जाक देरिदा को एक तरह से उत्तर- आधुनिकता का सूत्रधार चिंतक माना जाता है। उत्तर- आधुनिकता कही जाने वाली विचार- सरणी को देरिदा ने अपने चिंतन और युगान्तरकारी उद्बोधनों से एक निश्चित पहचान और विशिष्टता प्रदान की थी। आधुनिकता के उत्तर- काल की समस्यामूलक विशेषताएं तो ठोस और मूर्त्त थीं, जैसे- भूमंडलीकरण और खुली अर्थव्यवस्था, उच्च तकनीकी और मीडिया का अभूतपूर्व प्रसार। लेकिन चिंतन और संस्कृति पर उन व्यापक परिवर्तनों के छाया- प्रभावों का संधान तथा विश्लेषण इतना आसान नहीं था, यद्यपि कई. चिंतक और अध्येता इस प्रक्रिया में सन्नद्ध थे। जाक देरिदा ने इस उपक्रम को एक तार्किक परिणति तक पहुंचाया जिसे विचार की दुनिया में उत्तर- आधुनिकता के नाम से परिभाषित किया गया। आज उत्तर- आधुनिकता के पद से ही अभिभूत हो जाने वाले बुद्धिजीवी और रचनाकारों की लंबी कतार है तो इस विचारणा को ही खारिज करने वालों और उत्तर- आधुनिकता के नाम पर दी जाने वाली स्थापनाओं पर प्रत्याक्रमण करने वालों की भी कमी नहीं है। बेशक, उत्तर- आधुनिकता के नाम पर काफी कूडा- कचरा भी है किन्तु इस विचार- सरणी से गुजरना हरेक बौद्धिक और सर्जक के लिए लगभग एक अनिवार्य अभ्यास है। उत्तर- आधुनिकता को हम विचार- सरणी इसलिए कह रहे हैं क्योंकि यह पारंपरिक विचारधाराओं से भिन्न है। इसका कोई एक प्रवर्तक नहीं है। यह बौद्धिक और सर्जकों के समूह का सामूहिक उपक्रम है।
सोवियत संघ के निर्णायक पतन पर जब फ्रांसिस फुकोयामा ने बाईबिल में उल्लिखित शुभ संदेश का संदर्भ देते हुए घोषणा की कि अब ईसाइयत की विश्व- विजय का वक्त आ गया है, तब देरिदा ही थे जिन्होंने इसका तीव्र प्रतिवाद किया। फुकोयामा की घोषणा का निहितार्थ वस्तुत: अमेरिका- नीत भूमंडलीकरण के नव- साम्राज्यवादी वर्चस्व से था। यूरोप और सोवियत संघ के साम्यवादियों को ईसाइयत के विरोध में देखने की वहाँ लगभग एक परंपरा बन गयी थी। फुकोयामा के अनुसार ईसाई विश्व- वर्चस्व के बड़े अवरोध साम्यवाद का दुर्ग ढह गया था। इसके बाद सेमुअस हटिंगटन ने सभ्यताओं के संघर्ष की थियरी दी। फुकोयामा और हटिंगटन दोनों एक ऐसे थिंक टैंक से संबद्ध थे जो अमेरिकी सत्ता- प्रतिष्ठानों की मदद से चलता था। फुकोयामा से विपरीत, देरिदा ने इस परिघटना की जो व्याख्या की, विश्व के बौद्धिक समुदाय पर उसका असर आज तक जारी है। उन्होंने कहा कि यह वस्तुत: वृहत परंपराओं ( ग्रेट ट्रेडिसंस) का पतन है। पूंजीवाद और साम्यवादी दोनों ही वृहत सभ्यताएँ अपने भीम आकार और भार से नष्ट हो रही हैं। एक वृहत परंपरा ( बेशक विचारधारा भी) , देरिदा के अनुसार अनेक छोटी परंपराओं और असहमतियों को कुचल कर विकसित होती है। देरिदा की घोषणा थी कि वृहत परंपराओं का युग समाप्त हो गया है, विश्व- सभ्यता केन्द्रीय धुरी से मुक्त हो गयी है। अब विकेन्द्रित सभ्यताओं और छोटी परंपराओं का समय है।
देरिदा की विखंडन ( डि- कंस्ट्रक्शन) की अवधारणा वृहत परंपरा के महिमा- आलोक को ध्वस्त कर देती है। एक वृहत परंपरा अपने लिए भाषा का एक मायालोक रचती है। भाषा वस्तु- जगत के समानांतर एक प्रति- संसार रचने की सामर्थ्य रखती है। देरिदा कहते हैं कि एक वर्चस्वशील सभ्यता की भाषा वृहत परंपरा को एक मिथकीय आभा- मंडल प्रदान करती है। भाषिक सृष्टि ( कंस्ट्रक्ट) कभी भी यथार्थ का स्थानापन्न नहीं हो सकती। इसे ही दूसरे उत्तर आधुनिक चिंतकों ने बिम्बों की माया या भाषा का खेल कहा। देरिदा इसलिये संरचना ( कंस्ट्रक्ट) के विखंडन की बात करते हैं। इस प्रक्रिया में यथार्थ के नये अर्थ खुलते हैं और कृति का एक नूतन पाठ सामने आता है। स्वयं देरिदा निरंतर वृहत परंपराओं का विखंडन करते रहे जिन्होंने बौद्धिक और सांस्कृतिक जगत में उथल- पुथल मचाये रखी। देरिदा ने नितांत मौलिक विचारणाएं प्रस्तुत की हों, ऐसा नहीं है। भाषा और चिंतन के क्षेत्र में विटगेंस्टाइन, रोलां बार्थ और आक्टोविओ पाज ने अनेक नयी स्थापनाएं दी थी। विटगेंस्टाइन ने भाषा और चिंतन के वैज्ञानिक संबंध को स्थापित किया तो रोलां बार्थ और ओक्टोवियो पाज ने वैचारिक स्वातंत्र्य को कृति के पाठ से जोड़ा। ओक्टोवियो पाज ने कहा कि अर्थ पंक्तियों में ही नहीं, पंक्तियों के बीच भी होता है। कृति के पाठ में पाठ्य- वस्तु के रिक्त स्थानों और अवकाशों की अनुगूंजें भी महत्वपूर्ण हैं। देरिदा ने इस विचारणा को एक ऐसे शिखर पर पहुंचाया जहां से यह वैश्विक परिघटना के तीव्र संक्रमण का विश्लेषण और पुनर्पाठ करने के लिए आलोक- स्तंभ का कार्य कर सकती है।
देरिदा के समकालीनों में जो उनके कद के रहे, उनमें से एक एडवर्ड सईद थे। एडवर्ड सईद हालांकि देरिदा से कभी सहमत नहीं हुए, फिर भी उनका काम एक तरह से देरिदा के ही चिन्तन का क्षैतिजिक विस्तार रहा है। सईद ने औपनिवेशिक शिकंजे में सदियों तक जकडे रहे देशों की दमित संस्कृतियों की महत्ता को यूरोपीय क्लासिक कृतियों के विखंडन के जरिये पुनर्स्थापित किया है। एडवर्ड सईद की तरह नाम चोम्स्की भी देरिदा से अक्सर असहमत और किसी हद तक अप्रभावित रहे। किन्तु चोम्स्की की भाषिक स्थापनाएं अंततः लघु- सांस्कृतिक परंपराओं का पक्ष- पोषण करती हैं। उनकी राजनीतिक टिप्पणियां एक- ध्रुवीय शक्ति- केन्द्रण के कुत्सित प्रयासों पर तीखा आक्रमण होती हैं। हमारे समय के इन विचारकों से समकालीन दुनिया के जनतांत्रिक चिंतन और उसकी प्रतिभूतियों का प्रेरक संपुज निर्मित होता है। देरिदा का इसमें अहम स्थान है। अभी तक चिंतकों और सर्जकों की प्रतिबद्धता को भी दो ध्रुवीय विचारधाराओं के साथ जोडकर देखने का चलन था। देरिदा की प्रतिबद्धता समस्यामूलक रही क्योंकि वे दोनों वृहत परंपराओं पर समान रूप से आघात कर रहे थे। समकालीन विश्व- घटनाक्रम और सांस्कृतिक संक्रमण की रेमंड विलियम्स, एजाज अहमद और फ्रेडरिक जेम्सन ने मार्क्सवादी व्याख्याएं प्रस्तुत कीं लेकिन उन्होंने देरिदा के विचारों से प्रायः सचेत दूरी बनाये रखी। यहां तक कि अपने आखिरी दिनों में जब देरिदा ने मार्क्स पर अपना प्रसिद्ध व्याख्यान दिया तो एजाज अहमद सहित कई मार्क्सवादी व्याख्याकारों ने उन पर पलटवार किया। उल्लेखनीय है कि देरिदा ने मार्क्स के दर्शन को अभूतपूर्व बताते हुए अपने समय के युवा मानस की तुलना हैमलेट से की। शेक्सपियर का यह महान नायक क्या करूं क्या न करूं की असमंजस की मनःस्थिति में रहता है। देरिदा ने कहा कि मार्क्स का प्रेत आज भी यूरोप और अमेरिका पर मंडरा रहा है। हैमलेट के रूपक के जरिए ही देरिदा ने कहा कि हमें मार्क्स का ऋण चुकाना चाहिए। दिलचस्प बात यह है कि देरिदा ने अपने इस भाषण में तीसरी दुनिया कहे जाने वाले देशों की दुरावस्था के लिए साफ- साफ तौर विकसित देशों को जिम्मेदार ठहराया था और इसे साबित करने के लिए आंकड़ों की एक फेहरिस्त दी थी। मार्क्स पर देरिदा देर से बोले और जब बोले तो मार्क्सवादी बौद्धिकों ने अपनी प्रसन्नता छुपाते हुए उनकी आलोचना की। बीसवीं शताब्दी के आखिर में ग्राम्स्की, अर्न्स्ट फिशर और वाल्टर बैंजामिन जैसे मार्क्सवादी चिंतकों की पुनर्प्रतिष्ठा हुई जिन्हें उनके समय के साम्यवादी सत्ता- प्रतिष्ठानों ने उचित अहमियत नहीं दी थी। अब उन्हें ठीक उन्ही कारणों से महत्ता मिल रही है जिनके कारण उनका उस समय हाशियाकरण हुआ था। मुझे लगता है कि इन. विचारकों की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए देरिदा की विचारणाओं ने उपयुक्त वातावरण बनाया। जो भी हो, देरिदा को फुकोयामा के प्रतिपक्ष में देखा जा सकता है तो उसे अमेरिकी वर्चस्व के विरुद्ध न देखने के पीछे मुझे कोई कारण नज़र नहीं आता।
देरिदा निश्चय ही कई बार हमें उलझन में डालते हैं। जैसे जब वे झूंठ के इतिहास पर व्याख्यान दे रहे होते हैं तो लगता है जैसे सत्य के विरुद्ध खड़े हैं। ऐसा समझना एक सतही सरलीकरण है। हमें देरिदा की इस उक्ति से बिदकने की जरूरत नहीं है कि जितना पुराना सत्य का इतिहास है, उतना ही पुराना झूंठ है और इसकी कोई गारंटी नहीं है कि अंतिम निर्णायक विजय सत्य की होगी। देरिदा यहां एक मिथक की चौंध से सत्य को आभा- विहीन तो कर ही रहे हैं लेकिन सत्य और झूंठ के वास्तविक परीक्षण और सत्य की अनिवार्यता के पक्ष में कुछ ठोस तर्क चाह रहे हैं। दुर्भाग्य से देरिदा के सृजन से अभी तक हममें से ज्यादातर लगभग अपरिचित हैं। वे मौलिक व्याख्याकार हैं, व्याख्या के पीछे संचालक उनकी अन्तर्दृष्टि के मूल उत्सों की पहचान अभी बाकी है।
सार्त्र के बाद वे शायद सबसे लोकप्रिय चिंतक थे जिनके लिए भारी भीड जुटती थी।
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