सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

जून, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

साहित्य, सांस्कृति एवं समाज: एक दृष्टि- प्रो. आशा कौशिक

प्रो. आशा कौशिक एक स्त्रीवादी विदुषी के साथ समर्थ एक्टिविस्ट हैं। वे राजस्थान विश्वविद्यालय के विभिन्न निकायों और राजस्थान विश्वविद्यालय वीमेन एसोसिएशन (RUWA) में समान रूप से सक्रिय रही हैं। उन्होंने राज्य की महिला नीति बनाने में अहम भूमिका निभाई है। उनके लेख प्रतिष्ठित अकादमिक पत्रिकाओं में छपे हैं। प्रस्तुत लेख साहित्य और संस्कृति के आवयविक संबंध को रेखांकित करता है। साहित्यिक चेतना सामाजिक चेतना का ऐसा वहै, जो स्वनिर्धारित, स्वायत्त कलेवर रखते हुए भी बद्धमूल है। सामाजिक संबंधों के परिवेश की असीमित असंगतियां, सभावनाएं साहित्य सृजन के लिएउर्वम है, चुनौतीपूर्ण परिदृश्य भी। इसका यह तात्पर्य कतई नहीं है कि सामाजिक विश्लेषण की सहायक विध्या है। कला की अन्त:विहित सम्पूर्णता एवं कल्पनाशील विशिष्टता उसे एक मानक का दर्जा प्रदान करती है। साहित्यकार की अनुभूति में प्रचलित सामाजिक मूल्यों, मानकों, संबंध संरचनाओं की व्याख्या, पुनव्य्याख्या मे संवेदनशील-परख की अनूठी क्षमता होती है। यह क्षमलता सामाजिक सरोकारों से संलग्नता में निखरती है। जब साहित्य, मूर्त संदर्भी में मूर्त व्यक्तियों की आशा-निराशा, आ

कथौड़ी समुदाय- सुचेता सिंह

शोध कथौडी एक ऐसी जनजाति है जो अन्य जनजातियों से तुलनात्मक रूप से पिछड़ी और उपेक्षित है। यह अल्पसंख्यक जनजाति महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान के कुछ अंचलों में छितरायी हुई है। दक्षिण राजस्थान में इनके हालात प्रस्तुत कर रही हैं अध्येता सुचेता सिंह। दक्षिण राजस्थान के आदिवासी क्षेत्र में कथौड़ी जनजाति है जो वहां रहने वाली जनजातियों में सबसे कम संख्या में है। एक शोध रिपोर्ट के अनुसार इस जनजाति समुदाय की वृद्धि दर दशक वार घट रही है। 'ये लोग कैथ के पेड़ से कत्था निकालने का काम करते थे जो पान में लगाया जाता है इसलिए इनका नाम कथौड़ी पड़ा।' वैसे ये लोग कत्था बनाने के साथ-साथ बहुत से वन सम्बन्धी कार्य करते हैं, जैसे-बांस कटाई एवं दुलाई, वृक्ष कटाई, वन उपज संग्रहण, वन्य जीव आखेट, हाथ औजार निर्माण तथा वन औषध उपचार आदि। राजस्थान में इन लोगों का इतिहास कोई अधिक पुराना नहीं है। इन्हे महाराष्ट्र से इस क्षेत्र में कत्था उत्पादन और वन कटाई के लिए लाया गया। ऐसा अनुमान है कि जंगल के ठेकेदार इन्हे कोंकण महाराष्ट्र से यहां लेकर आये। ऐसा लगता है कि पूर्व में भी ये घुमक्कड़ जीवन जीते थे। इनकी बसाहटें म

कुकुछीना स्मृतियां - राजाराम भादू

प्रो. लालबहादुर वर्मा का असमय जाना बहुतों की तरह मेरे लिए भी वैयक्तिक क्षति है क्योंकि मेरे लिए भी वे मेन्टर व गाइड की तरह रहे, हालांकि मैं उनसे उतना संपर्क- संवाद में नहीं था। उनके साथ मेरी कुकुछीना की स्मृतियाँ अहम रही हैं, जहाँ मैं ने उन्हें कई रंगतों में देखा। वहाँ वे हरेक से व्यक्तिगत आत्मीय बातचीत कर रहे थे। सबसे हंसी- मजाक करते बोल- बतिया रहे थे तो कोरस में गा रहे थे और मधुर धुनों पर समूह- नृत्य में भी भागीदारी कर रहे थे। वे जितनी चिन्ता से प्रबंधन की छोटी- छोटी जिम्मेदारियां संभाल रहे थे तो उतनी ही गंभीरता से विभिन्न सत्रों का संयोजन देख रहे थे। उनके उद्बोधन तो सदा अनुप्राणित करने वाले होते ही थे। उत्तराखण्ड की दूनागिरि पर्वतमाला में यह सुरम्य स्थान वर्मा जी ने ही खोजा था। कभी यूं ही भ्रमण करते वे इधर आ निकले थे और यह जगह उन्हें इतनी भायी कि अगले वर्ष से यहां मित्रों का एक समागम करने का तय किया जो तीन बार आयोजित किया गया। इसे मूर्त रूप देने में कुकुछीना के नेत्र वल्लभ जोशी का विशेष योगदान रहा। कुकुछीना को दो तरफ से घेरे दूनागिरि पर्वत के एक सिरे पर महावतार बाबाजी की गुफा है जिस