सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

सर्वेश्वर की भेडिया और हिंस्र शंक्लें - राजाराम भादू



पूर्वकथन : लीलाधर मंडलोई ने वर्तमान साहित्य के शताब्दी कविता विशेषांक ( मई- जून,२०००) का संपादन किया था। इसमें शताब्दी की कुछ चुनी हुई कविताओं पर समीक्षात्मक टिप्पणियाँ व लेख हैं जो अलग- अलग लोगों से लिखवाये गये थे। मैं ने सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की भेडिया श्रृंखला पर लिखा था। इसे उलटते- पलटते लगा कि यह आज तो और भी मौजूं है।

भगतसिंह की जेल में लिखी डायरी- ए मार्टायर्स नोटबुक ( इंडियन बुक क्रानिकल) का हिन्दी अनुवाद आ चुका है- शहीदे- आजम की जेल नोटबुक ( परिकल्पना प्रकाशन, लखनऊ)। इसमें भगतसिंह द्वारा मूल पृष्ठ ३९ में तिरछे लिखी ये पंक्तियां उद्धृत हैं-
महान इसलिए महान हैं क्योंकि
हम घुटनों पर हैं 
आओ उठ खडे हों।
पंक्तियों के लेखक का नाम नहीं है, बहुत संभव है ये स्वयं भगतसिंह की लिखी हों। सर्वेश्वर की इन कविताओं को पढते हुए मुझे लगता है, ये महानता के विरुद्ध साधारण जनों को उठ खडे होने के लिए आह्वान करती कविताएँ हैं। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने अपनी काव्य- यात्रा सोच के जिस धरातल से शुरू की थी, बाद में वे लगभग उसके विपरीत छोर पर छोर पर पहुँच गये थे। यहां वे आततायी शक्तियों के प्रतिपक्ष में और सताये हुए लोगों के पक्ष में दृढ़ता से खडे हुए। मुक्तिबोध ने अपनी कविता और सौंदर्य- चिंतन से सामान्य- जन की पक्षधरता में कलाओं के लिए जो मार्ग प्रशस्त किया, सर्वेश्वर ने उस मार्ग को और विस्तार दिया है। मुझे वे मुक्तिबोध और नागार्जुन के बीच खडे लगते हैं। मुक्तिबोध उत्पीडक के जिन चेहरों और षडयंत्रों को अंधेरे में देखते हैं, सर्वेश्वर ने उन्हें पहचाना है। उनके यहां दमन- उत्पीड़न के विरुद्ध तीव्र घृणा और आक्रोश है। वे किसी अन्तर्द्वंद अथवा ऊहापोह में उलझे बगैर प्रतिरोध की हर कार्यवाही से अपनी संलग्नता का खुला इजहार करते हैं।                                                                       
भेडिया कविताएँ पढते हुए भुवनेश्वर की कहानी भेडिये याद आती रहती है। भेडियों का एक झुंड, भौंकता हुआ पीछे दौडता, जान बचाने की जद्दोजहद में एक- एक नटनी (नट स्त्री) को भूखे  भेडियों के सामने फेंकता बंजारा गाडीवान। यहां नृशंस भेडियों के प्रतिरोध की गुंजाइश कहां है। सिर्फ किसी तरह जान बचाने की फिक्र है। बंजारा एक- एक करके नटनियों को भूखे भेडियों के सामने फेंकता चलता है। भेडिये उसका भक्षण करने में थोडा वक्त लेते हैं और फिर दौड पडते हैं। बंजारा इस तरह भेडियों को पीछे छोडता, गाड़ी को हल्का करता, दौडकर अपनी जान बचा लेता है। वह स्त्री- व्यापार में लिप्त था, इसलिए ये स्त्रियाँ उसके लिए महज माल की शक्ल में थीं। इतना अमानवीयकृत तो वह पहले था ही, अब वह इस माल का इस्तेमाल अलग तरह से अपनी जान बचाने के लिए कर रहा था। यदि इन स्त्रियों की आंख से बंजारे गाडीवान को देखें तो उनके लिए इस गाडीवान और वहशी भेडियों में ज्यादा फर्क नहीं होगा। लेकिन क्या वह गाडीवान भेडियों से मुक्त हो गया ? नहीं, वे उसकी नींद और स्मृतियों में निरंतर भौंकते हुए उसका पीछा करते रहे। दूसरी ओर वह वैसा मनुष्य भी नहीं रह गया, जैसा इस घटना के पूर्व था। भय और कायरता मुक्ति को ग्रस लेते हैं।

सर्वेश्वर की भेडिया श्रृंखला कविताओं का पाठ सर्वथा अलग प्रभाव छोडता है। यह भिन्नता क्या है, इसे पहचानना थोडा मुश्किल है। प्रथम दृष्टया ये प्रबोधन की कविताएँ लगती हैं लेकिन प्रथम दृष्टया...। इन कविताओं की प्रकृति इतनी विशिष्ट है कि ये तुरंत अन्य सैकड़ों कविताओं से खुद को अलगा लेती हैं। पुनर्पाठ को विवश करती ये कविताएँ हमारे भीतर के वन- प्रांतर में प्रवेश करती हैं और तीसरी कविता की पहली पंक्ति भेडिये फिर आयेंगे हमारे पिछले अहसास को खत्म कर देती है। नहीं, ये प्रबोधन कविताएँ नहीं है  
मनुष्यता से अमानवीयता (भेडिया- वृत्ति) की ओर स्खलन यदि एक परिघटना है तो इसका सचेत और संगठित प्रतिरोध मानवता के  लिए जरूरी उपक्रम है। खुद की एक मनुष्य के रूप में पहचान, निर्भय होने का सुख जानने और मशाल उठाना (अर्थात सचेतन संघर्ष) सीखने के लिए भेडियों से जूझना अनिवार्यता है। भेडिये एक चुनौती की तरह आते हैं। कमजोर क्षण में भी उनसे मुठभेड़ एक साहसिक कार्यवाही है, भय से मुक्ति के लिए। जैसे कि डा. लोहिया कहा करते थे, निराशा में किया गया काम ही कर्त्तव्य होता है। ये कविताएँ नृशंसता, अन्याय और क्रूरता के विरुद्ध मानवीय संघर्ष के ऐतिहासिक साक्ष्यों से उत्पन्न सूत्रीकरण और नैसर्गिक सत्य की मदद से एक प्रेरक काव्य- सत्य प्रतिपादित करती हैं।

इन कविताओं की संरचना संश्लिष्ट और सुदृढ़ है। एक नाटकीय वक्तव्य से हर कविता की शुरुआत होती है। फिर कुछ प्रचलित मान्यताएँ, इतिहास से निसृत लोक- अनुभव और नैसर्गिक सत्य हैं और उनके आधार पर रणनीतिक सूत्रीकरण किये गये हैं। कविताएँ सामान्य वर्तमान काल में घटित हैं ( सभी वाक्य व्याकरण की दृष्टि से इसी काल के हैं)। कविता वक्तव्यमूलक हैं। सामान्यीकरण और रणनीतिक सूत्रीकरण का सहमेल है। यह सहमेल ज्ञान- मीमांसा का ताना- बाना रचकर प्रतिरोध के दर्शन की पृष्ठभूमि बन जाता है। प्रतिरोध का दर्शन, यही तो इन कविताओं की प्रतिश्रुति है। इस निष्पत्ति के चलते कविताएँ देश- काल से गहरी संपृक्ति रखते हुए भी आगे बढ जाती हैं, उसका अतिक्रमण कर जाती हैं। जबकि भेडिये फिर आयेंगे में एक आवृत्ति, एक प्रक्रिया के सातत्य का बोध है। हर कविता की आखिरी पंक्ति प्रश्न है जो व्यापक समानांतर अर्थ के सृजन में मदद करती है। ये प्रश्न पाठक को निष्क्रिय भोक्ता नहीं रहने देता, वह उसे एक्टिवेट करता है। सोचने- विचारने और करने की दिशा में सक्रिय कर।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

जाति का उच्छेद : एक पुनर्पाठ

परिप्रेक्ष्य जाति का उच्छेद : एक पुनर्पाठ                                                               ■  राजाराम भादू जाति का उच्छेद ( Annihilation of Caste )  डॉ॰ भीमराव अम्बेडकर की ऐसी पुस्तक है जिसमें भारतीय जाति- व्यवस्था की प्रकृति और संरचना को पहली बार ठोस रूप में विश्लेषित किया गया है। डॉ॰ अम्बेडकर जाति- व्यवस्था के उन्मूलन को मोक्ष पाने के सदृश मुश्किल मानते हैं। बहुसंख्यक लोगों की अधीनस्थता बनाये रखने के लिए इसे श्रेणी- भेद की तरह देखते हुए वे हिन्दू समाज की पुनर्रचना की आवश्यकता अनुभव करते हैं। पार्थक्य से पहचान मानने वाले इस समाज ने आदिवासियों को भी अलगाया हुआ है। वंचितों के सम्बलन और सकारात्मक कार्रवाहियों को प्रस्तावित करते हुए भी डॉ॰ अम्बेडकर जाति के विच्छेद को लेकर ज्यादा आश्वस्त नहीं है। डॉ॰ अम्बेडकर मानते हैं कि जाति- उन्मूलन एक वैचारिक संघर्ष भी है, इसी संदर्भ में इस प्रसिद्ध लेख का पुनर्पाठ कर रहे हैं- र...

उत्तर-आधुनिकता और जाक देरिदा

उत्तर-आधुनिकता और जाक देरिदा जाक देरिदा को एक तरह से उत्तर- आधुनिकता का सूत्रधार चिंतक माना जाता है। उत्तर- आधुनिकता कही जाने वाली विचार- सरणी को देरिदा ने अपने चिंतन और युगान्तरकारी उद्बोधनों से एक निश्चित पहचान और विशिष्टता प्रदान की थी। आधुनिकता के उत्तर- काल की समस्यामूलक विशेषताएं तो ठोस और मूर्त्त थीं, जैसे- भूमंडलीकरण और खुली अर्थव्यवस्था, उच्च तकनीकी और मीडिया का अभूतपूर्व प्रसार। लेकिन चिंतन और संस्कृति पर उन व्यापक परिवर्तनों के छाया- प्रभावों का संधान तथा विश्लेषण इतना आसान नहीं था, यद्यपि कई. चिंतक और अध्येता इस प्रक्रिया में सन्नद्ध थे। जाक देरिदा ने इस उपक्रम को एक तार्किक परिणति तक पहुंचाया जिसे विचार की दुनिया में उत्तर- आधुनिकता के नाम से परिभाषित किया गया। आज उत्तर- आधुनिकता के पद से ही अभिभूत हो जाने वाले बुद्धिजीवी और रचनाकारों की लंबी कतार है तो इस विचारणा को ही खारिज करने वालों और उत्तर- आधुनिकता के नाम पर दी जाने वाली स्थापनाओं पर प्रत्याक्रमण करने वालों की भी कमी नहीं है। बेशक, उत्तर- आधुनिकता के नाम पर काफी कूडा- कचरा भी है किन्तु इस विचार- सरणी से गुजरना हरेक ...

कथौड़ी समुदाय- सुचेता सिंह

शोध कथौडी एक ऐसी जनजाति है जो अन्य जनजातियों से तुलनात्मक रूप से पिछड़ी और उपेक्षित है। यह अल्पसंख्यक जनजाति महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान के कुछ अंचलों में छितरायी हुई है। दक्षिण राजस्थान में इनके हालात प्रस्तुत कर रही हैं अध्येता सुचेता सिंह। दक्षिण राजस्थान के आदिवासी क्षेत्र में कथौड़ी जनजाति है जो वहां रहने वाली जनजातियों में सबसे कम संख्या में है। एक शोध रिपोर्ट के अनुसार इस जनजाति समुदाय की वृद्धि दर दशक वार घट रही है। 'ये लोग कैथ के पेड़ से कत्था निकालने का काम करते थे जो पान में लगाया जाता है इसलिए इनका नाम कथौड़ी पड़ा।' वैसे ये लोग कत्था बनाने के साथ-साथ बहुत से वन सम्बन्धी कार्य करते हैं, जैसे-बांस कटाई एवं दुलाई, वृक्ष कटाई, वन उपज संग्रहण, वन्य जीव आखेट, हाथ औजार निर्माण तथा वन औषध उपचार आदि। राजस्थान में इन लोगों का इतिहास कोई अधिक पुराना नहीं है। इन्हे महाराष्ट्र से इस क्षेत्र में कत्था उत्पादन और वन कटाई के लिए लाया गया। ऐसा अनुमान है कि जंगल के ठेकेदार इन्हे कोंकण महाराष्ट्र से यहां लेकर आये। ऐसा लगता है कि पूर्व में भी ये घुमक्कड़ जीवन जीते थे। इनकी बसाहटें म...

सबाल्टर्न स्टडीज - दिलीप सीमियन

दिलीप सीमियन श्रम-इतिहास पर काम करते रहे हैं। इनकी पुस्तक ‘दि पॉलिटिक्स ऑफ लेबर अंडर लेट कॉलोनियलिज्म’ महत्वपूर्ण मानी जाती है। इन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन किया है और सूरत के सेन्टर फोर सोशल स्टडीज एवं नेहरू मेमोरियल लाइब्रेरी में फैलो रहे हैं। दिलीप सीमियन ने अपने कई लेखों में हिंसा की मानसिकता को विश्लेषित करते हुए शांति का पक्ष-पोषण किया है। वे अमन ट्रस्ट के संस्थापकों में हैं। हाल इनकी पुस्तक ‘रिवोल्यूशन हाइवे’ प्रकाशित हुई है। भारत में समकालीन इतिहास लेखन में एक धारा ऐसी है जिसकी प्रेरणाएं 1970 के माओवादी मार्क्सवादी आन्दोलन और इतिहास लेखन में भारतीय राष्ट्रवादी विमर्श में अन्तर्निहित पूर्वाग्रहों की आलोचना पर आधारित हैं। 1983 में सबाल्टर्न अध्ययन का पहला संकलन आने के बाद से अब तब इसके संकलित आलेखों के दस खण्ड आ चुके हैं जिनमें इस धारा का महत्वपूर्ण काम शामिल है। छठे खंड से इसमें संपादकीय भी आने लगा। इस समूह के इतिहासकारों की जो पाठ्यवस्तु इन संकलनों में शामिल है उन्हें ‘सबाल्टर्न’ दृष्टि के उदाहरणों के रुप में देखा जा सकता है। इस इतिहास लेखन धारा की शुरुआत बंगाल के...

कवि व्यक्तित्व-तारा प्रकाश जोशी

स्मृति-शेष हिंदी के विलक्षण कवि, प्रगतिशील विचारों के संवाहक, गहन अध्येता एवं विचारक तारा प्रकाश जोशी का जाना इस भयावह समय में साहित्य एवं समाज में एक गहरी  रिक्तता छोड़ गया है । एक गहरी आत्मीय ऊर्जा से सबका स्वागत करने वाले तारा प्रकाश जोशी पारंपरिक सांस्कृतिक विरासत एवं आधुनिकता दोनों के प्रति सहृदय थे । उनसे जुड़ी स्मृतियाँ एवं यादें साझा कर रहे हैं -हेतु भारद्वाज ,लोकेश कुमार सिंह साहिल , कृष्ण कल्पित एवं ईशमधु तलवार । कवि व्यक्तित्व-तारा प्रकाश जोशी                                           हेतु भारद्वाज   स्व० तारा प्रकाश जोशी के महाप्रयाण का समाचार सोशल मीडिया पर मिला। मन कुछ अजीब सा हो गया। यही समाचार देने के लिए अजमेर से डॉ हरप्रकाश गौड़ का फोन आया। डॉ बीना शर्मा ने भी बात की- पर दोनों से वार्तालाप अत्यंत संक्षिप्त  रहा। दूसरे दिन डॉ गौड़ का फिर फोन आया तो उन्होंने कहा, कल आपका स्वर बड़ा अटपटा सा लगा। हम लोग समझ गए कि जोशी जी के जाने के समाचार से आप कुछ अस...

दस कहानियाँ-१ : अज्ञेय

दस कहानियाँ १ : अज्ञेय- हीली- बोन् की बत्तखें                                                     राजाराम भादू                      1. अज्ञेय जी ने साहित्य की कई विधाओं में विपुल लेखन किया है। ऐसा भी सुनने में आया कि वे एक से अधिक बार साहित्य के नोवेल के लिए भी नामांकित हुए। वे हिन्दी साहित्य में दशकों तक चर्चा में रहे हालांकि उन्हें लेकर होने वाली ज्यादातर चर्चाएँ गैर- रचनात्मक होती थीं। उनकी मुख्य छवि एक कवि की रही है। उसके बाद उपन्यास और उनके विचार, लेकिन उनकी कहानियाँ पता नहीं कब नेपथ्य में चली गयीं। वर्षों पहले उनकी संपूर्ण कहानियाँ दो खंडों में आयीं थीं। अब तो ये उनकी रचनावली का हिस्सा होंगी। कहना यह है कि इतनी कहानियाँ लिखने के बावजूद उनके कथाकार पक्ष पर बहुत गंभीर विमर्श नहीं मिलता । अज्ञेय की कहानियों में भी ज्यादा बात रोज पर ही होती है जिसे पहले ग्रेंग्रीन के शीर्षक से भी जाना गया है। इसके अला...

समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान-1

रंगमंच  समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान -1                                         राघवेन्द्र रावत  समकालीन हिंदी रंगमंच के बारे में बात बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध से भी की जा सकती थी लेकिन मुझे लगता है कि उससे पूर्व के भारतीय रंगमंच के परिवर्तन की प्रक्रिया पर दृष्टिपात कर लेना ठीक होगा | उसी तरह राजस्थान के समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करने से पहले भारतीय हिंदी रंगमंच पर चर्चा करना जरूरी है, और उससे भी पहले यह जानना भी आवश्यक है कि वस्तुतः रंगमंच क्या है ?और रंगमंच के बाद हिंदी रंगमंच और उसके बाद समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करना एक उचित क्रम होगा भले ही यह मेरे अध्ययन की गरज ही लगे | राजस्थान के रंगमंच पर बात करना इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि इस पर हिंदी साहित्य की तरह चर्चा नहीं हुई चाहे वह आलोचना की दृष्टि से देखें या इसके इतिहास की नज़र से देखें | दो वर्ष पहले ‘जयरंगम’ नाट्य समारोह के एक सेशन में बोलते हुए वरिष्ठ रंग एवं फिल्म समीक्षक अजित राय ने कहा था-“ पता नहीं कौन सा नाटक...

भूलन कांदा : न्याय की स्थगित तत्व- मीमांसा

वंचना के विमर्शों में कई आयाम होते हैं, जैसे- राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक इत्यादि। इनमें हर ज्ञान- अनुशासन अपने पक्ष को समृद्ध करता रहता है। साहित्य और कलाओं का संबंध विमर्श के सांस्कृतिक पक्ष से है जिसमें सूक्ष्म स्तर के नैतिक और संवेदनशील प्रश्न उठाये जाते हैं। इसके मायने हैं कि वंचना से संबंद्ध कृति पर बात की जाये तो उसे विमर्श के व्यापक परिप्रेक्ष्य से जोडकर देखने की जरूरत है। भूलन कांदा  को एक लंबी कहानी के रूप में एक अर्सा पहले बया के किसी अंक में पढा था। बाद में यह उपन्यास की शक्ल में अंतिका प्रकाशन से सामने आया। लंबी कहानी  की भी काफी सराहना हुई थी। इसे कुछ विस्तार देकर लिखे उपन्यास पर भी एक- दो सकारात्मक समीक्षाएं मेरे देखने में आयीं। ऐसी ही प्रतिक्रिया रणेन्द्र के उपन्यास ग्लोबल गाँव के देवता को भी मिल चुकी थी। किन्तु आदिवासी विमर्श के संदर्भ में ये दोनों कृतियाँ जो बड़े मुद्दे उठाती हैं, उन्हें आगे नहीं बढाया गया। ये सिर्फ गाँव बनाम शहर और आदिवासी बनाम आधुनिकता का मामला नहीं है। बल्कि इनमें क्रमशः आन्तरिक उपनिवेशन बनाम स्वायत्तता, स्वतंत्र इयत्ता और सत्त...

कविताएं - सुभाष सिंगाठिया

सुभाष सिंगाठिया ने शिक्षा में ‘हिन्दी साहित्यिक पत्राकारिता और स्त्री विमर्श’ पर लघु शोघ व ‘हिन्दी स्त्री-कविता में स्त्री-स्वरः एक विमर्श’ पर स्वतंत्र शोध किया। इनकी रचनाओं के दिल्ली दूरदर्शन, जयपुर दूरदर्शन एवं आकाशवाणी पर प्रसारण हुये हैं। सुभाष ने वर्षो ‘प्रशान्त ज्योति’ के साहित्यिक परिशिष्ट का संपादन किया। अभी तक साहित्यिक पाक्षिक ‘पूर्वकथन’ के संपादन में संलग्न हैं। सम्पर्क: 15 नागपाल कॉलोनी, गली नं. 1, श्रीगंगानगर- 335001 मो.: 9829099479  प्रसि( आलोचक स्व. शुकदेव सिंह ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था कविता मूलतः और अंततः भाषा होती है। कवि सुभाष सिंगाठिया की कविता पढ़ते हुए यह बात बरबस याद आ गयी। हांलाकि शुकदेव सिंह ने अपनी बात को खोलते हुए इसी साक्षात्कार में कविता में विन्यस्त संवेदना, विचार, सौंदर्यशास्त्र आदि की भी बात की थी किंतु उनकी कही ये पंक्ति आज भी मेरे जेहन में कांेधती हैं। सोचता हूं कविता को अंततः और मूलतः भाषा मानना कविता की आलोचकीय दृष्टि के चलते कहां तक न्याय संगत है? सुभाष सिंगाठिया की कविताओं में भाषा अपनी व्यावहारिकता में अंशिक सघन, गूढ़ और संस्कारि...

लेखक जी तुम क्या लिखते हो

संस्मरण   हिंदी में अपने तरह के अनोखे लेखक कृष्ण कल्पित का जन्मदिन है । मीमांसा के लिए लेखिका सोनू चौधरी उन्हें याद कर रही हैं , अपनी कैशौर्य स्मृति के साथ । एक युवा लेखक जब अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी के उस लेखक को याद करता है , जिसने उसका अनुराग आरंभिक अवस्था में साहित्य से स्थापित किया हो , तब दरअसल उस लेखक के साथ-साथ अतीत के टुकड़े से लिपटा समय और समाज भी वापस से जीवंत हो उठता है ।      लेखक जी तुम क्या लिखते हो                                             सोनू चौधरी   हर बरस लिली का फूल अपना अलिखित निर्णय सुना देता है, अप्रेल में ही आऊंगा। बारिश के बाद गीली मिट्टी पर तीखी धूप भी अपना कच्चा मन रख देती है।  मानुष की रचनात्मकता भी अपने निश्चित समय पर प्रस्फुटित होती है । कला का हर रूप साधना के जल से सिंचित होता है। संगीत की ढेर सारी लोकप्रिय सिम्फनी सुनने के बाद नव्य गढ़ने का विचार आता है । नये चित्रकार की प्रेरणा स्त्रोत प्रकृति के साथ ही पूर्ववर्त...