वंचना के विमर्शों में कई आयाम होते हैं, जैसे- राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक इत्यादि। इनमें हर ज्ञान- अनुशासन अपने पक्ष को समृद्ध करता रहता है। साहित्य और कलाओं का संबंध विमर्श के सांस्कृतिक पक्ष से है जिसमें सूक्ष्म स्तर के नैतिक और संवेदनशील प्रश्न उठाये जाते हैं। इसके मायने हैं कि वंचना से संबंद्ध कृति पर बात की जाये तो उसे विमर्श के व्यापक परिप्रेक्ष्य से जोडकर देखने की जरूरत है।
भूलन कांदा को एक लंबी कहानी के रूप में एक अर्सा पहले बया के किसी अंक में पढा था। बाद में यह उपन्यास की शक्ल में अंतिका प्रकाशन से सामने आया। लंबी कहानी की भी काफी सराहना हुई थी। इसे कुछ विस्तार देकर लिखे उपन्यास पर भी एक- दो सकारात्मक समीक्षाएं मेरे देखने में आयीं। ऐसी ही प्रतिक्रिया रणेन्द्र के उपन्यास ग्लोबल गाँव के देवता को भी मिल चुकी थी। किन्तु आदिवासी विमर्श के संदर्भ में ये दोनों कृतियाँ जो बड़े मुद्दे उठाती हैं, उन्हें आगे नहीं बढाया गया। ये सिर्फ गाँव बनाम शहर और आदिवासी बनाम आधुनिकता का मामला नहीं है। बल्कि इनमें क्रमशः आन्तरिक उपनिवेशन बनाम स्वायत्तता, स्वतंत्र इयत्ता और सत्ता- संरचना में सहभागिता एवं सांस्कृतिक अस्मिता और मूल्यों की सरंक्षा जैसे सवाल अन्तर्निहित हैं जिन्हें व्यापक रूप से संदर्भित किया जाना था।
मैं थोडा- सा संदर्भ संजीव बख्शी के भूलन कांदा को लेकर आगे बढा रहा हूं। यह कृति एक कथा- निर्मिति है जिसमें यथार्थ के लिहाज से कई झोल हो सकते हैं। कुछ की तरफ उन्होंने स्वयं संकेत किया है कि वैसे भले मुखिया सब जगह नहीं पाये जाते। आप कह सकते हैं कि कहानी ज्यादा पुरानी तो है नहीं, फिर वहाँ पंचायती राज का कोई प्रतिनिधि क्यों नहीं है। यह एकरूप समाज की कथा है जिसकी निष्पत्तियां एक से अधिक आदिवासी कबीले वाले विषम समाजों के लिए संगत नहीं हो सकतीं। ऐसे समाजों की शक्ति- संरचना में कई तरह के विभाजन होते हैं। कहानी को लेकर भी, पता नहीं जेल प्रशासन को किसी आपराधिक मामले को फिर से खुलवाने का अधिकार होता है या नहीं। और ऐसी कुछ और सीमाएँ इस उपन्यास के संदर्भ में हो सकती हैं।
विमर्श में गढी गयी कथाओं की भी अहमियत है, यदि वे वंचना के किसी मूल प्रश्न को शिद्दत से उठाती हैं। भूलन कांदा ग्राम समाज की निर्दोष चेतना के प्रति एक सदाशयी कृति है जो आदिवासी समुदाय में पारंपरिक न्याय के मुद्दे को उनकी स्वायत्तता के संदर्भ में उठाती है।क्या सभी समुदायों पर पूरी तरह आधुनिक न्याय व्यवस्था का आरोपण उचित है ? क्या पारंपरिक पंचायतें और प्रथागत नियम कतई अप्रासंगिक हो चुके हैं ? क्या कोई और वैकल्पिक व लचीली न्याय व्यवस्था के लिए कोई संभावना शेष नहीं बची है? ऐसे कई स्थूल प्रश्नों के साथ यह कहानी न्याय की तत्व- मीमांसा के लिए भी प्रस्ताव करती है, जो अभी तक स्थगित है। शायद सातवें दशक में बनी दुश्मन फिल्म में न्यायाधीश हत्या करने वाले को व्यक्ति पीड़ित परिवार की जिम्मेदारी संभालने की सजा देता है। न्याय को रूमानी खयालों से संजीव बख्शी गाँव की खुरदरी और धूसर जमीन पर लाते हैं।
आदिवासी की स्वतंत्र इयत्ता, स्वायत्तता और सांस्कृतिक अस्मिता के मद्देनजर एक विशेष कानून प्रचलन में है - पंचायत उपबंधों का अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार अधिनियम। इसमें राजस्व गाँव पंचायती राज प्रणाली की प्राथमिक इकाई माना गया है। इसकी ग्राम सभा के अन्तर्गत बनी शांति समिति को कई न्यायिक अधिकार भी मिले हुए हैं। वे नाता और मौताना जैसे मामलों को भी प्रथागत नियमों के अन्तर्गत निपटा सकती हैं और साथ ही असंतुष्ट पक्ष को अपील का भी अधिकार है। संक्षेप में पेसा ( PESA- panchayar extension to schedule area ) कहे जाने वाले इस कानून ने आदिवासी अंचलों में जंगल, जल और जमीन को बचाने में एक हद तक बड़ी भूमिका निभाई है। ग्राम सभा के प्रस्तावों ने भूमि- अधिग्रहण का विरोध करके लोगों के विस्थापन को रोकने की कोशिश की है। इस सब के बाबजूद हमारी ये मूल इकाइयां अत्यंत निशक्त और उपेक्षित रही हैं, बल्कि भूलन कांदा में तो अनुपस्थित ही हैं। आज जब हमारे टूटे - हारे प्रवासी बंधु गाँव वापसी की राह में संघर्घरत हैं, तो क्या हमें जमीनी स्तर पर न्याय के अलक्षित अथवा स्थगित प्रश्न को अपनी विचार सूची में शामिल नहीं करना चाहिए?
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