सुभाष सिंगाठिया ने शिक्षा में ‘हिन्दी साहित्यिक पत्राकारिता और स्त्री विमर्श’ पर लघु शोघ व ‘हिन्दी स्त्री-कविता में स्त्री-स्वरः एक विमर्श’ पर स्वतंत्र शोध किया। इनकी रचनाओं के दिल्ली दूरदर्शन, जयपुर दूरदर्शन एवं आकाशवाणी पर प्रसारण हुये हैं। सुभाष ने वर्षो ‘प्रशान्त ज्योति’ के साहित्यिक परिशिष्ट का संपादन किया। अभी तक साहित्यिक पाक्षिक ‘पूर्वकथन’ के संपादन में संलग्न हैं।
सम्पर्क: 15 नागपाल कॉलोनी, गली नं. 1, श्रीगंगानगर- 335001
मो.: 9829099479
प्रसि( आलोचक स्व. शुकदेव सिंह ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था कविता मूलतः और अंततः भाषा होती है। कवि सुभाष सिंगाठिया की कविता पढ़ते हुए यह बात बरबस याद आ गयी। हांलाकि शुकदेव सिंह ने अपनी बात को खोलते हुए इसी साक्षात्कार में कविता में विन्यस्त संवेदना, विचार, सौंदर्यशास्त्र आदि की भी बात की थी किंतु उनकी कही ये पंक्ति आज भी मेरे जेहन में कांेधती हैं। सोचता हूं कविता को अंततः और मूलतः भाषा मानना कविता की आलोचकीय दृष्टि के चलते कहां तक न्याय संगत है?
सुभाष सिंगाठिया की कविताओं में भाषा अपनी व्यावहारिकता में अंशिक सघन, गूढ़ और संस्कारित नजर आती है। वह कविता के मार्ग में, कविता में विन्यस्त विचार तक पहुंचने में कदम-कदम पर बाधाएं खड़ी करती है तो पाठकों का झुंझला उठना, खीज जाना स्वाभाविक प्रतीत होता है लेकिन वे इस प्रक्रिया में अपनी भाषा की सामर्थ्य और अर्थसंपदा से भी परिचित होते हैं। मगर इस मानसिक श्रम में कविता कहीं बिला जाती है। पाठक कविता तक कविता के लिए पहुंचता है ना कि भाषा के लिए, इसके लिए गद्य या शब्द कोष बेहतर काम कर सकते हैं।
सुभाष सिंगाठिया की कविताओं में कवि-सामर्थ्य होेने के बावजूद जो समस्या मौजूद है वो उनकी भाषा, उनकी कविता की नमी सोख लेती है। तो उनकी कविता में शब्द तो ताकतवर नजर आते हैं लेकिन विचार और संवेदना कमजोर लेकिन इसके बावजूद वे भाषा को कविता बनाने और मानने की कला पर दृढ़ हैं तो उनकी कविताएं भी कविता की दुनियां में अपनी पहचान बनाने को दृढ़ नजर आती हैं। लड़की और प्रेम उनकी कविता में, समकालीन कविता में स्थायी भाव की तरह ही मौजूद है। मगर यह भी सच है कि उनकी कविता इसी रास्ते से नये और अनदेखे की तलाश में जुटी है। उसकी खोज में वह बेचैनी है। उसके भीतर तड़प मौजूद है, इसी प्रक्रिया में वह कविता हो लेने की प्रक्रिया में भी लीन है, ऐसी कविता जो वर्तमान हिन्दी समकालीन कविता का चेहरा बनने में कामयाब होती है।
कविता, भाषा संवेदना व विचार सौंर्दर्य का यौगिक है तो सुभाष सिंगाठिया की कविता का यौगिक अपना संतुलन साध रहा है।
- पवन करण
स्त्री-सत्ता की अभिव्यक्ति
(मेरी अकूत-सम्पदा दोनों सुन्दर बेटियों के लिए)
सम्भावनाओं की
अकाल मृत्यु ही तो है
बिम्बों का मर जाना
और बिम्बों का प्रतिबिम्बन
सम्भावनाओं का विस्तार
ऐसा है तो फिर
प्रतिबिम्बन की इस क्रिया को
स्त्रीलिंगी-संज्ञा मान लेने मेंध्कहाँ हर्ज है
जब इतना मान लेने भर से ही
तैरने लगते हैं इस पौरुषपूर्ण-समय में
स्त्री-सत्ता की अभिव्यक्ति के प्रतिबिम्ब
जैसे मेरी बेटियों की उन्मुक्त हँसी
प्रतिबिम्ब का विखण्डन
(प्रख्यात चित्राकार सैयद हैदर रजा के चित्र को देखते हुए)
किसी प्रतिबिम्ब से
अचानक विखण्डित हुए
प्रतिबिम्बों की असंख्य उपस्थिति से
भौचक हैं प्रतिबिम्बिय-संजाल
वह स्तब्ध-सा करता है पड़ताल
अपने अन्तर्सम्बन्धों की
अपने प्रतिमानों की
अपनी अन्तर्ध्वनियों की
और दूर .... क्षितिज के पार तक फैले
उस महासमुद्रीय-कैनवस की
जिस पर पलक झपकते ही उग आया है
प्रतिबिम्बों का बीहड़
कैसा मानचित्र है यह प्रेम का
अमूर्त-प्रतिबिम्बों की अनुगूँज में
दबी-घुटी-सिसकियों का जंगल
ओह ! चिथड़े-चिथड़े हुए रेशम सा
कैसा मानचित्रा है यह प्रेम का !
हालांकि ठीक से याद नहीं आ रहा
मगर इतना तो याद है ही कि
ऐसा तो नहीं लिखा था
प्रेम के उस अलिखित-मैनिफेस्टो में
..... और फिर सोचा भी किसने था
कि संवेदनाओं का गर्भपात यूँ होगा
खैर मूल प्रश्न यह नहीं है
पेण्डुलम-से झूलते प्रेम-दर्शन के सौन्दर्य-शास्त्रा की परिणति का
रास्ता लम्बा है अभी
इस आदि और अन्त के बीच फँसे
प्रेम के द्वन्द्वात्मक निर्णय
पसरते हैं किस शक्ल में
यह परिभाषित होना भी बाकी है
ठीक उस वर्तमान की तरह
जो अतीत की नींव पर
भविष्य की निर्मित में?
खोजता रहता है अपना अस्तित्व
ब्रह्यमाण्ड की परिक्रमा करता हुआ
प्रेम और उदात्त्ता
प्रेम उदात्त होता है
या उदात्तता में प्रेम
ठीक से कहा नहीं जा सकता
मगर दोनों के आसपास
रहता है कुछ ऐसा ही
परिभाषाओं के दायरों से बाहर
अपरिभाषित-सा
वह करता है विचरण
काव्य-शास्त्रियों के
गुणा-भाग से कहीं दूर
बहुत दूर .............
रूप-सौन्दर्य/भाव-सौन्दर्य
और कर्म-सौन्दर्य के
अतिवादी मानचित्रा का
अतिक्रमण करता हुआ
उदात्तता के उस पार तक
परिभाषाएँ और व्याकरण
कहाँ रहने देते हैं
प्रेम और उदात्तता को
उतने स्वच्छन्द/उतने उच्छृंखल
जितने होते हैं वे
किसी टूटते तारे-से
अपनी कविता की चौहद्दी में लड़की
(प्रभा खेतान व मैत्रेयी पुष्पा को पढ़ते हुए)
हे पुरुष परमेश्वर!
(परमेश्वरी विशेषण तुम्हारी सत्ता का ‘अव्यय’ जो ठहरा)
कविता लिखती किसी लड़की को
कैसे जानोगे तुम
उसकी अपनी कविता के यथार्थवादी-कल्पनालोक में
कुछ भी करते हुए
कि अपनी प्रेमिल-कल्पनाओं की
लम्बी-भावुक उड़ानों में
कहाँ-कहाँ गई/क्या-क्या किया
सोयी-जागी किसके साथ
और तुम्हारी वर्जनाओं वाली
लक्ष्मण रेखा-सी देहरी लाँघती हुई
कब-कब उतरी ‘उस’ प्रेम में
जिससे खतरे में पड़ता आया है तुम्हारा ‘शुचिता आग्रह’
कि तुम्हारे लिए ‘उत्तम-रति’ का
‘सामान’ जुटाने वाली यह भोग्या
(तुम्हारी नज़र में)
अपने ‘स्त्री-धर्म’ की गठरी बाँध
उसे रखकर तुम्हारे घर के
किसी ऊँचे बने आले में
कब हो जाए उतनी स्वच्छन्द
(जितने तुम होते आए हो आज तक)
जिससे दरकने लगता है तुम्हारा वर्चस्व
कि तुम्हारी ‘सत्ता’ को सरेआम धत्ता बताते हुए
कब बोलने लग जाए उसकी खामोशी धाराप्रवाह
और बना ले अपनी कविता से एक ऐसी चौहद्दी
जिसमें हीगेल, नीत्शे और शंकराचार्य की
मान्यताओं वाली स्त्री के ठीक विपरीत
ऐतिहासिक और विकसित स्त्री
करती हो निर्भय निवास।
सम्पर्क: 15 नागपाल कॉलोनी, गली नं. 1, श्रीगंगानगर- 335001
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प्रसि( आलोचक स्व. शुकदेव सिंह ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था कविता मूलतः और अंततः भाषा होती है। कवि सुभाष सिंगाठिया की कविता पढ़ते हुए यह बात बरबस याद आ गयी। हांलाकि शुकदेव सिंह ने अपनी बात को खोलते हुए इसी साक्षात्कार में कविता में विन्यस्त संवेदना, विचार, सौंदर्यशास्त्र आदि की भी बात की थी किंतु उनकी कही ये पंक्ति आज भी मेरे जेहन में कांेधती हैं। सोचता हूं कविता को अंततः और मूलतः भाषा मानना कविता की आलोचकीय दृष्टि के चलते कहां तक न्याय संगत है?
सुभाष सिंगाठिया की कविताओं में भाषा अपनी व्यावहारिकता में अंशिक सघन, गूढ़ और संस्कारित नजर आती है। वह कविता के मार्ग में, कविता में विन्यस्त विचार तक पहुंचने में कदम-कदम पर बाधाएं खड़ी करती है तो पाठकों का झुंझला उठना, खीज जाना स्वाभाविक प्रतीत होता है लेकिन वे इस प्रक्रिया में अपनी भाषा की सामर्थ्य और अर्थसंपदा से भी परिचित होते हैं। मगर इस मानसिक श्रम में कविता कहीं बिला जाती है। पाठक कविता तक कविता के लिए पहुंचता है ना कि भाषा के लिए, इसके लिए गद्य या शब्द कोष बेहतर काम कर सकते हैं।
सुभाष सिंगाठिया की कविताओं में कवि-सामर्थ्य होेने के बावजूद जो समस्या मौजूद है वो उनकी भाषा, उनकी कविता की नमी सोख लेती है। तो उनकी कविता में शब्द तो ताकतवर नजर आते हैं लेकिन विचार और संवेदना कमजोर लेकिन इसके बावजूद वे भाषा को कविता बनाने और मानने की कला पर दृढ़ हैं तो उनकी कविताएं भी कविता की दुनियां में अपनी पहचान बनाने को दृढ़ नजर आती हैं। लड़की और प्रेम उनकी कविता में, समकालीन कविता में स्थायी भाव की तरह ही मौजूद है। मगर यह भी सच है कि उनकी कविता इसी रास्ते से नये और अनदेखे की तलाश में जुटी है। उसकी खोज में वह बेचैनी है। उसके भीतर तड़प मौजूद है, इसी प्रक्रिया में वह कविता हो लेने की प्रक्रिया में भी लीन है, ऐसी कविता जो वर्तमान हिन्दी समकालीन कविता का चेहरा बनने में कामयाब होती है।
कविता, भाषा संवेदना व विचार सौंर्दर्य का यौगिक है तो सुभाष सिंगाठिया की कविता का यौगिक अपना संतुलन साध रहा है।
- पवन करण
स्त्री-सत्ता की अभिव्यक्ति
(मेरी अकूत-सम्पदा दोनों सुन्दर बेटियों के लिए)
सम्भावनाओं की
अकाल मृत्यु ही तो है
बिम्बों का मर जाना
और बिम्बों का प्रतिबिम्बन
सम्भावनाओं का विस्तार
ऐसा है तो फिर
प्रतिबिम्बन की इस क्रिया को
स्त्रीलिंगी-संज्ञा मान लेने मेंध्कहाँ हर्ज है
जब इतना मान लेने भर से ही
तैरने लगते हैं इस पौरुषपूर्ण-समय में
स्त्री-सत्ता की अभिव्यक्ति के प्रतिबिम्ब
जैसे मेरी बेटियों की उन्मुक्त हँसी
प्रतिबिम्ब का विखण्डन
(प्रख्यात चित्राकार सैयद हैदर रजा के चित्र को देखते हुए)
किसी प्रतिबिम्ब से
अचानक विखण्डित हुए
प्रतिबिम्बों की असंख्य उपस्थिति से
भौचक हैं प्रतिबिम्बिय-संजाल
वह स्तब्ध-सा करता है पड़ताल
अपने अन्तर्सम्बन्धों की
अपने प्रतिमानों की
अपनी अन्तर्ध्वनियों की
और दूर .... क्षितिज के पार तक फैले
उस महासमुद्रीय-कैनवस की
जिस पर पलक झपकते ही उग आया है
प्रतिबिम्बों का बीहड़
कैसा मानचित्र है यह प्रेम का
अमूर्त-प्रतिबिम्बों की अनुगूँज में
दबी-घुटी-सिसकियों का जंगल
ओह ! चिथड़े-चिथड़े हुए रेशम सा
कैसा मानचित्रा है यह प्रेम का !
हालांकि ठीक से याद नहीं आ रहा
मगर इतना तो याद है ही कि
ऐसा तो नहीं लिखा था
प्रेम के उस अलिखित-मैनिफेस्टो में
..... और फिर सोचा भी किसने था
कि संवेदनाओं का गर्भपात यूँ होगा
खैर मूल प्रश्न यह नहीं है
पेण्डुलम-से झूलते प्रेम-दर्शन के सौन्दर्य-शास्त्रा की परिणति का
रास्ता लम्बा है अभी
इस आदि और अन्त के बीच फँसे
प्रेम के द्वन्द्वात्मक निर्णय
पसरते हैं किस शक्ल में
यह परिभाषित होना भी बाकी है
ठीक उस वर्तमान की तरह
जो अतीत की नींव पर
भविष्य की निर्मित में?
खोजता रहता है अपना अस्तित्व
ब्रह्यमाण्ड की परिक्रमा करता हुआ
प्रेम और उदात्त्ता
प्रेम उदात्त होता है
या उदात्तता में प्रेम
ठीक से कहा नहीं जा सकता
मगर दोनों के आसपास
रहता है कुछ ऐसा ही
परिभाषाओं के दायरों से बाहर
अपरिभाषित-सा
वह करता है विचरण
काव्य-शास्त्रियों के
गुणा-भाग से कहीं दूर
बहुत दूर .............
रूप-सौन्दर्य/भाव-सौन्दर्य
और कर्म-सौन्दर्य के
अतिवादी मानचित्रा का
अतिक्रमण करता हुआ
उदात्तता के उस पार तक
परिभाषाएँ और व्याकरण
कहाँ रहने देते हैं
प्रेम और उदात्तता को
उतने स्वच्छन्द/उतने उच्छृंखल
जितने होते हैं वे
किसी टूटते तारे-से
अपनी कविता की चौहद्दी में लड़की
(प्रभा खेतान व मैत्रेयी पुष्पा को पढ़ते हुए)
हे पुरुष परमेश्वर!
(परमेश्वरी विशेषण तुम्हारी सत्ता का ‘अव्यय’ जो ठहरा)
कविता लिखती किसी लड़की को
कैसे जानोगे तुम
उसकी अपनी कविता के यथार्थवादी-कल्पनालोक में
कुछ भी करते हुए
कि अपनी प्रेमिल-कल्पनाओं की
लम्बी-भावुक उड़ानों में
कहाँ-कहाँ गई/क्या-क्या किया
सोयी-जागी किसके साथ
और तुम्हारी वर्जनाओं वाली
लक्ष्मण रेखा-सी देहरी लाँघती हुई
कब-कब उतरी ‘उस’ प्रेम में
जिससे खतरे में पड़ता आया है तुम्हारा ‘शुचिता आग्रह’
कि तुम्हारे लिए ‘उत्तम-रति’ का
‘सामान’ जुटाने वाली यह भोग्या
(तुम्हारी नज़र में)
अपने ‘स्त्री-धर्म’ की गठरी बाँध
उसे रखकर तुम्हारे घर के
किसी ऊँचे बने आले में
कब हो जाए उतनी स्वच्छन्द
(जितने तुम होते आए हो आज तक)
जिससे दरकने लगता है तुम्हारा वर्चस्व
कि तुम्हारी ‘सत्ता’ को सरेआम धत्ता बताते हुए
कब बोलने लग जाए उसकी खामोशी धाराप्रवाह
और बना ले अपनी कविता से एक ऐसी चौहद्दी
जिसमें हीगेल, नीत्शे और शंकराचार्य की
मान्यताओं वाली स्त्री के ठीक विपरीत
ऐतिहासिक और विकसित स्त्री
करती हो निर्भय निवास।
बहुत अच्छी कवितायें......सुभाष जी की....और उस से भी बेहतर......सुभाष जी के होने का अर्थ...जो आपने लगाया.....धन्यवाद पवन जी.....
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