कविताएँ मेरी बकरियाँ हैं। सीधे रास्तों पर चलने के बजाय ऊबड- खाबड और पहाड़ी रास्तों पर चलना पसंद करती हैं। इस रेवड के बढने के साथ- साथ मेरी जिम्मेदारियां भी बढी हैं। मुझे इसे संभाले रखना है। लोगों ने हाथी- घोडे बांध लिए हैं जबकि यही मेरी सम्पत्ति हैं। जयपुर में २४ दिसम्बर, १९९४ को आयोजित पहल- सम्मान समारोह में अपना उद्बोधन देते हुए कवि ऋतुराज ने यह कहा।
मराठी के सुप्रसिद्ध कवि भुजंग मेश्राम ने ऋतुराज को प्रशस्ति पत्र एवं पुरस्कार राशि भेंट की। उन्होंने राज्याश्रित पुरस्कारों से कविता को हुए नुकसान को रेखांकित करते हुए कहा, वो ठोकते हैं हमारी पीठ तो टूट जाती है रीढ की हड्डी। कई दलित कवि पुरस्कार पाकर खामोश हो गये। इस तरह दलित कविता को दलित होकर भी मध्यवर्गीय बना दिया जाता है। भुजंग मेश्राम ने साहित्यकारों से टी. वी. रेडियो के माध्यम से शीघ्र प्रतिष्ठा पाने की महत्वाकांक्षा छोडने तथा आत्म की खोज करने का आह्वान किया। उन्होंने साहित्यिक पत्रिकाओं द्वारा साहित्यकारों के सम्मान की परंपरा का स्वागत करते हुए कहा कि हिन्दी में यह प्रक्रिया पहले शुरू हो गयी है और पहल को इसका श्रेय जाता है।
ऋतुराज की कविताओं पर डॉ॰ मैनेजर पाण्डेय ने कहा कि अनुभूति की संस्कृति का निर्माण बहुत कम कवि कर पाते हैं। विचार बहुत कवियों के यहां मिल जाते हैं किंतु विचारशीलता की प्रक्रिया के कवि बहुत कम हैं। अनुभूतिशीलता की प्रक्रिया कविता में कैसे स्वीकार की जाये, यह सबके लिए संभव नहीं है। विचारशीलता और अनुभूतिशीलता की संस्कृति सरल दिखने के बाबजूद सरल नहीं है। सहज भाषा में गंभीर विचार- संवेदन का योग मात्र गालिब में दिखायी देता है। संस्कृति के विभिन्न तत्व जैसे अलगाए नहीं जा सकते, वैसे ही कविता में भी उन्हें अलग- अलग नहीं किया जा सकता। ऋतुराज ने राजनीति पर अच्छी कविताएँ लिखी हैं जिनमें कि प्रवेश करने पर विचार, अनुभूति और चिंतन की एक दूसरी ही दुनिया सामने आती है। इनकी कविताएँ केवल सहज आत्मीय और सुंदर ही नहीं, बैचेन करने वाली हैं और हमसे एक पाठकीय समझदारी की मांग करती हैं।
कवि- समीक्षक राजेश जोशी के अनुसार यह उनके व्यक्तित्व की सहजता और सरलता है जो कविता में आ जाती है। ऋतुराज स्वभाव से संकोची हैं, यह भी एक सत्य है, उनके मित्र जल्दी नहीं बनते। किंतु यह गुण उनकी कविता में नहीं, बहुत अच्छी- खासी बोलने वाली उनकी कविताएँ हैं, सहज, आत्मीय और मित्र बनाने वाली। ऐसे बहुत कम हिन्दी कवि होंगे जिनकी कविता इतने सघन दृश्यों से भरी है कि उसे पढते हुए हम एक बहुत सघन ताप से भरे जीवन में प्रवेश करते हैं। ऋतुराज का कवि एक ऐसा समाज बनाना चाहता है जिसमें विभिन्नता तो है किन्तु विसंगति नहीं। उसमें अपने समाज, अपने लोगों, अपने मित्रों की पक्षधरता जहाँ होती है, शत्रु स्वत: स्पष्ट हो जाते हैँ।
आलोचक विजय कुमार ने कहा कि जीवन में जो घटता है उसके बीच में ताकत के रिश्ते को ऋतुराज इसकी पार्दर्शिता में देख लेते हैं। वे ताकत की रहस्मयता को उघाडते हैं। वह तनाव, वह प्रसंग, वे स्थितियां और टूटन जिसमें एक का दूसरी से मिलान नहीं होता, उसे सामान्यीकृत रूप में कहना मुश्किल है। हर बार कविता में नयापन आता है। सूचना के पीछे का दर्द बहुत सहज रूप में अभिव्यक्ति होता है। वे अत्यंत मद्धिम स्वर में बोलते हैं, इतना धीमे कि उसे अनसुना भी किया जा सकता है। किन्तु एक बार सुन लेने के बाद उस भुलाया नहीं जा सकता। कोरी जुमलेबाजी वहाँ नहीं मिलेगी, धूसर रंग हैं, वहाँ तक जाना होता है फिर निकल पाना मुश्किल है। कविता अपना प्रभाव लिए रहती है, घटना पर प्रसंग का निष्कर्ष कवि निकाल लिया करते हैं लेकिन ऋतुराज की कविता में वह तनाव बना रहता है। एक से अनेक कविताएँ जुडती चलती हैं।
इस अवसर पर सभी का स्वागत करते हुए पहल के संपादक ज्ञानरंजन ने कहा कि साहित्य में एक नया जागरण जरूरी है, आज बहुत तरह के क्षुब्ध करने वाले बाजार भ्रमित करने की कोशिश में लगे हैं। कविता इस बाजार की शिकार होती जा रही है। किंतु लड़ाई छोडकर सुखी होने को हम तैयार नहीं, भारतीय समाज से पहचान का आग्रह लेकर हमें आगे बढना है। समारोह की अध्यक्षता करते हुए कवि विजेन्द्र ने कहा कि पहल सम्मान एक खुशी का उपहार होने से ज्यादा एक बड़ी जिम्मेदारी का अहसास है।
एक और अंतरीप ( मई,१९९५) में देवयानी की रपट से
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