ी मुश्किल से उसने रोका। मोहित इस जद्दोजहद से अनजान अपनी ही सोच में डूबा रहा।
जुहू पहुंचने के बाद बीच पर कुछ दूर थोड़ी सी एकांत जगह तलाश कर वहां बैठने तक दोनों चुप ही रहे। इतमीनान से बैठने के कुछ देर बाद मोहित ने शुरू किया, ‘देखो प्रणति, तुम्हारा जो भी फैसला है, मुझे मंजूर है। ये नहीं पूछूंगा कि तुमने फैसला क्यों किया, तुम बताना चाहो बताओ न बताना चाहो कोई बात नहीं। पर ये जरूर जानना चाहता हूं कि हम दोनों के रिश्ते में मेरी तरफ से कहां कमी रह गई?’
‘तुम इतने कॉन्फिडेंस से कैसे कह सकते हो कि तुम्हारी ही कमी होगी? कमी मुझमें भी हो सकती है।’
‘शायद तुम इस बारे में बात नहीं करना चाहती, इसलिए सवाल को टाल रही हो। छोड़ो कोई बात नहीं। तुम्हारी प्राइवेसी में नहीं जाना चाहिए मुझे।’
इस बार खीझते हुए प्रणति बोली, ‘ऐसा बिल्कुल नहीं है कि मैं बात नहीं करना चाहती। अगर मैं बात नहीं करना चाहूंगी तो तुम्हें बता दूंगी कि मोहित मैं इस बारे में बात नहीं करना चाहती। क्या हो गया है तुम्हें? प्राइवेसी-प्राइवेसी लगाए हुए हो। मेरी प्राइवेसी की चिंता करना मेरा काम है। तुम क्यों उसे लेकर परेशान हो? और कोई प्राइवेसी का मामला नहीं है। मेरा कोई अफेयर नहीं है किसी से, ना ही ऐसी कोई इच्छा है फिलहाल। तुम बताओ कि मैंने ऐसा क्या कह दिया जिससे तुम्हें लगा कि मैं बात नहीं करना चाहती। रिश्ता दोनों का है तो गलती भी तो दोनों की हो सकती है। इसमें ऐसी क्या बात है?’
मोहित पर उसकी खीझ का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। पहले जैसे ही स्वर में उसने कहा ‘गलती दोनों की हो सकती है, लेकिन है या नहीं ये कौन तय करेगा? चूंकि रिश्ता हम दोनों का है, इसलिए हम ही तय करेंगे। तुम्हारे बारे में मैं तय करूंगा और मेरे बारे में तुम तय करोगी। और तुम्हारे बारे में मुझे ये अच्छी तरह से पता है कि तुम्हारी तरफ से कोई कमी नहीं रही है। अगर होती तो असंतुष्ट मैं होता, शिकायत मैं करता, रिश्ता तोड़ने की बात मैं सोचता। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। मैं फिर से कह रहा हूं कि तुम्हारी तरफ से रिश्ते में मैंने कोई कमी महसूस नहीं की आज तक। तो निश्चित रूप से गलती मेरी है। पर मैं समझ नहीं पा रहा हूं, इसलिए तुमसे कहा कि प्लीज बताओ क्या कमी रही मेरी तरफ से...। आखिर तक आते-आते मोहित का गला हलका सा भर्राया, जिसका उसे जरा भी अंदाजा नहीं था। इसलिए बोलते-बोलते वह अचानक चुप हो गया। उसे अपने आप पर गुस्सा आया कि ऐसे पल में इमोशनल होकर वह प्रणति की मुश्किल क्यों बढ़ा रहा है।
पर प्रणति की मुश्किल बढ़ी हुई नहीं लगी। पहले के मुकाबले नरम, लेकिन मजबूत स्वर में उसने कहा, ‘थैंक्स अलॉट फॉर दि कॉम्प्लीमेंट मोहित, लेकिन तुम गलत हो। मेरे बारे में फैसला तुम नहीं कर सकते, तुम मुझे उतना ही जानते हो जितना मैं तुम पर खुलती हूं, खुद को मैं उससे ज्यादा जानती हूं क्योंकि मुझे खुद से खुलने की जरूरत नहीं होती। और मेरी गलती यह है कि मैं उतनी अच्छी नहीं हूं जितनी तुम मुझे समझते हो। बनना चाहती थी, कोशिश भी की, लेकिन सॉरी नहीं बन पाई। रिश्ते में पजेसिवनेस नहीं होनी चाहिए, लेकिन मैं हूं पजेसिव। मैं सोच नहीं पाती कि तुम किसी और के हो जाओ। मेरा तुम्हारा रिश्ता कभी टूट जाए यह कल्पना ही मुझे परेशान करने लगी थी। और तुम चाहते हो कि जब कभी हमारा रिश्ता टूटे तो दोनों में से किसी को तकलीफ नहीं होनी चाहिए, क्यों नहीं होगी तकलीफ? जिस रिश्ते को मैं जान से ज्यादा चाहती हूं वह मेरे देखते-देखते टूट जाएगा और मुझे तकलीफ नहीं होगी? उसे बचाने के लिए जो भी, जो कुछ भी मुझसे हो सकेगा वह मैं नहीं करूंगी? अरे जब कोई हमारा करीबी मरता है तो हम रोते-चिल्लाते नहीं, उसे बचाने का हर संभव उपाय नहीं करते हैं? तो फिर रिश्ते की मौत कैसे यूं ही स्वीकार कर लें? कमिटमेंट का मुझे पता नहीं, पर मैं अपनी तरफ से ऐसी गारंटी नहीं दे सकती कि रिश्ता टूटे और मुझ पर कोई असर न पड़े। असर पड़ेगा, पूरा पड़ेगा। मुझे तकलीफ होगी, उस तकलीफ में मैं रोऊंगी चिल्लाऊंगी। तुम अगर उस तकलीफ से मुझे बचाना चाहते हो तो चुपचाप रिश्ते में बने रहो। नहीं बने रह सकते तो फिर मेरी वह तकलीफ बर्दाश्त करो। और यह भी नहीं कर सकते तो फिर मैं तो बेंगलुरु जा ही रही हूं। अच्छा है कि यह रिश्ता अभी और यहीं टूट जाए।’

कुछ पल तो मोहित को समझ ही नहीं आया कि प्रणति कह क्या रही है। मतलब, क्या ये रिश्ता अभी टूटा नहीं है? धीरे-धीरे उसे समझ आया कि रिश्ते में अभी जान बाकी है, सब कुछ खत्म नहीं हुआ है। इस अहसास ने उसे इतने सुकून से भर दिया कि वह यह भी नहीं सोच पाया कि प्रणति पजेसिवनेस से लेकर कमिटमेंट तक सब कुछ मांग चुकी है। सारे ख्यालों को उसने सिर झटक कर पीछे छोड़ दिया, इस एक ख्याल के सहारे कि जब दोनों में से कोई बोर होगा तब देखा जाएगा, इस खूबसूरत रिश्ते को मौत से पहले ही क्यों मरने दिया जाए। बोला, ‘मैं भी तो जीना सीख ही रहा हूं ना पगली।’
प्रणति के चेहरे पर जाने कहां का नूर आ गया था। डूबते सूरज की रोशनी में दमकता चेहरा लिए थोड़ी देर यूं ही बैठी रही, फिर बोली, ‘कब तक यूं ही किनारे से लहरों को देखते रहेंगे, चलो भीगते हैं।’ और उठ कर चल दी पानी की तरफ। मोहित बैठा उसे जाते देखता रहा। छप-छप करते हुए वह बढ़ते-बढ़ते घुटनों से ज्यादा गहराई तक गई और हथेलियों से पानी उछालती हुई लहरों के साथ खेलने लगी, जैसे समंदर से बातें कर रही हो, उसके साथ अपनी खुशी शेयर कर रही हो। थोड़ी देर में पलट कर मोहित की तरफ देखा और चिल्ला कर बोली, ‘वहीं मत बैठे रहो, आओ इधर।’ मोहित ने धीरे-धीरे अपने जूते खोले, जुराबें उतारीं और चल पड़ा। प्रणति एक टक उसे देख रही थी और वह उसकी आंखों की थाह लेता हुआ समंदर में गहरे उतरता जा रहा था।

 प्रणव प्रियदर्शी

मुंबई से पत्रकारिता का सफर शुरू हुआ ।दोपहर, महानगर और जनसत्ता में एक दशक गुजारने के बाद बरास्ता नागपुर (लोकमत समाचार में चार साल) दिल्ली पहुंचे । आजकल नवभारत टाइम्स दिल्ली में कार्यरत हैं । सत्याग्रही पत्रकार पुरस्कार 2020 से सम्मानित ।
साप्ताहिक स्तंभ 'धूप छांव' के रूप में प्रकाशित 200 से अधिक टिप्पणियां, जिन्हें लघु कथाओं का एक रूप भी कहा जा सकता है, समकालीन हिंदुस्तान के महागरीय, कस्बाई और ग्रामीण सौंदर्य/असौंदर्य का असाधारण चित्रण हैं ।इनमें से कुछ लघु कथाओं पर लघु चित्रपट बनाए जाने की दिशा में भी काम हो रहा है।



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