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जटिल यथार्थ को पहचानने वाले स्पष्ट दृष्टिबोध के कवि : आर.चेतनक्रान्ति

कवि-कविता जटिल यथार्थ को पहचानने वाले स्पष्ट दृष्टिबोध के कवि : आर.चेतनक्रान्ति                                                           ■   कैलाश मनहर यह एक निर्विवाद सच्चाई है कि हमारे समय की कविता में सामाजिक यथार्थ की जटिलतायें,राजनैतिक विरोधाभास और छद्म,तथा पूँजीवादी वर्ग चरित्र के षड़यन्त्र पूरी सावचेती के साथ अभिव्यिक्त हो रहे हैं | सभ्यता के विकास के नाम पर आगे बढ़ने का ढोंग करते इस वैश्विक समाज में मानवीय जीवन की चाबी एक प्रकार के छलपूर्ण और प्रायोजित प्रबंधन के हाथों में दिखाई दे रही है जिसमें मनुष्य,प्रकृति और तमाम संवेदनाओं एवं भावनाओं तक को उत्पादकतामूलक उपयोगितावाद के कारागार में क़ैद कर दिया गया है | उपयोगितावाद हमारे समय की सबसे बड़ी त्रासदी है और जो इस उपयोगितावाद के लक्ष्य की पकड़ में नहीं आ पा रहा है,उसे बिल्कुल निरर्थक मानते हुये अस्वीकार कर दिया जाता है |  सभ्यता के विकास की इस कपटपूर्ण चालाकी और सामाजिक यथार्थ की इन जटिलताओं को पहचानने में आर.चेतनक्रान्ति की कवितायें पूरी कोशिश करती हैं और लगभग सार्थक रचना संसार के प्रति भी आशान्वित करती हैं |सभ्यता के विकास के न

‘आम’ और ‘ख़ास’ वर्ग की नब्ज़ टटोलती मानीखेज़ सच्चाइयों का तटस्थ अवलोकन '

कृति -चर्चा     ‘आम’ और ‘ख़ास’ वर्ग की नब्ज़ टटोलती मानीखेज़ सच्चाइयों का तटस्थ अवलोकन’                                              ● नीलिमा टिक्कू वरिष्ठ साहित्यकार, आलोचक,शिक्षाविद् डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल की पुस्तक ,’जो देश हम बना रहे हैं’ के शीर्षक से ही समझा जा सकता है कि लेखक वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों से किस कदर व्यथित हैं.एक बुद्धिजीवी व्यक्तित्व जो लम्बे समय तक उच्च शिक्षा से सम्बद्ध रहें हों उनके अनुभवों का निचोड़ अधिकांश निबंधों में दिखाई देता है। देश, हम नागरिकों से ही मिलकर बनता है। आम नागरिक की मूलभूत आवश्यकताओं के साथ उसके अधिकार-कर्तव्यों का बोध कराते निबन्ध जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में व्याप्त अव्यवस्था तो दर्शाते ही हैं ,आम इंसान को आत्ममंथन की ओर प्रेरित करते हुए एक ज़िम्मेदार नागरिक बनने की प्रेरणा भी देते हैं।इतना ही नहीं आम नागरिकों के साथ ‘ख़ास वर्ग’ को जगाने का महत्वपूर्ण कार्य करते सारगर्भित निबंध हमारी आँखें आँजने का काम करते हैं कहूँ तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। वर्तमान हालात की एक बानगी देखिए, “महकमें ख़ाली , न डॉक्टर हैं, न मास्टर, न न्यायाधीश।जहां कर्

मंजुला बिष्ट की कहानी' पराई जीभ'

संभावना    कैसे कहुँ कि इस कहानी को पढ़कर कैसी हूक उठी है। आत्मा के भीतरी भाग पर चोट करती यह कथा आज के दिन का हासिल रही। मुझे खुशी है कि मैंने यह कहानी पढ़ी । इस अद्भुत कहानी पर कुछ भी कह सकूँ इतनी क्षमता कहाँ हो सकेगी मेरी । फिर भी कुछ पक्तियाँ लिखनी ही होगी।  'पराई जीभ' एक साथ कई चीज़ों से रूबरू कराती चलती है। जीवन-मृत्यु, साथ-असाथ, आशा-निराशा, सपना-यथार्थ. एक संग कितना कुछ! इसे पढ़ते हुए एक विचित्र सी मनोदशा रही... एक प्रतिभावान मेधावी बालक धीरज जिसने अभी-अभी उत्कृष्ट अंकों से बारहवीं पास की है, जिसके तमाम सपने उसके सामने क्षत-विक्षत होते जा रहे हैं।उसका चाटर्ड अकॉन्टेन्ट बनना अब सपना मात्र रह गया है, वह देखता है सामने बिस्तर पर लेटे बीमार पिता लिवर सिरोसिस से जूझ रहे हैं। उसे अपने मजबूत पिता बेतरह याद आ रहे हैं, जिन्हें वो बचपन से देखता रहा है। उसकी जीभ पर बचपन में पिता की दी हुई टॉफ़ी का स्वाद है। एक क्षण को वह उस सुखद स्मृति में डूबता उतरता है तो अगले ही क्षण उसके सम्मुख एक त्रासद वर्तमान आ खड़ा होता है। वह जान गया है कि इतनी गम्भीर स्तिथि में भी उसके पिता छिपकर शराब पी रहे हैं

पेरिस कम्यून पर एक महत्वपूर्ण फिल्म-‘ला कम्यून’

सिने-संवाद  पेरिस कम्यून पर एक महत्वपूर्ण फिल्म -‘ ला कम्यून’                                                            - मनीष आज़ाद मशहूर फिल्मकार पीटर वाटकिन ने  1999  में पेरिस कम्यून पर एक फिल्म बनायी -‘ ला कम्यून’। साढ़े पांच घण्टे की यह फिल्म इतिहास के किसी कालखण्ड पर बनी अब तक की सबसे विश्वसनीय फिल्मों में से एक है। पेरिस व आसपास के कस्बों से कुल  220  लोगों को लेकर एक उजाड़ फैक्ट्री प्रांगण को सेट के रूप में बदल कर यह फिल्म बनायी गयी। इन  220  लोगों में करीब  60  प्रतिशत लोगों के लिए अभिनय का यह पहला मौका था। यह फिल्म इस रूप में भी अद्भुत है कि इसे आज  ( यानी तब  1999  में )  के सवालों से टकराते हुए बनाया गया है। ‘पेरिस कम्यून’ पर फिल्म बनाने का कारण बताते हुए पीटर वाटकिन कहते हैं कि  - ‘‘ आज हम मानव इतिहास के सबसे बुरे दौर में प्रवेश कर रहे हैं। जहां उत्तरआधुनिक निराशावाद ने मानवतावाद और आलोचनात्मक चिन्तन को ढक लिया है। बाजारवाद और उपभोक्तावाद ने लोगों को लालच की गिरफ्त में ले रखा है………………………………………… . जहां नैतिकता  ,  सामूहिकता ,  प्रतिबद्धता को ‘पुराना फैशन’ मान लिया गया है।

एक कविता हूँ मैं अधूरी सी

  सम्भावना आस्था दीपाली की पंक्तियाँ हैं एक कविता हूँ मैं अधूरी सी । जाहिर हैं कि उन्हें अपने अधूरेपन का अहसास हैं और इसकी स्वाभाविकता का भी! उनकी कविता में केवल शहरी दुनिया का ही प्रतिबिंबित नहीं हैं बल्कि खुद को खोजने की एक अनवरत प्रक्रिया हैं। स्त्री की तमाम जद्दोजहद के बावजूद वे उसे वसंत संबोधिता करती है। मंदिर में प्रार्थना करने वाले से प्रार्थना करते भिक्षुकों के माध्यम से वे एक दारुण सत्य को सामने लाती है। महा-आपदा के दिनों में कार्मिकों के‌ पलायन पर आस्था ने अपनी ही तरह द्रष्टिपात किया है। लाकडाउन में परिवार का बिम्ब बहुत आत्मीय है। बुरे दिनों में सबका ख्याल रखती मां है। प्रेम को आस्था एंटीडोट की तरह प्रतिपादित करती है तो वारिस में संगीत सुनती है 1. मैं **** एक पहेली हूँ मैं अनसुलझी सी, एक कविता हूँ मैं अधूरी सी, एक कहानी हूँ मैं अनकही सी, एक किताब हूँ मैं बरसों पुरानी, जिसके पन्ने कुछ भरे कुछ खाली कुछ अधूरी पंक्तियों से भरे विचारों में उलझे नए विषयों और सही शब्दों की तलाश में बिखरे पड़े है बेहिसाब...! उम्मीद है, कि एक दिन ऐसा आएगा जब दिल के अक्षरों को दिमाग के विचारों के साथ शब