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अंबर तृष्णा - गरिमा जोशी पंत

उपन्यासिका
भारत ही नहीं, अन्यत्र भी स्त्री- स्वातंत्र्य समस्यामूलक है। स्वत्व के लिए संघर्षरत स्त्री के समक्ष एकल जीवन का अवसाद और चुनौतियां होती हैं, तो दूसरी ओर अनुकूलित समर्पिताएं माडल की तरह पेश आती हैं। यह उपन्यासिका स्त्री जीवन के इन उभय- पक्षों  की गहरी पडताल करती है। मीमांसा के दो अंकों में विस्तारित इस कथा की बहती भाषा आपको बांधने में समर्थ है। इसी के चलते गरिमा ने पारदर्शिता के साथ इस संवेदनशील कथानक को प्रस्तुत किया है।

टीनू ने सिगरेट का आखिरी कश खींचा और फिर बीयर का गिलास उठा लिया। एक घूंट बीयर बची थी गिलास में बस। उसे एक सांस में गटका के वह बिस्तर पर औंधे मुंह जा गिरी। बिना बाहों का पतला टॉप और एक स्कर्ट पहने ही वह नींद के आगोश में जा रही थी। पता नही यह नींद का आगोश था या नशे का या फिर नशे ने ही नींद की थपकी दे दी। अलकनंदा पहले ही सो चुकी थी।
टीनू की सात साल की बेटी अलकनंदा। कितना ढूंढ कर रखा था उसने यह नाम। एक सहमा सा स्मित अलकनंदा के गोल चेहरे पर हमेशा बना रहता। उसने नींद में ही कुनमुना के एक बार मां की ओर देखा और फिर से सो गई। शायद सो ही गई होगी। यह माहौल तो अब उसके लिए एक आम बात है। उसे अब ताज्जुब नहीं होता की यह वही मां है जो उस से नाइट टाइम रिचुअल कराके ही उसे सुलाती थी। नाइट सूट पहनो, दांत ब्रश करो, भगवान जी से सबके लिए प्रेयर करो, मम्मा को किस करो और स्टोरी बुक पढ़ते पढ़ते सो जाओ। अलकनंदा को अभी कहां पढ़ना आता था। इसलिए मां उसे कहानी सुनाती थी किताब में से। कभी मां भालू की आवाज निकालती तो कभी राजकुमारी की। और बदलती आवाज के साथ ही मां के चेहरे के आंखों के हाव भाव भी बदलते चले जाते। कहानी सुना कर मां कहती " नाउ स्लीप टाइम" और अलकनंदा को थपकी देती और अलकनंदा सचमुच सो जाती। इतने आज्ञाकारी अनुशासित बच्चे तो बस पेरेंटिंग की किताबों में मिलते हैं पर अलकनंदा शायद वही बच्चा थी जो पेरेंटिंग बुक्स में से निकल कर आई थी और वैसे  देखा जाए तो तृष्णा मजूमदार उर्फ़ टीनू वह मां जो पेरेंटिंग किताबों में दिए टिप्स पर मोहर लगा उन्हें अक्षरशः सही साबित करती थी। पर नाम पर ना जाएं। उसका नाम तृष्णा है, यह तो औपचारिक प्रपत्रों को ही पता है बस। टीनू नाम से ही वह जग विख्यात है।


टीनू आधी रात को एक बार उठी। उसका सिर भारी था। उसने बमुश्किल आंखें खोले रखने की कोशिश की। ट्यूबलाइट पूरे चकाचौंध से जली हुई थी। साथ में ही वह लैंप भी जिसके नीचे बैठ टीनू ने एक कागज़ पर कुछ आधा अधूरा सा लिख छोड़ा था। उसने सिर को पकड़े पकड़े और अधमुंदी आंखों से अलकनंदा की ओर देखा। फुल ब्लास्ट एसी की ठंडक में पलंग की दूसरी ओर बच्ची सिकुड़ के सो रही थी। उसे पलंग के बीचों बीच खिसका के उसने बिछाने की चादर से ही उसे ढका दिया। लड़खड़ाते कदमों से बाथरूम तक गई और लौट के आ फिर से बिस्तर पर आ गिरी और खुद भी बिछाने वाली चद्दर के अंदर सिमट गई। 
हाय हाय! वो लेस लगी, बड़ी सुरुचि से खरीदी गई, फूलों और एनिमेटेड कैरेक्टर्स से सज्जित नरम, मुलायम ओढ़ने की चद्दर न जाने कौनसी अलमारी या बॉक्स बेड में दुबकी पड़ी है जिसे देखकर कभी मिसेज बेदी ने अंबर के बहुत करीब आ कर उससे कहा था, "हेय अंबर, यू हैव एन आई फॉर एवरीथिंग ब्यूटीफुल” (तुम्हारे पास हर खूबसूरत चीज के लिए नजर है अंबर)। थे तो ये महज कुछ शब्द पर शब्दों में हरकत होती है, उनके अपने हाव भाव होते हैं, उनका अपना स्पंदन होता है और उनका यह स्पंदन तिरोहित, आरोहित, अवरोहित हो फैल जाता है। कैसे कुछ शब्दों से पिरोया एक वाक्य एकार्थी हो कर भी कितने अर्थ ले लेता है।  
"ये तो इनकी नजर का कमाल है," अपनी नई नवेली बीवी टीनू की ओर इशारा करते हुए और मिसेज बेदी से दूरी बनाते हुए भी नजदीक होते हुए अंबर बोला। यही तो हुनर है उसमें। वह दूर होकर भी लोगों को खासकर महिलाओं को अपनी ओर खींच लेता है। उसकी आंखें शरारती सी हैं। एक कशिश है उसमें, उसकी बातों में, अंदाज में। टीनू भी इसे मानती है। "एंड दिस लेस वर्क इज द मैजिक ऑफ हर ब्यूटीफुल फिंगर्स" (यह लेस वर्क तो इनकी खूबसूरत अंगुलियों का जादू है), यह कहते हुए उसने टीनू का हाथ अपने हाथ में ले पार्टी में सबके सामने चूम लिया था। कितना प्रेमावेश था उसमें।  टीनू भी कोई शर्माती लजाती नव वधू नहीं थी। वह भी प्रत्युत्तर में अंबर के हाथ को थोड़ा ऊपर लेजा कर घूम के उसकी बाहों में खुद ही आ गई थी और मद्धिम संगीत की धुन पर दोनों आंखों में आंखें डाले, बाहों में बाहें डाले झूमने थिरकने लगे थे। यह पार्टी का असल आगाज था। जाम, संगीत, कहकहे, झूमना, एक समां बंध गया था। रॉयल ब्लू सूट और सफेद चमचमाते जूतों की तहजीब में बंधा अंबर उस सभा का इंद्र था तो पीच एंड गोल्ड साड़ी में सजी लिपटी टीनू उस इंद्र की अप्सरा। बैकलेस स्लीवलेस ब्लाउज में से टीनू की पृथुल गोरी सुनहली बाहें उसके सुनहरे ब्लाउज के साथ एकसार हो रही थी। वह कोई दुबली छरहरी सिमटी सकुचाती बाला न थी। उस दिन से ठीक एक महीना पहले उसने टीवी रिपोर्टर की नौकरी को शादी की वजह से अलविदा कह दिया था। यह उसका अपनी स्वेच्छा से लिया हुआ फैसला था। आज शादी को 20 दिन बीत गए थे इसलिए पति पत्नी ने पार्टी रखी थी। 
स्त्री देह को मापदंडों में बांधने वाले नियमों को धता बताने वाली टीनू में भी अपना एक अलग ही आकर्षण था जिसकी धुरी थी उसकी बेपरवाह बिंदासी और बेतकल्लुफी। पर इस बात को तो एक दशक बीत गया। आज तो टीनू बिछानेवाली चादर में एक पैर डाले और एक बांह बाहर निकाले औंधे मुंह पड़ी है। वैसे देखा जाए तो बेतकल्लुफी तो आज भी है‌ बस उसके मायने अब बदल गए हैं।
टीनू की नींद आज जल्दी खुल गई। बहुत सुबह। उसकी आदत के विपरीत बहुत सुबह। सोते रहो तो परेशानियां भी हल होने का सपना देखने लगती हैं। अनिद्रा की बीमारी इसीलिए तो बुरी है कि परेशानी की एक बेल विचारों के बरगद का सहारा ले घनीभूत हो जाती है, एक विषाक्त बेल में तब्दील हो जाती है, जिस पर कांटे तो लगते ही हैं, साथ ही लगती हैं विषाक्त बेरियां। फट कर जिनके बीज छिटक जाते हैं दूर दूर तक और परेशानियां पनपती रहती हैं जीवन की हर छोटी मोटी दरार से। तो टीनू की नींद आज बहुत सुबह खुल गई। वह इतनी जल्दी सुबह नहीं होने देना चाहती थी। उसने सोने की बहुत कोशिश की पर नींद उस से भाग रही थी। उसने बिस्तर छोड़ दिया। बीयर की झूम अब तक थी, सिर का भारीपन भी। वह किचन में घुसी। आज एक नई सुबह हो सकती थी, एक उजली सुबह, गरम पानी में नींबू और शहद वाली सुबह, योग प्राणायाम वाली सुबह, प्रकृति निहार,विहार वाली सुबह। पर टीनू एक नई उजली सुबह शायद लाना ही नहीं चाहती। उसने स्याह रंग चुन लिए हैं अपने लिए। यह भी तो एक अंदाज होता है। उसने बिन शक्कर, बिन दूध वाली स्ट्रॉन्ग ब्लैक कॉफी बनाई और उसे घूंट घूंट पीने लगी। 
     ब्लैक कॉफी! यह तो अंबर की पसंद थी। थी क्या अब भी होगी, बल्कि अब भी है। टीनू को तो चिढ़ थी ब्लैक कॉफी से। "क्या यार अंबू, क्या है इस कॉफी में। मुंह कड़वा करने का काढ़ा। ना दूध, ना शक्कर। बड़े लोगों का चोंचला लगता है मुझे तो यह। बल्कि यूं कहना चाहिए कि अमीर लोगों का गरीब चोंचला। अरे पीना ही है तो अदरक वाली चाय पियो, दूध से लबरेज। ऊपर से मलाई मारकर। उम्म्म! जन्नत है जन्नत!" आंखें मूंद और गर्दन को हिलाते हुए टीनू ने ऐसे कहा जैसे सचमुच जन्नत में खड़ी हो। "तो मैडम बना देते हैं आप के लिए मलाई चाय की एक प्याली अदरक वाली। कट वाली चाय हमने भी बहुत पी है, वड्डे घर के होकर भी” ‘वड्डे घर’ पर खासा जोर देते हुए अंबर ने कहा। प्यार से एक पप्पी जड़ दी थी टीनू ने अंबर के गाल पर। चाय बनाते बनाते अंबर बोला था, "टेस्ट डिवेलप करना पड़ता है ब्लैक कॉफी के लिए और एक बार जो ये टेस्ट बन गया तो सब मलाईदार चाय भूल जाओगी, बड़े घरवाली बन जाओगी।"


   सच तो था अंबर एक बहुत पढ़ा लिखा ऊंचे खानदान का लड़का था। पिता नौकरीपेशा थे, खुद भी नौकरी करता था। नौकरी ऊंची थीं पर पुश्तैनी रूप से भी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ थी। वहीं टीनू के पिता की नौकरी छोटी सी प्राइवेट नौकरी थी और तिसपर बहुत पहले एक भीषण दुर्घटना की चपेट में आ बिस्तर पे आ गए थे। नौकरी छूट गई थी। टीनू और उसका भाई छोटे ही थे और पढ़ने लिखने में साधारण से थे। कुछ समय प्रोविडेंट फंड के पैसों से ठीक ठाक निकला, कुछ सेविंग में लगा दिया गया। टीनू ने तब ग्रेजुएशन किया ही था। और फिर नौकरी ढूंढने लगी। भाई छोटा ही था, पढ़ ही रहा था। मीडिया की नौकरी का इश्तहार देख टीनू ने भी अप्लाई किया था। परिस्थितियों ने टीनू के आत्मविश्वास को बढ़ा दिया था क्योंकि परिस्थितियां अनुकूल बनाने के लिए उसका नौकरी करना जरूरी था इसलिए आत्मविश्वास स्वतः बढ़ने लगा। नौकरियां तो और भी थीं पर उनमें सैलरी उतनी अच्छी ना थी। अप्लाई किया और सिलेक्शन भी हुआ। पत्रकारिता, मीडिया एक संपर्क बनाने वाला क्षेत्र है, इसमें सृजनात्मकता के साथ साथ, तरकीब, चतुराई, चाटुकारिता और एक अपरिभाषित कुटिलता का सही अनुपात भी चाहिए। यहां एक चकाचौंध है जिसमें खुद को अंधा होने से बचाना है। हां और ना कहने का एक वैदुष्य भी चाहिए। टीनू भले ही एक साधारण विद्यार्थी रही होगी पर उसके भीतर सुप्त प्रतिभा के अंकुर मीडिया के क्षेत्र में आ फूटे। शायद उन सुप्त अंकुरों को यहीं वह उपजाऊ जमीन मिली थी। उसने परिवार का भार अपने कंधों पर ले लिया था। पिता कुछ समय में चल बसे। टीनू की वजह से वे सुकून से गए होंगे। 
इसीलिए साधारण पृष्ठभूमि की होकर भी टीनू में असाधारण आत्मविश्वास आ गया था, एक अद्वितीय निखार उसके व्यक्तित्व में था। और यही कारण था कि किसी चकाचौंध से उसकी आंखें चुंधियाती नहीं थी। तब भी नहीं जब अपने से बहुत बड़े परिवार में उसकी शादी हुई।
टीनू और अंबर का प्रेम विवाह था। एक स्वजातीय प्रेम विवाह। दोनों एक पारिवारिक विवाह समारोह में मिले थे। लड़की वालों की तरफ से थी टीनू और लड़के वालों की तरफ से अंबर। लड़के लड़कियों की आपसी चुहलबाजियों, हंसी मजाकों के बीच न सिर्फ टीनू अंबर की दोस्ती हुई बल्कि आपस में कई दोस्तियां हुईं जैसे टीनू की अंबर के कई चचेरे ममेरे हमउम्र भाई बहनों से और अंबर की टीनू के दोस्तों और भाई बहनों से। दोस्ती में एक उन्मुक्तता थी। आजकल के युवाओं की उन्मुक्तता जहां मिलते ही गले लगना एक आम बात है। यह समय थोड़ा और पीछे का होता तो लोग प्रश्नचिन्ह लगाते, “क्या चल रहा है इनके बीच?" पर अब तो समय बदल रहा था। उस "थोड़े पीछे समय" के कुछ लोगों ने यह प्रश्नचिन्ह फूंका भी और उन्मुक्त युवाओं ने "हम अच्छे दोस्त हैं" कहकर यह प्रश्न ऐसे ही बेपरवाही से झाड़ दिया जैसे खेलते हुए बच्चे अपने कपड़ों पर से धूल झाड़ देते हैं। टीनू अंबर के दोस्तों के दायरे बढ़ते जा रहे थे। एक दूसरे के भाई, बहन, दोस्त, सहेलियां, भांजे, भतीजियां सब इन दायरों में आ रहे थे।
अंबर पार्टियों की जान था। लड़कियां क्या, लड़के क्या, बड़े क्या, छोटे क्या, सब मुरीद थे उसके, उसकी दिलेरी के, अंदाज के। वह जुमले फेंकता और लोग लूटते। उसके जुमले सड़कछाप नहीं थे। वे कभी शेक्सपियर की किताबों से निकल कर आते, तो कभी प्रसाद की कामायनी से। बॉलीवुड, हॉलीवुड, कॉमिक्स, कार्टून्स क्या छूटा था अंबर से। और कौन छूटा उसके प्रभाव से। मिसेज बेदी उसके बॉस की पत्नी थी। अंबर के कई मुरीदों में से एक। वह मिसेज बेदी के साथ नाचता और फिर घूमते हुए मिस्टर बेदी के हाथ में उनका हाथ देते हुए कहता, “सौंदर्य का अनुपम गह्वर संग तुम्हारे हर क्षण, हर पल। पुरुष पुरातन, नजर फेर किस कारण तुम यूं खड़े हो प्रियवर!!" सभा ठहाकों से गूंज जाती। मिस्टर बेदी जैसे शुष्क इंसान के गंभीर चेहरे पर भी एक स्मित फैल जाता और चाहे थोड़ी देर के लिए ही सही वे मिसेज बेदी के साथ पार्टी में झूम लेते। मिसेज बेदी कनखियों से अंबर को देखती रहती और अंबर की नजर मिसेज बेदी के साथ साथ और कइयों पर। और टीनू की नजर इन सब पर। उसे अंबर की दिलेरी कभी लुभाती, कभी डराती। वह हर दिन खुद को उस से दूर करना चाहती और फिर अगले ही दिन खुद को अंबर के मोहपाश में बंधा पाती। आखिर क्यों? क्या वह अपनी मध्यमवर्गीय मानसिकता के चलते घर बसा लेना चाहती थी अपनी जाति अपने समाज में।
एक प्रतिष्ठित परिवार का उसी की जाति समाज, क्षेत्र का सफल, नयनाभिराम नौजवान उसके सामने था जो उसका अच्छा दोस्त भी था, शायद उसे पसंद भी करता हो। क्या वह छोटी सी उम्र से घर की जिम्मेदारी उठाते उठाते थक गई थी? या फिर उसे यह स्वछंदता लुभाती थी? कोई वर्जना नहीं, कोई बंदिश नहीं, बस खाओ, पियो, नाचो किसी के भी साथ!! अपनी नौकरी में चकाचौंध उसने भी देखी है। वहां कितने उसके दीवाने बने। वहां कितना उसने खुद को संभाले रखा। फिर यह कैसा आकर्षण था। अंबर में गंभीरता नहीं थी। लड़कपन ज्यादा था। गंभीरता सिर्फ अपने काम को लेकर थी। उसे स्त्रियों का साथ अच्छा लगता था। वह खुले आम इसे कहता था। कोई दुराव छिपाव नहीं। मां बाप शादी के पीछे पड़े थे। बहन रिश्ते ढूंढ रही थी। अपनी पसंद की शादी करने की इजाज़त भी थी घर से। टीनू की सारी सहेलियां अंबर को देख आहें भरतीं। "यार दिल का राजा है। टीनू तेरी तो कास्ट का है। तेरा ही हो जायेगा। कितनी दुनिया बदली हो। अभी भी अपने समाज में शादी लोग चाहते ही हैं। कौन लकी गर्लफ्रेंड होगी इस लेडी किलर की यार।" सब कयास लगातीं। टीनू की मां, मौसी, रिश्तेदार भी अब चाहते थे कि टीनू विवाह कर ले। विवाह प्रस्ताव भी आने लगे थे। भाई अब कमाने लगा था। "सही उम्र" में सेटल हो जाओ की मानसिकता का दबाव अनजाने में ही सही हावी हो जाता है। 
टीनू को स्वछंदता चाहिए थी, उन्मुक्तता चाहिए थी पर उसके अंदर बरसों से पाली पोसी एक मध्यमवर्गीय लड़की भी रहती थी जिसमें परिस्थितिवश बिंदासी थी, निडरता थी, अति आधुनिकता का आवरण था पर उसका एक सालों से बना अवतार था जिसमें उसे ऊंचाई से डर लगता था, स्पीड से डर लगता था। जो मर्यादा तोड़ मर्यादा में जीना चाहती थी। जब अंबर के दोस्त अंबर को कहते, “यार तू और टीनू कर लो शादी”,तो टीनू के तन मन में एक गुदगुदी सी दौड़ जाती। और जब प्रत्युत्तर में अंबर कहता "चल टीनू आज मंदिर में जा एक हो जाते हैं, बोल हनीमून के लिए कहां चलेगी?" तो उसकी कल्पना के जंगली घोड़े पल भर के लिए ही सही मर्यादाओं की दीवार लांघ जाते। तब वह सचमुच टीनू नहीं होती, वह तृष्णा मजूमदार होती, एक तृष्णार्त जो मरीचिका में भटक रही है, अंबर की एक बूंद के लिए।
 पर अंबर तो अनंत है, उसका ओर छोर कहां। वह कोई बंधन स्वीकार नहीं करता पर विशाल है, उन्मुक्त है, स्वच्छंद है। वो सब के लिए है। हर लड़की से वह खुले आम यही बात कह देता है, टीनू से भी।    
और एक दिन टीनू ने ही उससे पूछ लिया, "सुनो अंबर, शादी करोगे मुझसे? आई एम सीरीयस।" 
"सोच के बताता हूं" अंबर ने कहा था और एक घंटे में सब दोस्तों को कैफे कॉफी डे में बुला लिया था। सबके सामने उसने घुटनों पर जा टीनू को प्रपोज किया । दोनों के दोस्त, सहेलियां, भाई बहन इसके साक्षी बने। माता पिता से भी बिना कोई अड़चन इजाजत मिलनी तय थी। उस दिन सब खुश थे। दोस्तों के साथ कहकहे लगाते हुए अंबर की ओर टीनू प्यार से देख रही थी। उस दिन टीनू ने अपनी दूध वाली वैनिला लाटे में एक्स्ट्रा चीनी डाली थी। आखिर खुशी का दिन जो था। उसने अंबर को पा लिया था। अंबर तो तब भी ब्लैक कॉफी ही पी रहा था।
अंबर कहां बदलता है। तृष्णा बदलती रहती है। इसीलिए तो आज की सुबह तृष्णा मजूमदार बीन बैग पर अध पसरी सी बिना दूध शक्कर की ब्लैक कॉफी पी रही है। एक कोने में बिन तह लगे कपड़ों का ढेर उसे तक रहा है। सूरज चढ़ आया है। अलकनंदा अब भी सो रही है और दरवाज़े की घंटी बजी।
क्रमशः

गरिमा जोशी पंत
अध्ययन के बाद अध्यापन
फिलहाल गृहिणी के दायित्व निर्वहन के साथ लेखन
सोशल मीडिया और प्रिन्ट में रचनाएँ प्रकाशित, दो पुस्तकों के अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद
संपर्क- 9826416847










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रंगमंच  समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान -1                                         राघवेन्द्र रावत  समकालीन हिंदी रंगमंच के बारे में बात बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध से भी की जा सकती थी लेकिन मुझे लगता है कि उससे पूर्व के भारतीय रंगमंच के परिवर्तन की प्रक्रिया पर दृष्टिपात कर लेना ठीक होगा | उसी तरह राजस्थान के समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करने से पहले भारतीय हिंदी रंगमंच पर चर्चा करना जरूरी है, और उससे भी पहले यह जानना भी आवश्यक है कि वस्तुतः रंगमंच क्या है ?और रंगमंच के बाद हिंदी रंगमंच और उसके बाद समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करना एक उचित क्रम होगा भले ही यह मेरे अध्ययन की गरज ही लगे | राजस्थान के रंगमंच पर बात करना इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि इस पर हिंदी साहित्य की तरह चर्चा नहीं हुई चाहे वह आलोचना की दृष्टि से देखें या इसके इतिहास की नज़र से देखें | दो वर्ष पहले ‘जयरंगम’ नाट्य समारोह के एक सेशन में बोलते हुए वरिष्ठ रंग एवं फिल्म समीक्षक अजित राय ने कहा था-“ पता नहीं कौन सा नाटक...

भूलन कांदा : न्याय की स्थगित तत्व- मीमांसा

वंचना के विमर्शों में कई आयाम होते हैं, जैसे- राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक इत्यादि। इनमें हर ज्ञान- अनुशासन अपने पक्ष को समृद्ध करता रहता है। साहित्य और कलाओं का संबंध विमर्श के सांस्कृतिक पक्ष से है जिसमें सूक्ष्म स्तर के नैतिक और संवेदनशील प्रश्न उठाये जाते हैं। इसके मायने हैं कि वंचना से संबंद्ध कृति पर बात की जाये तो उसे विमर्श के व्यापक परिप्रेक्ष्य से जोडकर देखने की जरूरत है। भूलन कांदा  को एक लंबी कहानी के रूप में एक अर्सा पहले बया के किसी अंक में पढा था। बाद में यह उपन्यास की शक्ल में अंतिका प्रकाशन से सामने आया। लंबी कहानी  की भी काफी सराहना हुई थी। इसे कुछ विस्तार देकर लिखे उपन्यास पर भी एक- दो सकारात्मक समीक्षाएं मेरे देखने में आयीं। ऐसी ही प्रतिक्रिया रणेन्द्र के उपन्यास ग्लोबल गाँव के देवता को भी मिल चुकी थी। किन्तु आदिवासी विमर्श के संदर्भ में ये दोनों कृतियाँ जो बड़े मुद्दे उठाती हैं, उन्हें आगे नहीं बढाया गया। ये सिर्फ गाँव बनाम शहर और आदिवासी बनाम आधुनिकता का मामला नहीं है। बल्कि इनमें क्रमशः आन्तरिक उपनिवेशन बनाम स्वायत्तता, स्वतंत्र इयत्ता और सत्त...

'ब्लड ऑफ़ दी कॉनडोर' [ Blood of the Condor]

सिने -संवाद                                                                            ' ब्लड ऑफ़ दी कॉनडोर'  [ Blood of the Condor]                                          मनीष आजाद 1960 का दशक भारी उथल पुथल का दौर था। पूरे विश्व में समाज के लगभग सभी शोषित तबके व वर्ग अपनी पहचान व अधिकार हासिल करने के लिए शोषणकारी व्यवस्था से सीधे टकराने लगे थे। साहित्य, कला, संगीत इससे मूलभूत तौर पर प्रभावित हो रहा था और पलटकर इस संघर्ष में अपनी भूमिका भी निभा रहा था। अपेक्षाकृत नई कला विधा सिनेमा भी इससे अछूता न था। इसी दशक में यूरोपियन सिनेमा में ‘नवयथार्थवाद’ की धारा आयी जिसने फिल्म की विषयवस्तु के साथ साथ फिल्म मेकिंग को भी मूलभूत तौर पर बदल डाला और यथार्थ के साथ सिनेमा का एक नया रिश्ता बना।  लेकिन...

लेखक जी तुम क्या लिखते हो

संस्मरण   हिंदी में अपने तरह के अनोखे लेखक कृष्ण कल्पित का जन्मदिन है । मीमांसा के लिए लेखिका सोनू चौधरी उन्हें याद कर रही हैं , अपनी कैशौर्य स्मृति के साथ । एक युवा लेखक जब अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी के उस लेखक को याद करता है , जिसने उसका अनुराग आरंभिक अवस्था में साहित्य से स्थापित किया हो , तब दरअसल उस लेखक के साथ-साथ अतीत के टुकड़े से लिपटा समय और समाज भी वापस से जीवंत हो उठता है ।      लेखक जी तुम क्या लिखते हो                                             सोनू चौधरी   हर बरस लिली का फूल अपना अलिखित निर्णय सुना देता है, अप्रेल में ही आऊंगा। बारिश के बाद गीली मिट्टी पर तीखी धूप भी अपना कच्चा मन रख देती है।  मानुष की रचनात्मकता भी अपने निश्चित समय पर प्रस्फुटित होती है । कला का हर रूप साधना के जल से सिंचित होता है। संगीत की ढेर सारी लोकप्रिय सिम्फनी सुनने के बाद नव्य गढ़ने का विचार आता है । नये चित्रकार की प्रेरणा स्त्रोत प्रकृति के साथ ही पूर्ववर्त...