हाशिये के समुदायों पर सामाजिक सांस्कृतिक सामग्री का नितांत अभाव मिलता है। आदिवासी समुदायों पर भारतीय नृतत्वशास्त्र सर्वेक्षण के अन्तर्गत कुछ मोनोग्राफ प्रकाशित हुए हैं। लेकिन ये दशकों पुराने हैं और इन्हें अद्यतन नहीं किया गया है। जबकि अनुसूचित जातियों में कुछ समुदायों ने अपनी ही पहल पर लेखन का प्रयास किया है। ऐसे कुछ दस्तावेजों को सामाजिक अध्येता बद्रीनारायण ने गोविन्द बल्लभ पंत सामाजिक शोध संस्थान, झुंसी, इलाहाबाद के दलित संदर्भ केन्द्र में एकत्रित कराया है। लेकिन ऐसे समुदाय जो आदिवासी व दलित श्रेणियों में भी निचले पायदान पर हैं अथवा इनसे बाहर हैं और जिन्हें प्रायः घूमन्तू- अर्ध घूमन्तू कहकर अभिहित किया जाता है, उनके अतीत व वर्तमान को लेकर प्रामाणिक जानकारियों का लगभग अभाव है। इस दिशा में गंभीर प्रयास कम से कम मेरी जानकारी में तो नहीं हैं।
ऐसे में जोधपुर के प्रो. नेमीचंद बोयत के कार्य की व्यापक सराहना होनी चाहिए। इन्होंने हाशिये के समुदायों पर तीन किताबें लिखी हैं: पहली - इतिहास के पन्नों में मेहतर, वाल्मीकि एवं चाण्डाल ; दूसरी - इतिहास के झरोखे में सांसी और तीसरी इतिहास के आइने में बावरी। हालांकि नेमीचंद बोयत उच्च शिक्षा में पढाते रहे हैं, फिर भी शायद अकादमिक जगत उनकी लेखन पद्धति को पूरी तरह इतिहास के संदर्भ में आधिकारिक नहीं माने और उन्हें एक इतिहासकार नहीं स्वीकार करे। इसलिए मैं इन दस्तावेजों को इतिवृत्त कह रहा हूँ जो इतिहास नहीं भी हैं तो इन समुदायों के भावी इतिहास के लिए मार्ग प्रशस्त करते हैं। अभी तो इतिहास इन समुदायों को लेकर मौन की स्थिति में है। यहाँ एक और तथ्य उल्लेखनीय है कि नेमीचंद बोयत स्वयं वाल्मीकि समुदाय से आते हैं। जोधपुर से ही वाल्मीकि समुदाय से निकले प्रो. श्यामलाल जाने माने समाजशास्त्री हैं जिन्होंने दशकों पहले अंग्रेजी में न केवल अपनी आत्मकथा लिखी बल्कि वाल्मीकि समुदाय पर समाजशास्त्रीय पक्ष से लिखा है। लेकिन इन किताबों में बोयत ने कहीं उनका कोई संदर्भ इस्तेमाल नहीं किया है। इनकी भूमिकाएं भी अलग विद्वानों ने लिखी हैं जिनमें ख्यात साहित्यकार हेतु भारद्वाज, जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के पूर्व अध्यक्ष डॉ॰ शोभाग माथुर और इसी विश्वविद्यालय के इसी विभाग से सम्बद्ध रहे प्रो. जहूर खां मेहर शामिल हैं। बोयत जी ने बताया है कि अपने सेवा काल में हेतु भारद्वाज के साथ वे एक ही मकान में साथ रह चुके हैं। कहना न होगा कि इन सभी विद्वानों ने उनके काम की भूरि-भूरि प्रशंसा की
चर्चित दलित रचनाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि की एक किताब है - सफाई देवता। मुझे मुजफ्फरपुर में एक कार्यक्रम के दौरान वे मिले और बड़े उत्साह के साथ उन्होंने ये किताब मुझे दी। मैं भी इसे पाकर बहुत खुश हुआ क्योंकि वाल्मीकि समुदाय को लेकर मेरे मन में बहुत सवाल घुमडते रहे हैं। लेकिन किताब पढकर मुझे निराशा हुई क्योंकि वाल्मीकि समुदाय के अतीत की खोज के क्रम में उन्होंने डॉ० अम्बेडकर द्वारा प्रस्तुत इतिहास को ही दुहरा दिया जो उन्होंने दलितों के संदर्भ में लिखा है। जबकि वाल्मीकि तो अछूतों में भी अछूत हैं, फिर उनका इतिहास कैसे समान हो सकता है। ये समुदाय देश भर में किंचित भिन्नता, पारस्परिक अन्तर्भेद और अलग- अलग नामों से विश्रृंलित है। इनमें धर्मान्तरण, सामाजिक सुधार और संस्कृतिकरण की प्रक्रियाओं की तो आधिकारिक जानकारी मिलती है लेकिन अतीत को लेकर अभी तक बिल्कुल अंधेरा है। सबाल्टर्न इतिहास के सूत्रधार रणजीत गुहा ने सूर्य व चन्द्र ग्रहण और राहु
केतु के आख्यानों का इस समुदाय की उत्पत्ति से जोडकर कुछ अध्ययन किया है। बोयत जी पौराणिक आख्यानों, देशज इतिहास, जनसंख्या सर्वेक्षण और समुदायों में प्रचलित दंतकथाओं तथा विभिन्न अंचलों में समुदाय की सापेक्षिक स्थिति के आधार पर इनके अतीत को चीन्हने का गंभीर और ईमानदार प्रयास किया है।
राजस्थान में वाल्मीकि समुदाय के अतीत चर्चा करते हुए बोयत एक दिलचस्प बात कहते हैं ... कई शासक जातियों ने प्रायः कई कर्मकर जातियों को अपने- अपने समुदाय में ले लिया और उनसे वो ही काम लेते रहे जो पूर्व से वे करते आ रहे थे। इसी नियम से मेहतर जाति की भी कई शाखाओं को कई क्षत्रिय वंशों ने अपने- अपने गुट में रखकर काम लिया जिससे इस समाज का संबंध क्षत्रिय वर्ग से जुड़ गया और ये भी उन्ही की तरह भैरव- माता पूजने लगे। तात्पर्य यह है कि जैसे भाटों की उत्पत्ति अलग है मगर उनका संबंध कई जातियों से जुड़ा हुआ है, पुरोहित ब्राह्मण हैं, मगर उनका संबंध भी पृथक-पृथक क्षत्रियों से है, उसी प्रकार मेहतरों का भी संबंध क्षत्रियों से है। इसके बाद बोयत जी ने पांच प्रमुख राजपूत समुदायों से सम्बद्ध वाल्मीकि समूहों का बाकायदा विवरण प्रस्तुत किया है जिनके गोत्र राजपूतों से मिलते हैं। पुस्तक में ऐसे अनेक विचारणीय प्रसंग हैं।
घुमक्कड़ समुदाय के अतीत का उत्खनन तो और भी चुनौतीपूर्ण है। सांसी समुदाय के लोग तो सवर्ण हिन्दुओं से अभिन्न हैं। वे हिन्दुओं के सभी त्यौहार मनाते हैं। होली, दीवाली, रक्षाबंधन पर एक-दूसरे से वैसे ही मिलते हैं। नवरात्रि व दशहरा के त्यौहार पर देवी पूजन करते हैं। फिर भी सवर्ण जातियों के साथ दलित जातियाँ भी उनसे दूर रही हैं। अंग्रेजों के शासन में सांसी समुदाय पर बहुत- सी पाबंदियां लगायी गयीं। जब कभी उन्हें कहीं जाना होता तो थाने में सूचना देनी होती थी। उन्हें जरायमपेशा या अपराधी कौम करार दिया गया। उन्हें बाध्य होकर अन्य सभी जातियों के फटे- पुराने कपडों और त्याज्य वस्तुओं पर निर्भर रहना पड़ा। सांसी जाति की भाषा भी अलग थलग पडी भाषाओं में से एक है। इस समुदाय में कुछ लोग सूफी संत रोहिल शाह के अनुयायी हैं।
बाबरी समुदाय की उत्पत्ति को महाभारत के पात्र बर्बरीक के वंश से जोड़कर देखा जाता है। राज मारवाड़ की मरदम शुमारी रिपोर्ट १८९१ ई. में रायबहादुर मुंशी हरदयाल सिंह ने इनके बारे में लिखा है कि बाबरी अपने को असल में राजपूत बताते हैं और कहते हैं कि हमारा आदि- वतन गुजरात है। आरम्भ में बाबडी पर रहने के कारण बाबडी वाले कहलाने लगे, फिर बाबडी और आखिर में बाबरी कहलाये। पंजाब में इन लोगों को बाबर यानी जाल लगाकर शिकार पकडने वाले होने के कारण मिस्टर आबिटसन ने इन्हें बाबरी कहा। सौराष्ट्र के इतिहास में भगवानलाल संपतराम ने इनको महाभारत के हवाले से बाबरी लिखा है जो उस समय हस्तिनापुर के पश्चिम में रहते थे। बाबरियों को पंजाब में बाबरिया, मेवाड़ में मोगिया और ढूंढाड में बोहरा भी कहते हैं। इनकी खापे हैं धांधल, मकवाणा, पंवार, चौहान, सोलंखी, भाटी, पडिहार, डाबी, देवडा, चारण और गहलोत वगैरह। ध्यान रहे कि बाबरी और बागरिया समुदायों में कोई आपसी संबंध नहीं है।
सांस्कृतिक अस्मिता और अस्मिता की राजनीति के इस दौर में हर जाति समुदाय अपने इतिहास को जानने का आकांक्षी है। वैसे प्रत्येक समुदाय के लिए अपने अतीत का पुनरावलोकन और वर्तमान का विश्लेषण सशक्तिकरण की प्रक्रिया के लिए
प्रस्थान- बिन्दु है। इस लिहाज से ये पुस्तकें संबंधित समुदायों के लिए तो उपयोगी हैं ही, हाशिये के समुदायों से सरोकार रखने वालों, उनके लिए काम करने वालों और अध्येताओं के भी काम की हैं। इतिहास के पन्नों में मेहतर, वाल्मीकि एवं चाण्डाल तथा इतिहास के झराखे में सांसी नवभारत प्रकाश (, ९ महाराजा दिलीपसिंह कोलोनी, जेडीए के पास ) जोधपुर से प्रकाशित हैं जबकि इतिहास के आइने में बाबरी को राजस्थानी ग्रंथागार (प्रथम माला, गणेश मंदिर के पास, सोजती गेट ) जोधपुर ने
प्रकाशित किया है। नेमीचंद बोयत का पुस्तक में उल्लिखित मोबाइल नं.
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