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अंबर तृष्णा -2 : गरिमा पंत जोशी

उपन्यासिका
भारत ही नहीं, अन्यत्र भी स्त्री- स्वातंत्र्य समस्यामूलक है। स्वत्व के लिए संघर्षरत स्त्री के समक्ष एकल जीवन का अवसाद और चुनौतियां होती हैं, तो दूसरी ओर अनुकूलित समर्पिताएं माडल की तरह पेश आती हैं। यह उपन्यासिका स्त्री जीवन के इन उभय- पक्षों  की गहरी पडताल करती है। मीमांसा के दो अंकों में विस्तारित इस कथा की बहती भाषा आपको बांधने में समर्थ है। इसी के चलते गरिमा ने पारदर्शिता के साथ इस संवेदनशील कथानक को प्रस्तुत किया है।

दरवाजे की घंटी बजी...
अपनी अनमनी अवस्था की तंद्रा से जाग टीनू ने हठात ओढ़े हुए अवसाद के कंबल को दूर फेंका। अवसाद से अधिक तो अनमानापन था। सच पूछा जाए तो वह एक नौसिखिया नटी की भांति एक पतली रस्सी पर चल रही थी जिसकी एक और थी अवसाद की गहरी खाई और दूसरी ओर अनमनेपन की। पर खाई तो थी। और ये ज़िद की खाई थी। एकाकीपन की ज़िद। खुद को अवसाद में आकंठ डुबो देने की ज़िद। 
उसने अपने बेतरतीब कपड़ों को ठीक किया और दरवाजा खोला। 


"जी मैं दिव्या", दरवाज़े पर खड़ी युवती ने कुछ सकुचाते हुए कहा। टीनू कुछ और पूछती, इससे पहले ही युवती अपने दुपट्टे को दोनो कंधों पर ऊंचा उठाते हुए फिर बोल पड़ी, "मित्तल आंटी की बहू।" टीनू की प्रश्नवाचक मुखमुद्रा समझ कर उसने कहा, "पुष्पा आंटी, पुष्पा मित्तल हैं ना, उनकी बहू।” टीनू के चेहरे के भाव पढ़कर उसने फिर से कहना शुरू किया, “वैसे तो वे जगत आंटी हैं, सब उन्हें जानते हैं, आप भी जान जाएंगी धीरे धीरे। जो उस दिन आई थी ना आपसे इलेक्ट्रीशियन का नंबर मांगने, और आपका एक्सटेंशन बोर्ड लेकर गई थीं, वही। मैं वो बोर्ड वापस करने आई थी। थैंक यू।" इस बार वह अपने हाथ के कंगनों को दूसरे हाथ से घुमा रही थी। यह सब उसकी सकुचाहट को विस्तार दे रहे थे। इसे ही शायद "बॉडी लैंग्वेज" कहते हैं। उसने गुलाबी रंग का कॉटन का कुर्ता पहना था जिस पर बैंगनी रंग के कैरीनुमा ब्लॉक प्रिंट थे। बैंगनी सलवार थी और इन दोनों रंगों के मेल से बना चौड़ा कॉटन का दुपट्टा जिसे फैला कर उसने दोनों कंधों पर पूरी छाती को ढकते हुए डाल रखा था। माथे पर छोटी सी बिंदी थी। भवें ब्यूटी पार्लर से संवारी लगती थीं। रंग गोरा और साफ था। मांग में स्टिक से लगाई सिंदूर की एक रेखा थी जो मांग में कम, माथे पर ज्यादा थी। कुल मिलाकर, एक सामान्य घरेलू युवा महिला का प्रतिरूप।
"ओह, अच्छा अच्छा", टीनू ने बोर्ड लेते हुए कहा। इस समय टीनू एक सामान्य औरत थी। वह नटी नहीं जो अनमनेपन और अवसाद की नाज़ुक रस्सी पर चल रही हो क्योंकि यदि ऐसा होता तो वह, बोर्ड लेकर दरवाज़ा उसके मुंह पर मार सकती थी। उसकी बला से! उसके बारे में कोई कुछ भी राय बना ले। पर नहीं, उसने मुस्कुरा के कहा, "इसमें थैंक यू की क्या बात है।"
वैसे यह एक समयोचित औपचारिक मुस्कान थी। टीनू दिव्या से कोई मेल मिलाप बढ़ाना नहीं चाहती थी पर दिव्या दरवाज़े पर ऐसे खड़ी थी की किसी को भी समझ आ जाए कि वह सिर्फ बोर्ड लौटा कर दरवाज़े से ही जाने को नहीं आई है। शायद वह एक बिंदास एकल स्त्री, एक स्वच्छंद आधुनिक एकल मां के जीवन में झांकना चाहती थी जो कुछ समय पहले ही अपने पति से अलग हो गई थी। जो फर्राटे से कार चलाती है। पर कार तो दिव्या भी चलाती है। बस फर्क यह है कि वह काला चश्मा नहीं पहनती। दुपट्टा डाल कर, साड़ी पहनकर और कभी सास को मंदिर ले जाते समय तो सिर भी ढक लेती है। क्या उसकी अपनी कुंठाएं भी थीं जिन्हें वह किसी हमउम्र से बांटना चाहती थी।
टीनू ने भी वचन या भंगिमा किसी से भी कोई प्रतिकार तो नहीं किया, उल्टा मुस्कुरा कर स्वागत ही किया दिव्या का। आखिर क्यों? क्या उसे एकाकीपन से डर लगने लगा है? अजीब बात है ना। फेसबुक पर 1500 से भी अधिक दोस्त हैं टीनू के। किसी समय पर उसकी पार्टियों की शान बढ़ाने वाली इतनी "सोशल बटरफ्लाइज" जो उसकी आर्ट के पीछे पागल हैं, लैवेंडर की मस्त खुशबू में महकती उसका हाथ दबा कर कहती थीं, "वी आर जस्ट ए फ़ोन कॉल अवे स्वीट"(प्रिय, हम एक फोन के फासले भर पर हैं) और फिर भी वह अकेली है।
दिव्या ने चप्पल बाहर उतार कर घर में प्रवेश किया। टीनू को जैसे कुछ छूटा हुआ सा याद आ गया। एक बचपन के रिवाज़ सा।
बैठक में सोफा था। एक कार्पेट पर डायरी खुली पड़ी थी। एक कोने पर चाक और गीली मिट्टी थी। कुछ अनगढ़ से पॉटरी पीसेस जिन्हें चाक पर चला कर टीनू ने बनाया था, इधर उधर पड़े थे। पेंटिंग के ब्रश और प्लेट पर सूख गए कुछ घोले हुए रंग। कमरा बिखरा सा था पर दिव्या को उसमें एक अलग सी ही कलात्मकता दिखी। एक बिंदासी। एक मनमानी। अपनी खुद की तरतीब से रखी सुघड़ गृहस्थी से अलग जहां वह एक डंडे के सिरे पर कपड़ा बांधकर फटकती रहती है फर्नीचर, दीवार, मकड़ी के जाले, दरवाजे, कांच पर जमी धूल और उसके साथ ही पटकती रहती है अपना सिर घर की चारदीवारी से। उसे इस फैले कमरे में एक कलात्मक तिलिस्म की सी अनुभूति हुई।
“ओह तो आप पॉटरी भी करती हैं? और पेंटिंग भी? आर्टिस्ट हैं?" उसने टीनू से पूछा।
"बस ऐसे ही टाइमपास" फर्श पर गिरी एक रंग की बोतल को उठाते हुए टीनू ने कहा। गिरे हुए रंग को उसने नजर बचाते हुए कार्पेट से ढक दिया। और क्या सबूत चाहिए था उसके चैतन्य होने का। पर वह जानबूझकर उस चैतन्यता का अनुभव नहीं करना चाहती। 
"बैठिए", टीनू के ऐसा कहते ही दिव्या बैठ गई सोफे पर। "मम्मी जी मतलब मेरी सास कह रही थी आप टीवी पर काम करती थी", दिव्या ने बड़े कौतूहल से पूछा जैसे कि वह किसी बहुत बड़ी सेलिब्रिटी का साक्षात्कार ले रही हो। "बहुत सालों पहले", शादी से पहले, टीनू ने अपनी हथेलियों को देखते हुए कहा।
"हाँ शादी के बाद बहुत कुछ बदल जाता है। मैंने जियोग्राफी में एमए किया था। गोल्ड मेडल मिला था। मैं ब्यावर से हूं। पीएचडी करने अजमेर जाना चाहती थी। पापा तैयार भी हो गए थे। फिर शादी का रिश्ता आ गया। एक बार में ही इन्होंने पसंद कर लिया मुझे", आखिरी वाक्य को एक उपलब्धि का जैसा मानते हुए कहा दिव्या ने। इंजीनियर लड़का एक नज़र में फिदा हो जाए इसके आगे एक लड़की का गोल्ड मेडल क्या चीज है। वो भी छोटे शहर की लड़की। “पापा ने कहा जो करना है अब शादी के बाद करना, लड़का शादी जल्दी चाहता है। फिर क्या नौ महीने में तो मेरी गुड्डन हो गई थी। वैसे ये और मेरे सास ससुर लड़की लड़के में कोई भेद नहीं करते पर मेरे ससुर जी को था कि दिव्या तो ऐसी लक्ष्मी बहु है कि देखना इसको बेटा तो जरूर होगा। मम्मी जी ने पंडित जी को कुंडली दिखा दी। हर गुरुवार निर्जल व्रत करने बोले थे पंडित जी तीन महीने तक। तब गुड्डन मेरा दूध पीती थी। बहुत कमजोरी लगती थी। रात को मम्मी जी पापा जी गुड्डन को अपने पास ले जाकर उसका ध्यान रख लेते थे। पर फिर ये तंग करते थे। बस तबसे ये तो पीछे पड़ गए और डेढ़ साल में चीनू आ गया गोद में। इन्होंने करा दी सारी पीएचडी। माफी भी मांगते थे बेचारे पर कहते थे क्या करूं कंट्रोल ही नहीं होता तुम्हें देखकर।" एक ही मुलाकात में ऐसी अंतरंगता सिर्फ स्त्रियां ही एक दूसरे को सौंप सकती हैं। पुरुष लंपट हो तो भी बहुत सी बातें छिपा जाता है। वह तभी ऐसी बात उन लंपट दोस्तों से साझा करेगा जब वह किसी स्त्री को फँसा उसका फायदा उठा उसे बेवकूफ बना रहा हो और उस बेवकूफ स्त्री के चरित्र को लांछित करने में ही उसे सुख मिलता हो। 
दिव्या की इन बातों में लाज थी तो कभी लाचारी पर साथ में एक छिपी हुई गर्वोक्ति भी थी जो ये दिखाना चाह रही थी कि उसने कैसे अपने रूप से बांध रखा है पति को, अपने आचरण से जीत रखा है सास ससुर के मन को। टीनू को उसकी इन गवारूं बातों पर कोफ़्त सी होने लगी। उसे लगा कलर मिक्सिंग प्लेट को उसके सिर पर दे मारे और पूछे कि ‘यह तुम्हारी उपलब्धि है कि एक आदमी ने, उसके घरवालों ने तुम्हारी मर्जी के खिलाफ मातृत्व की बेड़ियां पहना कर तुम्हारी आजादी छीन ली, तुम्हारा करियर चौपट कर दिया और तुम अपने रूपसी होने के भ्रम में इतरा रही हो। तुम इंसान हो या बेजान गुड़िया। बेवकूफ औरत! अपने पति की ज्यादती को आशिक होने का नाम दे रही हो। पागल कहीं की।’ पर टीनू अवसाद को भले ही ओढ़े रखना चाहती हो, वह चैतन्य है। इसलिए किसी के सिर पर कुछ दे नहीं मारेगी। वह पागल नहीं है। एक भ्रामक अवसाद में है और अवसाद पागलपन नहीं है। और खुद उसने क्या आवाज उठा ली थी अंबर को शेफाली की बांहों में देखकर? अपनी ही गहरी दोस्त शेफाली और अंबर को रंगे हाथ पकड़ कर भी उसने क्या कर लिया? जब सबने उसे आवाज उठाने को कहा तो उसने एक दार्शनिक जवाब दिया था, "अंबर को कोई कैसे रोकेगा, वह तो खुद प्रेम है। और प्रेम बंधना कहां जानता है। मैं उसे मुक्त करती हूं।" मदद के लिए आगे बढ़े लोगों के लिए यह उत्तर कितना कुढ़ा देने वाला था ठीक वैसे ही जैसे अभी दिव्या की बातों ने टीनू को कुढ़ा दिया था। मगर खुद को इंसान कहां देखता है और फिर अंबर ने भी तो टीनू से माफी मांग ली थी।
पर क्या टीनू ने अंबर को सचमुच माफ़ कर दिया था या खुद को भी सज़ा दे दी थी? सज़ा दुनिया से कट जाने की, सज़ा खुद को नशे में डुबो देने की, सज़ा एक खोल में घुस जाने की?अच्छा था कि वह अपने आत्मसम्मान के लिए अंबर को छोड़ कर आ गई। उससे अलग हो गई पर अपने आत्मसम्मान को ऊंचाइयों पर ले जाने के लिए उसने क्या किया? वह एक आर्टिस्ट है। उसका पति उसकी कला का आदर करता था। उसने ही कभी उसे अपनी आर्ट एग्जीबिशन लगाने के लिए प्रेरित किया था। कितनी वाहवाही बटोरी थी तब उसने। मगर अब। अब क्यों नहीं करती वह पूरी तन्मयता के साथ अपनी आर्ट?
क्यों अनगढ़ मटके कुल्हड़ बना के छोड़ देती है? क्यों आत्मविश्वास से अपने पैरों पर खड़ी नहीं होती?

अलकनंदा उठ गई थी। वह बाहर आई। उसके गोल चेहरे पर वही चिरपरिचित स्मित था। “गुड मॉर्निंग मम्मा" " नमस्ते आंटी", उसने दिव्या से कहा। 
"नमस्ते बेटा", एक वात्सल्य सा दिव्या की आंखों में उतर आया। "मम्मा मैं ब्रश करके आती हूं", कहकर अलकनंदा चली गई।
"कितनी प्यारी बेटी है आपकी। कितना प्यारा बना रखा है आपने उसे। कितने अच्छे संस्कार दिए हैं। मम्मी जी को पार्क में मिली थी। चीनू और गुड्डन के साथ खेल रही थी। इसकी अच्छी अच्छी बातें सुनकर ही तो मम्मी जी को विश्वास हुआ कि इसकी मां बिचारी अच्छी... " कहते कहते दिव्या रुक गई। 
दिव्या ने भले ही बात पूरी नहीं की पर टीनू समझ गई। क्यों किसी तलाकशुदा या परित्यकता को चुड़ैल समझते हैं लोग जब तक कि वह अपने सुसंस्कारों का परिचय ना देदे? और उसके बाद भी तो वह बेचारी, किस्मत की मारी ही समझी जाती है।
टीनू अनजान बनी बैठी रही।
"उम्म आपका..." दिव्या के इस अधूरे वाक्य को टीनू ने पूरा किया, "जी मेरा डाइवोर्स हो गया है। मैं और मेरे पति अब साथ नहीं रहते।"
दिव्या थोड़ा सकपका गई। "वो जो परसों आए थे....", "जी वे ही मेरे एक्स हसबैंड हैं", टीनू ने एक बार फिर दिव्या का अधूरा वाक्य पूरा किया। 
इस बार दिव्या सकपकाई नहीं बल्कि उसकी हिम्मत थोड़ी बढ़ गई। "बड़े डैशिंग लगते हैं वे तो। और जो लेडी आई थी उस दिन, आपकी सास हैं क्या?" टीनू ने आंखों के इशारे से हामी भरी। "कितनी यंग और मॉडर्न लगती हैं। लगती नहीं दादी जैसी। आप की जोड़ी खूब लगती है वैसे। पता नहीं क्या हुआ होगा। दोनों ने आपको गले भी लगाया था। हमने देखा था खिड़की से। भगवान! किसकी नज़र लगी होगी रे। कोई और लड़की का चक्कर था क्या? इतने स्मार्ट हैं, कोई फांसना चाह री होगी।"
टीनू के मौन को हाँ समझकर दिव्या और बोलती चली गई जैसे उसे आज ही बोलने का मौका मिला हो। 
"मैं भले ही सीधी लगती होऊंगी पर ये किसी और को देखें आंखें नोच लूं इनकी भी और उसकी भी।" दिव्या तैश में बोली। पर दूसरे ही पल वह एकदम से नरम हो गई, "पर ये ऐसे हैं नहीं। मेरे अलावा इन्होंने किसी को आंख उठा के भी नहीं देखा कभी। बहुत भोले हैं। सामने से अप्सरा भी निकल जाए तो भी पता नहीं चलता इन्हें।" टीनू को थोड़ी ईर्ष्या हुई पर उसी पल एक ऐसे भोले भंडारी व्यक्ति की काल्पनिक छवि उसे गुदगुदा गई। उस विनोदी कल्पना में उसे दिव्या का पति एक ऐसा भोंदू सा आदमी लगा जिसकी तोंद निकली हुई है और उस तोंद पर शर्ट के बटन खुल जाते हैं। उसकी माँ अपने इस भोले लाडले को घी में तर लड्डू खिला रही है और वह बिना चूँ किए खा रहा है। उसके टिंगर पिंगर बच्चे उसके सिर पर रहे सहे बाल नोच रहे हैं और उसकी प्रेम दृष्टि अपनी पत्नी की साड़ी से दिखती कमनीय कटि‌ पर निबद्ध है।
टीनू को हंसी आ गई और अपनी इस हंसी को रोकने के लिए उसने अपनी दृष्टि दिव्या के पैरों की बिछिया पर निबध्द कर दी। मेंहदी से सजे गोरे पैरों की दूसरी अंगुली में घुंघरू वाले बिछिया सजे थे। टीनू की दृष्टि का पीछा करते करते दिव्या की दृष्टि भी अपने बिछिया तक चली गई। "इन्हें मेरा छम छम करके चलना ही पसंद है। इसलिए इस बार घुंघरू वाले बिछिया लाई मैं ढूंढ कर। बस चले इनका तो हमेशा साड़ी में ही रखें मुझे। कहते हैं कुछ भी पहन लो दिव्या पर साड़ी में तुम जितनी सुंदर लगती हो ना उतनी किसी और में नहीं लगती।"
टीनू के ईर्ष्या की जिस भाव सरिता को विनोद के पत्थर ने अभी कुछ देर पहले रोका था वह फिर बह निकली। अंबर उसे हर ड्रेस में सुंदर कहता था पर कभी उसने यह नहीं कहा कि यह पहनो ना आज इसमें तुम अप्सरा लगती हो। आज बाल खोल लो ना। उसने उसे सजने संवरने की स्वतंत्रता दे रखी थी फिर तृष्णा क्यों सजने संवरने के लिए अंबर का मुख देखती थी? क्यों उसकी आंखों में दर्पण खोजती थी?
अपनी ईर्ष्या की नदी को सुखाने के लिए उसने प्रश्न की दूसरी तोप दागी, "तुम्हारी पीएचडी का क्या हुआ फिर?"
"नहीं करने दे रहे। कहते हैं क्या करोगी पीएचडी करके। नौकरी करनी है क्या। क्या कमी कर रखी है। फिर भाई मुझे तो डर लगता है, कॉलेज जायेगी और लड़के लाइन मारने लगेंगे। मुझसे खून हो जायेगा किसी का क्योंकि मुझसे सहन नहीं होता कोई और देखे तुम्हें या फ्लर्ट करे तुम्हारे साथ", दिव्या बच्चों की सी तुनक और नखरे से बोल रही थी।  
टीनू के दिल में कुछ चुभ सा गया। अंबर ने उसे किसी भी अन्य पुरुष मित्रों से गले लगने, हंसी मज़ाक करने से, उनके साथ घूमने फिरने से कभी नहीं रोका। कभी अपना पजेसिव होना नहीं दिखाया। ये तो अच्छी बात थी पर टीनू को इस बात का दुख क्यों है? तृष्णा कभी स्वतंत्रता, कभी परतंत्रता क्यों चाहती है, आखिर क्यों ? 


"वैसे कभी कभी दुख भी होता है। कम ही लड़कियाँ जियोग्राफी जैसे कठिन विषय लेती हैं। मेरे साथ की चारों लड़कियां कॉलेज में लेक्चरर लग गईं जबकि उनके नंबर कम थे मुझसे। अपने पैरों पर खड़ी हैं न तो जैसा मन आए वैसा खरचती हैं। खूब घूमती फिरती हैं। खाना बनाने वाली बाई रखी है। खूब स्मार्ट हो गई हैं", दिव्या इस बार थोड़ी निराश हो बोल रही थी। "पर चलो ठीक है, अब तो मुझे भी नहीं लगता मैं पीएचडी कर भी पाऊंगी। क्या करना, ठीक तो चल रहा है सब।" इस समय कोई तीसरी आंख से देखता तो दुपट्टा ढांपे चारदीवारी से सिर पटकती, डंडे के एक छोर पर कपड़ा बांधे फर्नीचर की धूल फटकती दिव्या दिखती जो पति को सास ससुर को खुश रखने, बांधे रखने के लिए दिन भर लगी रहती है। 

पर आधुनिक सोच की टीनू उससे कहां अलग है। वह दुपट्टे से छाती नहीं ढकती, डंडे के छोर पर बंधे कपड़े से धूल नहीं फटकती तो क्या पौनी पैंट पहन कर पूरे घर को वैक्यूम करती रहती थी। किसलिए? पति को बांधे रखने के लिए? यदि ऐसा नहीं होता तो क्यों आज बिना तह किया कपड़ों का ढेर उसे ताक रहा होता? पहले जो अपने घर को इतना सजा संवार के रखती थी आज उसे इस सब से वितृष्णा क्यों हो गई? क्यूंकि अब कुछ बांधे रखने को नहीं रहा? टोने टोटके व्रत उपवास को आज सिरे से खारिज कर देने वाली तृष्णा क्यों एक अनारकली कुर्ते पर दुपट्टे से सिर ढांपे अपनी आधुनिक दिखने वाली सास के साथ किसी सिद्ध माने जाने वाले बरगद पर धागा बांधने गई? किस को बांधने के लिए, किस से बंधने के लिए? मगर ये सब बातें तो सिर्फ उसके अवचेतन मन को पता हैं और अवचेतन मन की सुनता कौन है। तभी तो वह चैतन्य होकर भी अपनी चेतनता को महसूस नहीं करना चाहती।
वह क्यों अनमनी रहती है, क्यों अवसाद को गले लगाना चाहती है?
सच है, उसका दिल टूटा था। उसके साथ धोखा हुआ मगर कब तक वह उसका शोक मनाती रहेगी? अंबर को अपने किए पर ग्लानि है पर टीनू को पता है उसे बांध पाना मुश्किल है। उसने तो अंबर को प्रेम शब्द से ही परिभाषित कर दिया जो कोई बंधन नहीं मानता। क्यों वह अलकनंदा के लिए नहीं जीती? वह दिव्या के परिवार को मातृत्व की बेड़ी पहनाने वाले जल्लाद का नाम देती है। पर क्या उसने खुद अलकनंदा को जीवन में लाने का फैसला इसीलिए ही नहीं किया था कि उससे वह अंबर को बांध लेगी? बच्चा उनके जीवन में एक ठहराव ले आएगा। अंबर बच्चा नहीं चाहता था मगर अपनी सब दलीलों में हारकर उसने टीनू की बच्चे की ख्वाइश पूरी की। वह अलकनंदा से प्रेम करता है, उसे दुलारता है पर एक पिता बनकर रह जाना उसकी फितरत नहीं। उसे शादी का बंधन नहीं चाहिए था पर मां, पिता, समाज, दोस्तों, बहनों और खुद टीनू ने उसे शादी की ओर ढकेल दिया और वह लुढ़क गया। उसे भी तटस्थ रहना चाहिए था। उसने टीनू से प्रेम भी किया, जिम्मेदारियों से कभी मुंह नहीं मोड़ा। पूरी ईमानदारी से टीनू को निर्वाह राशि देता है, बेटी से मिलने आता है पर वह अपनी फितरत के आगे हार गया। स्वछंदता ही उसकी फितरत है। 

अलकनंदा ने दूध कॉर्नफ्लेक्स खा लिया है। नहा भी लिया है। उसके बचपन के चेहरे पर बड़ों का सा स्मित है।
कितनी देर कर दी दिव्या ने आज। उसे कड़कदार आवाज़ में घर से बुलावा आ गया है। वह कांपती सी भाग रही है।
टीनू ने सिगरेट सुलगा ली है। और कोई समझे ना समझे सात साल की अलकनंदा जानती है शराब पीने वाली सिगरेट पीने वाली औरतें बिगड़ी हुई नहीं होती पर उसमें भी एक छोटी सी तृष्णा रहती है जो चाहती है कि वह हर पल अपने मम्मी पापा दोनों के साथ रहे।
तृष्णा मजूमदार में एक भोली सी दिव्या रहती है जो समर्पण चाहती है, ठहराव चाहती है, बंधना बांधना चाहती है। वहीं दूसरी ओर दिव्या में तृष्णा रहती है जो उड़ना चाहती है, पंख फैलाना चाहती है। अपनी अपनी तृष्णाएं हैं। बढ़ती रहती हैं। सबको अपने अपने हिस्से का अंबर चाहिए।

और अंबर? अंबर तो स्वच्छंद है, अनंत है, विस्तृत है, सीमाहीन प्रेम की तरह जिसके साथ हर रात कई सितारे खिलखिलाते हैं, सूरज उसके साथ सुबह की चाय पीता है, बदली उसे अपने आंचल से कभी ढक लेती है, चांद उसकी चौड़ी छाती पे रात को थक कर अपना सिर रख कर सो जाता है। पर यदि ना किया हो पहले तो अब गौर करना साहब कि कोई उन सितारों में अपने किसी अपने खोए हुए को खोजता है या उन्हें तोड़ लाने के वादे करता है। लोग सूरज को अर्घ्य देते हैं। उम्मीद लगाते हैं उस पर छाए बादल से, कविता लिखते हैं तो उस सुंदर सलोने चांद पर। कोरे अनंत अंबर को कौन तकता है यूं ही?

गरिमा जोशी पंत
अध्ययन के बाद अध्यापन
फिलहाल गृहिणी के दायित्व निर्वहन के साथ लेखन
सोशल मीडिया और प्रिन्ट में रचनाएँ प्रकाशित, दो पुस्तकों के अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद
संपर्क- 9826416847


















टिप्पणियाँ

  1. राजाराम भादू सर , सरिता मैम तथा सम्पूर्ण मीमांसा टीम का शुक्रिया।

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दिलीप सीमियन श्रम-इतिहास पर काम करते रहे हैं। इनकी पुस्तक ‘दि पॉलिटिक्स ऑफ लेबर अंडर लेट कॉलोनियलिज्म’ महत्वपूर्ण मानी जाती है। इन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन किया है और सूरत के सेन्टर फोर सोशल स्टडीज एवं नेहरू मेमोरियल लाइब्रेरी में फैलो रहे हैं। दिलीप सीमियन ने अपने कई लेखों में हिंसा की मानसिकता को विश्लेषित करते हुए शांति का पक्ष-पोषण किया है। वे अमन ट्रस्ट के संस्थापकों में हैं। हाल इनकी पुस्तक ‘रिवोल्यूशन हाइवे’ प्रकाशित हुई है। भारत में समकालीन इतिहास लेखन में एक धारा ऐसी है जिसकी प्रेरणाएं 1970 के माओवादी मार्क्सवादी आन्दोलन और इतिहास लेखन में भारतीय राष्ट्रवादी विमर्श में अन्तर्निहित पूर्वाग्रहों की आलोचना पर आधारित हैं। 1983 में सबाल्टर्न अध्ययन का पहला संकलन आने के बाद से अब तब इसके संकलित आलेखों के दस खण्ड आ चुके हैं जिनमें इस धारा का महत्वपूर्ण काम शामिल है। छठे खंड से इसमें संपादकीय भी आने लगा। इस समूह के इतिहासकारों की जो पाठ्यवस्तु इन संकलनों में शामिल है उन्हें ‘सबाल्टर्न’ दृष्टि के उदाहरणों के रुप में देखा जा सकता है। इस इतिहास लेखन धारा की शुरुआत बंगाल के...

कथौड़ी समुदाय- सुचेता सिंह

शोध कथौडी एक ऐसी जनजाति है जो अन्य जनजातियों से तुलनात्मक रूप से पिछड़ी और उपेक्षित है। यह अल्पसंख्यक जनजाति महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान के कुछ अंचलों में छितरायी हुई है। दक्षिण राजस्थान में इनके हालात प्रस्तुत कर रही हैं अध्येता सुचेता सिंह। दक्षिण राजस्थान के आदिवासी क्षेत्र में कथौड़ी जनजाति है जो वहां रहने वाली जनजातियों में सबसे कम संख्या में है। एक शोध रिपोर्ट के अनुसार इस जनजाति समुदाय की वृद्धि दर दशक वार घट रही है। 'ये लोग कैथ के पेड़ से कत्था निकालने का काम करते थे जो पान में लगाया जाता है इसलिए इनका नाम कथौड़ी पड़ा।' वैसे ये लोग कत्था बनाने के साथ-साथ बहुत से वन सम्बन्धी कार्य करते हैं, जैसे-बांस कटाई एवं दुलाई, वृक्ष कटाई, वन उपज संग्रहण, वन्य जीव आखेट, हाथ औजार निर्माण तथा वन औषध उपचार आदि। राजस्थान में इन लोगों का इतिहास कोई अधिक पुराना नहीं है। इन्हे महाराष्ट्र से इस क्षेत्र में कत्था उत्पादन और वन कटाई के लिए लाया गया। ऐसा अनुमान है कि जंगल के ठेकेदार इन्हे कोंकण महाराष्ट्र से यहां लेकर आये। ऐसा लगता है कि पूर्व में भी ये घुमक्कड़ जीवन जीते थे। इनकी बसाहटें म...

समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान-1

रंगमंच  समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान -1                                         राघवेन्द्र रावत  समकालीन हिंदी रंगमंच के बारे में बात बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध से भी की जा सकती थी लेकिन मुझे लगता है कि उससे पूर्व के भारतीय रंगमंच के परिवर्तन की प्रक्रिया पर दृष्टिपात कर लेना ठीक होगा | उसी तरह राजस्थान के समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करने से पहले भारतीय हिंदी रंगमंच पर चर्चा करना जरूरी है, और उससे भी पहले यह जानना भी आवश्यक है कि वस्तुतः रंगमंच क्या है ?और रंगमंच के बाद हिंदी रंगमंच और उसके बाद समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करना एक उचित क्रम होगा भले ही यह मेरे अध्ययन की गरज ही लगे | राजस्थान के रंगमंच पर बात करना इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि इस पर हिंदी साहित्य की तरह चर्चा नहीं हुई चाहे वह आलोचना की दृष्टि से देखें या इसके इतिहास की नज़र से देखें | दो वर्ष पहले ‘जयरंगम’ नाट्य समारोह के एक सेशन में बोलते हुए वरिष्ठ रंग एवं फिल्म समीक्षक अजित राय ने कहा था-“ पता नहीं कौन सा नाटक...

भूलन कांदा : न्याय की स्थगित तत्व- मीमांसा

वंचना के विमर्शों में कई आयाम होते हैं, जैसे- राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक इत्यादि। इनमें हर ज्ञान- अनुशासन अपने पक्ष को समृद्ध करता रहता है। साहित्य और कलाओं का संबंध विमर्श के सांस्कृतिक पक्ष से है जिसमें सूक्ष्म स्तर के नैतिक और संवेदनशील प्रश्न उठाये जाते हैं। इसके मायने हैं कि वंचना से संबंद्ध कृति पर बात की जाये तो उसे विमर्श के व्यापक परिप्रेक्ष्य से जोडकर देखने की जरूरत है। भूलन कांदा  को एक लंबी कहानी के रूप में एक अर्सा पहले बया के किसी अंक में पढा था। बाद में यह उपन्यास की शक्ल में अंतिका प्रकाशन से सामने आया। लंबी कहानी  की भी काफी सराहना हुई थी। इसे कुछ विस्तार देकर लिखे उपन्यास पर भी एक- दो सकारात्मक समीक्षाएं मेरे देखने में आयीं। ऐसी ही प्रतिक्रिया रणेन्द्र के उपन्यास ग्लोबल गाँव के देवता को भी मिल चुकी थी। किन्तु आदिवासी विमर्श के संदर्भ में ये दोनों कृतियाँ जो बड़े मुद्दे उठाती हैं, उन्हें आगे नहीं बढाया गया। ये सिर्फ गाँव बनाम शहर और आदिवासी बनाम आधुनिकता का मामला नहीं है। बल्कि इनमें क्रमशः आन्तरिक उपनिवेशन बनाम स्वायत्तता, स्वतंत्र इयत्ता और सत्त...

'ब्लड ऑफ़ दी कॉनडोर' [ Blood of the Condor]

सिने -संवाद                                                                            ' ब्लड ऑफ़ दी कॉनडोर'  [ Blood of the Condor]                                          मनीष आजाद 1960 का दशक भारी उथल पुथल का दौर था। पूरे विश्व में समाज के लगभग सभी शोषित तबके व वर्ग अपनी पहचान व अधिकार हासिल करने के लिए शोषणकारी व्यवस्था से सीधे टकराने लगे थे। साहित्य, कला, संगीत इससे मूलभूत तौर पर प्रभावित हो रहा था और पलटकर इस संघर्ष में अपनी भूमिका भी निभा रहा था। अपेक्षाकृत नई कला विधा सिनेमा भी इससे अछूता न था। इसी दशक में यूरोपियन सिनेमा में ‘नवयथार्थवाद’ की धारा आयी जिसने फिल्म की विषयवस्तु के साथ साथ फिल्म मेकिंग को भी मूलभूत तौर पर बदल डाला और यथार्थ के साथ सिनेमा का एक नया रिश्ता बना।  लेकिन...

लेखक जी तुम क्या लिखते हो

संस्मरण   हिंदी में अपने तरह के अनोखे लेखक कृष्ण कल्पित का जन्मदिन है । मीमांसा के लिए लेखिका सोनू चौधरी उन्हें याद कर रही हैं , अपनी कैशौर्य स्मृति के साथ । एक युवा लेखक जब अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी के उस लेखक को याद करता है , जिसने उसका अनुराग आरंभिक अवस्था में साहित्य से स्थापित किया हो , तब दरअसल उस लेखक के साथ-साथ अतीत के टुकड़े से लिपटा समय और समाज भी वापस से जीवंत हो उठता है ।      लेखक जी तुम क्या लिखते हो                                             सोनू चौधरी   हर बरस लिली का फूल अपना अलिखित निर्णय सुना देता है, अप्रेल में ही आऊंगा। बारिश के बाद गीली मिट्टी पर तीखी धूप भी अपना कच्चा मन रख देती है।  मानुष की रचनात्मकता भी अपने निश्चित समय पर प्रस्फुटित होती है । कला का हर रूप साधना के जल से सिंचित होता है। संगीत की ढेर सारी लोकप्रिय सिम्फनी सुनने के बाद नव्य गढ़ने का विचार आता है । नये चित्रकार की प्रेरणा स्त्रोत प्रकृति के साथ ही पूर्ववर्त...