पिछले दिनों मैं ने पंकज सिंह की कविताओं पर लिखा। वे मेरे प्रिय कवियों में रहे हैं। अपने समकालीनों में वे कहीं अधिक यथार्थवादी और काव्यात्मक रहे हैं। एक राजनीतिक कवि के रूप में उनकी कविताएँ ज्यादा टिकाऊ और प्रासंगिक ठहरती हैं। ऐसा शायद इसलिए है कि वे प्रतिकूल समय में भी सैद्धांतिक निष्ठा और अपने संकल्प से शक्ति अर्जित करते हैं। उनकी कविताओं में वैयक्तिक अनुभूतियाँ और व्यापक संलग्नता ऐकमेक है। इसीलिए उनकी कविताओं के निहितार्थ और प्रभाविता नये सिरे से आलोकित हैं। उनके तीन प्रकाशित संकलनों से किन्हीं कविताओं का चयन आसान नहीं है। निश्चय ही, प्रस्तुत कविताओं में मेरी पसंदगी और अन्यान्य आग्रह रहे हैं।
- राजाराम भादू
१. हम घिरे हैं गिरे नहीं
वह कौन है, मेधा? मोमबत्ती ढूंढती हुई अंधकार में
अपनी ही प्रति- छाया सी
किसी गोपनीय शाप का दूसरा सिरा थामे
खुद को भरसक बचाना है खीझ से उदासी के जहर से
रहने दो, रहने दो अभी, मैं कहता हूँ
अंधेरे में व्यर्थ की टकराहटों का, चोट खाने का अंदेशा है
रहने दो फिलहाल रहने दो
हमें इंतजार की ताकत सिरजनी चाहिए
जिंदा रह पाने की जुगत करते हुए धीरज के संग
कई बार चमकता है वही धीरज बीजगर्भित
नींद की राह में
किसी दुर्लभ स्वप्न के आरंभ की मानिंद
हम एक दूसरे को प्रशान्त स्वर में बताते हैं
कि हम घिरे हैं
गिरे नहीं
डर और लालसा की बजबजाहट में।
२. शर्म
डरी हुई हैं बेशुमार भली स्त्रियाँ
डरे हुए हैं बेशुमार बच्चे
कागज पर कलम लेकर झुके लोगो
यह कितनी शर्म की बात है
३. जब कुछ पैसे आयेंगे
आयेगा लिखने का बढिया कागज
घर में आयेंगी अच्छी चाय की पत्तियाँ
और अफसोस के कोहरे में डूबती- उतराती किताबें
जिन्हें खरीदना मुमकिन नहीं है आजकल
आयेगा खाने- पीने का सामान
अगर सेहत के लिए नहीं
तो खीझे हुए डाक्टर से संबंध बचाने के लिए
आयेंगी महीनों से टल रही दवाएं
हो सकता है लिखने की टेबिल आ जाये
साथ- साथ कम से कम एक अदद कुर्सी
जब कुछ पैसे आयेंगे
रात- रात भर होंगी तेज बहसें मुसलसल
आयेगी दोस्तों के लिए राजस्थानी शराब की एक बोतल
पैसे आयेंगे
जैसे एक अच्छे दिन की शुरुआत में
आती हैं गाती हुई भोर की चिड़िया
आयेगी थोडी निश्चिंतता
और
नींद
४. लान की घास
मसालेदार राल से सने नैपकिन चुसी हुई हड्डियां
व्यर्थ हो चुके अन्न के दाने
मुस्कुराहटों के खोखल
हटाये जाते हैं सलीके से सुबह- सुबह
कोई माली तल्लीन धोता है फुहारों से घाव
संपन्न घास है हरी और सघन संवरी- संवरी नगर में
शाम की रोशनी में एक- एक पत्ती दिखती है
पिघले कुन्दन में नहायी हुई नये रात्रिभोज की प्रतीक्षा में
हरीतिमा यह गाती नहीं है धान गेहूँ या बाजरे की फसलों सी
चांदरातों के उफनते समुद्रों से आते हैं नायक यहाँ
सदियों से एक सी मुद्राओं वाले
झूठ के सुनहरे हथियार लिए
जिन पर ताजा आखेट का रक्त होता है
वह एक रोमांचक दृश्य होता है कुलीन स्रियों के लिए
जिनकी खुशबुएं हवाओं में आग लगाती हैं
आहार चलता है देर गये तक रात में
घास का लगातार चुप रहना रहस्य है
जबकि उसकी जडोंं के पास उग रहा है जोखिम
५. दाम्पत्य
रोटी और साहस कठोरता और कायरता
उन्माद और विवेक बेसुध प्रेम और व्यावहारिकता के बीच
काली चट्टानों से टकराता
गिरता और उठता खुद को साधता
अपने दर्प और यंत्रणा में हिंस्त्र पशु सरीखा चक्कर लगाकर
रात गये बिस्तर पर ढहता है पुरुष
अपने हिस्से का रचने के बाद
सब कुछ सहेज संवार
आती है स्त्री
अपनी उदार करुणा के जल से धोती है
उसके घावों को
फिर अकेली हो जाती है स्त्री अपने साथ
नदी और पृथ्वी होती हुई बार- बार
हंसती है स्त्री एक सूखी हंसी नीरव
जिसमें
सब समझे बैठे का पश्चातापहीन धीरज है
उसी से चलता है सारा कार्य व्यापार
बिना किसी नाटकीयता के स्वाभाविक गति में
जिसे कई लाख साल से ग्रस नहीं पायी है मृत्यु
६. बचपन। गाँव। घोंसला। रात
मोर नाचते हैं शीशम के जंगल में
डालों के झुरमुट में घूमता है
बूढा चौकीदार- पूरनमासी का चांद
परती के बीच एक घर है
जहाँ बच्चे सोये हैं
जहाँ मां सोयी है
लटक आते हैं छप्पर से गेहुंअन करइत
जहाँ आंगन में रात भर चमकती है एक कुदाल
७. अविनय अनुनय कोई
एक दृश्य ओझल हो गया जिसमें मेरा बेटा था
एक दृश्य गुम हो गया जिसमें मेरी मां थी
कितनी अक्षौहिणी सेनाएँ लिये आते हो जीवन
कितना रक्त चाहिए
कितना रक्त
एक आदमी से
होने दो उसे उतना सा वह
कम- से- कम
जो उसे होना
( ही )
है।
८. न लिखी गयी कविताएँ
ओस की तरह जो हमारे अस्तित्व में झरती हैं
अतलान्त कोहराम में
कविताएँ
रोजमर्रा की धूप में गुम हो जाती हैं
लेकिन छोड जाती हैं
जंगली हथिनियों सी भारी पांवों के निशान
शब्दों की गूंज
मधुमक्खियों के आवारा गीतों सी रहस्यभरी
हम उनकी छायाओंं को तलाशते हैं रात- बिरात
मशालों की रोशनी में
हमारे थके संवलाये हाथ उन्हें बुलाते हैं
एक अपमानित भाषा में प्रकट होने को
९ . जिनके घर बार- बार ढह जाते हैं
जो घूमते हैं ढोर- डंगरों की तरह,
विश्वविद्यालय अस्पताल सरकारी कार्यालयों की ईंटें जोडते
शहर- दर- शहर
जो हांक दिये जाते हैं दिल्ली से चंडीगढ़ भोपाल से कलकत्ता
चटकलों में जो पीछे छूटे खेतों की याद लिये खटते हैं
जिनके मोह टूट जाते हैं
गाँव गंवई से होली दीवाली से
डबरे पोखरों से
जो आते हैं शहरों में आदमशक्ल पशुओं से
कातर और बीमार
जो गिरते हैं किसी अधबने स्काईस्क्रैपर से
और जो अखबार में नहीं दीखते
उनके लिए कहीं नहीं हैं पालनकर्ता नारायण
रहस्यभरी मुस्कानों वाले सफल लोग कर्णधार पत्रकार
नहीं देखते उन्हें और वह आकाश उनमें फैलता
जहाँ से गायब हो रही है सांझों की रामधुन
नाचते हैं गट्ठिल सूखे कंकाल उस आकाश में
भूमि से उखडे क्रुद्ध ठूंठों की तरह
बहुत जल है वहाँ बहुत आग है
बहुत कुछ ध्वस्त करने को बहुत उगाने को
रचने को
वहीं कल में गूंजती हमारी कजरी है
वहीं हमारा फाग है
जिनके हाथ एक दिन सब कुछ कर जाते हैं
जो घूमते हैं ढोर- डंगरों की तरह
१०. स्त्री
पार्टी की रात्रि पाठशाला में
जाती है एक किसान स्त्री
पता नहीं ठीक- ठीक कहां होगा इन दिनों
उसका पति कैसे- कैसे खतरों से घिरा
उलझती-छूटती मन में, रन में, वन में
वह लिपि का अभ्यास करती है
बायां हाथ सो चुके बच्चे के सिर पर
घूमता है सहज गति में धीमे- धीमे
लिपि के जरिए उस तक जायेंगे विचार
ज्यों स्मृति को जरा सा टकोरते ही
उस गये हुए का प्यार।
११. मैं आऊंगा
गेरू से बनाओगी तुम फिर
इस साल भी
घर की किसी दीवार पर ढेर- ढेर फूल
और लिखोगी मेरा नाम
चिन्ता करोगी
कि कहां तक जायेंगी शुभकामनाएं
हजारों वर्गमील के जंगल में
कहां - कहां भटक रहा होऊंगा मैं
एक खानाबदोश शब्द सा गूंजता हुआ
शब्द सा गूंजता हुआ
सारी पृथ्वी जिसका घर है
चिन्ता करोगी
कब तक तुम्हारे पास लौट पाऊंगा मैं
भाटे के जल सा तुम्हारे बरामदे पर
मैं महसूस करता हूं
तुलसी चबूतरे पर जलाये तुम्हारे दिये
अपनी आंखों में
जिसमें डालते हैं अनेक- अनेक शहर
अनेक- अनेक बार धूल
थामे- थामे सूरज का हाथ
थामे हुए धूप का हाथ
पशम की तरह मुलायम उजालों से भरा हुआ
मैं आऊंगा चोटोंं के निशान पहने कभी
चित्र- मनमोहन भारती
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