वर्षों पहले आलोक श्रीवास्तव का कविता संकलन वेरा उन सपनों की कथा कहो पढा था। अब उसकी कुछ बिम्ब- छवियां और अन्तर्ध्वनियां स्मृति में रह गयी हैं। इसके बाद वेरा भी कविताओं से आये उन उदात्त स्त्री चरित्रों में शामिल हो गयी जो हमारे विमर्श में बार- बार संदर्भ बनते हैं, जैसे- बनलता सेन ( जीवनानंद दास), चेतना पारेख ( ज्ञानेन्द्र पति) और निरुपमा दत्त ( कुमार विकल)। समकालीन प्रेम कविताओं की दुनिया में ऐसे यादगार चरित्र बहुत कम हैं। वेरा तो और भी अनुपम है क्योंकि उसकी तो अन्तर्कथा ही अलग है। आलोक श्रीवास्तव की कविता की एक विशिष्ट छाप चेतना और मन पर बन गयी थी और इसमें वेरा भी थी।
अभी उनका कविता संकलन दिखना तुम सांझ- तारे को पढा तो फिर से कुछ- कुछ वही धुंधली- सी पहचान वाली दुनिया उभरी। परिभाषा से मुक्त हो चुका और किसी बच रहे अर्थ में प्लेटोनिक रह गया प्रेम और नि:सर्ग। विपर्यय की तरह हिन्दी काव्य- परिदृश्य ध्यान में आ जाता है। हमारे मार्क्सवादी आलोचक भी प्रायः प्रेम के प्रति सहिष्णु नहीं रहे। कविता में इसकी अस्वीकार्यता के पीछे अक्सर रूमानीपन और तद्जनित यथार्थ से कवि के पलायन को वे इसके लिए प्रमुख कारण ठहराते रहे। भले ही मार्क्स ने जैनी के लिए प्रेम कविताएँ लिखीं और पाब्लो नेरूदा की प्रेम कविताओं को वे स्वयं सराहते रहे। स्त्री- विमर्श ने भी विश्व स्तर पर प्रेम को प्रश्नित किया है। तब पारंपरिक सोच की तो बात ही क्या करें ! इसके चलते हिन्दी कविता में प्रेम की कमोबेश वही स्थिति रही है जैसी कि समाज में है- वर्जना और अन्तर्विरोधों से घिरी।
इन कविताओं में प्रेम हर रूप- रंग और जीवन की तमाम जद्दोजहद में अन्तर्व्याप्त है। किसी प्रतिदान और आलम्बन से परे अपनी स्वायत्त इयत्ता में विचरता। यह सूफियों के प्रेम से भी भिन्न है क्योंकि यहाँ कोई याचना अथवा समर्पण नहीं है। किन्तु प्रेम की दुनिया में एक रूमान जरूर तारी रहता है। ऐसा क्यों है? मुझे लगता है , यह उस यूटोपिया के कारण है जो प्रेम के मूल वजूद के साथ ही जुड़ा है। स्वप्न जो प्रेम से कभी विछिन्न नहीं होता, छिन्न- भिन्न भले ही हो जाये। प्रेम की त्रासदियां भी वस्तुत उनके यूटोपिया के ध्वस्त हो जाने की कहानियाँ हैं।प्रेम अंततः एक सम्बन्ध है और सम्बन्ध किन्हीं मूल्यों पर टिके होते हैं। जेन्डर की दृष्टि से भी हम सम्बन्धों में अन्तर्निहित मूल्य, व्यवहार और दृष्टिकोण की ही छानबीन करते हैं। इसी प्रसंग में प्रेम की चाहत के साथ एक नितांत मानवीय, प्राकृतिक और सुरम्य दुनिया की चाहत भी बद्धमूल है।
इस पुस्तक के अंतरा पृष्ठ पर इसे वेरा का चौथा सपना कहा गया है और इसके नीचे निकोलोई चेर्नीशेव्स्की के उपन्यास क्या करें से एक अंश है। संकलन के आखिर की एक टिप्पणी में बताया गया है: वेरा रूसी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है- प्रेम, नेकी, विश्वास.... निकोलोई चेर्नीशेव्स्की १९ वीं सदी के प्रसिद्ध रूसी लेखक थे, जिन्होंने रूस की समुची क्रान्तिकारी पीढी को अनुप्राणित किया था, वेरा उन्ही के उपन्यास व्हाट इज़ टू बी डन ( मूल रूसी- स्तो जिलायते, हिन्दी अनुवाद क्या करें) की नायिका थी। कवि के प्रथम संग्रह वेरा उन सपनों की कथा कहो में इस वेरा की झलक थी, जो देश- काल को पार करती, उसके अन्तर्जगत पर अपने पूरे वैभव के साथ अपने होने के निशान छोड़ गयी...
उल्लेखनीय है कि करीबन २४ साल पहले छपे उस संकलन की हजारों प्रतियां कई संस्करणों में बिकीं। इस संकलन की कविताओं से भी वेरा की डोर जुड़ी है। संकलन के अंत में प्रतिभा कटियार की इस पर सार- गर्भित टिप्पणी है। वे कहती हैं: ... इस संग्रह की कविताओं को पढने को देते समय वे जान- बूझकर कहते हैं, ये कविताएँ वेरा से अलग हैं, मानो वे खुद को बता रहे हों कि वेरा से मुक्त होने की कोशिश है। लेकिन पहला प्रेम क्या इतनी आसानी से हाथ छोडता है, जिसका वजूद धडकनों में शामिल हो, उससे किनारा करने की कोशिश में भी बेपनाह प्यार ही होता है।....
कम से कम सुरेन्द्र राव का उल्लेख यहां और जरूरी है जिनके रेखांकनों ने कविताओं को ठीक वैसा ही अर्थ- विस्तार दिया है, जैसा आलोक की कविता ने प्रेम और उसके संश्लिष्ट संदर्भों को। यह श्रृंखला संवाद प्रकाशन से छपी है।
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