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पानसिंह तोमर और दस्यु फिल्में


                                                   पानसिंह तोमर और दस्यु फिल्में
                                                                                                               राजाराम भादू 

       तिग्मांषु धूलिया एक मेधावी फिल्मकार हैं। उनकी फिल्में पहले भी चर्चा में रही हैं। इसलिए उनकी पिछले दिनों प्रदर्षित फिल्म ‘पानसिंह तोमर’ का भी चर्चा में आना स्वाभाविक है। हाल ही में इसे मिले उत्कृष्ट फिल्म में राष्ट्रीय पुरस्कार और अभिनेता इरफान को श्रेष्ठ अभिनय के लिए मिले राष्ट्रीय पुरस्कार ने इसकी प्रतिष्ठा और स्थापित कर दी है। लेकिन इस फिल्म ने सिने विषेषज्ञों को अपनी बाॅक्स आॅफिस सफलता के कारण ज्यादा चैंकाया। इसलिए कि दस्यु फिल्म होते हुए भी इसमें कोई मुम्बइया लोकप्रियतावादी फाॅर्मूला नहीं अपनाया गया था। यह फिल्म एक ओर सिने दर्षकों के आस्वाद में आये परिवर्तन का संकेत देती है, वहीं हिन्दी सिनेमा में साहसी और परिपक्व निर्देषकों के आगाज की भी सूचना देती है। इस प्रसंग में हम हिन्दी की दस्युओं पर केन्द्रित फिल्मों की कुछ प्रवृत्तियों पर विचार कर रहे हैं।
डाकुओं के जीवन पर दुनिया भर में आंरम से ही किस्से कहानियां रहे हैं। एक जमाने में ये मौखिक सुने-सुनाये जाते रहे होंगे। तदनन्तर मुद्रित माध्यमों के आने के बाद ये पत्र-पत्रिकाओं में जगह पाने लगे। इनमें राॅबिन हुड जैसी दस्यु कथाएं तो क्लासिक का दर्जा पा चुकी हैं। फिल्मों के जादुई संसार में तो डाकुओं को होना ही था। भारत के हिन्दी प्रदेषों में दस्यु कथाओं के प्रचलन का ऐसा ही क्रम रहा है। एक जमाने में फुटपाथ पर बिकने वाले साहित्य में ‘किस्सा तोता मैंना’ और ‘चार दरवेष’ के साथ ‘सुल्ताना डाकू’ पुस्तक भी बिका करती थी। हिन्दी में डाकुओं पर सैकडों फिल्में बनी हैं जिनमें ‘सुल्ताना डाकू’,‘पुतली बाई’ और ‘गंगा-जमना’ जैसी फिल्मों ने बाॅक्स आॅफिस पर भी रिकार्ड सफलता पायी है।


जन सामान्य में डाकुओं के जीवन को लेकर उत्सुकता और रोमांच को लेकर अनुसंधान की जरूरत है। एक ओर उनमें डाकुओं के प्रति भय और आतंक का भाव होता है तो दूसरी ओर उन से जुडे किस्सांे कंे प्रति जबर्दस्त उत्सुकता रहती है। हालांकि डाकुओं में भी अंतर रहा है और जन सामान्य की ओर से सभी को नायकत्व नहीं हासिल नहीं हुआ। जन श्रुतियों के अनुसार ऐसे डाकू रहे हैं जो गरीबों के प्रति संवेदनषील थे। सुल्तान डाकू जैसे लोगों के बारे में कहा जाता है कि वे अमीरों को लूटकर उनका धन गरीबों में बांट देते थे। स्त्रियों को लेकर भी डाकुओं की मान-मर्यादा पर चर्चा होती है। पुतली बाई जैसी महिला दस्यु को भी जन सामान्य में नायकत्व का दर्जा हासिल है। 
हिन्दी प्रदेषों के दस्यु प्रभावित क्षेत्र दूर-दराज के पिछडे हुए इलाके हैं जहां एक ओर सामंती सामाजिक दांचा बरकरार है तो दूसरी ओर आधुनिक सभ्यता की पहुंच नाम मात्र रही है। जन समुदायों में यह सामान्य अवधारणा है कि कोई शौक से डाकू नहीं बनता बल्कि मजबूरियों के चलते इस राह पर चल पडता है। इसे उनकी नजर में बगावत माना जाता है और इसीलिए उन अंचलों में डाकू को बागी कहा जाता है।इस प्रकार यह विद्रोह का ही एक पूर्व आधुनिक रूप रहा है। जो लोग वर्चस्व के तले स्वयं उत्पीडित अवस्था में रहते हैं, वे विद्रोहियों के प्रति एक तरह का सम्मान भाव रखते हैं। इन अंचलों में डाकूओं को जाति समुदायों से जोडकर भी देखा गया है। इनके बारे में तथ्यपरक और पासंागिक जानकारी के अभाव में अतिरंजना बढती गयी है।
मुम्बइया फिल्मों का मुनाफे से गहरा रिष्ता रहा है। वहां कहानी गढी जाती है और इसका एक रूढ ढांचा बना रहता है। दस्यु कथाओं पर बनी फिल्मों का भी वहां रूढ ढांचा रहा है। जो फिल्में ज्यादा लोकप्रिय रही हैं, प्रायः उनकी संरचना का अनुकरण किया जाता है। वहां दस्यु कथा में डाकू नायक त्रासदी के चरित्र की तरह रहा है। वह धीरोदात्त है लेकिन सामाजिक नैतिकी के अतिक्रमण के कारण दुखद अंत को प्राप्त होता है। अन्यथा फिर एक अच्छा और बुरा डाकू है। अच्छा डाकू मरने से पहले बुरे का खात्मा कर जाता है। जाहिर है कि ऐसी कथाओं का वास्तव जगत से शायद ही कोई सम्बन्ध रहा हो। ये जनश्रुतियों के इर्दगिर्द रची फन्तासी हैं। हिन्दी सिनेमा में दस्यु जीवन को एक सीमा तक यथार्थवादी तरीके से चित्रित करने की कोषिषों का भी एक इतिहास रहा है। कथा फिल्मों के शताब्दी वर्ष में ऐसी फिल्मों का आलोचनात्मक विहंगावलोकन होना चाहिए। ऐसी फिल्मों का ‘मदर इंडिया’ से लेकर ‘मुझे जीने दो’ तक एक धुधला और बिखरा-सा क्रम है। लेकिन अधिक लोकप्रियता तो ‘मेरा गांव मेरा देष’, कच्चकधागे’ और ‘चत्बल की कसम ’ जैसी फिल्मों को ही मिली है। ऐसी फिल्मों में घोडे दौडते रहते हैं जो पुलिस की जीपों को भी छकाते रहते हैं। डाकूओं के अडडे पर मुजरे होते रहते हैं या कब्बालियां होती हैं। इस सबके साथ रोमांस तो है ही। सत्तर के दषक के बाद तस्कर और माफियाओं ने डाकुओं को हिन्दी सिनेमा से अपदस्था कर दिया। इसके बाद वे आते भी हैं तो काफी हास्यास्पद लगते रहे हैं।
‘बैंडिट क्वीन’ हिन्दी सिनेमा में दस्यु जीवन पर बनी फिल्मों में एक युगान्तर है। यद्यपि शेखर कपूर ने यह फिल्म विष्व सिनेमा को ध्यान में रखकर बनायी थी और इसे वैसी ख्याति मिली भी, लेकिन इसने दस्यु फिल्मों के मुम्बइया फाॅर्मूले को सदैव के लिए ध्वस्त कर दिया। शेखर कपूर ने इसमें नुसरत फतेह अली खान की गायकी और एक लोक गीत को इस्तेमाल किया था। लेकिन मुझे यह फिल्म देखते समय अलीगढ़ के ख्यात कब्बाल हबीव पेन्टर की एक कब्वाली याद आती थी ‘ फूलन जलती चिता है ये दुनिया दोजरव की पगडंडी’। उल्लेखनीय है कि हबीव साहब इस कब्बाली को तब से सुनाते थे जब बीहडों में फूलन का आतंक था। शेखर की फिल्म निर्माण के समय फूलन जेल में थी।उसने फिल्म के एवज में निर्माता निर्देषकों से भी धन अर्जित किया। फिल्म की अपार सफलता से फूलन को और लोकप्रियता मिली। जेल के बाद वह संसद तक पहुची। अतंतः प्रतिषोध की हिंसा की भेंट चढ गयी।
मैं अक्सर हबीव साब की इस कब्बाली के बोलों के अर्थ को समझने की कोषिष किया करता था। मुझे लगता है कि हबीव साब के सूफियाना अंदाज में हिंसा और प्रतिहिंसा के दुष्चक्र को प्रष्नित किया गया है। वैयक्तिक प्रतिहिंसा अंततः एक सामंती प्रवृत्ति है जिसकी अनिवार्यतः आवृत्ति होती है। विडम्वना यह है कि प्राकआधुनिक समुदायों में इसे भी प्रतिरोध का एक सम्मानित दर्जा हासिल रहा है। किन्तु इसकी दुर्बलता यह है कि इससे व्यवस्था नहीं बदलती। व्यवस्था को वैयक्तिक हिंसा से कोई खतरा नहीं है। यह इसका दमन कर सकती है अन्यता अनुकूलन। फूलन के समय तक सामंती तत्वों का नयी तरह की (लोकतांत्रिक) राज्य सत्ता से गठजोड हो चुका था। उसे प्रतिंिहसा और फिल्म के ग्लैमर से जो नायकत्व मिला, सामाजवादी पार्टी ने उसे सामायोजित कर इसका राजनीतिक लाभ अर्जित किया। चूंकि सामती अवषेष अभी भी सक्रिय थे इसलिए वह पुनः प्रतिहिंसा का षिकार हो गयी।
व्यवस्था से लडने का कारगर रास्ता तो सामूहिक प्रतिरोध से ही निकल सकता है। इसके लिए कई बार लोग मुख्य मार्ग छोडकर बीहडों का रास्ता अपनाते हैं (मसलन नक्सलवाडी आन्दोलन), उस पर विचार किया जाना चाहिए कि यह कितना सही है। कई बार प्रतिरोध में प्रतिहिंसा को शामिल कर लिया जाता है और बाबा नागार्जुन जैसे कवि इसका महिमा मंडन करते रहे हैं ‘ प्रतिहिंसा ही स्थायी भाव है मेरे कवि का’। इस पर भी वस्तुपरक ढंग से चिंतन करने की आवष्यकता है। सामूहिक प्रतिरोध से भी कई बार वैयक्तिक नायक को निकाल लिया जाता है तो व्यवस्था उसे समायोजित कर लेती है। ऐसे में प्रतिहिंसा और प्रतिरोध के सर्जनात्मक विस्तारों को गंभीरता से देखने की जरूरत है।
वैयक्तिक प्रतिहिंसा में स्त्रियां लक्षित की जाती रहीं हैं। शेखर कपूर की ‘बैंडिट क्वीन’ का एक दृष्य है। सामूहिक बलात्कार के बाद फूलन को नग्न अवस्था में एक कुएं से पानी लाने को कहा जाता है। एक अन्य दृष्य में तब की उत्पीडित फूलन डाकू के रूप में उसी बस्ती में बदला लेने आयी है। वहीं कुआं है और उसके घाट पर एक नंगी बच्ची गोलियों की आवाज सुनकर डर से रो रही है। ‘बैंडिट क्वीन’ पर भी सेक्स के चित्रण को लेकर आरोप लगे थे। पता नहीं दर्षकों ने इस पर कितना सोचा कि फूलन की चुनौती पूर्ण भूमिका को सीमा विष्वास ने स्वीकारा और उसे बेहतर अभिनीत किया। लेकिन फूलन पर बलात्कार वाले दृष्य उसकी डुप्लीकेट पर फिल्माये गये।क्या हमारे दर्षक इस डुप्लीकेट के प्रति संवेदनषील हो सकते हैं? स्त्रियों के प्रति हिंसा प्रतिहिंसा पितृसत्ता, सांमती सोच और संवेदनहीनता से उपजती है।
बहरहाल, शेखर कपूर की इस फिल्म ने हमें उस यथार्थ से रूबरू कराया था जिसमें लोग विपथगामी बनते हैं। वहां वर्चस्व और उत्पीडन का सतत् द्वन्द्व है जिसमें मौन की संस्कृति में जी रहे हाषिये के समुदाय संत्रास झेल रहे हैं। बगावत एक बार इस संत्रास से निकलने का अहसास कराती हैं लेकिन बाकी जीवन के अपने घात प्रतिघात और भयावह चुनौतियां हैं। ‘बैडिट क्बीन’ इस बीहड यथार्थ को इसकी बहुस्तरीय जटिलता और अंतर्विरोधों के साथ प्रस्तुत करती है। फिल्म अततः दृष्य माध्यम है और वहां कथा का प्रवाह बनाने के लिए निर्देषकीय प्रविधियां इस्तेमाल की जाती हैं। लेकिन एक निर्देषक का कौषल यही है कि  यथार्थ को ये चीजें पीछे नहीं धकेलती और उसी तरह कला अन्तर्वस्तु के प्रभाव को कहीं तिरोहित नहीं होने देती।
एक बेहतर और सार्थक फिल्म बनाने के लिए एक अच्छी कहानी पूर्व शर्त है। पहले जो दस्यु फिल्में सफल रहीं, उसमें भी कथावस्तु की निणयिक भूमिका थी। भले ही यह अतिरंजित और रोमांचक हो। दस्यु जीवन पर यथार्थवादी नजरिये से लिखी गयी कथाओं के नाम पर लगभग शून्य है। यह जानकर एक तरह की हैरत होती है कि प्रगतिषील कथाधारा में भी दस्यु आधारित कथानक गायब है। यदि यह बगावत का पूर्व आधुनिक रूप था तो इसे कथा के जरिये समझने की कोषिष होनी चाहिए थी। सामाजिक शोध में संलग्न संस्थानों ने भी दस्यु जीवन पर शायद ही कोई उल्लेखनीय अनुसंधान किया है। ऐसे में मुक्तिबोध की लम्बी कविता ‘चंबल की घाटी में’ एक अपवाद की तरह है। यह कविता इस बीहड जीवन के प्रष्नों को प्रतिरोध  की व्यापक चेतना से जोडने का कलात्मक उपक्रम है।
फूलन देवी पर एक पत्रकार माला सेन ने लम्बे समय तक शोध किया। उन्होने एक ओर फूलन से लम्बे-लम्बे साक्षात्कार लेकर उसका जीवन वृत्त तैयार किया, वहीं उस क्षेत्र में भ्रमण व स्थानीय लोगों से संवाद करके इसकी प्रामाणिकता को पुष्ट किया। यह भी उल्लेखनीय है कि फूलन पर लिखी माला सेन की पुस्तक ‘बेंडिट क्वीन’ फिल्म से पहले ही एक बेस्ट सेलर का दर्जा हासिल कर चुकी थी। मुझे लगता है कि अगर यह किताब नहीं होती तो यह फिल्म भी संभव नहीं होती। कहना न होगा कि यह किताब अंग्रेजी में लिखी गयी।
हिन्दी में मनमोहन कुमार तमन्ना ने जरूर चम्बल के डाकूओं पर यथार्थवादी नजरिये से लिखने की कोषिष की थी। दुर्भाग्य से उनकी पुस्तकें पाॅकेट बुक प्रकाषनों से छपीं, हालाकि उन्हे अच्छी व्यावसायिक सफलता मिली। यहां प्रसंगवष बताना जरूरी है कि पाॅकेट बुक प्रकाषनों से डाकुओं पर उपनयास आते रहे हैं। असल में ये पुराने फुटपाथी बाजार के नये संस्करण थे। इनमें कुषवाहा कान्त से वेदप्रकाष काम्बोज तक दस्यु कथाएं लिखी गयीं। लेकिन तमन्ना के उपन्यास काफी भिन्न थे। उनमें चम्बल के बीहड, डांग क्षेत्र, हिंसा के अंधेरे पक्ष और पिछडेपन के दंष साफ झलकते थे। जहां तक मुझे याद है उनके मोहर सिंह माधोसिंह की पृष्ठभूमि पर लिखे उपनयास पर फिल्म भी बनीं। लेकिन वहां काफी कुछ फिल्मी हो गया था।
‘पानसिंह तोमर’ इसलिए महत्वपूर्ण है कि यह दस्यु जीवन की पृष्ठभूमि और उस अंचल में सक्रिय सांमती अवषेषों के घात प्रतिघातों का निर्ममता से चित्रण करती हैं। तिग्मांषु धूलिया ’बेंडिट क्वीन’ में शेखर कपूर के सहायक थे। उस अनुभव का लाभ उन्होने लिया है। लेकिन पानसिंह पर फिल्म अपने आप में भी चुनौती थी। वहां यौन उत्पीडन के सहारे ही सही चित्रित हुए सेक्सदृष्यों से फिल्म की बाॅक्स आॅफिस सफलता में किसी हद तक मदद मिली थी यह एक सचाई है। वहा कबीलाई प्रतिषोध कथा भी थी जो हिन्दी के लोकप्रिय सिनेमा की एक स्थापित रूढि है। कहानी में सस्पेंस और थ्रिल के लिए गुंजाइष थी।
पानसिंह एक तरह से सरल रैखिक कथा है फिर भी यह दर्षक को बांधे रहती है तो इसके पीछे कथा के ताने बाने और निर्देषकीय दृष्टि ही निर्णयक है। तिग्मांषु ने खुद एक सहयोगी के साथ कथा पटकथा तैयार की है। पानसिंह की जीवन कथा किसी अजूबे संसार में नहीं घटित हो रही। उसकी सभी घटना परिघटनाएं हमारी राज्य व्यवस्था के ऐन बीच में घटित हो रही हैं। इसमें नौकरषाही पुलिस के बहुप्रचारित गठजोड के साथ सैन्यतंत्र के अन्तर्विरोधों को भी उद्घाटित किया है। इस अर्थ में यह एक दस्यु के बहाने राजनीतिक फिल्म है।
यह फिल्म पानंिसंह तोमर को खुलकर नायकत्व प्रदान करती है। बेषक यह नायकत्व भी रूढ मुम्बइया फिल्मों के नायकत्व से भिन्न है। यह नायकत्व उसे स्थानीय जनता तो पहले ही प्रदान कर चुकी थी। इस रूप में तिग्मांषु ने इस फिल्म के बहाने सबाल्टर्न नजरिये से सामुदायिक इतिहास की एक किंवदंति का संधान और कलात्मक विष्लेषण किया है। निष्चय ही अभिनेता इरफान ने पानसिंह के चरित्र को जीवंत कर दिया है। आप देखेंगे कि एक धावक के रूप में पानंिसह के विकास में फिल्म के काफी दृष्य खर्च किये गये हैं। फिर आप पानसिंह के एक राष्ट्रीय धावक के रूप में स्थापित होते समय राष्ट्र से उसके भावात्मक तादाम्य को देखते हैं। दूसरी ओर उसी राष्ट्र के प्रति कुछ सैन्य अधिकारियों, नौकरषाहों और पुलिस का नजरिया भी एक कंट्रास्ट की तरह प्रस्तुत है। पानसिंह के विचलन में उसके तमगे का अपमान एक त्रासद स्थिति उत्पन्न करता है। अंततः वह एक त्रास्दी के नायक की परिणति तक पहुंचता है। फिर भी देष, समाज और विपन्नों के प्रति उसकी संवेदनाएं आखिर तक कायम रहती हैं।
इसी संदर्भ में हम दस्यु जीवन पर हाल ही में प्रकाषित कथाकार पुन्नीसिंह के उपन्यास ‘वह जो धाटी ने कहा’ का उल्लेख करना चाहेगें। इस उपन्यास की रचना के पीछे कथाकार पुन्नीसिंह का लम्बा शोध और श्रम है। यह चम्बल की घाटी में फैले डांग क्षेत्र के पिछडेपन और इस अंचल की उपेक्षा की कथा भी है। डांग क्षेत्र तीन राज्यों-मध्य प्रदेष, राजस्थान और उत्तर प्रदेष की सीमाओं से घिरा है। ये भौगोलिक रूप से सीमांत नहीं है बल्कि हाषिये के अर्थ में भी सीमांत है। इसीलिए यहां सामंती मूल्य संरचना आज भी सक्रिय है।
पुन्नसिंह का यह उपल्यास किसी अतीत कथा अथवा किंवदति पर आधारित नहीं है। यह डांग क्षेत्र के वर्तमान का वृत्तान्त है। साथ ही स्थानीय जीवन में व्याप्त उन असंगतियों, शक्ति-संचनाओं और वर्चस्व के जनविरोधी रूपों को उद्घाटित करता है जो दस्यु उन्मूलन नहीं बल्कि दस्युओं के अस्तित्व में अपने निहित स्वार्थ देखते हैं। इस उपन्यास का वितान और कथा-भाषा आपको एक ऐसे यथार्थ से रूबरू कराती है जो सच में अभी तक लगभग अन् उद्घाटित है। इसमें पात्रों की बाह्य और आभ्यंतर दुनिया को पूरी संवेदनषीलता के साथ प्रस्तुत किया गया है। तीन सौ पृष्ठ के इस उपन्यास की पठनीयता ऐसी है कि इसे बीच में छोडना मुषिकल होता है।  

   

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वंचना के विमर्शों में कई आयाम होते हैं, जैसे- राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक इत्यादि। इनमें हर ज्ञान- अनुशासन अपने पक्ष को समृद्ध करता रहता है। साहित्य और कलाओं का संबंध विमर्श के सांस्कृतिक पक्ष से है जिसमें सूक्ष्म स्तर के नैतिक और संवेदनशील प्रश्न उठाये जाते हैं। इसके मायने हैं कि वंचना से संबंद्ध कृति पर बात की जाये तो उसे विमर्श के व्यापक परिप्रेक्ष्य से जोडकर देखने की जरूरत है। भूलन कांदा  को एक लंबी कहानी के रूप में एक अर्सा पहले बया के किसी अंक में पढा था। बाद में यह उपन्यास की शक्ल में अंतिका प्रकाशन से सामने आया। लंबी कहानी  की भी काफी सराहना हुई थी। इसे कुछ विस्तार देकर लिखे उपन्यास पर भी एक- दो सकारात्मक समीक्षाएं मेरे देखने में आयीं। ऐसी ही प्रतिक्रिया रणेन्द्र के उपन्यास ग्लोबल गाँव के देवता को भी मिल चुकी थी। किन्तु आदिवासी विमर्श के संदर्भ में ये दोनों कृतियाँ जो बड़े मुद्दे उठाती हैं, उन्हें आगे नहीं बढाया गया। ये सिर्फ गाँव बनाम शहर और आदिवासी बनाम आधुनिकता का मामला नहीं है। बल्कि इनमें क्रमशः आन्तरिक उपनिवेशन बनाम स्वायत्तता, स्वतंत्र इयत्ता और सत्त...

'ब्लड ऑफ़ दी कॉनडोर' [ Blood of the Condor]

सिने -संवाद                                                                            ' ब्लड ऑफ़ दी कॉनडोर'  [ Blood of the Condor]                                          मनीष आजाद 1960 का दशक भारी उथल पुथल का दौर था। पूरे विश्व में समाज के लगभग सभी शोषित तबके व वर्ग अपनी पहचान व अधिकार हासिल करने के लिए शोषणकारी व्यवस्था से सीधे टकराने लगे थे। साहित्य, कला, संगीत इससे मूलभूत तौर पर प्रभावित हो रहा था और पलटकर इस संघर्ष में अपनी भूमिका भी निभा रहा था। अपेक्षाकृत नई कला विधा सिनेमा भी इससे अछूता न था। इसी दशक में यूरोपियन सिनेमा में ‘नवयथार्थवाद’ की धारा आयी जिसने फिल्म की विषयवस्तु के साथ साथ फिल्म मेकिंग को भी मूलभूत तौर पर बदल डाला और यथार्थ के साथ सिनेमा का एक नया रिश्ता बना।  लेकिन...

लेखक जी तुम क्या लिखते हो

संस्मरण   हिंदी में अपने तरह के अनोखे लेखक कृष्ण कल्पित का जन्मदिन है । मीमांसा के लिए लेखिका सोनू चौधरी उन्हें याद कर रही हैं , अपनी कैशौर्य स्मृति के साथ । एक युवा लेखक जब अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी के उस लेखक को याद करता है , जिसने उसका अनुराग आरंभिक अवस्था में साहित्य से स्थापित किया हो , तब दरअसल उस लेखक के साथ-साथ अतीत के टुकड़े से लिपटा समय और समाज भी वापस से जीवंत हो उठता है ।      लेखक जी तुम क्या लिखते हो                                             सोनू चौधरी   हर बरस लिली का फूल अपना अलिखित निर्णय सुना देता है, अप्रेल में ही आऊंगा। बारिश के बाद गीली मिट्टी पर तीखी धूप भी अपना कच्चा मन रख देती है।  मानुष की रचनात्मकता भी अपने निश्चित समय पर प्रस्फुटित होती है । कला का हर रूप साधना के जल से सिंचित होता है। संगीत की ढेर सारी लोकप्रिय सिम्फनी सुनने के बाद नव्य गढ़ने का विचार आता है । नये चित्रकार की प्रेरणा स्त्रोत प्रकृति के साथ ही पूर्ववर्त...