सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

अमृता शेरगिल के कुछ पत्र

अमृता शेरगिल ( 1913-1941 ) भारतीय मूल की चित्रकार थीं। उनका जन्म 30 जनवरी, 1913 को बुडापेस्ट, हंगरी में हुआ। कला में आरंभिक रुचि के चलते उन्होंने यूरोपीय कला का गहन अध्ययन किया और इस सिलसिले में पेरिस रहीं। यहीं उन्हें लगा कि उन्हें अपनी सांस्कृतिक जडों से जुडना चाहिए। इस क्रम में उन्होंने भारत आकर यहां की पारंपरिक और तत्कालीन कला का सूक्ष्म- अवलोकन व अध्ययन किया। उनका महत्वपूर्ण सृजन उसके बाद ही सामने आया। उन्हें बीसवीं सदी के अवांगार्द कला आन्दोलन की अहम् स्त्री- कलाकार माना जाता है। साथ ही, वे आधुनिक कला के अग्रणी चित्रकारों में शुमार हैं।

यहाँ उनके कुछ पत्र प्रस्तुत किये जा रहे हैं जिनमें उनकी अन्वेषी कला- दृष्टि और मौलिक सृजनशीलता के मूल उत्स परिलक्षित होते हैं।
अमृता का अल्पायु में ही 5 दिसम्बर, 1941 को लाहौर में निधन हो गया।
                    प्रस्तुति- राजाराम भादू
                    अमृता शेरगिल के कुछ पत्र

मां को : बेरोस, हंगरी, १५ अगस्त, १९३४

मैं कुछ सैरे बना रही हूं। मैं काफी मेहनत कर रही हूं लेकिन चित्र बहुत धीमी गति से विकसित हो रहे हैं क्योंकि काम के दौरान चिन्तन- क्रम भी चलता जाता है। मैं ने अंध- भाव से चित्र बनाना बंद कर दिया है- यानी सामने प्रस्तुत विषय का केवल अच्छी तरह अंकन भर करना। मैं कभी उसमें कुछ जोडती हूं, कभी कुछ हटा देती हूं, आशय यह है कि रचना, सृजन और चिन्तन कर रही हूं। चित्रांकन इसी तरह से किया जाना चाहिए। कितनी भयावह है यह बात कि मैं अब, इस वक्त यह खोज पायी कि सिर्फ अच्छा चित्रांकन कर लेना ही काफी नहीं है।


मां और पिता को : बुडापेस्ट, २४ सितम्बर, १९३४

मैं मूलतः अपने कलात्मक विकास के हित में भारत लौटना चाहती हूं। मुझे अब प्रेरणा के नये स्रोतों की जरूरत है ( और यहाँ आप देखेंगे डूसी कि आप किस कदर पूरी तौर पर गलत हैं। अब आप हमारी,  भारत में, उसकी संस्कृति, उसके लोगों और उसके साहित्य में रुचि न होने की बात करते हैं जिसमें कि मेरी गंभीर रुचि है और जिससे मैं गहरे रूप में परिचित होना चाहती हूं। ) मेरा खयाल है कि मैं प्रेरणा के नये स्रोतों को भारत में खोज लूंगी। यूरोप में लंबे समय तक के निवास ने मुझे भारत की खोज में सहायता दी है। आधुनिक कला ने मुझे भारतीय चित्रकला और मूर्तिकला की समझ और आस्वाद की ओर अग्रसर किया है। यह विरोधाभासी लगता है, लेकिन मैं निश्चित रूप से जानती हूं कि यदि हम यूरोप नहीं आए होते तो संभवतः मैं कभी इस बात को नहीं जान पाती कि अजंता का भित्तिचित्र या मूसे गिमे के शिल्प का एक छोटा- सा टुकड़ा भी समूचे रेनेसां से कहीं अधिक मूल्यवान है।

मां और पिता को : हैदराबाद, ५ दिसम्बर, १९३६

अजंता में दो रात बिताने के बाद परसों तारीख तीन की सुबह हम यहाँ आ गये। अजंता अद्भुत था। भारत लौटने के बाद मैं ने पहली बार किसी दूसरे के सृजन से कुछ सीखा है।

 अमृता शेरगिल के कुछ पत्र-२

कार्ल खंडालावाला को  : हैदराबाद, २३ दिसम्बर, १९३६

एलोरा भव्य है। अजंता विस्मयकारी रूप से सूक्ष्म और ऐन्द्रजालिक चित्ताकर्षण से भरपूर...। मैं नहीं सोचती कि मैं ने कभी कोई ऐसी कृति देखी है, जो इसकी बराबरी कर सकती है, एकदम असाधारण, हालांकि मैं सन्देह नहीं करती कि उसने बंगाल स्कूल को जन्म दिया होगा। बिना आत्मसात किये अपने कलातंत्र में ग्रहण करने के लिए एक निहायत खतरनाक चीज। मैं दो शब्दों में अजंता और बंगाल स्कूल की चारित्रिकताओं का निरूपण कर सकती हूं। अजंता एक गिरीयुक्त या अन्तर्बीज वाली चित्रकला है, बंगाल स्कूल के पास सिर्फ एक बाहरी खोल या छिलका है- उसमें शून्य के चारों ओर बहुत- सी चीजों की बनावट है- बहुत- सी अनावश्यक चीजें और यदि उन अनावश्यक चीजों को उसमें से हटा दिया जाये, तो उसका अस्तित्व ही मिट जायेगा।

यह मत सोचिएगा कि मैं ऐसा इसलिए कह रही हूं ( जैसा कभी पहले आपने संकेतित किया था। ) कि मैं भारतीय कला के प्रति पूर्वाग्रही हूं। यह इसलिए कि मैं सोचती हूं कि भारतीय कला में इतनी अधिक संभावनाएँ निहित हैं कि मैं शब्दशः उन लोगों के खिलाफ हूं, जिन्होने इन संभावनाओं का अन्वेषण नहीं किया है और उन लोगों को दोषी मानती हूं जिन्होंने चित्रात्मक रूप में उसे गलत समझा है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा, प्रिय कार्ल, कि मैं भारतीय शैली का एक सचमुच अच्छा चित्र देखने के लिए तीव्र आकांक्षा से बैचेन, लालायित हूं। मूलतः मैं उत्साही हूं और मुझे एक बुरे चित्र की निंदा करने की अपेक्षा एक अच्छे चित्र का आनंद लेने में अधिक रस मिलता है।


कार्ल खंडालावाला को : दिल्ली, १३ फरवरी, १९३७

लखनऊ स्कूल के प्राचार्य असित हालदार ( जिनका काम, जब वह असंतुष्ट अजंता नहीं हैं, तो पिकासो के अनुपस्थित अन्वेषणों का दोहन हैं, यह भी असंपृक्त ) ने इस बात पर दुख प्रकट किया कि मेरे भारतीय पिता होने के बावजूद मेरे काम में पश्चिम की गंध है। वे भारतीय कला के क्षेत्र में मेरी दखलंदाजी से भी नाराज हैं, क्योंकि भारतीय ( निश्चय ही, जिनका प्रतिनिधित्व वे करते हैं। ) एक और सालोमन, अपने ऊपर लादे जाना नहीं चाहते ( यही उनके मूल शब्द थे, लेकिन सीधे मुझसे मुखातिब होकर नहीं )। बराड उकील घोषित करते हैं कि मेरा काम आम आदमी की भावनाओं का प्रतिनिधित्व नहीं करता। वे संभवतः अनुमान लगाते हैं कि चूंकि उनका काम कुछ मध्यवर्गीय भारतीयों की ह्रासोन्मुख रुचि को पसंद आता है, इसलिए वे आम आदमी की भावना का प्रतिनिधित्व करते हैं...।

आपने अनेक बार मुझसे पूछा कि क्या मुझे मुगल, राजपूत और कांगड़ा स्कूल पसंद हैं। आपको शायद यह सुनकर हैरानी होगी कि मैं उनकी मुरीद हूं ( यह अहसास मुझे अभी हुआ है, जबकि मैं ने उनके कुछ अच्छे नमूने देखे )। वे छोटे- छोटे चित्र आश्चर्यजनक रूप से श्रेष्ठ हैं।...

क्या मैं आपको बताऊं कि मैं कभी- कभी कठोर आलोचना में क्यों विश्वास करती हूं ? क्योंकि मैं अपने व्यक्तिगत अनुभव से यह कह सकती हूं कि मुझे अन्ततः अपने प्रोफेसरों की तार्किक और समझदार आलोचना से इतना लाभ नहीं हुआ जितना अपने सहपाठियों की विध्वसंक और क्रूर समीक्षा से हुआ। सही समय पर की जाने वाली क्रूर आलोचना किसी व्यक्ति को पूरे  तौर पर कलात्मक नव- चैतन्य से अनुप्राणित कर सकती है। यद्यपि मैं यह भी स्वीकार करती हूंं कि यही गलत समय पर थोडा नुकसान भी पहुंचा सकती है- लेकिन यह खतरा तो उठाना ही पड़ता है।

कार्ल खंडालावाला को : नयी दिल्ली, ५ मार्च, १९३७

आप हमेशा की तरह सही हैं। कामावेगपूरित शिल्प और चित्र धार्मिक भावना से प्रेरित नहीं हो सकते। दरअसल, मैं सोचती हूं कि सारी कला और धार्मिक कला भी शामिल है, ऐन्द्रिकता के द्वारा ही अस्तित्व में आयी है, एक ऐसी उद्दाम ऐन्द्रिकता, जो मात्र पार्थिव सीमाओं के पार प्रवाहित हो जाती है।

अमृता शेरगिल के कुछ पत्र-३

पंडित जवाहरलाल नेहरू को : ६ नवम्बर, १९३७

सिद्धान्तत: मैं जीवन- वृत्त और आत्मकथाओं को नापसंद करती हूं। उनमें झूंठ ध्वनित होता है। बडप्पन का भाव या प्रदर्शन- प्रियता। लेकिन मेरा खयाल है कि मैं आपकी आत्मकथा पसंद करूंगी। आप कभी- कभी अपने प्रभा- मंडल को छोड सकने में समर्थ होते हैं। आप यह कह पाते हैं कि जब मैं ने समुद्र को पहली बार देखा, जबकि दूसरे लोग कहेंगे कि जब समुद्र ने मुझे पहली बार देखा।

मैं उन लोगों के प्रति आकृष्ट होती हूं, जो इतने पर्याप्त सुसंगठित और पूर्ण होते हैं कि बिखराव के बिना अस्थिर हो सकते हैं और जो अपने पीछे पश्चाताप के चिपचिपे धागों के घिसटते चिन्ह नहीं छोडते चलते।

मैं नहीं सोचती कि जीवन की दहलीज पर ही व्यक्ति अराजकता महसूस करता है, वरन वह जीवन की दहलीज पार कर चुका होता है, तब वह यह अन्वेषित करता है कि चीजें, जो सरल दिखाई देती हैं, अनन्त रूप से त्रासदायी और जटिल हैं। यह कि केवल अस्थिरता में ही कोई स्थिरता है। 


अमृता शेरगिल के कुछ पत्र-४

कार्ल खंडालावाला को : शिमला, १७ अप्रैल, १९३७

मैं दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू से मिली। मुझे उनसे मिलने की तीव्र इच्छा थी। मेरा खयाल है कि उन्होंने मुझे पसंद किया, उतना ही जितना मैं ने उन्हें। वे मेरी चित्र- प्रदर्शनी में आये और हमारी लंबी बातचीत हुई। कुछ समय पूर्व उन्होंने मुझे लिखा था- मुझे तुम्हारे चित्र अच्छे लगे क्योंकि उनमें शक्ति और दृष्टि दिखाई देती है। तुममें ये दोनों गुण हैं। ये चित्र इन जीवनहीन प्रयत्नों से कितने अलग हैं, जो हम अक्सर हिन्दुस्तान में देखते हैं।

और जीवनहीन प्रयत्नों से मुझे याद आता है कि कुछ समय पहले आपने मुझसे पूछा था कि क्या मैं ने त्रावणकोर की नयी आर्ट गैलरी देखी है ? जरूर देखी है। आधी से अधिक गैलरी रवि वर्मा के चित्रों से भरी है और आधी भारतीय चित्रकला के नाम पर छद्म प्रदर्शन करने वाले निकृष्ट कोटि के प्रतिनिधि संकलन से। बिना किसी अतिशयोक्ति या कहिये अवमूल्यन के, उस पूरे संग्रह में केवल एक चित्र था जिसे अच्छा कहा जा सकता था- वह था जैमिनी राय का बनाया एक पोर्ट्रेट। यहाँ तक कि नंदलाल बोस के चित्र निराशाजनक थे। मैं ने सचमुच पहले कभी नहीं सोचा कि नंदलाल बोस इतने कामन हैं। लगता है कि कजिन्स में हर एक के काम के सबसे खराब नमूने चुन लेने की एक विशेष क्षमता है।

कार्ल खंडालावाला को : सराया, १ जुलाई, १९४०

मुग़ल शैली ने मुझे बहुत कुछ सिखाया है। सही तौर से देखने पर मुग़ल पोर्ट्रेट वह सब कुछ सिखा सकते हैं जो जरूरी है। सूक्ष्म किन्तु फिर भी घनीभूत, आकृति की तीक्ष्णता, तीव्र और तटस्थ, कुछ- कुछ विडम्बनात्मक पर्यवेक्षण- ये सारी चीजें, जिनकी उस वक्त मुझे बेहद जरूरत थी, उन सबसे मेरी वाकफियत हुई। यह बड़ी मनोरंजक बात है कि मुझे ठीक वही सारी चीज़ें ऐन उसी मौके पर मिलती हैं जिस वक्त कि मुझे उनकी अधिक जरूरत होती है- बूल और रेनोअ ( रेनोअ को मैं अभी हाल तक तहेदिल से नापसंद करती रही )। हालांकि दोनों ऊपरी तौर पर इस कदर अलग दिखाई देते हैं, दरअसल अपने मूल रूप में दोनों में ही मुग़ल शैली के बहुत- से उभयनिष्ठ तत्व हैं और आखिरकार मैं ने अपने लाभ के लिए इस बात का अन्वेषण कर लिया है। समकालीन भारतीय चित्रकला का अध्ययन करते हुए, शायद यह बात बहुत गौरतलब है कि हम इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि मुग़ल शैली की अनुकृति करने वालों ने कभी इस कदर बुरे तौर पर गलतियाँ नहीं की हैं जितनी कि अजंता की अनुकृति करने वालों ने। भ्रान्त रूप से समझा गया अजंता ( और तथाकथित भारतीय चित्रकला में से किसी ने भी बहुत दूर से भी नहीं समझा है कि अजंता का मूल मर्म क्या है और वह किन तत्वों का प्रतिनिधित्व करती है। ) निश्चित तौर पर एक वितृष्णामूलक असहनीय रुग्ण भावुकता और आकृति की कमजोरी की तरफ ले जाता है, विषयवस्तु की बात तो अलग है। मुग़ल शैली की अनुकृति करने वाले यद्यपि कमजोर और सीमित दायरे से बंधे हैं, लेकिन इस कदर बुरी रुचि के अपराधी कतई नहीं हैं। क्या आप ऐसा सोचते हैं ? मुग़ल शैली जिन खास चीजों का प्रतिनिधित्व करती है, ठीक उन्ही के जरिये वह आकृति की धारणा की अतिशय ह्रासोन्मुखता को रोक देती है। इसलिए आप मुझको एक मुगल प्रशंसक के रूप में परिवर्तित हुआ पाते हैं और मैं उसी तरह अपनी चित्रकला को विकसित होते देखने की उम्मीद करती हूं ( वह निश्चित ही विकसित होगी और लगातार विकसित हो रही है। )। मुझे ताज्जुब है कि आपने कोई विकास लक्ष्य नहीं किया।

टिप्पणियाँ

  1. समय समय पर राजाराम भादू द्वारा उध्दृत अमृता शेरगिल के ये पत्र पढ़ता रहा हूँ | इन पत्रों में उन महान कलाकार की भारत के प्रति सकारात्मक धारणा और यहाँ की परम्परागत चित्रकला के प्रति आकर्षण सिध्द होता है |अमृता जी के चित्रों में भी भारतीयता के मूल तत्त्व परिलक्षित होते हैं | संस्कृति मीमांसा को साधुवाद |

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

जाति का उच्छेद : एक पुनर्पाठ

परिप्रेक्ष्य जाति का उच्छेद : एक पुनर्पाठ                                                               ■  राजाराम भादू जाति का उच्छेद ( Annihilation of Caste )  डॉ॰ भीमराव अम्बेडकर की ऐसी पुस्तक है जिसमें भारतीय जाति- व्यवस्था की प्रकृति और संरचना को पहली बार ठोस रूप में विश्लेषित किया गया है। डॉ॰ अम्बेडकर जाति- व्यवस्था के उन्मूलन को मोक्ष पाने के सदृश मुश्किल मानते हैं। बहुसंख्यक लोगों की अधीनस्थता बनाये रखने के लिए इसे श्रेणी- भेद की तरह देखते हुए वे हिन्दू समाज की पुनर्रचना की आवश्यकता अनुभव करते हैं। पार्थक्य से पहचान मानने वाले इस समाज ने आदिवासियों को भी अलगाया हुआ है। वंचितों के सम्बलन और सकारात्मक कार्रवाहियों को प्रस्तावित करते हुए भी डॉ॰ अम्बेडकर जाति के विच्छेद को लेकर ज्यादा आश्वस्त नहीं है। डॉ॰ अम्बेडकर मानते हैं कि जाति- उन्मूलन एक वैचारिक संघर्ष भी है, इसी संदर्भ में इस प्रसिद्ध लेख का पुनर्पाठ कर रहे हैं- र...

उत्तर-आधुनिकता और जाक देरिदा

उत्तर-आधुनिकता और जाक देरिदा जाक देरिदा को एक तरह से उत्तर- आधुनिकता का सूत्रधार चिंतक माना जाता है। उत्तर- आधुनिकता कही जाने वाली विचार- सरणी को देरिदा ने अपने चिंतन और युगान्तरकारी उद्बोधनों से एक निश्चित पहचान और विशिष्टता प्रदान की थी। आधुनिकता के उत्तर- काल की समस्यामूलक विशेषताएं तो ठोस और मूर्त्त थीं, जैसे- भूमंडलीकरण और खुली अर्थव्यवस्था, उच्च तकनीकी और मीडिया का अभूतपूर्व प्रसार। लेकिन चिंतन और संस्कृति पर उन व्यापक परिवर्तनों के छाया- प्रभावों का संधान तथा विश्लेषण इतना आसान नहीं था, यद्यपि कई. चिंतक और अध्येता इस प्रक्रिया में सन्नद्ध थे। जाक देरिदा ने इस उपक्रम को एक तार्किक परिणति तक पहुंचाया जिसे विचार की दुनिया में उत्तर- आधुनिकता के नाम से परिभाषित किया गया। आज उत्तर- आधुनिकता के पद से ही अभिभूत हो जाने वाले बुद्धिजीवी और रचनाकारों की लंबी कतार है तो इस विचारणा को ही खारिज करने वालों और उत्तर- आधुनिकता के नाम पर दी जाने वाली स्थापनाओं पर प्रत्याक्रमण करने वालों की भी कमी नहीं है। बेशक, उत्तर- आधुनिकता के नाम पर काफी कूडा- कचरा भी है किन्तु इस विचार- सरणी से गुजरना हरेक ...

कवि व्यक्तित्व-तारा प्रकाश जोशी

स्मृति-शेष हिंदी के विलक्षण कवि, प्रगतिशील विचारों के संवाहक, गहन अध्येता एवं विचारक तारा प्रकाश जोशी का जाना इस भयावह समय में साहित्य एवं समाज में एक गहरी  रिक्तता छोड़ गया है । एक गहरी आत्मीय ऊर्जा से सबका स्वागत करने वाले तारा प्रकाश जोशी पारंपरिक सांस्कृतिक विरासत एवं आधुनिकता दोनों के प्रति सहृदय थे । उनसे जुड़ी स्मृतियाँ एवं यादें साझा कर रहे हैं -हेतु भारद्वाज ,लोकेश कुमार सिंह साहिल , कृष्ण कल्पित एवं ईशमधु तलवार । कवि व्यक्तित्व-तारा प्रकाश जोशी                                           हेतु भारद्वाज   स्व० तारा प्रकाश जोशी के महाप्रयाण का समाचार सोशल मीडिया पर मिला। मन कुछ अजीब सा हो गया। यही समाचार देने के लिए अजमेर से डॉ हरप्रकाश गौड़ का फोन आया। डॉ बीना शर्मा ने भी बात की- पर दोनों से वार्तालाप अत्यंत संक्षिप्त  रहा। दूसरे दिन डॉ गौड़ का फिर फोन आया तो उन्होंने कहा, कल आपका स्वर बड़ा अटपटा सा लगा। हम लोग समझ गए कि जोशी जी के जाने के समाचार से आप कुछ अस...

दस कहानियाँ-१ : अज्ञेय

दस कहानियाँ १ : अज्ञेय- हीली- बोन् की बत्तखें                                                     राजाराम भादू                      1. अज्ञेय जी ने साहित्य की कई विधाओं में विपुल लेखन किया है। ऐसा भी सुनने में आया कि वे एक से अधिक बार साहित्य के नोवेल के लिए भी नामांकित हुए। वे हिन्दी साहित्य में दशकों तक चर्चा में रहे हालांकि उन्हें लेकर होने वाली ज्यादातर चर्चाएँ गैर- रचनात्मक होती थीं। उनकी मुख्य छवि एक कवि की रही है। उसके बाद उपन्यास और उनके विचार, लेकिन उनकी कहानियाँ पता नहीं कब नेपथ्य में चली गयीं। वर्षों पहले उनकी संपूर्ण कहानियाँ दो खंडों में आयीं थीं। अब तो ये उनकी रचनावली का हिस्सा होंगी। कहना यह है कि इतनी कहानियाँ लिखने के बावजूद उनके कथाकार पक्ष पर बहुत गंभीर विमर्श नहीं मिलता । अज्ञेय की कहानियों में भी ज्यादा बात रोज पर ही होती है जिसे पहले ग्रेंग्रीन के शीर्षक से भी जाना गया है। इसके अला...

सबाल्टर्न स्टडीज - दिलीप सीमियन

दिलीप सीमियन श्रम-इतिहास पर काम करते रहे हैं। इनकी पुस्तक ‘दि पॉलिटिक्स ऑफ लेबर अंडर लेट कॉलोनियलिज्म’ महत्वपूर्ण मानी जाती है। इन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन किया है और सूरत के सेन्टर फोर सोशल स्टडीज एवं नेहरू मेमोरियल लाइब्रेरी में फैलो रहे हैं। दिलीप सीमियन ने अपने कई लेखों में हिंसा की मानसिकता को विश्लेषित करते हुए शांति का पक्ष-पोषण किया है। वे अमन ट्रस्ट के संस्थापकों में हैं। हाल इनकी पुस्तक ‘रिवोल्यूशन हाइवे’ प्रकाशित हुई है। भारत में समकालीन इतिहास लेखन में एक धारा ऐसी है जिसकी प्रेरणाएं 1970 के माओवादी मार्क्सवादी आन्दोलन और इतिहास लेखन में भारतीय राष्ट्रवादी विमर्श में अन्तर्निहित पूर्वाग्रहों की आलोचना पर आधारित हैं। 1983 में सबाल्टर्न अध्ययन का पहला संकलन आने के बाद से अब तब इसके संकलित आलेखों के दस खण्ड आ चुके हैं जिनमें इस धारा का महत्वपूर्ण काम शामिल है। छठे खंड से इसमें संपादकीय भी आने लगा। इस समूह के इतिहासकारों की जो पाठ्यवस्तु इन संकलनों में शामिल है उन्हें ‘सबाल्टर्न’ दृष्टि के उदाहरणों के रुप में देखा जा सकता है। इस इतिहास लेखन धारा की शुरुआत बंगाल के...

कथौड़ी समुदाय- सुचेता सिंह

शोध कथौडी एक ऐसी जनजाति है जो अन्य जनजातियों से तुलनात्मक रूप से पिछड़ी और उपेक्षित है। यह अल्पसंख्यक जनजाति महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान के कुछ अंचलों में छितरायी हुई है। दक्षिण राजस्थान में इनके हालात प्रस्तुत कर रही हैं अध्येता सुचेता सिंह। दक्षिण राजस्थान के आदिवासी क्षेत्र में कथौड़ी जनजाति है जो वहां रहने वाली जनजातियों में सबसे कम संख्या में है। एक शोध रिपोर्ट के अनुसार इस जनजाति समुदाय की वृद्धि दर दशक वार घट रही है। 'ये लोग कैथ के पेड़ से कत्था निकालने का काम करते थे जो पान में लगाया जाता है इसलिए इनका नाम कथौड़ी पड़ा।' वैसे ये लोग कत्था बनाने के साथ-साथ बहुत से वन सम्बन्धी कार्य करते हैं, जैसे-बांस कटाई एवं दुलाई, वृक्ष कटाई, वन उपज संग्रहण, वन्य जीव आखेट, हाथ औजार निर्माण तथा वन औषध उपचार आदि। राजस्थान में इन लोगों का इतिहास कोई अधिक पुराना नहीं है। इन्हे महाराष्ट्र से इस क्षेत्र में कत्था उत्पादन और वन कटाई के लिए लाया गया। ऐसा अनुमान है कि जंगल के ठेकेदार इन्हे कोंकण महाराष्ट्र से यहां लेकर आये। ऐसा लगता है कि पूर्व में भी ये घुमक्कड़ जीवन जीते थे। इनकी बसाहटें म...

समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान-1

रंगमंच  समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान -1                                         राघवेन्द्र रावत  समकालीन हिंदी रंगमंच के बारे में बात बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध से भी की जा सकती थी लेकिन मुझे लगता है कि उससे पूर्व के भारतीय रंगमंच के परिवर्तन की प्रक्रिया पर दृष्टिपात कर लेना ठीक होगा | उसी तरह राजस्थान के समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करने से पहले भारतीय हिंदी रंगमंच पर चर्चा करना जरूरी है, और उससे भी पहले यह जानना भी आवश्यक है कि वस्तुतः रंगमंच क्या है ?और रंगमंच के बाद हिंदी रंगमंच और उसके बाद समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करना एक उचित क्रम होगा भले ही यह मेरे अध्ययन की गरज ही लगे | राजस्थान के रंगमंच पर बात करना इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि इस पर हिंदी साहित्य की तरह चर्चा नहीं हुई चाहे वह आलोचना की दृष्टि से देखें या इसके इतिहास की नज़र से देखें | दो वर्ष पहले ‘जयरंगम’ नाट्य समारोह के एक सेशन में बोलते हुए वरिष्ठ रंग एवं फिल्म समीक्षक अजित राय ने कहा था-“ पता नहीं कौन सा नाटक...

भूलन कांदा : न्याय की स्थगित तत्व- मीमांसा

वंचना के विमर्शों में कई आयाम होते हैं, जैसे- राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक इत्यादि। इनमें हर ज्ञान- अनुशासन अपने पक्ष को समृद्ध करता रहता है। साहित्य और कलाओं का संबंध विमर्श के सांस्कृतिक पक्ष से है जिसमें सूक्ष्म स्तर के नैतिक और संवेदनशील प्रश्न उठाये जाते हैं। इसके मायने हैं कि वंचना से संबंद्ध कृति पर बात की जाये तो उसे विमर्श के व्यापक परिप्रेक्ष्य से जोडकर देखने की जरूरत है। भूलन कांदा  को एक लंबी कहानी के रूप में एक अर्सा पहले बया के किसी अंक में पढा था। बाद में यह उपन्यास की शक्ल में अंतिका प्रकाशन से सामने आया। लंबी कहानी  की भी काफी सराहना हुई थी। इसे कुछ विस्तार देकर लिखे उपन्यास पर भी एक- दो सकारात्मक समीक्षाएं मेरे देखने में आयीं। ऐसी ही प्रतिक्रिया रणेन्द्र के उपन्यास ग्लोबल गाँव के देवता को भी मिल चुकी थी। किन्तु आदिवासी विमर्श के संदर्भ में ये दोनों कृतियाँ जो बड़े मुद्दे उठाती हैं, उन्हें आगे नहीं बढाया गया। ये सिर्फ गाँव बनाम शहर और आदिवासी बनाम आधुनिकता का मामला नहीं है। बल्कि इनमें क्रमशः आन्तरिक उपनिवेशन बनाम स्वायत्तता, स्वतंत्र इयत्ता और सत्त...

'ब्लड ऑफ़ दी कॉनडोर' [ Blood of the Condor]

सिने -संवाद                                                                            ' ब्लड ऑफ़ दी कॉनडोर'  [ Blood of the Condor]                                          मनीष आजाद 1960 का दशक भारी उथल पुथल का दौर था। पूरे विश्व में समाज के लगभग सभी शोषित तबके व वर्ग अपनी पहचान व अधिकार हासिल करने के लिए शोषणकारी व्यवस्था से सीधे टकराने लगे थे। साहित्य, कला, संगीत इससे मूलभूत तौर पर प्रभावित हो रहा था और पलटकर इस संघर्ष में अपनी भूमिका भी निभा रहा था। अपेक्षाकृत नई कला विधा सिनेमा भी इससे अछूता न था। इसी दशक में यूरोपियन सिनेमा में ‘नवयथार्थवाद’ की धारा आयी जिसने फिल्म की विषयवस्तु के साथ साथ फिल्म मेकिंग को भी मूलभूत तौर पर बदल डाला और यथार्थ के साथ सिनेमा का एक नया रिश्ता बना।  लेकिन...

लेखक जी तुम क्या लिखते हो

संस्मरण   हिंदी में अपने तरह के अनोखे लेखक कृष्ण कल्पित का जन्मदिन है । मीमांसा के लिए लेखिका सोनू चौधरी उन्हें याद कर रही हैं , अपनी कैशौर्य स्मृति के साथ । एक युवा लेखक जब अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी के उस लेखक को याद करता है , जिसने उसका अनुराग आरंभिक अवस्था में साहित्य से स्थापित किया हो , तब दरअसल उस लेखक के साथ-साथ अतीत के टुकड़े से लिपटा समय और समाज भी वापस से जीवंत हो उठता है ।      लेखक जी तुम क्या लिखते हो                                             सोनू चौधरी   हर बरस लिली का फूल अपना अलिखित निर्णय सुना देता है, अप्रेल में ही आऊंगा। बारिश के बाद गीली मिट्टी पर तीखी धूप भी अपना कच्चा मन रख देती है।  मानुष की रचनात्मकता भी अपने निश्चित समय पर प्रस्फुटित होती है । कला का हर रूप साधना के जल से सिंचित होता है। संगीत की ढेर सारी लोकप्रिय सिम्फनी सुनने के बाद नव्य गढ़ने का विचार आता है । नये चित्रकार की प्रेरणा स्त्रोत प्रकृति के साथ ही पूर्ववर्त...