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साहित्य, सांस्कृति एवं समाज: एक दृष्टि- प्रो. आशा कौशिक

प्रो. आशा कौशिक एक स्त्रीवादी विदुषी के साथ समर्थ एक्टिविस्ट हैं। वे राजस्थान विश्वविद्यालय के विभिन्न निकायों और राजस्थान विश्वविद्यालय वीमेन एसोसिएशन (RUWA) में समान रूप से सक्रिय रही हैं। उन्होंने राज्य की महिला नीति बनाने में अहम भूमिका निभाई है। उनके लेख प्रतिष्ठित अकादमिक पत्रिकाओं में छपे हैं। प्रस्तुत लेख साहित्य और संस्कृति के आवयविक संबंध को रेखांकित करता है।

साहित्यिक चेतना सामाजिक चेतना का ऐसा वहै, जो
स्वनिर्धारित, स्वायत्त कलेवर रखते हुए भी बद्धमूल है। सामाजिक संबंधों के परिवेश की असीमित असंगतियां, सभावनाएं साहित्य सृजन के लिएउर्वम है, चुनौतीपूर्ण परिदृश्य भी। इसका यह तात्पर्य कतई नहीं है कि सामाजिक विश्लेषण की सहायक विध्या है। कला की अन्त:विहित सम्पूर्णता एवं कल्पनाशील विशिष्टता उसे एक मानक का दर्जा प्रदान करती है। साहित्यकार की अनुभूति में प्रचलित सामाजिक मूल्यों, मानकों, संबंध संरचनाओं की व्याख्या, पुनव्य्याख्या मे संवेदनशील-परख की अनूठी क्षमता होती है। यह क्षमलता सामाजिक सरोकारों से संलग्नता में निखरती है। जब साहित्य, मूर्त संदर्भी में मूर्त व्यक्तियों की आशा-निराशा, आकांक्षाओं- चुनौतियों, खुशियाँ दु:खो को शब्दांकित करता है, तो वह जन - सरोकारों से स्वतः जुड़ जाता है। एवं, जब सामान्य जुड़ाव की यह प्रक्रिया आरोपित नहीं, स्वतः स्फूर्त होती है तो साहित्यिक कृति जनमानस को झकझोरने में सफल होती है और, यही उसे विशिष्ट, अतिविशिष्ट बनाता है।
ऐसा साहित्य बौद्धिक क्रांति एवं सामाजिक परिवर्तन का संवाहक भी होता है। इस प्रकार साहित्य, संस्कृति, समाज और राजनीति समग्र सामाजिकता के पृथक्-पृथक् कलेवरों में दिखनेवाले अन्तर्सम्बन्धित घटक हैं। समग्र सामाजिक समझ एवं इन अन्तर्सम्बन्धों की बारीकियों की समझ में आनुपातिक सम्बन्ध है। इसलिए, साहित्यिक सरोकार सामाजिक सरोकारों से विन्छन्न नहीं हो सकते। उपर्युक्त कथ्य महिला साहित्यकारों पर भी उतना ही लागू होता है जितना पुरुष साहित्यकारों पर। साहित्य, संस्कृति एवं समाज की अन्तःकिया को समझने, स्वीकार करने की बात नयी नहीं है। साहित्य-समालोचना की इस दृष्टि का लम्बा इतिहास है। यथार्थवाद, प्रकृतिवाद, समाजवादी, साम्य-परक यथार्थवाद आदि अनेक दृष्टिकोणों के अन्तर्गत प्रतिनिधित्व', 'प्रतिबिम्ब', 'द्वंद्वात्मक बिम्ब' आदि अवधारणाओं के माध्यम से इस अन्तःकिया को समझने का प्रयास किया गया है। अनेकान्त यथार्थ की व्याख्या विविधतापूर्ण एवं अनेकान्त ही हो सकती है। उपर्युक्त उपागमों में यद्यपि कभी कला एवं साहित्य को यथार्थ के सटीक प्रतिबिम्ब प्रतिनिधित्व की परिधि में संकुचित तो कभी काल-परिवेश-निरपेक्ष सार्वभौमिकता के रूप में विस्तारित कर उसका मिथकीकरण भी किया गया है। तथापि, सार रूप में यह स्वीकार किया गया है कि साहित्य मूलतः सांस्कृतिक-सामाजिक निर्मिति है । इन संदर्भों में ही उसे अपनी अर्थवत्ता प्राप्त होती है। वस्तुतः साहित्यकार के सरोकार अपने संदर्भ के ही सरोकार होते हैं। संदर्भ की वस्तुस्थिति, विसंगतियां, असंतोष अथवा उसके प्रति आक्रोश अन्यथा विद्रोह की अभिव्यक्ति। साहित्यिक सृजन में ये चेतना के अनेक स्तर भी हो सकते हैं तथा, अभिव्यक्ति के समधरातलीय आयाम भी। संदर्भगत सरोकारों से विलग एवं विलग्न साहित्य काल्पनिक, जड़विहीन मिथ्यावाद होगा। रेमण्ड विलियम्स का यह कथन सटीक है कि 'साहित्यिक चेतना सामाजिक चेतना से न ऊपर है न नीचे, वह पूर्णतः सामाजिक है जो विशिष्ट भी है और सतत भी।"

साहित्य-समाज का अन्तर्सम्बन्ध एकरूप नहीं है, न हो सकता है। बिम्ब-प्रतिबिम्ब, कारण-परिणाम के रूप में यथार्थ के निरूपण की एकांगी दृष्टि से इतर, साहित्यिक अभिव्यक्ति स्वभावतः बहुआयामी,बहुस्तरीय एवं द्वंद्वात्मक है, जिसमें व्यक्तिपरकता एवं वस्तुनिष्ठता के ध्रुवीकरण की अनिवार्यता नहीं है
सामाजिक मूल्य एवं संबंध-संरचना सिर्फ ग्रहण ही नहीं किए जाते,प्रश्नांकित, विखण्डित एवं तिरस्कृत भी किए जाते हैं। इस प्रक्रिया में साहित्यकार की दृष्टि एवं अन्तर्दृष्टि उभरती है। इस प्रक्रिया को साहित्यकार की 'सामाजिक सरोकरों से प्रतिबद्धता या उसमें परिवर्तन के रूप में व्याख्यायित किया जा सकता है।

अवश्य ही, साहित्य में तथ्यात्मक ठोसता खोजना असंगत है। वह इतिहास एवं समाज विज्ञानों का कार्यक्षेत्र है, किन्तु तथ्यात्मक यथार्थ की पीड़ाओं, चुनौतियों के सरोकारों को खोजना असंगत नहीं है। यह खोज सामाजिक यथार्थ की रचनात्मक व्याख्या की खोज है, जिसमें तथ्यात्मकता नहीं, तदुजन्य असंतोष, उबरने की छटपटाहट, क्षोभ,कोध, द्वंद्व का नैतिक साहस एवं वैकल्पिक दृष्टि की क्षमता, सभी कुछ शामिल है। 
'विषय चयन' साहित्यकार का विशेषाधिकार एवं स्वायत्तता का प्रश्न प्रतिबद्धता, विचारदृष्टि, विचारधारा, संलग्नता, तटस्थता, सत्यनिष्ठा आदि प्रश्नों से भी जुड़ा है, जो साहित्यकार के सरोकारों को निर्धारित करते हैं । फ्रांसीसी दार्शनिक एवं साहित्यकार सात्रृ ने लिखा है कि जब साहित्यिक सृजन गंभीर होता है तो व सामाजिक -प्रतिबद्धता से ओतप्रोत होता है।
साहित्यिक सृजन मात्र शब्द संप्रेषण नहीं, शब्दों के अर्थ एवं संदर्भ की संवेदनशील व्याख्या का यज्ञ है। साहित्यकार अपनी दृष्टि से इन्हें परिभाषित, व्याख्यायित, आलोचित करते हैं । यदि साहित्य व्यक्ति और समाज को झकझोरने में समर्थ नहीं है तो वह अर्थहीन है। 'किसी भी युग का साहित्य', सात्र के शब्दों में साहित्य' द्वारा परिभाषित युग ही है।
सरोकारों का साहित्य 'सूजन' और 'समाज' के विलग्नतापूर्ण विभाजनका विलोम है। अन्तरावलम्बन की चेतना में असीम संभावनाएं हैं कलात्मक श्रेष्ठता एवं सामाजिक मुक्ति, दोनों के लिए । राजनीजिक प्रतिबद्धता के संदर्भ में  जार्ज औरबेल ने कहा था, "यह धारणा कि कला का राजनीति से कोई  प्रतिबद्धता के संदर्भ में जार्ज ऑरबेल ने कहा था, "यह धारणा कि कला का राजनीति से कोई सरोकार नहीं है, स्वयं में एक राजनीतिक दृष्टिकोण है ।" यही बात अन्य सरोकारों पर भी लागू होती है। समाज में उपस्थित पराधीनता एवं दमन का प्रतिरोध एवं स्वाधीनता, मुक्ति की चेतना के अभ्युदय में दुनियाभर में और देश में साहित्य के योगदान को लेकर विमत नहीं है। ये सरोकार बाहर से आरोपित नहीं, अपितु कृति के कलेवर में ही समाहित होते हैं । राजनीतिक क्रांति के सदर्भ में चीनी क्रांतिकारी माओ ने इस प्रक्रिया को कला की ऐतिहासिक सापेक्षता' का नाम दिया था।
चूंकि कलात्मक श्रेष्ठता अथवा सामाजिक-राजनीतिक सत्यत सुनिश्चित मानक नहीं होते, अतः साहित्याकार के समक्ष सृजनात्मक स्वायत्तता एवं सामाजिक दायित्व में संतुलन स्थापित करना एकबुनियादी चुनौती है।
सम्पूर्ण सांस्कृतिक प्रकियाओं की तरह साहित्य एकवं कला न तो पूर्णतः यथार्थ का प्रतिबिम्ब होती है, न ही पूर्णत स्वायत्त। कालातीत प्रासंगिकता के लिए कला का समकालीन चेतना से आगे भविष्योन्मुखी होना आवश्यक है। साहित्यिक चेतना जव सामाजिक वेतना में परिवर्तन करती है तो समाज में बुनियादी परिवर्तन की आस बंधती है। किस्योफर काँडवेल ने इसे सांस्कृतिक भौतिकवाद' का नाम दिया है जिसमें साहित्य की भूमिका संस्कृति कर्म एवं सास्कृतिक-जीवनशैली' को जोड़ने की है। साहित्य का दायित्व सामाजिक एवं सांस्कृतिक चेतना के सार्वजनिक अर्थ एवं निहितार्थ-सृजित करना भी है। इस प्रक्रिया को समझने में ग्राम्शी द्वारा प्रतिपादित 'वर्चस्व' की अवधारणा उपयोगी है। प्रभुत्वशाली सांस्कृतिक वर्ग के प्रभाव या पक्ष में जब साहित्यिक सृजन होता है तो 'वर्चस्व की संस्कृति' पुष्ट होती है। 'वर्चस्व' की अवधारणा सामाजिक/ सांस्कृतिक नियंत्रण, सहवरण,समायोजन की प्रक्रियाओं  को समझने में भी मददगार है। वस्तुतः साहित्य एक साथ भौतिक एवं कल्पनाशील दोंनो है, इसलिए इसकी अन्तर्वस्तु में सांस्कृतिक-सामाजिक समालोचना भी एक तरह से समाहित है।
भारतीय स्वाधीना आन्दोलन में संस्कृति की शक्ति एवं क्षमता/ ऊर्जा को तिलक, गाँधी, बंकिम, टैगौर, प्रेमचन्द, सरोजिनी नायडू, मुल्कराज आनंद जैसे साहित्यकारों ने पहचाना एवं अपनी रचनाधर्मिता का उपयोग राष्ट्रीय सरोकारों के लिए किया। इससे भी पूर्व, मध्ययुगीन भारत में कबीर एवं मीरा का भक्ति साहित्य सामाजिक एवं स्त्री-सरोकारों से पूर्णतः संपृक्त था। भारतीय संस्कृति की बहुलतावदी प्रकृति की जीवन्तता को बनाए रखने के लिए एवं समतामूलक, समरसतामूलक समाज-मूल्यों की स्थापना एवं सततता के लिए साहित्यकी भागीदारी सदैव अपेक्षित रही है।
हर युग की अपनी चुनौतियां होती हैं। वर्तमान दौर की भी चुनौतियां हैं।पिछली सदी के मुक्ति आन्दोलनों से जिन नवीन सामाजिक सांस्कृतिक साहित्यिक मूल्यों की प्रतिष्ठा हुई थी, कदाचित बिखराव की स्थिति में को है। नवजागरण की शक्तियां/प्रतिबद्धताएं कमजोर हुई हैं। आक्रामक पूंजीवादी भूमण्डलीकरण एवं उपभोक्तावादी जीवन दर्शन ने सामाजिक जीवन मूल्यों के क्षरण को त्वरित किया है। संचार क्रांति ने सम्प्रेषण की पूर्व धारणाओं को ध्वस्त किया है। इसके सांस्कृतिक निहितार्थ भी द्रष्टव्य हैं ।
साहित्यकारों एवं बुद्धिजीविनियों के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती है सृजन की आशावादिता एवं कल्पनाशक्ति के हथियार से सामाजिक रुग्णता एवं मूल्य-क्षरण से जनित पतनशीलता पर सवाल उठाने एवं उनके प्रबल प्रतिरोध के नैतिक साहस का प्रतिमान गढ़ें। बहुस्तरीय यथार्थ के साथ बहुआयामी संलग्नता आवश्यक है। इतिहास बोध एवं भविष्योन्मुखी दृष्टि से विहीन साहित्य वर्तमान सरोकरों से भी संलग्न नहीं हो सकता। सरोकार संवेदना एवं संवेदनशीलता से पुष्ट होते हैं। जब संवेदनहीनता का वृत्त विस्तारित होने लगता है तो मर्म अन्तःस्पंदन की अनुभूति क्षीण होती है। निजता और सामाजिकता, परम्परा और प्रगति की द्वंद्वात्मक गतिशीलता के मध्य संवेदना और सरोकारो की अवस्थिति होती है और यही संस्कृति एवं साहित्य के अन्तरावलम्बन का सामाजिक संदर्भ   है।
उपर्युक्त दृष्टि महिला साहित्यकारों पर भी उतनी ही लागू होती है जितनी पुरुष साहित्यकारों पर । किन्तु, इसका तात्पर्य यह भी नहीं है कि महिला लेखन के कोई विशिष्ट सरोकार, विशिष्ट शैली है कि नहीं ।महिला साहित्य एवं महिला साहित्यकारों के सरोकारों की विशिष्टता को समझने के लिए भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति एवं प्रस्थिति के बहुस्तरीय यथार्थ को समझना आवश्यक है। सामाजिक संरचना में उपस्थित अनेकानेक विभेदों में स्त्री एवं पुरुष का विभेद बुनियादी है, क्योंकि यह प्राकृतिक है। किन्तु, प्राकृतिक विभेद का निहितार्थ लैंगिक असमानता नहीं, परस्पर सम्पूरकता एवं परिपूरकता है। स्त्री-पुरुष असमानता के बीज प्रकृति में नहीं, समाज, संस्कृति, राजनीति, अर्थतंत्र की पितृसत्तात्मक एवं पदसोपानीय संरचनाओं में उपजे हैं इन प्रचलित शक्ति संरचनाओं एवं शक्ति समीकरणों को परत-दर-परत समझने की आवश्यकता है। उन कारणों की समीक्षा भी समीचीन है जो आम महिला की शक्तिहीनता के मूल में हैं। पितृसत्ता से लेकर आर्थिक शोषण एवं राजनैतिक शक्ति की आधिपत्य संरचनाओं का प्रश्नांकन आवश्यक है।
स्त्री-पुरुष भेदभाव जीवन एवं समाज के हर क्षेत्र में द्रष्टव्य हैं। स्त्री-पुरुष लिंग-अनुपात, विशेषतः छः वर्ष से छोटे बच्चों में घटता लिंगानुपात कन्या भ्रूण हत्या की वीभत्सता को उजाकर करता है। साक्षरता, शिक्षा के आंकड़ों में अन्तराल, स्वास्थ्य सेवाओं, रोजगार क्षेत्रों, संसाधनों, राजनीतिक सत्ता तक पहुंच का अभाव या अत्यन्त सीमित पहुंच, इस तर्क की दृष्टि है कि स्त्री को सबल अभिकर्ता बनने से  रोकने में सचेष्ट संरचनात्मक कारकों की भूमिका है। परिवार, धर्म, संस्कृति की पितृसत्तात्मक संरचनाओं ने स्त्री को नियंत्रित किया है। सांस्कृतिक-सामाजिक मानदण्डों द्वारा ही स्त्री की स्व-छवि एवं स्थितियों समाजगत-छवि निर्धारित एवं सीमित की गई है। स्त्री की अभिव्यक्ति, करने की मनोदशा नियंत्रित हुई है, क्योंकि इनका निर्धारण भी पितृसत्तात्मक मूल्य व्यवस्थाओं की परिधि में ही किया गया है। नारी के गढ़ी गयी देव्या, वीरांगना, रति-प्रधान भोग्या छवि ऐसे ही उदाहरण हैं।  इसी तरह, पवित्रता, कौमार्य, समर्पण  आदि मात्र  शब्द या आग्रह नहीं हैं, सांस्कृतिक निहितार्थों के पुंज हैं।
पितृसत्तात्मक नियंत्रण के औजार भी हैं। पुरुष के लिए सम-शब्दों का अभाव, भाषा, शैली, संस्कृति के पितृसत्तात्मक आधार एवं पुरुष प्रधानता को स्पष्ट करता है। स्त्री एवं पुरुष दोनों ही ऐतिहासिक-सामाजिक निर्मित हैं, किन्तु सामाजिक आचरण सहिता दोनों के लिए भिन्न एवं भेदभावपूर्ण है। सभ्यताओं के इतिहास में स्त्री को 'अन्य' के रूप में निरूपित किया गया है एवं निरन्तर किया जा रहा है जैसा कि नारीवादी दार्शनिक सिमोन द बुवो ने दर्शाया है।आज स्त्री की भूमिका को नियत एवं पूर्णतः निर्धारित मानना भूल है, क्योंकि ये भूमिकाएं बदल रही हैं, पुनर्परिभाषित हो रही हैं पुनर्परिभाषा की इस प्रक्रिया में साहित्य एवं महिला साहित्य की महती भूमिका है। संरचना, आचरण,अन्तर्सम्बन्ध अनुभूति, बीद्धिकता सभी क्षेत्रों में उभरते क्षितिज एवं गहराती चुनीतियां द्रष्टव्य हैं, किन्तु प्रश्नांकन, प्रतिरोध एवं वैकल्पिक सोच के माध्यम से छोटे-छोटे चेतना-मुक्ति द्वार खोलना आवश्यक है। 
परिवेश की विसंगतियों एवं दुविधापूर्ण मानसिकता के मध्य स्त्री को आत्मविश्वासी अभिकर्ता के रूप में राह चुनने की चुनौती है। मूलतः स्त्री का 'स्वत्व' उसके व्यक्तित्व, भूमिका एवं शक्ति का आधार है। जैसा कि प्लेटो, गांधी, टैगोर ने माना,आत्मशक्ति बह्य शक्ति का स्तम्भ है। आत्मविश्वास, आत्मनिर्णय एवं चयन की क्षमता साथ-साथ ही सक्रिय होते है। चूंकि, सांस्कृतिक-सामाजिक वर्चस्व की प्रक्रिया जटिल एवं अप्रत्यक्ष होती है, स्त्री की वर्तमान अशक्तता /शक्तिहीनता की जड़ें अतीत में भी खंगालने की जरूरत है । अतीत से वर्तमान को विच्छिन्न करने की प्रवृत्ति में अनैतिहासिक दृष्टि का शिकार होने का जोखिम एवं एकांगी सामाजिक समझ का खतरा है । अमत्र्य सेन का यह कथन अन्तर्दृष्टिपूर्ण है कि संस्कृति का संकुचन करने की प्रवृत्ति दुराग्रह को जन्म देती है। अतः साहित्यिक सृजन के आत्मगत एवं समाजगतदोनों ही पहलू अनिवार्य हैं।
सामाजिक विसंगतिया, शोषण उपकरमों एवं उत्पीड़न की निरन्तर स्थितियों के बीच स्त्री की पीड़ा को संवेदनशीलता के साथ शब्दांकित करने की आवश्यकता है। सहानुभूति एवं संवेदनशीलता का अंतर बारीक हुए भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है- यह दृष्टि एवं दृष्टिकोण का मूलभूत अंतर है, जो संभवतः साहित्यकार की विषय-दृष्टि को दर्शाता है।स्त्री-सरोकरों की समग्र, संवेदनशील समझ के लिए स्त्री को सामाजिक जीवन की मुख्यधारा में अवस्थित कर व्याख्यायित करने की आवश्यकता है। इसलिए, स्त्री सरोकारों को केन्द्र में रखते हुए भी, वृहद् सामाजिक सरोकारों से जुड़ाव भी आवश्यक है क्योंकि, सारतः स्त्री मुद्दे सिर्फ स्त्रियों के नहीं, सम्पूर्ण समाज के मुद्दे हैं, जिन्हें समझना एवं जिनके हल ढूंढ़ना एक स्वस्थ, संतुलित, लोकतांत्रिक समाज की अर्हता है। अतः स्त्री-सरोकार एवं
समाज-सरोकार समार्थी एवं सम-महत्वपूर्ण हैं। वैयक्तिक पीड़ा का चित्रांकन साहित्यकार का साहित्यिक विशेषाधिकार है, किन्तु उस तक परिसीमित रहना शायद उसकी सीमा। इससे इतर, साहित्य एवं महिला साहित्य की दीर्घकालिक अर्थवत्ता समाज में व्याप्त असंतोष, वितृष्णा, आक्रोश, साथ ही बदलाव की ललक, ललकार का साहस और बेहतर दुनिया की ऐसी
 तस्वीर में हैं।जहां स्त्री-मुक्ति, समाज-मुक्ति का समानार्थक है।

प्रो. आशा कौशिक राजस्थान विश्वविद्यालय ( जयपुर) के राजनीति विज्ञान विभाग की अध्यक्ष, समाज विज्ञान संकाय की डीन, महिला अध्ययन केन्द्र की निदेशक और सामाजिक अपवर्तन एवं समावेशी नीति अध्ययन केन्द्र की संस्थापक निदेशक रही हैं। राजनीतिक सैद्धांतिकी, गांधी चिन्तन, जेन्डर और सांस्कृतिक अध्ययन उनकी विशेषज्ञता के क्षेत्र रहे हैं। इनकी 11 पुस्तकों सहित अनेक लेख देश- विदेश की प्रतिष्ठित अकादमिक पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्थाओं सहित कई सरकारी व गैर- सरकारी एजेंसियों में इनकी भूमिका रही है।
वर्तमान में समान्तर संस्थान की अध्यक्ष हैं। 
संपर्क :9828016696 है, 

रेखाचित्र: पंकज दीक्षित

टिप्पणियाँ

  1. बहुत सार्थक और समुचित विचारपूर्ण लेख है | साहित्य और संस्कृति के अन्तर्सम्बन्धों को समझते हुये लेखिका ने सक्रिय एक्टिविस्ट के रूप में बातों को समझाने का प्रयत्न किया है | लेखिका आशा जी और मीमांसा को साधुवाद |

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रंगमंच  समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान -1                                         राघवेन्द्र रावत  समकालीन हिंदी रंगमंच के बारे में बात बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध से भी की जा सकती थी लेकिन मुझे लगता है कि उससे पूर्व के भारतीय रंगमंच के परिवर्तन की प्रक्रिया पर दृष्टिपात कर लेना ठीक होगा | उसी तरह राजस्थान के समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करने से पहले भारतीय हिंदी रंगमंच पर चर्चा करना जरूरी है, और उससे भी पहले यह जानना भी आवश्यक है कि वस्तुतः रंगमंच क्या है ?और रंगमंच के बाद हिंदी रंगमंच और उसके बाद समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करना एक उचित क्रम होगा भले ही यह मेरे अध्ययन की गरज ही लगे | राजस्थान के रंगमंच पर बात करना इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि इस पर हिंदी साहित्य की तरह चर्चा नहीं हुई चाहे वह आलोचना की दृष्टि से देखें या इसके इतिहास की नज़र से देखें | दो वर्ष पहले ‘जयरंगम’ नाट्य समारोह के एक सेशन में बोलते हुए वरिष्ठ रंग एवं फिल्म समीक्षक अजित राय ने कहा था-“ पता नहीं कौन सा नाटक...

भूलन कांदा : न्याय की स्थगित तत्व- मीमांसा

वंचना के विमर्शों में कई आयाम होते हैं, जैसे- राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक इत्यादि। इनमें हर ज्ञान- अनुशासन अपने पक्ष को समृद्ध करता रहता है। साहित्य और कलाओं का संबंध विमर्श के सांस्कृतिक पक्ष से है जिसमें सूक्ष्म स्तर के नैतिक और संवेदनशील प्रश्न उठाये जाते हैं। इसके मायने हैं कि वंचना से संबंद्ध कृति पर बात की जाये तो उसे विमर्श के व्यापक परिप्रेक्ष्य से जोडकर देखने की जरूरत है। भूलन कांदा  को एक लंबी कहानी के रूप में एक अर्सा पहले बया के किसी अंक में पढा था। बाद में यह उपन्यास की शक्ल में अंतिका प्रकाशन से सामने आया। लंबी कहानी  की भी काफी सराहना हुई थी। इसे कुछ विस्तार देकर लिखे उपन्यास पर भी एक- दो सकारात्मक समीक्षाएं मेरे देखने में आयीं। ऐसी ही प्रतिक्रिया रणेन्द्र के उपन्यास ग्लोबल गाँव के देवता को भी मिल चुकी थी। किन्तु आदिवासी विमर्श के संदर्भ में ये दोनों कृतियाँ जो बड़े मुद्दे उठाती हैं, उन्हें आगे नहीं बढाया गया। ये सिर्फ गाँव बनाम शहर और आदिवासी बनाम आधुनिकता का मामला नहीं है। बल्कि इनमें क्रमशः आन्तरिक उपनिवेशन बनाम स्वायत्तता, स्वतंत्र इयत्ता और सत्त...

'ब्लड ऑफ़ दी कॉनडोर' [ Blood of the Condor]

सिने -संवाद                                                                            ' ब्लड ऑफ़ दी कॉनडोर'  [ Blood of the Condor]                                          मनीष आजाद 1960 का दशक भारी उथल पुथल का दौर था। पूरे विश्व में समाज के लगभग सभी शोषित तबके व वर्ग अपनी पहचान व अधिकार हासिल करने के लिए शोषणकारी व्यवस्था से सीधे टकराने लगे थे। साहित्य, कला, संगीत इससे मूलभूत तौर पर प्रभावित हो रहा था और पलटकर इस संघर्ष में अपनी भूमिका भी निभा रहा था। अपेक्षाकृत नई कला विधा सिनेमा भी इससे अछूता न था। इसी दशक में यूरोपियन सिनेमा में ‘नवयथार्थवाद’ की धारा आयी जिसने फिल्म की विषयवस्तु के साथ साथ फिल्म मेकिंग को भी मूलभूत तौर पर बदल डाला और यथार्थ के साथ सिनेमा का एक नया रिश्ता बना।  लेकिन...

लेखक जी तुम क्या लिखते हो

संस्मरण   हिंदी में अपने तरह के अनोखे लेखक कृष्ण कल्पित का जन्मदिन है । मीमांसा के लिए लेखिका सोनू चौधरी उन्हें याद कर रही हैं , अपनी कैशौर्य स्मृति के साथ । एक युवा लेखक जब अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी के उस लेखक को याद करता है , जिसने उसका अनुराग आरंभिक अवस्था में साहित्य से स्थापित किया हो , तब दरअसल उस लेखक के साथ-साथ अतीत के टुकड़े से लिपटा समय और समाज भी वापस से जीवंत हो उठता है ।      लेखक जी तुम क्या लिखते हो                                             सोनू चौधरी   हर बरस लिली का फूल अपना अलिखित निर्णय सुना देता है, अप्रेल में ही आऊंगा। बारिश के बाद गीली मिट्टी पर तीखी धूप भी अपना कच्चा मन रख देती है।  मानुष की रचनात्मकता भी अपने निश्चित समय पर प्रस्फुटित होती है । कला का हर रूप साधना के जल से सिंचित होता है। संगीत की ढेर सारी लोकप्रिय सिम्फनी सुनने के बाद नव्य गढ़ने का विचार आता है । नये चित्रकार की प्रेरणा स्त्रोत प्रकृति के साथ ही पूर्ववर्त...