कवि-कविता
सृजन संभव नहीं 'इन हाथों के बिना'
रोहिणी अग्रवाल
अक्सर माना जाता है एक कविता भावोंच्छवास है , स्मृतियों का पुनःस्फुरण, कि नॉस्टैल्जिया , कल्पना और तरल संवेदना कविता की चमकीली त्वचा को बुनने वाले अनिवार्य घटक हैं ; कि मनोवेगों के घनीभूत दबाव का नैसर्गिक उद्गार है कविता । लेकिन क्या इतनी भर है कविता ? विचार से अछूती , विजन और मिशन से नितांत अपरिचित , सैलाब की तरह उमड कर बह जाने वाली ? नहीं !!
कविता के अछोर छितिज को दोनों बांहों से थामता है महीन बुनाई की तरह भीतरी तहो में बुना गया विचार । इतना सूक्ष्म और इतना अपारदर्शी कि अपनी बुनियादी ठोस पहचान खो वह संवेदना की मिट्टी में नमी सा घुल जाता है और हृदयस्पर्शी अनुगूंजे पैदा कर हर रसिक पाठक के संवेदनात्मक बोध के अनुरूप कितने- कितने व्यंजनात्मक स्वरूप ग्रहण करता चलता है ।
नरेंद्र पुंडरीक का कविता संग्रह 'इन हाथों के बिना' पढ़ रही हूं और सोच रही हूं कविता में चुपचाप दबे पांव कहानी घुस आए और दोनों तेल पानी की तरह अलग-अलग फैलकर तकरार करने की बजाय सगी सहेलियों सी गल बहियां डाल इठलाने लगे , तो ?
सवाल पेचीदा है, इसलिए कि कोई एक स्थित जवाब मेरे पास नहीं , कहानी की उंगली थाम कुछ कविताएं झूमती हुई आती हैं और अपनी लय में बांध मुझ मंत्रमुग्धा को लिए जाने कहां- कहां उड़ी चली चलती हैं ।
मैं चकित भाव से अपने को उड़ते-तिरते भी देखती हूं, और तितली की तरह वहीं बैठ हर पंखुड़ी का पराग-कण चूसते हुए भी देखती हूं। न, आलोचक की भूमिका में उतर बिल्कुल नहीं कहूंगी कि विषयवार पांच खंडों में बंटी ये कविताएं कवि की संवेदना के विस्तृत फलक , सरोकारों के अनंत क्षितिज और चिंता के विविध आयामों की साक्षी हैं । कविता के क्राफ्ट से पूरी तरह अनजान मैं बेसुध चमत्कृत पाठक बस यही जानती हूं कि कविता के भीतर कुछ भाव-तरंगे होती हैं ,जो पाठक की संवेदनात्मक चेतना से टकराकर प्रभाव-तरंगों में तब्दील हो जाती हैं । मैं इन प्रभाव तरंगों पर सवार हूं और संग्रह के पहले खंड 'जहां जली थी मां की फूल जैसी देह' को पांचों इंद्रियों समेत जी रही हूं ।
देखती हूं , कवि की मां को हल्के से परे ठेल मेरी अपनी मां कविता के भीतर धीरे-धीरे उतरने लगी है - अपनी उन्हीं शाश्वत चिंताओं और केयर साथ कि स्वयं टूटते-छीजते हुए भी 'अंत तक बची रहती है मां में / बेटे को थामने की ताकत ।'
नरेंद्र पुंडरीक की कविताओं में दर्द आक्रोश का रूप लेता है और आक्रोश ठंडे तटस्थ चिंतन का , जो व्यवस्था से पहले व्यक्ति के भीतर पलती घृणा ,बर्बरता ,उन्माद को निशाने पर लेता है , वरना कौन नहीं जानता कि अपनी-अपनी निजी विशेषताओं के बावजूद भारत के बहुलतावादी चरित्र में सहअस्तित्व और सहकारिता भाव भारत को विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र बनाता आया है । धर्म और जाति की संकीर्ण राजनीति करने वाले क्योंकि संख्या बल को ही हर सफलता और शीर्ष स्थिति का पैमाना मानते हैं इसलिए कवि का नॉस्टैल्जिक होकर उन 'अच्छे दिनों को' याद करना बेहद स्वाभाविक लगता है जब
"हिंदू इतना हिंदू नहीं बना था
न मुसलमान इतना मुसलमान बना था
धर्म की हालत तो यह थी कि
उसे अपने को चिन्हित करने के लिए
कहीं अनुकृति ही नहीं मिल रही थी ।"
नरेंद्र पुंडरीक की कविताएं उस सहृदय पाठक को संबोधित है जो 'अपना सब कुछ देकर जीवन के लिए प्रेम खरीदता है । लेकिन वे पाते हैं कि प्रेम तो हमारे दैनंदिन जीवन ,व्यवहार और संबंध सब जगह से गायब है ।
कविताओं की दुनिया से उबर कर जब प्रकृतिस्थ होती हूं , तो सोचती हूं आखिर इन कविताओं में ऐसा क्या है जो इन पर बात की जाए ? कविता का मितभाषी होकर भी एहसास के जरिए संप्रेष्य अर्थ पाठक के मन में रोप देना जितना अनिवार्य है , उतनी ही जरूरी है वाग्विदग्धता । शब्द नहीं , झंकार ; सिर्फ गति नहीं , लय और ताल भी । इस संग्रह में कविता अपनी पूरी फॉर्म में , या उत्कर्ष रूप में नहीं आ पाई है , लेकिन कवि की नागरिक चेतना और अपने समय को बचाने की चिंता जरूर इन कविताओं को ऊंचाई देती है । समय को रचने के लिए तमाम दमन-मर्दन के बीच बचे रहने का विश्वास और रक्तबीज की मानिंद अपने को बार-बार नवा करने का संकल्प ही इनकी विशेषता है ।
नरेंद्र पुंडरीक की कविताएं
राम को शायद यह अच्छा ही लगता
मुझे लगता है 68-70 का साल रहा होगा
घर में शादी थी दो दिन बाद
चाचा की बिटिया की
अचानक दादी के गुजरने की खबर आयी
बड़ी मुश्किल से लड़का सधा था
चाचा पहले ही गुजर गए थे
इसी तरह सरन्जाम कर
जुटाई गई थी शादी
एक तरफ जीवन का सेटलमेंट था तो
दूसरी तरफ मौत के संताप का उत्सव
जीवन जीता और बिना किसी क्रिया करम के
दादी को नदी में सिरा आये पिता
चाची और मां ने शादी के गीत गाये
पूजे गये गौरी गणेश
मनाए गए डाडे बैहारे के देवता भी
करतार बाबा को दूर से फेंके गये अक्षत
जब जीवन की मौत से बाजी लगी हो
तो घर के आंगन में दीवारें नहीं खड़ी की जाती
न नापे जाते हैं चौखट दरवाजे
न कंगूरो की डिजाइनें उकेरी जाती हैं
घर अपना हो या किसी और का
घर तो आखिर घर होता है
मर्सिये में घर का मुहूर्त नहीं देखा जाता हुजूर
हमने तो अपनी बेटियों की शादियां रोक दी
बिना कफन दफन के
अकेले फूंक आये मां-बाप को
कुछ दिन और रुक जाते हुजूर
कुछ तो थम जाता इन लाशों का कोहराम
राम को शायद यह अच्छा ही लगता
यदि और कुछ दिन रुक जाते हुजूर
लाशें इधर उधर छितराई पड़ी हैं
बिलख रहे हैं लोग
लॉकडाउन खत्म हो जाता और
लाशों की यह आवाजाही रुक जाती तो
हम भी आ जाते हुजूर
राम के घर का नींव का पत्थर बनने
हम कंगूरे नहीं हैं
न हम मणिकंचन के जगमगाते खंभे हैं
हम इस देश की नींव के पत्थर हैं
जो हमेशा इधर उधर लुढ़कते लुढ़कते
नींव में ही लंबी कालजयी नींद लेते हैं
काल ही हमें उठाता है
तभी हम उठतें हैं हुजूर
काल ही हमें उठाएगा और
हम उठेगें हुजूर ।
सब एक ही जैसे थे
सब एक ही जैसे थे
न कोई छोटे लगते थे न बड़े
सबके घर एक ही जैसे थे
कच्चे खरपैल से ढके
बरसात में पानी से बचने के लिए
खिसकाते रहते थे सब अपनी चारपाईयां
सबके कपड़े लगभग एक ही जैसे थे
थोड़ा सा कुछ के कम फटे
कुछ के ज्यादा
पर सब में मैल की परत
एक जैसी थी
सब एक दूसरे के घर का
सब कुछ जानते थे
सब का रोटी पानी
लगभग एक जैसा था
खेल के मैदान में तो हम उनके
आगे ही रहे मित्रता का बोध होने पर
जानबूझ कर हम हो जाते थे पीछे
इसका संज्ञान उन्हें भी रहता था
सो सब एक दूसरे के कंधे पर
रखकर हाथ चलते रहे
स्कूल में आये तो आगे हमें नहीं
उन्हें बैठाया गया
तब हमें मालूम हुआ
हम और वे अलग थे
इसके बाद हमें यह बोध
लगातार कराया जाता रहा
हम छोटे हैं और वे बड़े
उनके बड़े होने की जो परिभाषा
हमें बताई गई
वह हमारे गले से कभी
नीचे नहीं उतरी
लेकिन हमें बिना किसी सीढ़ी के
आदमी होने के नीचे
और नीचे उतारा जाता रहा
और वे चढ़ते रहे
बिना किसी सीढ़ी के ऊपर और ऊपर ।
वे नाखून थे
जब वे हमारे साथ पढ़ते थे
तब वे हमें अपने नाखून के
बराबर छोटे लगते थे
जैसे ही बढते थे उनके नाखून
हमारे बाप-दादाओ कों
असुविधा होने लगती थी
इस पर वे उन्हें उनके हाथ पैर से नहीं
सीधे-सीधे सर से काट लेते थे
यह देखकर हमें अजीब सा लगता था
क्योंकि वे हमें अपने जैसे ही दिखते थे
पर ऐसा करते हुए
हमारे बाप-दादाओं को राहत महसूस होती थी
कुछ दिन तक हमारे बाप-दादा
बेखटके आराम से रह लेते थे
पर वे नाखून थे
उन्हें तो बढ़ना ही था
और वे बढ़े
जब वे खेल के मैदान में
हमारे साथ खेलते थे
हमारे बाप-दादा भय की तरह
उनके आस-पास डोलते रहते थे
और वे हार जाते थे
हमारे अकुशल और कमजोर हाथों से बार-बार पीटते थे
क्योंकि उनका पिटना हमारे
बाप-दादाओं को अच्छा लगता था
खेल के मैदान में हारते हुए जब वे
पढ़ाई के मैदान में आगे होते दिखाई देते
तो हमारे बाप-दादा हम पर
खीझते हुए कहते 'हम सब की
नाक कटा लओ
यह चमरे ससुरे आगे बढ़ गओ'
यह वह दिन थे जब वे
स्कूल में भूखे रहने पर भी
पेट को हवा से फुलाये रखकर
हमारे साथ दिनभर पढ़ते थे
तब इन्हें अपनी भूख मारने की
कई कलाएं आती थी
अक्सर पानी से पेट फुला कर
पहुंचते थे घर
कभी हवा से
कभी पानी से
पेट फुला कर बढ़ते हुए
इतने बेवकूफ और बेसहूर थे
हमारे बाप-दादा जो दीप की लौ को
अंधेरे की चादर से ढकने में ही
गंवा दी अपनी सारी अकल
यह सब और इस समय को देखकर
मुझे विष्णु नागर की कविता की
यह लाइनें याद आ रही है
'दया राम बा
नंगे रहो और करो मजा '
यानी अब हमारे लिए और
उनके लिए कुछ नहीं बचा
यह नंगों का समय है
नंगे मजा कर रहे हैं ।
यह पृथ्वी हमारा घर है
जितना सबको मालूम था
उतना मुझको भी मालूम है कि
किसी सुबह शाम या आधी रात को
चला जाऊंगा मैं
पता नहीं ईश्वर कहां रखेगा मेरी आत्मा को
अपनी व्यस्तता के बीच
पहुंचे हुए मुझे देख
खीझतें हुए धर देगा मेरी आत्मा को
किसी अबूझ आले में या खोस देगा
किसी टाट पटोरे के बीच में
और भूल जाएगा मुझे
खुसा या धरा हुआ वहीं
जैसे अब तक धरा रहा
इस धरती में अबूझ की तरह
इस धरती में जब आया था
तो कहां बजी थी थाली
मेरे आने के पहले ही
चार बार बज चुकी थी थालियां
बार-बार एक ही खुशी के आने से
खुशी का रंग भी फीका हो जाता है
वैसे मैंने इस धरती की चिंता में
कभी आकाश की चिंता नहीं की
जो पैदा होने के साथ ही
मुझे अपने सिर में
रखा महसूस हो रहा था
धरती में रहते हुए
मैंने अपने आसपास टहलती हुई
बहुत सी घुनों को देखा
जो धरती को चूहों की तरह कुतर रही थी
धरती के स्वाद के बारे में
कुछ ने मुझे बताया भी
किंतु मुझे यह हमेशा लगा कि
यह पृथ्वी हमारा घर है
घर को कोई खाता है भला
खाने की चीज तो यह आकाश है
जिसे सर में रखे खड़े रहे और
बड़े बनने के लिए एक दूसरे से लड़ते लड़ते रहे ।
इन हाथों के बिना
यह उन दिनों की बात है
जब मां चांद के लिए
झिंगोला सिलवाने की बात सोचा करती थी
इन दिनों अक्सर मेरी निक्कर पीछे से फटी और
बुशर्ट के बटन टूटे रहते थे
इस मायने में मां से अधिक
मास्टर बाबा की याद आती है
जो हमारे गुरबत के दिनों में
बार-बार मेरी फटी निक्कर सिलते थे
और टांक देते थे बुशर्ट में बटन
जब आंखों में आगे का कुछ सूझाई नहीं देता
तब अंधेरे में लौंकते
दिखाई देते हैं यह चेहरे
अक्षय पात्र की तरह
जिनकी निस्पृहता कई गुना
बड़ी दिखती है पिता से
पिता की तरह दिखते हैं इनके हाथ
मां की तरह दिखती हैं इनकी आंखें
इन आंखों और इन हाथों के बिना
अनाथ सी दिखती है यह दुनिया
उसे कम से कम दिखे
खुशी इतनी कम बची है और
दुख इतने ज्यादा हैं कि
जब देखो तब टप्प से आकर
पूरे घर में फैल जाते हैं
यह इतनी बार होता है कि
घर में खुशी आने पर
दुख का धोखा होता है
क्योंकि दुख घर से जाने का
नाम ही नहीं लेते हैं
खुशियां बांटने बंटने का तो
अपना एक तरीका होता है
सो वह कब चुक गई पता ही नहीं चलता
और दुख की स्थिति तो यह है कि
वह बांटे नहीं बंटता
अपनी ही उंगलियों के पोरों में
फंसा रह जाता है
अपनी ही उंगलियों में फंसे दुख से
कम से कम इतना तो चाहता हूं कि
वह नहीं जाना चाहता है तो बना रहे
लेकिन इतना तो करे कि
यदि कोई घर में आये तो
उसे कम से कम दिखे और
उसके जाने के बाद चाहे
मुझे झिंझोड़ कर खा जाये ।
दुनिया से लेते समय
हमने प्रार्थना की
कि हम निरोग रहे
हमने प्रार्थना की
कि हमारा वंश गोत्र
बढ़ता रहे धरती में
और हम सुखी रहे
हमें कभी धरती के लिए
प्रार्थना नहीं की कि
धरती बनी रहे हरी-भरी
न प्रार्थना की कि
नदियों में बना रहे जल
पक्षियों के लिए भी हमने
प्रार्थना नहीं की कि
वे बने रहे हमेशा धरती में
गुंजाते रहे अपनी बोली बानी का गीत संगीत
हमेशा हमें अपनी आयु बढ़ने
और धरती में
बने रहने की चिंता रही
तो हमने चीजें जुटाने की चिंता में
हमने जीवन की चिंता नहीं की कि
चीजों से कितना
दबता जा रहा है उसका गला
इसी तरह हमने अपनी
जिंदगी संवारने की चिंता में
हमने कभी सोचा नहीं की कि
हमारे विचार कितने मर चुके हैं
अपने सपनों की ही चिंता करते हुए
हमने शब्दों में विश्वास के बने रहने की
चिंता नहीं की कि
उनमें में भी वह बना रहे
ताकि आवाज लगाने पर
वे आ खड़े हो
समय से अपने लिए
कभी लेते हुए समय
हमने पीछे मुड़कर नहीं देखा की कि
दूसरे भी खड़े हैं हमारे पीछे
न भंते का यह कहना सुना की
कि अकेले का सुख
जितना हल्का होता है
अकेले का दुख होता है
उतना ही भारी
'इन हाथों के बिना' (2018 ) सहित पांच कविता संग्रह प्रकाशित । 'मेरा बल जनता का बल है ' 2015 ( केदारनाथ अग्रवाल के कृतित्व पर केंद्रित ) समेत दो आलोचना पुस्तक प्रकाशित । केदारनाथ अग्रवाल के कविता , कहानी संग्रह समेत अनेक पुस्तकों का संपादन ।
संप्रति - केदार स्मृति शोध संस्थान बांदा के सचिव । 'माटी' पत्रिका के प्रधान संपादक ।
संपर्क- डी.एम कॉलोनी ( पहली गली ), सिविल लाइन, बांदा -210001
मोबाइल नंबर -9450169568
ईमेल आईडी- pundriknarendr549k@gmail.com
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